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गुनहगार

गुनहगार

संसदीय चुनावो का माहौल था। जैसे-जैसे मतदान की तिथि पास आ रही थी, राजनैतिक पारा चढ़ रहा था। मतदाताओ से व्यक्तिगत संपर्क के साथ ही साथ जन सभाओ और चुनावी रैलियों के आयोजनो ने अप्रत्याशित तेजी पकड़ ली थी। कस्बे के रमना पार्क मंे उस दिन भी एक विशाल जनसभा प्रस्तावित थी। राष्ट्रीय राजनीति में विशिष्ट पहचान बना चुके एक कद्दावर नेता सभा को सम्बोधित करने आ रहे थे। स्थानीय लोगो में उनके आगमन को लेकर गजब का उत्साह था... एक तो उनकी भाषण कला का सम्मोहन कुछ ऐसा था कि लोग काम-धाम छोड सुनने निकल पड़ते थे और फिर दूसरी पते की बात ये कि हिमालय की तलहटी में बसा अत्यन्त पिछड़ा क्षेत्र उनको पाकर गौरवान्वित हो उठता था। आखिर ये जगह उनकी राजनैतिक जन्मभूमि जो ठहरी! कई दशक गुजर जाने के बाद भी इस रिश्ते पर वक्त की धूल न जमने पायी थी... यहाँ के बाशिन्दो से लगाव का जिक्र वह अपने सम्बोधनो में बार-बार करते। उनके आत्मीय शब्द सीधे मन पर दस्तक देते थे क्यो कि उनमें आम भाषणो जैसी कृत्रिमता जरा भी नही होती थी। यहाँ बोलते-बोलते अक्सर उन पर पड़ा असाधारण राजनेता का मोटा आवरण हट जाता और उसके पश्चात उनकी जो तस्वीर उभरती, वह एक ऐसे सरल व मिलनसार व्यक्ति की होती, जो बच्चे की तरह स्मृतियो की पगडण्डी पर विचरने को ललक उठता। अपने राजनैतिक कौशल व वक्तृव्य कला से देश भर को चकित कर देने वाला शिखर पुरूष प्राथमिक पाठशाला सरीखी उस भूमि पर पहुँच भावुक हुए बिना नही रह पाता था, जहाॅ युवा संगी-साथियों की मंडली में बैठकर उसने कभी राजनीति की क-ख-ग सीखी थी। वैसे तो राष्ट्रीय राजनीति का अहम हिस्सा बनने के बाद से उनका यहा आना बहुत सीमित हो गया था। फिर भी जनसाधारण पर उनके व्यापक प्रभाव में कही कोई कमी न आयी थी। उनका तिलिस्म आज भी लोगो के सिर चढ़ कर बोलता था। उनकी सभा में अथाह जनसमूह तो उमड़ता ही था, उसके सम्पन्न होने के बाद भी कई दिनो तक चैक-चैराहो और गाव-चैपालो में उसकी चर्चा छिड़ी रहती... जब कभी इस बातचीत में एक जमाने में उनके अभिन्न सहयोगी रहे पुराने लोग शामिल हो जाते, तो फिर वे नेता जी के साथ क्षेत्र में की गई कई चुनावी पद यात्राओ से लेकर उनके सरल व्यक्तित्व से जुड़े तमाम संस्मरण सुनाते न अघाते। एक-आध भावुक प्रसंग ऐसे भी आ जाते, जिन पर इन बुजुर्गो की आखें नम हो जाती। साथ ही उनमें इस बात की कसक दिखती कि अब चाहकर भी उनसे मिलना नही हो पाता। चारो ओर मुस्तैद रहने वाली तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था ने उन्हे इन अपनो से दूर कर दिया था। ... पर स्मृतियो के दीपक न तो सानिन्ध्य रूपी तेल के मोहताज होते है और न ही उन्हे वक्त का बड़े से बड़ा चक्रवात बुझा पाता है। वो तो अनवरत जलते रहते है... जिन्दगी की आखिरी साॅस तक।

