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भारतीय फिल्म जगत के संस्थापक

भारतीय फिल्म जगत के संस्थापक

आशीष कुमार त्रिवेदी

'लाइट… कैमरा… ऐक्शन' इन तीन शब्दों को सुनते ही फिल्मों की याद आती है। भारतीय फिल्म जगत ने दुनिया भर में अपना एक विशेष स्थान बनाया है। भारतीय फिल्मों के निर्देशक, कलाकार, व अन्य तकनीकि से संबंधी लोगों ने विश्व भर में ख्याति अर्जित की है।

भारत में फिल्म जगत बहुत बड़ा है। इसमें हिंदी, तमिल, तेलगू, मलयालम, बंगाली तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं एवं बोलियों की फिल्मों का निर्माण किया जाता है। कई कलाकार अपना हुनर दिखाने की ख़्वाहिश लिए हर साल फिल्म जगत की ओर खिंचे चले आते हैं।

पर आपने कभी सोंचा है कि वह कौन सा व्यक्ति था जिसने पहली बार भारत में फिल्म बनाने का विचार किया। फिल्में बनाने की प्रेरणा कहाँ से मिली होगी। इस आरंभ में क्या क्या कठिनाइयां आई होंगी।

भारतीय फिल्म जगत की स्थापना करने वाले उस महान व्यक्ति के नाम पर फिल्म जगत में सबसे प्रतिष्ठित सम्मान 'दादा साहेब फाल्के' दिया जाता है। यह सम्मान भारतीय फिल्म जगत में अपना बहुमूल्य योगदान देने वालों को प्रदान किया जाता है।

भारतीय फिल्म जगत के संस्थापक का नाम था धुंदीराज गोविंद फाल्के। जिन्हें हम सब दादा साहेब फाल्के के नाम से जानते हैं। इनका जन्म 30 अप्रैल 1870 में महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग 20-25 किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर में हुआ था। पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। वह मुम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत थे।

फाल्के का झुकाव छोटी उम्र से ही कला की तरफ था। इन्होंने सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से प्रशिक्षण प्राप्त किया। फाल्के बहुत ही सृजनशील प्रवृत्ति के थे। वह रंगमंच पर अभिनय करते थे। शौकिया तौर पर जादूगरी भी सीखी। फोटोग्राफी का कोर्स करने के बाद फाल्के ने इसी क्षेत्र में काम करना शुरू किया। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। लेकिन अपनी पहली पत्नी की मृत्यु हो जाने पर फाल्के ने यह काम छोड़ दिया। कुछ दिनों तक उन्होंने भारतीय पुरातत्व विभाग में ड्राफ्टमैन का काम भी किया।

उसके बाद फाल्के ने प्रिंटिंग के व्यवसाय में भाग्य आज़माया। प्रिंटिंग के काम के ज़रिए ही वह महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के संपर्क में भी आए। इस काम की सही तकनीकि जानने एवं मशीनों को खरीदने के लिए वह जर्मनी तक गए। लेकिन उनके पार्टनर ने अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया। 40 साल की आयु में उन्हें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। इससे इनका मन व्यवसाय से उचट गया।

इन्हीं सब परेशानियों के बीच फाल्के को एक विदेशी मूक चलचित्र "लाइफ ऑफ क्राइस्ट" देखने का मौका मिला। यह एक पूरी फीचर फिल्म थी जिसमें ईसा मसीह के जीवन चरित्र का वर्णन था। चलचित्र देखते समय फाल्के के मन में विचार आया कि भारत में राम, कृष्ण जैसे महान पौराणिक चरित्र हैं। रामायण एवं महाभारत जैसे ग्रंथों में अनेक कहानियां हैं। इन पर भी ऐसी फीचर फिल्में बनाई जा सकती हैं। वहीं से उनके दिल में फिल्म निर्माण करने का बीज रोपित हुआ।

फाल्के दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। जो ठान लेते थे उसे पूरा करने में पूरी शक्ति लगा देते थे। फिल्म निर्माण के लिए भी उनके भीतर ऐसा ही जुनून था। अतः उन्होंने निश्चय किया कि चाहें कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े किंतु वह पीछे नहीं हटेंगे।

फाल्के ने इस संबंध में तैयारी करनी आरंभ कर दी। फिल्म निर्माण के बारे मे अधिक जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने इस विषय पर उपलब्ध कई पत्र पत्रिकाओं का अध्ययन किया। वह अत्यधिक शोध करने लगे। इसके कारण उन्हें आराम का कम समय मिल पाया। शोध कर्म व अध्ययन में निरंतर लगे रहने का फाल्के के शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वह बीमार पड़ गए। कहा बीमारी के बावजूद भी उनका जुनून कम नहीं हुआ।

