छूटी गलियाँ - 19 (27) 438 268 4 छूटी गलियाँ कविता वर्मा (19) राहुल हतप्रभ था उसने खुद को मुझसे छुड़ाया, मुझे सोफे पर बैठाया और कुछ देर तक मेरे कंधे पर हाथ रखे बस खड़ा ही रह गया। ये संभवतः पहली बार था जब वह अपनी मम्मी को रोते हुए देख रहा था। हालांकि पिछले तीन सालों में मैं दबे छुपे कई बार आँसू बहा चुकी थी लेकिन शायद हर बार थोड़ा सा गुबार शेष रह जाता था जो आज सारे बाँध तोड़ कर बह निकला और इसी के साथ मेरी बेबसी राहुल के सामने सैलाब सी बह रही थी। जिसमे राहुल डूब उतरा कर कोई थाह पाने की कोशिश कर रहा था, जो उसे किचन में दिखी वह दौड़ कर पानी ले आया। आँसुओं का आवेग कम हो गया था लेकिन मेरी विवशता अब भी मेरे चेहरे पर चिपकी थी। मैंने धीरे से नज़रें उठा कर राहुल की ओर देखा, उसने मेरा सिर अपने सीने से लगा लिया, उसकी हथेलियों का स्नेहिल स्पर्श मुझे सांत्वना दे रहा था। ये मैंने क्या कर दिया राहुल के सामने बिखर कर मैंने उसे अचानक बहुत बड़ा बहुत समझदार बना दिया। हालांकि वह अभी तक असमंजस में था शांत दिख रहा था मानों मेरे संयत होकर सब कुछ बताने का इंतज़ार कर रहा हो। क्योंकि सैलाब सा जो बह गया था वह समझ पाना कठिन ही था। मैंने आँखें बंद कीं और फिर उसे भिगो दिया। "क्या हुआ मम्मी?" जब मैंने खुद को थोड़ा संयत किया उसने मेरे दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर पूछा। मैंने राहुल को देखा उसकी मासूम आँखों में कई सवालों के साथ एक डर भी तैर रहा था। यह अकेलेपन का डर था जो मेरे बिखर जाने से उत्पन्न हुआ था। बिलकुल वैसा ही डर जैसा हॉस्पिटल से वापस आने के बाद दिखता था पापा के बिना अकेले रहने का डर असुरक्षा का डर। मुझे इस डर को ख़त्म करना ही होगा एक अदृश्य सहारे की आस उसके मन से हटानी ही होगी। उसे बताना होगा कि जिसके बिना वह अकेलापन महसूस कर रहा है वह सहारा तो उसके पास है ही नहीं। यह कड़वी सच्चाई ही उसे खुद को मजबूत करने में मदद करेगी। "राहुल बेटा मेरी बात ध्यान से सुनो, मैं तुम्हे तुम्हारे पापा के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।" मैं कोई अच्छी बात नहीं बताने वाली हूँ इसका एहसास हो गया था उसे। उसने खुद को हर बुरी खबर सुनने के लिये तैयार कर लिया था। मैं बोलती रही, दादी की मौत के बाद विजय की कही बातों से लेकर उनकी दूसरी शादी, बच्चे, इस बात को छुपाकर रखने के कारण से लेकर विजय के कभी वापस ना आने के फैसले की हर बात मैंने उसे बताई। उसके आँसू बहते रहे लेकिन वह शांति से सुनता रहा। मैं साँस लेने रुकी, असली चुनौती तो अभी बाकी थी। वह थी पापा के फोन आने की बात, और वह इस तरह बताना थी कि वह उसे सहज रूप में ले ले। "मम्मी, लेकिन फिर अचानक से पापा के फोन क्यों आने लगे ? आप कह रही हो वो मुझे प्यार नहीं करते, लेकिन वह तो मुझसे बहुत प्यार करते हैं।" मिस्टर सहाय पिता के रूप में उस पर अपना प्रभाव जमा चुके थे इसलिए अब तक कही बातें उसने सुनीं जरूर थीं लेकिन उन पर पूरा विश्वास नहीं किया था। "बेटा पापा के फोन ना आने से तुम बहुत परेशान रहने लगे थे। तुम्हारा बर्थ डे आने वाला था और मैं नहीं चाहती थी कि तुम उस दिन भी उदास और परेशान रहो। मिस्टर सहाय ने पार्क में मुझे अंजलि आँटी से तुम्हारे बारे में बातें करते सुन लिया था इसलिए तुम्हे एक छोटी सी ख़ुशी देने के लिये उन्होंने तुम्हारे बर्थ डे पर तुम्हे फोन किया था तुम्हारे पापा बन कर।" "तो आप जानती थीं कि फोन कोई और कर रहा है मेरे पापा नहीं।" उसकी आँखों और स्वर में रोष झलक आया। यह दूसरा बड़ा सदमा था वह झटके से उठा और अपने कमरे की ओर बढ़ गया। मैं मानसिक रूप से उसके पीछे भागी लेकिन सच तो ये था कि मैं वहीँ जड़ हो गई थी और उसे जाते, आँसू पोंछते और अपने पीछे कमरे का दरवाजा बंद करते देखती रही। मेरा बेटा दर्द के गहरे सागर में डूब रहा था मैं हाथ बढ़ा कर उसे थामना