सवेरे से सड़क पर गहमागहमी दिख रही थी, जो दिन चढ़ने के साथ बढ़ती ही जा रही थी। जीप पर लगे लाउडस्पीकर नेताजी के जल्द से जल्द सभा स्थल पर पहुँचने की सूचना दे रहे थे। बैंनरो से सुसज्जित, हाथो में पार्टी का झंड़ा लिए, ‘जिन्दाबाद-जिन्दाबाद‘ के नारे लगाते कई जत्थे गुजर चुके थे। इनमें बड़े-बूढ़े, महिलाओ के साथ बच्चे भी अच्छी तादाद में थे। ये बच्चे प्रसन्न भाव से इस तरह उछल-कूद करते चल रहे थे, मानो मेले में जा रहे हो। सिविल लाइन्स मोहल्ले में रहने वाले बारह वर्षीय विशाल का बाल मन भी वहा जाने को मचल रहा था। मौका अच्छा था। परिस्थितिया उसके बिल्कुल अनुकूल थी। उसके मामा काम धन्धे के सिलसिले में कानपुर गये थे और मम्मी हर रोज की भाॅति मोहल्ले के जनसम्पर्क अभियान पर निकल गयी थी। उसने पड़ोस के मित्र महेश की खूब खुशामद की। महेश जाने को तैयार न हुआ, पर अपनी साइकिल उसे दे दी। वह सभा स्थल की ओर रवाना हो गया।

वहा जनसैलाब उमड़ रहा था। नेताजी का भाषण शुरू हो गया था। वहा पहुँच कर ही उसे पता चला कि साइकिल में ताला नही है। मजबूरी में उसे बार रूकना पड़ा। झुंझलाहट से भरा वह श्रोता बना खड़ा था। नेताजी की भाषण शैली उसे प्रभावित कर रही थी। उसका मन भीड़ में घुसकर उन्हे करीब से देखने को ललक रहा था। भाषण जारी था-‘‘... चुनावो के समय जब भी मेरा प्रदेश का दौरा लगना होता है, तो मैं चुनाव प्रबन्धन से जुड़े पदाधिकारियो से स्पष्ट कह देता हू.. देखना भई, कही मेरी राजनैतिक जन्मभूमि छूट न जाये। यहाँ का चक्क्र लगाये बिना मेरा चुनावी दौरा पूरा ही नही होता। इस पावन भूमि पर पहुँचकर जो मानसिक संतुष्टि मिलती है, वह अद्भुत होती है... अनवरत राजनैतिक व्यस्तताओ और तमाम हवाई यात्राओ के बीच भी छोटी लाइन पर पड़ने वाले इस छोटे से रेलवे स्टेशन को मैं कभी भूल न पाया। सामने कुर्सी पर बैठे दिख रहे बुजुर्गो के समूह में से लगभग सभी को मैं नाम से जानता पहचानता हॅू... प्रत्येक चेहरे में वो चुम्बकीय शक्ति विद्यमान है, जो मुझे अतीत की ओर खींचकर ले जाती है... कभी इन सबका घर ही मेरा घर हुआ करता था और उस वक्त मेरी एक मात्र जमापूंजी थी, इन लोगो का अभूतपूर्व पे्रेम व सहयोग। इसी के बल बूते इतना लम्बा सफर तय कर पाया हॅू.. बड़ा अटूट रिश्ता है मेरा यहाँ से ... मुंशियाइन के पेड़े की मिठास और काला नमक चावल की महक मन में जस की तस बसी है... मेरे आगे ये जो बाल गोपालो की, नौजवानो की उत्साही फौज खड़ी दिख रही है... ये सब तो तब पैदा ही नही हुए थे जब मैं यहाँ से चुनाव लड़ा करता था... रिश्ते में इनमें से किसी का मैं नाना लगता हॅू तो किसी का दादा...‘‘