फाल्के के मित्र उनके इस जुनून की खिल्ली उड़ाते थे। अतः अपने को साबित करने के लिए उन्होंने अपने प्रयोग जारी रखते हुए ‘मटर के पौधे’ के विकास कालक्रम का छायांकन कर फ़िल्म बनाई। इस प्रकार उन्होंने अपने को सिद्ध कर दिया। बाद में अपने इन अनुभवों का उन्होंने फ़िल्म निर्माण के दौरान प्रयोग किया।

उस समय तक फिल्मों का निर्माण केवल विदेशों में होता था। भारत में उस समय फिल्म बनाने के लिए आवश्यक तकनीक व उपकरण उपलब्ध नहीं थे। लेकिन फाल्के किसी भी चुनौती के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। बड़ी समस्या पैसों की थी। फिर भी उन्होंने पैसे इकठ्ठे किए और फिल्म बनाने की तकनीक सीखने एवं सिनेमा के ज़रुरी उपकरण खरीदने के लिए लंदन चले गए। लंदन में उनकी मुलाकात जाने-माने निर्माता और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के सम्पादक सेसिल हेपवोर्थ से हुई। इन्होंने लंदन में फाल्के की बहुत मदद की।

अप्रैल 1912 में भारत लौटकर फाल्के फिल्म निर्माण के लिए पूरी तरह जुट गए। मुंबई के दादर इलाके में स्टूडियो बनाकर उन्होंने फाल्के फिल्म नाम से अपनी कंपनी बनाई। फिल्म के लिए फाल्के ने सत्य के लिए सब कुछ छोड़ देने के लिए प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र राजा हरीशचंद्र को चुना।

पहली फ़ीचर फिल्म राजा हरीश्चंद्र बनाने के लिए फाल्के को बड़ा संघर्ष था। पैसों की समस्या हल करने के लिए इनकी पत्नी सरस्वती बाई ने अपने गहने गिरवी रख दिए।

अगले कुछ महीने पटकथा लेखन, कलाकारों के चयन आदि पर काम करने में लगाए। राजा हरीशचंद्र की भूमिका में उन्होंने खुद को रखा। हरीशचंद्र के पुत्र रोहिताश्व के लिए अपने बेटे को कास्ट किया। अन्य कलाकारों के चयन के लिए विज्ञापन दिए। परिणाम स्वरूप कई अनुभवहीन लोगों ने भी रोल पाने के लिए आवेदन किया। अतः फाल्के को विज्ञापन में लिखवाना पड़ा कि केवल अनुभव वाले आकर्षक लोग ही आवेदन दें।

सबसे बड़ी समस्या हरीशचंद्र की पत्नी तारामती के रोल के लिए नायिका का चुनाव करने में आई। उन दिनों स्त्रियां अभिनय नहीं करती थीं। स्त्री चरित्र भी पुरुष ही निभाते थे। लेकिन फाल्के की इच्छा इस व्यवस्था को तोड़ने की थी। वह चाहते थे कि तारामती की भूमिका कोई स्त्री ही करे। इसके लिए उन्होंने कई महिलाओं से बात की, इश्तहार भी बंटवाए लेकिन इन सबका कोई फ़ायदा नहीं मिला। तारामती के रोल के लिए फाल्के तवायफों के पास भी गए। उनसे नायिका बनने का आग्रह किया। लेकिन यहाँ भी निराशा हाथ लगी।

कोई हल ना निकलने पर फाल्के ने फैसला किया कि किसी पुरुष से ही तारामती की भूमिका कराई जाए। अब वह ऐसे पुरुष की खोज में जुट गए जो तारामती के रोल के लिए सही हो। उनकी तलाश एक ईरानी रेस्त्रां में जाकर समाप्त हुई। वहाँ उन्हें अन्ना सांलुके नाम का एक रसोइयां मिला। फाल्के ने उस रसोइये से तारामती के रोल के लिए बात की। बहुत समझाने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया।

कलाकारों का चयन हो जाने के बाद रिहर्सल शुरू हुए। लेकिन फाल्के की मुसीबत अभी समाप्त नहीं हुई थी। रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया तो फाल्के ने सांलुके से कहा कि कल से शूटिंग आरंभ होगी । अतः तुम अपनी मूंछें मुंडवा लो। लेकिन सांलुके मूंछे साफ करवाने में कतरा रहा था। उसका कहना था कि यह तो मराठा मर्द की शान है। फाल्के को उसे मनाने के लिए फिर मेहनत करनी पड़ी।

अंततः शूटिंग आरंभ हुई। दादर के स्टूडियो में सेट बनाया। सारी शूटिंग दिन की रोशनी में की जाती थी। क्योंकि रात में फाल्के एक्सपोज्ड फुटेज को डेवलप और प्रिंट करते थे। उनकी पत्नी सरस्वतीबाई भी उनकी सहायता करती थीं।

फिल्म के निर्माता, निर्देशक, हीरो सभी फाल्के ही थे। आखीरकार 7 माह 21 दिनों की मेहनत रंग लाई। करीब 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में भारत की पहली मूक फीचर फिल्म रिलीज़ की गई।

