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इस दश्‍त में एक शहर था - 14

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(14)

तिक्कू का इतिहास रंगबाजी का इतिहास है। उनकी रंगबाजी की धाक उस समय पूरे शहर में मशहूर थी। यह शहर एक जिन्दा शहर होता था उस समय जिस समय वे पढ़ रहे थे। उस जमाने में मेडिकल के लड़के लड़की साइकिल से आते जाते थे। शहर में ठंडक रहजी थी शाम रात को, लोग एक दूसरे को जानते थे पहचानते थे एक दूसरे के सुख दुख में काम आते थे एक दूसरे के दोस्त थे दुष्मन थे। कत्ल लूटपाट तब भी होती थी पर छाती ठोक कर। यह शहर इस समय एक लंबी सड़क के इर्द और गिर्द बसा था। कुछ गलियां थी जहां कुछ बस्तियां थीं। मैन रोड पर लोगों के घर थे। दुकानों के लिए बकायदा बाजार थे। लोहा बाजार, कपड़ा बाजार या कहें क्लाथ मार्केट, बरतन बाजार, गल्ला मंडी वगैरा। लोग कम थे पर बस्तियां ज्यादा बाजार कम खाने के होटल इक्का दुक्का, नाष्ते के होटल कई जो सुबह सुबह पोहा जलेबी खिलाते थे। और उसके साथ कढ़ाव वाला दूध जिसे मलाई मार कर गिलास भर कर दिया जाता था पियो तो मूछ या मूछ न हो तो होठ मलाई में सन जाते थे। तो जो एकमात्र लंबी सड़क थी वो शहर के बड़े गणपति से लेकर रीगल टाकीज बीच में सराफा, राजबाड़ा, पुल, पुल के एक छोर पर घंटाघर और दूसरे छोर पर रीगल टा और उसी सड़क को आगे बढ़ा दें तो पलासिया जहां से दांयें घूमो तो आगे मेडीकल कालेज और बांयीं तरफ राष्ट्रीय राजमार्ग पर पहुचती है। इस सड़क पर साइकिलें चलतीं थीं और शहर की शान तांगें चलते थे जो इक्के नहीं बकायदा बडे़ वाले तांगे थे उन दिनों। ये वो समय था जब लोग एक दूसरे का हाल जानते थे आस पड़ौस और गली मोहल्ले के सब लोग एक दूसरे के वाकिफ थे तब। किसी का पता पूछो तो नाम भर बताने की जरूरत है अगला आपको घर तक छोड़ कर आ सकता था। अब तो महज़ मकान नंबर है, पद हैं काम है भागमभाग है। सड़कों पर पैर रखने की जगह तक नहीं है। अब तो पड़ौस में कौन रहता है यह तक नहीं पता लोगों को।

उस समय बिजासन रोड पर पीलियाखाल नाले के इस ओर रहने वाला मिसिर खानदान फाके में मस्त था और फाकामस्ती को सही माने में साबित करता था। एक था। दुख में भी सुख के पल ढूंढने का हुनर था इस परिवार के पास। वार त्योहार के अलावा भी उत्सव के मौके ढूंढ ही लेता था ये परिवार। मुश्किलों के उस दौर में घर में जो भी कमाता था वह सबके लिए होता था। जिस समय संयुक्त परिवार टूट रहे थे उस समय ये सारे लोग तमाम मुश्किलों के बावजूद एक थे। एक ही रसोई थी। नौ कनौजिये तेरह चूल्हों को नकारता यह एक अजब कान्यकुब्ज संयुक्त परिवार था। उन्हीं मुश्किलों में कुल दो भाई नौकरी कर रहे थे। गणेशीलाल यानि छप्पू और शिवानंद यानि शिब्‍बू। दोनों ग्वालियर में नौकरी कर रहे थे उन दिनों ए जी आफिस में। वहां कम से कम में गुजारा कर ज्यादा से ज्यादा अपने परिवार को भेज रहे थे। बुद्धिनाथ यानि कि मुन्नू डाॅक्टर बन चुके थे सो उनकी फीस से तो निजात मिल चुकी थी पर तिक्कू की पढ़ाई जो थी वो खतम ही नहीं हो रही थी। इसी दरम्यान शंकरलाल यानि खप्पू नायब तहसीलदारी में चयनित हो गए थे। यहीं से इस परिवार के संकट के दिन खतम होना चालू हो गए थे। खप्पू ने पूरे परिवार को संकट से उबारा। नायब तहसीलदारी में अच्छी खासी आमदनी थी उनकी जिससे उन्होंने परिवार के सभी लोगों के दलिद्दर दूर करी।

