Mahatirth in Hindi Short Stories by Lata Agrawal books and stories PDF | महातीर्थ

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महातीर्थ

महातीर्थ

बेटी के ब्याह से निवृत हुई तो साथियों ने बधाई दी ‘चलो गंगा नहा ली’ | हाँ ! आज बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त होना किसी तीर्थ से कम नहीं | लगा क्यों न इसे क्रियात्मक रूप दूँ अत: पति महोदय से तीर्थयात्रा की मंशा व्यक्त की तो फौरन स्वीकृति की मोहर लग गई | कुछ मित्रों ने भी सहजता से मंजूरी दे दी | पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ कर हम लोगों ने तीर्थयात्रा का दिन निश्चित किया, अपनी योजना में किसी प्रकार का विघ्न न देख यकीं हुआ की यदि कुछ दिल से चाहो ओ सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने में जुट जाती है | नियत दिन शुभ मुहूर्त पर यात्रा आरम्भ कर हम भोपाल से निकले अभी रायसेन रोड पर ही पहुंचे थे कि जाम लगा मिला |

“लगता है कोई दुर्घटना घट गई है | ” कहते हुए बस के सारे पुरुष पड़ताल हेतु नीचे उतर गये |

‘कोई युवा है बेचारा ! पता नहीं किस घर का चिराग है | ’ भीड़ से स्वर उभरा | इतना सुनते ही पतिदेव स्वयं को रोक नहीं पाए भीड़ को चीरते हुए घटना स्थल पर पहुँच गए | सामने रक्त रंजित युवा बेहोश पड़ा था चारों ओर से भीड़ ने उसे घेर रखा था | कोई मोबाईल से वीडियो बना रहा था. कोई फोटो ले रहा था तो कोई अटकलें लगा रहा था आखिर यह घटना घटी कैसे...?

“अरे! यह गंभीर अवस्था में है इसे फौरन अस्पताल ले जाना होगा | ” इन्होने कहा | मगर भीड़ से कोई प्रतिक्रिया न देख इनकी बैचेनी बढ़ने लगी |

“१०८ को फोन कर दिया है आती होगी | ” किसी ने कहा |

“मगर इसे हम १०८ के भरोसे तो नहीं छोड़ सकते | चलो हम ही लिए चले हैं | ” इतना कहते ही धीरे -धीरे भीड़ छटने लगी, साथ ही भीड़ से मिला जुला स्वर उभरा,

“इनसे मिलिए, आ गये हातिमताई | ” भीड़ छट चुकी थी रास्ता कुछ साफ हुआ तो ड्रायव्हर ने आवाज लगाई,

“अरे ! चलिए सर जी, वैसे ही काफ़ी लेट हो गये | ’ मगर इन्हें कुछ सुनाई ही कहाँ दे रहा था |

“नहीं यार ! पहले इस बच्चे को अस्पताल पहुंचा दें फिर चलते हैं | चोट गहरी है अगर समय पर सहायता न मिली तो अनर्थ हो जायेगा | ”

“अरे ! क्यों चिंता करते हो हमारी सरकार ने १०८ की व्यवस्था इसीलिए तो की है| ” बस में सभी उतावले हो रहे थे | इन्होने दो टूक जवाब दे दिया,

“आप लोग अपनी यात्रा आरम्भ करें, मैं बच्चे को लेकर अस्पताल ले जा रहा हूँ,” साथ ही मेरे लिए भी हिदायत थी,”तुम भी सबके साथ चलो मैं बाद में ज्वाइन करा हूँ | ” सीता ने कब राम के बिना स्वर्ग स्वीकारा है ? सो मैं भी उस उक्ति को स्मरण कर उनके साथ हो ली कि, ‘मन का हो तो अच्छा न हो तो और भी अच्छा क्योंकि उसमें ईश्वर की मर्जी शामिल होती है, ईश्वर हमारा कभी अहित नहीं करेंगे | ’ १०८ नहीं पहुंची आखिर एक रिक्शा रोक हम उस बालक को नेशनल हॉस्पिटल ले गए | आनन फानन में उसे भर्ती तो कर लिया मगर डॉक्टर द्वारा मरीज से हमारा सम्बन्ध और पता पूछने पर हम बच्चे की जेबें टटोलने लगे, कोई मोबाईल नम्बर, आई कार्ड...’ये किस जमाने का बच्चा है मोबाईल तक नहीं !’