चाहती थी लेकिन जड़ हो गई। उसकी जलती आँखें और तिलमिलाई आवाज़ ने मेरे सोचने समझने की शक्ति को कुंद कर दिया, कितनी ही देर उस बंद दरवाज़े को घूरते हुए राहुल से बात करने की हिम्मत जुटाती रही, फिर मैंने खुद को उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए पाया। जब बहुत देर खटखटाने के बाद भी कोई जवाब नहीं आया तो ना जाने किन आशंकाओं से डर कर मैं दरवाज़ा लगभग पीटने ही लगी। "राहुल राहुल दरवाज़ा खोलो बेटा, प्लीज़ दरवाज़ा खोलो।" मेरा स्वर कांपने लगा। अचानक दरवाज़ा खुला राहुल सामने खड़ा था, सूजी आँखें बिखरे बाल उतरा चेहरा लिये। मैं ही हूँ उसकी इस स्थिति की जिम्मेदार, उसकी उम्मीदों को तोड़ने की गुनहगार। राहुल पलट कर जाने लगा मैंने हाथ बढ़ा कर उसका कंधा थाम लिया। राहुल मेरे बच्चे उसे सीने से लगा कर मैं फफक पड़ी। हम दोनों ही देर तक रोते रहे। "मम्मी उस दिन वो अंकल जो पार्क में मिले थे फिर अपने घर भी आये थे, वही फोन पर पापा बन कर बात करते थे ना?" "हाँ बेटा वही हैं मिस्टर सहाय।" मैंने गोद में सिर रख लेटे राहुल के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा। "लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया क्या आप पहले से उन्हें जानती हैं?" "नहीं बेटा मैं उन्हें नहीं जानती वो तो उस दिन मैं बहुत परेशान थी और अंजलि आँटी से तुम्हारे बारे में चर्चा कर रही थी। मिस्टर सहाय वहीँ पास वाली बेंच पर बैठे थे उन्होंने हमारी बातें सुनीं थीं। उस दिन तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। कुछ दिनों बाद जब मैं फिर पार्क गयी तब उन्होंने पूछा कि क्या वे मेरी मदद कर सकते हैं?" "लेकिन वे आपकी मदद क्यों करना चाहते थे जबकि वे तो आपको, मुझे या पापा को जानते तक नहीं थे?" राहुल के स्वर में गहरा संशय था। यूँ ही किसी अजनबी पर भरोसा नहीं करते यह बात तो मैंने ही उसे सिखाई थी, फिर कैसे मैंने एक अजनबी पर भरोसा कर लिया, यह बात उसे परेशान कर रही थी। "बेटा उस समय तुम परेशान रहते थे, बार बार अपने पापा के बारे में पूछते थे, बात बात पर गुस्सा हो जाते थे, कॉपी किताबें सामान फेंकने लगते थे। पापा को लेकर तुम्हारा तनाव बढ़ता जा रहा था। तुम्हे परेशान देख कर मैं समझ ही नहीं पा रही थी क्या करूँ? ऐसे में मिस्टर सहाय का मदद का प्रस्ताव ही मुझे ठीक लगा। मैं तुम्हारे बर्थ डे पर तुम्हे खुश देखना चाहती थी और तुम पापा का फोन पाकर खुश हुए भी थे। तुम्हारे दोस्तों को भी विश्वास हो गया था कि तुम्हारे पापा भी तुम्हे प्यार करते हैं, तुम्हे फोन करते हैं। उस दिन के बाद उन लोगों ने भी तुमसे तुम्हारे पापा के बारे में पूछना बंद कर दिया।" "और वह गिफ्ट वह प्ले स्टेशन?" "वह मैंने खरीदा था तुम्हारे लिये, तुमसे ही बातों बातों में पूछा था एक बार कि तुम्हे क्या चाहिये ? हाँ उस पर नाम पापा का लिखवाया था।" "मम्मी, लेकिन उन्होंने तो मुझे कितनी ही बार फोन किये और कितनी देर देर तक बातें की सिर्फ बर्थ डे वाले दिन फोन करके बात करना बंद क्यों नहीं कर दिया ?" "क्योंकि वो तुम्हे खुश देखना चाहते थे, उनसे बात करके तुम्हे और तुमसे बात करके उन्हें अच्छा लगता था, इसलिए वो भी बार बार तुमसे बातें करते रहे।" राहुल बहुत देर तक सोचता रहा फिर जैसे याद करते हुए बोला, "अच्छा मम्मी जब मैं हॉस्पिटल में था तब भी पापा आई मीन वो अंकल मुझे देखने आये थे क्या?" अब राहुल सहज उत्सुकता से परे मिस्टर सहाय की उसके प्रति चिंता और प्यार की थाह ले रहा था। इससे वह क्या निश्चित करना चाहता था? क्या अब वह मिस्टर सहाय के प्यार पर शक कर रहा था या उनके प्यार पर अपना विश्वास पुख्ता करना चाहता था? "हाँ बेटा जब तुम हॉस्पिटल में थे तब बेहोशी की हालत में पापा पापा पुकार रहे थे तब मैंने ही उन्हें फोन करके बुलवाया था। वे सारा दिन हॉस्पिटल में तुम्हारे पास ही रहे थे।" राहुल