... इस मर्मस्पर्शी पंक्ति ने विशाल की दुखती रग को छू लिया था-हमजोलियों को दादाजी के साथ चुहलबाजी करते, दुलराते देखता, तो मन में टीस सी उठती कि काश! मेरे भी दादा जी होते। उससे रहा न गया और वह भीड़ में घुस गया। इन दादाजी को देख लेने की इच्छा चरम पर जा पहुँची थी। दर्शक की भूमिका में पहॅुचकर वह रोमांचित था। अब उसे मंच पर चल रही गतिविधियां स्पष्ट दिख रही थी... श्वेत कुत्र्ता-धोती पहने सामान्य कद-काठी के दादाजी उसे विलक्षण पुरूष लग रहे थे। चेहरे का अजब आकर्षण और उस पर रह-रहकर खिलती सहज मुस्कान... वह अभिभूत खड़ा उन्हे बस विस्मय से देखता रह गया। जीवन में पहली बार वह इतने सम्मोहक बुजुर्ग को देख रहा था, वो भी अपने दादाजी के रूप में। फूले नही समा रहा था वह। यद्यपि उन्हे इस तरह से देखना-सुनना बेहद मनोहारी प्रतीत हो रहा था, परन्तु साइकिल की चिन्ता ने उसका पीछा न छोड़ा था। मन मारकर वह भीड़ से निकल आया। बाहर आकर देखा, तो साइकिल अपनी जगह से नदारद थी। उसे काटो तो खून नही। उसका सिर चकराने लगा। और वह फूट-फूट कर रोने लगा।

वही ड्यूटी पर तैनात एक सिपाही ने उसे इस हाल में देख पास बुलाया। पैर जैसे उसका साथ नही नही दे रह थे। किसी तरह घिसटता हुआ वह आगे बढ़ा।

‘‘ क्या बात है? इस तरह से रो क्यों रहे हो...?‘‘

सिपाही ने पूछा तो उसने रोते-रोते अपनी व्यथा सुना दी। कुछ क्षण तक वह अधेड़वय सिपाही बच्चे के चेहरे को देखता रहा और फिर बोला,

‘‘ जाओ, घर चले जाओ... बेटा! अपने माँ-बाप को सब सही-सही बता देना... कोई कुछ नही कहेगा...‘‘

‘‘ साइकिल के बिना मैं घर वापस नही जा सकता। मेरे माँ-बाप नही है... मैं मामा के यहाँ रह रहा हू.... साइकिल भी मेरी खुद की नही है, पड़ोस से माँग कर लाया था... मामी मुझे बहुत मारेगी...‘‘ बच्चे की बात सुन वह कुछ सोच में पड़ गया।

‘‘ देखो, बेटा! तुम्हे इस तरह साइकिल छोड़कर नही जाना चाहिए... मार खाने का इन्तजाम तो तुमने कर ही लिया है... अच्छा, तुम ऐसा करो, बिना ताले की कोई साइकिल यहाँ से उठा लो और चलते बनो...‘‘

बच्चा अवाक् खड़ा उन्हे देखता रहा। बड़ी-बड़ी मूछों व चैड़े माथे वाले उस सिपाही के रोबीले मुख पर दया के भाव बिखरे थे। आंखो में करूणा व सहानुभूति तैर रही थी। उसमे कुछ साहस का संचार हुआ। बिना ताले की कोई दूसरी साइकिल खोजने के अभियान में वह मुस्तैदी से जुट गया। बिना समय गंवाये। जब वह अपनी साइकिल से मिलती दूसरी साइकिल उठाकर चलने लगा, तो सिपाही ने उसे रोक कर कहा, ‘‘ मेरा नाम राम प्रसाद है... देहात थाने में दीवान हू। इस साइकिल को लेकर कोई तुम्हे परेशान करे, तो मुझसे आकर मिल लेना। एक बात और... बेटा भूलकर भी ऐसा न सोचना कि चोरी-चकारी में मेरा विश्वास है और मैं तुम्हे चोरी करना सिखा रहा था। मैं तो बस तुम्हे इस संकट से उबारने के लिए यह सब कर रहा हॅू... बच्चे मुस्कराते ही अच्छे लगते है। जिसकी साइकिल तुम लेकर जा रहे हो, यदि वह तुम्हारी तरह बेबस व मजबूर दिखा, तो उसे मै अपनी साइकिल दे दूॅगा... अच्छा, अब जाओ...‘‘