मन में एक आशा थी बालक जल्द होश में आ जाये तो उसे उसके परिजनों को सौंपकर अपनी यात्रा पुन: आरम्भ करें | आखिर अगले जन्म के खाते में कुछ तो अर्जन करना था न |

श्रीमान की पीड़ित बालक के प्रति सम्वेदना के बारे में बताती चलूं, दरअसल कुछ साल पहले अपने छोटे भाई को सड़क हादसे में खो चुके श्रीमान को जब यह पता चला कि उनका भाई दुर्घटना के बाद भी दो घंटे जीवित रहा अगर समय पर डाक्टरी सहायता मिल जाती तो शायद वह बच जाता | मगर किसी ने उसकी सुध न ली वह सड़क पर छटपटाता रहा | यही अफ़सोस उन्हें कचोटता है, जब कभी किसी को लहूलुहान देखते हैं तो इसी तरह बैचेन हो सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं | आज इस हादसे ने उनकी यादों को पुन: जीवित कर दिया कारण वह युवा भी लगभग इसी उम्र का था |

डाक्टर ने सिर में गंभीर चोट बताई और फौरन इलाज करने को कहा वरना जान को खतरा हो सकता था, इस हेतु कुछ अग्रिम राशि जमा करनी थी इन्होने मुझे आदेश दिया,

“तुमने कुछ नगद रूपये रखे थे सफर के लिए... वो काउन्टर पर जमा कर दो | ” दो दिन के बाद बालक को होश आया तब तक ये उसकी सेवा में तन-मन -धन से जुटे रहे | पिछले जन्म का कोई रिश्ता था शायद | जयेश नाम था उसका | बिहार के एक छोटे से गाँव से भविष्य की तलाश में निकला जयेश बेहद गरीब परिवार से है | भोपाल में पढ़ाई के साथ बच्चों को ट्यूशन कर अपना खर्च चलाता है उस दिन भी ट्यूशन से लौट रहा था कि किसी अंजान वाहन ने टक्कर मार दी |

“ घर से इतनी दूर हो,कम से कम मोबाईल तो रखा करो | ”

“आंटी जी ! मैं मोबाईल का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं, घर बात करनी होती है पी सी ओ से कर लेता हूँ | ” खबर पाकर जयेश के पिता आ गये थे, कृतज्ञता जाहिर कर रो पड़े,

“इसमें एहसान कैसा मैं न होता कोई और होता, ईश्वर को काम करना था सो मैं निमित्त बना | ”

“मगर अंकल, आंटी आपकी तीर्थयात्रा मेरी वजह से अधूरी रह गई | ”

“तुम इसकी चिंता मत करो जयेश ! अब तुम पिता के संग जाओ पूरी तरह से स्वस्थ होकर लौटना | ”

जयेश चला गया | चार दिन बीत गये थे, यात्रा पर जाने का मूड टल गया था | दिसम्बर की गुलाबी ठण्ड में शाम का सिंदूरी सूरज थके कदमों से अपना साम्राज्य समेट रहा था | टेलीविजन के आगे बैठी अपने दिन की यात्रा को अंजाम दे रही थी सच कहूँ तो खुद को बहला रही थी | पीछे से दबे पांव आकर इन्होंने मेरे कंधों पर हाथ रखा,

“क्या सोच रही हो वसु, अपनी यात्रा के बारे में...?”

“ उ... नहीं तो | ”

“सॉरी वसु ! मेरी वजह से तुम्हारी यात्रा अधूरी रह गई | ”

“ऐसा क्यों कहते हैं आप,मैं खुश हूँ ईश्वर ने हमें एक नेकी का हक़दार बनाया | ” मेरे इतना कहते ही इन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लिया,

“ सच कहूँ वसु तो ईश्वर ने उस बालक के निमित्त हमें यहीं तीर्थ का पुण्य दे दिया | अच्छा बताओ हम तीर्थ क्यों करते हैं...?”

“अपने परिवार की मंगलकामना के साथ –साथ ईश्वर के निकट हो सकें | ” अचानक जयेश के पिता के वे शब्द मेरे हृदय को तृप्त कर रहे थे,

“मुझ गरीब के बुझते चिराग को रौशनी दी है आपने, ईश्वर आपके बच्चों का जीवन खुशियों से भर दे | कुल को बरक्कत दे....”

“आपने तीर्थ नहीं जी महातीर्थ कराया है मुझे | ” अब मेरे मन से धुंध छट चुकी थी |

डा. लता अग्रवाल