फिर गहरे सोच में डूब गया। आश्चर्य की बात ये थी कि वह मिस्टर सहाय के बारे में इतने प्रश्न पूछ रहा था लेकिन विजय के बारे में कुछ नहीं। तो क्या उसे विजय और मेरे रिश्तों के बारे में अंदेशा था या वह मिस्टर सहाय को पापा के रूप में स्थापित कर चुका था और उनसे उसका जुड़ाव हो गया था जो विजय के साथ कभी नहीं हो पाया था। क्या इसलिए वह इतनी बड़ी बात को सुन कर भी ना चीखा ना चिल्लाया। हाँ सुनकर उसे धक्का तो लगा था, तभी तो वह रोते हुए अपने कमरे में चला गया था। क्या ये संभव है कि अपने बायोलॉजिकल फादर से ज्यादा जुड़ाव एक ऐसे व्यक्ति से हो जिसने पिता के रूप में प्यार दिया हो, मार्गदर्शन दिया हो, उदास रोते बच्चे को हँसाया हो, अपने होने का एहसास कराया हो? यही तो सही अर्थों में पिता होना है। विजय के साथ राहुल ने वक्त ही कितना बिताया है? उसकी स्मृति में विजय की कोई याद ही नहीं है सिर्फ दोस्तों के अपने पिता के साथ के अनुभवों ने पिता के रूप में कुछ सपने उसके ख्यालों में बुन दिये थे। उन सपनों को आंशिक ही सही पूरा किया है मिस्टर सहाय ने। उन्होंने राहुल के ख्यालों में धुंधली सी पिता की छवि को व्यवहार में मूर्त रूप दिया है। उन्हीं से तो उसने पिता का प्यार महसूस किया है तो क्या आश्चर्य है कि आज वह विजय की ओर से उदासीन है और मिस्टर सहाय के प्रति उत्सुक। "मम्मी जब पापा ने दूसरी शादी कर ली आपको बुरा नहीं लगा? आपने उनसे कुछ कहा नहीं?" "क्या कहती? वो दूसरी शादी कर चुके थे और उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि वह मेरे पास वापस नहीं लौटेंगे। इसके बाद कुछ कहने सुनने से तमाशा ही बनता जिस का तुम पर बुरा असर पड़ता और मैं वह नहीं चाहती थी।" "आपने मामा को बताया पापा के बारे में?" "नहीं सिर्फ तुम्हे और मुझे पता है।" "और सहाय अंकल को।" "हाँ उन्हें भी" मैं सकपका गई। "अगर आप मामा को बतातीं तो वो पापा से बात करते, उन्हें वापस आने को कहते?" "हाँ मामा तुम्हारे पापा से बात तो जरूर करते लेकिन जिस तरह से उन्होंने मुझसे बात की थी मुझे नहीं लगा तुम्हारे पापा कभी वापस आएँगे। अगर वो बेमन से वापस आ भी जाते तो तुम्हे और मुझे उनका प्यार कभी नहीं मिलता और हम तीनों में से कोई भी कभी खुश नहीं रह पाता। उनका मन कहीं और जुड़ा था अब कम से कम वो वहाँ अपने परिवार के साथ खुश तो हैं। तुम और मैं भी तो खुश ही हैं। पिछले कुछ महीनों से जब से मिस्टर सहाय पापा बन कर तुमसे बातें करने लगे हैं तुम भी खुश हो। वैसी ख़ुशी शायद तुम्हारे पापा भी तुम्हे नहीं दे सकते थे क्योंकि वो हम लोगों से मन से नहीं जुड़े हैं। *** *** ‹ Previous Chapter छूटी गलियाँ - 18 › Next Chapter छूटी गलियाँ - 20 Download Our App Rate & Review Send Review Right 2 months ago jagruti rathod 5 months ago Indu Talati 5 months ago Swati 5 months ago Harbalaben Dave 5 months ago More Interesting Options Short Stories Spiritual Stories Novel Episodes Motivational Stories Classic Stories Children Stories Humour stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Social Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Kavita Verma Follow Shared You May Also Like छूटी गलियाँ - 1 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 2 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 3 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 4 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 5 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 6 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 7 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 8 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 9 by Kavita Verma छूटी गलियाँ - 10 by Kavita Verma