सबसे बड़े यानि बिन्नू यानि बड़े भैया को इस परिवार की मुसीबतों से कोई लेना देना नहीं रहा। उन्होंने अपनी दुनिया बसा ली थी। वे अकसर अतिथि की ही तरह घर में आते रहे। वे शादी ब्याह में आते रहे पर घर की मुश्किलों से वो दूर ही रहे। जब टिक्कू की शादी गैर कनौजियों में होने की खबर उन्हें मिली तो वे सबसे ज्यादा नाराज हुए और तिक्कू को गरियाने लगे। इस बीच में वे आए थे। तिक्कू कुछ देर तक तो सुनते रहे फिर वे अपनी स्टाइल में उठे और बोले ” देखो बिन्नू भैया यानि कि बड़े भैया इतना और इस लहजे में तो हमसे कभी भी आदरणीय श्री कालिकाप्रसाद भी नहीं बोले और बगर बोले होते तो वे स्वर्ग या नरक वासी हो गए होते अब तुम कहां जाओगे हमको नहीं पता। घर से कभी कोई मतलब रहा ळे जो इतने जोर जोर से दहाड़ रहे हो। शादी में आना हो तो आना आशीर्वाद देना नही तो अपनी ऐसी तैसी करवाओ। “

बड़े भैया भौंचक थे। यह टोन और यह संबोधन और यह भाषा उनके लिए अप्रत्याषित थी। वे चुप मार गए। बड़ी भाभी ने उन्हें अन्दर बुलवा लिया और वे राजी खुषी उस ब्याह में शामिल हुए। यह भिडं़त दो सबसे बददिमाग, बदजुबान और ठसकदार लोगों के बीच थी जिसमें हमारे टिक्कू बीसे ही साबित हुए।

डाॅक्टर त्रिलोकीनाथ की प्रेक्टिस अच्छी खासी चलती थी यूं भी वे आगे की सोच वाले डाॅक्टर थे। शायद वे कट कमीशन के इस इलाके के जन्मदाताओं की टोली में थे। हर जांच में कमीशन हो और कौन सी जांच करनी कौन सी नहीं इस पर भी एक अलग कमीशन और दवाओं में कमीशन उन दिनों बुरा माना जाता था पर आज तो यह बेहद सामान्य है। उस समय डाॅक्टर त्रिलोकीनाथ को समझाने की कोशिश की गई पर वे अड़ियल किसम के इन्सान रहे हैं लिहाजा उन्होंने अपना ये रवैया क़ायम रखा और ”लोग साथ चलते गए कारवां बनता गया।“

घर का पहला स्कूटर लैम्ब्रेटा उन्होंने ही खरीदा था वरना इसके पहले साइकिल और पैदल का रिवाज था। कारों का चलन उस समय कम से कम था पर आगे चल कर घर की पहली कार भी उन्हीं ने खरीदी थी। स्कूटर मध्य वर्ग के लिए उन दिनों लक्झरी ही कहा जाएगा। उन्होंने घर का पहला फ्रिज भी खरीदा। उस समय यह एक नुमाइश की ही चीज था जिसे दारू पीने वाले अमीर लोग रखते थे सो त्रिलोकी दोनों थे भले ही यह घर फूंक तमाषा हो फिर भी।