वह साइकिल लेकर वहां से सरपट भागा। नेताजी का भाषण अब भी जारी था।

इस घटना को कोई सत्रह वर्ष बीत चुके है। वह छोटा कस्बा आज व्यस्त शहर की शक्ल ले चुका है। यहाँ के आम शहरी में अब चुनावी रैलियो को लेकर जरा भी उत्साह नही दिखता। इसकी वजह सम्भवतः यही है कि राजनीतिज्ञ अपनी विश्वसनीयता खो चुके है और उनके कथनी करनी के फर्क को सब बखूबी समझ चुके है। अब रैली के आयोजको को गाॅव-देहात की दौड़ लगानी पड़ती है। वहा से बस और ट्रालियों में भर-भर कर कार्यकत्र्ताओं को लाना पड़ता है, जब जाकर कही सभाओ में ‘‘इज्जत बचाऊ‘‘ भीड़ जुटती है।

सत्रह वर्ष का समय अन्तराल थोड़ा नही होता। इस अवधि में देश-दुनिया के साथ ही मेरी इस कहानी के प्रमुख पात्रो के जीवन में उतार-चढ़ाव के बीच कुछ उल्लेखनीय पल आये, जिन्हे पाठको तक पहॅुचाना मैं अपना लेखकीय धर्म समझता हॅू....

नेताजी (दादाजी!) ने अपने राजनैतिक सफर में नई ऊचाईयां हासिल की। कई कीर्तिमान स्थापित किये और सत्ता के शिखर पर विराजमान हुऐ। अपनी कार्य कुशलता और संगठन क्षमता से उन्होने सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकृष्ट किया और चहुओर सराहे गये। फिलहाल, वह सक्रिय राजनीति से सन्यास की घोषणा कर चुके है।

सिपाही राम प्रसाद का तबादला कुछ वर्षाे पश्चात् प्रदेश में नवगठित ‘ स्पेशल टास्क फोर्स ‘ में हो गया। जहाॅ जान पर खेलकर कई इनामी बदमाशो को उन्होने मौत की नींद सुलाया और दो बार गोलियां लगने से गम्भीर रूप से घायल हुऐ। सेवानिवृत्ति से कोई दो माह पूर्व उन्हे ‘पुलिस वीरता पदक‘ से सम्मानित किया गया... मेडल लेते हुए उनकी फोटो कई अखबारो के मुख्य पृष्ट पर छपी।

विशाल कठोर संघर्ष और अदम्य इच्छा शक्ति के बलबूते पढ़ लिख कर प्रशासनिक अधिकारी बना। जिस जिले में उसकी तैनाती होती है, वहा वह अपनी न्यायप्रियता व सहृदयता के लिए जाना जाता है। आम जन के लिए उसके आफिस व आवास के दरवाजे हमेशा खुले रहते है और वह उनके दुःख-दर्द को बड़ी शिद्दत से महसूस करता है।

बदलाव की इस आंधी में यदि कुछ अपरिवर्तित है, तो वो है- विशाल की सोच... उसका कृतज्ञ भाव। उम्र व शिक्षा ने आज भले ही उसमें इतनी समझ पैदा कर दी है कि उस सिपाही ने बेहद असहाय दिख रहे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया था, वो कानून की नजर में सरासर गुनाह था। फिर भी, उसका दिल आज भी उसे गुनहगार मानने को तैयार नही।