विदेशी फिल्में देखने वाले दर्शकों ने इस फिल्म की अनदेखी की। यही नहीं प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके तनिक भी हताश नहीं हुए। उन्होंने तो यह फिल्म भारत के जनमानस के लिए बनाई थी। जनता ने फिल्म को खूब पसंद किया। अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।

राजा हरीश्चंद्र के निर्माण का श्रेय फाल्के के साथ साथ उनकी पत्नी सरस्वतीबाई को भी जाता है। शूटिंग में शामिल लोगों के भोजन की व्यवस्था से लेकर फिल्म की शूटिंग के दौरान वह एक सहायक की भूमिका बखूबी निभाती थीं। फिल्म को एडिट करने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

राजा हरीश्चंद्र की सफलता के बाद उसी साल उनकी दूसरी फिल्म मोहनी भस्मासुर आई। इस फिल्म में महिला चरित्र दुर्गा खोटे तथा कमला गोखले द्वारा निभाए गए। इसके पश्चात सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्री कृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), कंस वध (1920), शकुंतला (1920), संत तुकाराम (1921) और भक्त गोरा (1923) लगभग 100 फिल्में बनाईं।

अपनी पहली तीन फिल्मों को लेकर फाल्के विदेश भी गए। लंदन में इन फिल्मों को खूब सराहा गया।

भारत में फिल्मों की सफलता से आकर्षित होकर कुछ व्यापारियों ने फाल्के के साथ मिल कर हिंदुस्तान फिल्मस नाम से एक कंपनी शुरू की। उनका लक्ष्य फिल्मों से लाभ कमाना था। रचनात्मक पहलू की तरफ उनका ध्यान नहीं था। दूसरी ओर फाल्के व्यवसायिक पक्ष को महत्व ना देकर सारा ध्यान कलात्मकता पर देते थे। अतः साथ अधिक दिन निभ नहीं सका। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्मस छोड़ दिया। कुछ दिनों के बाद फाल्के ने दोबारा लौटकर कंपनी के लिए कुछ और फिल्मों का निर्देशन किया। किंतु बात अधिक बन नहीं पाई। फाल्के की अंतिम मूक फिल्म 1932 में आई सेतुबंधनम थी।

फिल्मों में आवाज़ आ जाने के बाद फिल्म तकनीकि में कई बदलाव आए। फिल्मों की रूपरेखा भी बदल गई थी। इस बदलाव से फाल्के पटरी नहीं बिठा पाए। कुछ दिनों के लिए वह बनारस चले गए। उसके बाद जब लौटे तो उन्होंने अपनी पहली बोलती फिल्म गंगावतरण बनाई। यही उनकी अंतिम फिल्म भी थी।

अंतिम वर्षों में फाल्के अल्ज़ाइमर की बीमारी से जूझ रहे थे। फिर भी अपने बेटे प्रभाकर के समझाने पर कि बदलते समय को ध्यान में रख कर एक नए किस्म की फिल्म बनाई जाए। उस समय ब्रटिशराज था। फिल्में बनाने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। फाल्के ने लाइसेंस के लिए आवेदन किया। लेकिन उन्हें फिल्म बनाने की इजाज़त नहीं मिली। इसी सदमे में ठीक दो दिन बाद 16 फरवरी 1944 में उनकी मृत्यु हो गई।

भारत में फिल्म जगत की नींव रखने वाले फाल्के की अंतिम यात्रा में कुछ गिने चुने लोग ही शामिल हुए। प्रेस ने भी इस खबर को अधिक स्थान नहीं दिया।

1969 में फाल्के के सम्मान में दादा साहेब फाल्के पुरस्कारों की घोषणा की गई। यह फिल्म जगत का सबसे सम्मानित पुरस्कार है जो किसी कलाकार द्वारा फिल्मों में दिए गए योगदान के लिए दिया जाता है। यह पुरस्कार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा स्थापित की गई संस्था डायरेक्टोरेट ऑफ फिल्म फेस्टिवल द्वारा हर साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में दिया जाता हैं। इस पुरस्कार में स्वर्ण कमल के अलावा एक शॉल और 10 लाख रुपये की धनराशि दी जाती है।

पहला दाद साहेब फाल्के पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया।

फिल्म जगत में फाल्के द्वारा दिए गए योगदान पर राजेश मापुस्कर द्वारा 55 सेकेंड्स की एक फिल्म बनाई गई है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा हर फिल्म शो के आरंभ में इसे दिखाए जाने का प्रस्ताव है।

मुंबई के गोरेगांव ईस्ट में बनी फिल्म सिटी का नाम 2001 में दादा साहेब फाल्के नगर कर दिया गया।

फाल्के जानते थे कि विविधता से भरे इस देश की संस्कृति को फिल्मों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। फिल्में अमीर गरीब, धर्म, जाति का भेद मिटा कर सबको एक कर सकती हैं। उनका यह दृष्टिकोंण सही साबित हुआ। आज फिल्मों ने सभी भारतीयों के दिलों में अपना खास स्थान बना लिया है।