घर का पहला स्कूटर शान का विषय तो था ही साथ ही घर के लड़कों के लिए जिज्ञासा का भी विषय था। वे कप्तान थे यानि गन्नू भैया के छोटे लड़के जिन्हें दुस्साहस में मजा आता था उन्होने रात को जब सारे लोग सो गए थे तब उन्होंने धीरे से स्कूटर स्टैण्ड से उतारा और उसकी दूसरी वाली चाबी उन्होंने चाचा से पहले ही मार ली थी जिसका अंदाज चाचा को नहीं लगा था। स्कूटर का लाॅक खोलकर धकेल कर बाहर सड़क पर ले आए और ढनगा कर स्टार्ट करने की भरसक कोशिश की पर नहीं हुआ स्टार्ट। बाद को मरते पड़ते गिरते हांफते हुए चढ़ाई पर चढ़ा कर वापस यथास्थान रख दिया। पहले दिन वे अकेले थे। अगले दिन गोपाल से स्कूटर स्टार्ट करने के गुर सीखे और गियर क्लच एक्सीलरेटर का अंदाज लिया और अगले दिन वे अपने साथ छप्पू चाचा के लड़के यानि गुड्डू को अपने साथ ले आए। आज दो थे तो स्कूटर कल के मुकाबले आसानी से धकेलते हुए बाहर तक ले आए और कप्तान बैठे और गुड्डू ने धकाया उन्होंने न्यूट्रल से दूसरा गियर बदला और स्कुटर भरभ्रा कर स्टार्ट हो गया। एक बार लड़खड़ाया पर कप्तान तो कप्तान हैं उनका आत्मविष्वास इतना तगड़ा है कि वे हवाई जहाज तक उड़ा लें। उस दिन उन्होंने गुड्डू को भी पीछे बिठा लिया और स्कूटर से एक लंबा चक्कर एयरपोर्ट तक का लगा लिया यानि कप्तान स्कूटर चलाने में महारत हासिल कर चुके थे। अब अगले दिन यानि अगली रात को गुड्डू की बारी थी। वे कुछ डरे घबराए लड़खड़ाए पर कप्तान के सहारे दो दिन में वे भी स्कूटर दन्नाने लगे थे। इधर डाॅक्टर त्रिलोकी समझ नहीं पा रहे थे कि साला जो पेट्रोल सप्ताह भर चलना चाहिए वह एक दिन मे कैसे खतम हो जाता है। उस दरम्यान गप्पू लप्पू पप्पू लल्लन टीटू मीटू कीटू और सारे लड़कों ने स्कूटर सीख लिया था न सिर्फ सीखने बल्कि रोज रात को तफरीह पर भी वे लोग उस पर जाने लगे। एक दिन रात में जब तिक्कू निपटने को बाहर आए तो पता चला कि स्कूटर गायब। उनकी पेशाब रुक गई वे घबरा गए और जोर से चिल्लाए तो घर के सारे लोग बाहर आए पर लड़के सब नदारद थे। सोचा सिनेमा गए होंगे। पर जब कुछ ही देर में स्कूटर की आवाज गूंजी और कप्तान ड्राइविंग सीट पर थे और पीछे चार और लटके थे। गुड्डू लप्पू पप्पू लल्लन। अब उन पांचों की जो खबर ली गई कि बस। पर अब तो सारे लड़के सीख चुके थे स्कूटर।

तिक्कू चाचा मतलब लड़कों के लिए एडवेंचर जुटाने का काम भी करते थे। उस जमाने में बड़ा एडवेंचर वे कनौजियों से बाहर की शादी कर चुके थे। सिगरेट पीते थे और उन्हें पता था कि घर के कौन कौन से लड़के दूसरी पलटन में सिगरेट का धुआं उड़ाते हैं और कौन लड़के चौधरी के ढाबे में या कहें इंउियन काफी हाउस के बगल वाले होटल में बैठ कर मुर्गा दारू की पार्टी करते हैं। वे इस सबको आने वाले समय के लिए जरूरी मानते थे और अपने भतीजों के साथ कई बार बैठकों में शामिल होते रहे। कई बार उन्होंने खुद आयोजित किया यह समागम। बीच सड़क पर मुर्गे की टांग तोड़ना और बियर की पूरी बाटल गटक जाना उनका पुराना शगल था।

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