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बिद्दा बुआ - 1

बिद्दा बुआ

(1)

आवाज बुआ की ही थी, जिन्हें सारा गांव बिद्दा बुआ कहकर पुकारता है

"उठो भाइयो भोर भया, कुछ काम करो मत सोओ तुम.

जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है."

पूरे छः महीने बाद गांववालों को उनकी आवाज सुनाई पड़ी है. छः महीने अपने भतीजे गोपाल के पास जमशेदपुर में गुजारकर वे रात ही लौटी थीं, लेकिन किसी को पता न चल पाया था. ऎसा पहली बार हुआ था. नहीं तो बुआ कहीं बाहर से आएं, चाहे भतीजे के पास जमशेदपुर से या मामा के पोते रमेश के पास भोपाल से, आते ही टोले-मोहल्लेवालों से मिले बिना अपनी देहरी नहीं लांघतीं. लेकिन गाड़ी ही रात देर से पहुंची थी, और लम्बे सफर के कारण वे थक भी बहुत गयी थीं---- बुढ़ापे का शरीर ----- घर पहुंचते ही सो गयी थीं.

वे दिशा-मैदान से फरागत होकर लौट रही थीं. महुए के दरख्त के नीचे से गुजरीं तो कोई पखेरू पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ गया. उन्होंने ऊपर की ओर देखा. लेकिन आकाश में फैले अंधेरे में वह कहां समा गया, वे देख न पायीं. सोचा, कोई चील होगी और गाने लगीं, "जगे पखेरू, तुम भी जागो, माटी तुम्हें बुलाती है. आलस त्यागो, काम करो, मेहनत से लक्ष्मी आती है."

बुआ अपने चबूतरे पर आकर बैठ गयीं और फिर मानस की चौपाइयां गाने लगीं, "सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी-----" यह उनकी वर्षों पुरानी आदत है. बहुत सबेरे उठकर गांववालों को जगाना, फिर रमभजन में लीन हो जाना. तभी तो उनके रहने पर गांव में जीवन्तता बनी रहती है. वे सबके दुख-दर्द की बराबर की भागीदार जो बनी रहती हैं. और जब वे कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाती हैं----- जमशेदपुर या भोपाल------ सभी को लगता है जैसे उनके साथ गांव की जीवन्तता भी चली गई.

एकाएक बुआ चौंक उठीं. मानस की चौपाई अधूरी ही रह गई. उनकी नजर चबूतरे के दूसरे कोने पर किसी हिलती-डुलती वस्तु पर जा टिकी.

"कौन----- कौन है रे-----?"

आवाज सुनकर हिलती-डुलती वस्तु उठ बैठी.

"तू कौन है----- बोलता क्यों नहीं ---- इधर आ---- अरे, इधर आ न."

उनके बुलाने से जब वह टस से मस नहीं हुआ तो उन्हें कुछ भय हुआ. ’कहीं कोई चोर-उचक्का तो नहीं. रात उनके आने की भनक पाकर----- और अब उनसे चाबी छीनकर-----’ हालांकि वे इस प्रकार के भय को कभी पास फटकने तक नहीं देतीं, लेकिन मन की बात तो बड़ी विचित्र होती है. वह कब क्या सोच बैठेगा, कुछ पता नहीं होता. और इस समय उनके मन में यही विचार उछल-कूद कर रहा था कि ’हो न हो, यह कोई चोर-उचक्का ही है, तभी तो कुछ बोलता नहीं.’

अंधेरा अभी भी गली-मकानों में दुबका हुआ है. लेकिन घरों में हलचल शुरू हो गयी है. बैलों के गले में बंधी घंटियों की टुन-टुन, बछड़ों के रंभाने और पड़वों के रेंकनें की आवाजें उनके कानों से टकराने लगीं. दूर किसी घर से जानवरों को दी जाने वाली सानी की गंध पाकर उन्होंने सोचा, ’अब यह चाहे कोई भी हो, उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता.’ वे अपनी जगह से हिलीं-डुलीं नहीं, बैठी रहीं और मन- ही-मन नियमतः शेष रह रही मानस की पांच चौपाइयां समाप्त कीं, फिर उसकी ओर मुड़कर कुछ ऊंची आवाज में बोलीं, "तू जो भी है, बोलता क्यों नहीं----- यहां किसलिए बैठा है ?"

"अरे बिद्दा हुआ----- केहका बुला रही हैं ?"

"कौन ---- गुरनाम ?"

"हां, बुआ----पांय लागी---- कब आयीं---- केहका बुला रही हो ?"

"खुश रहो---- कल रात आयी थी." बुआ बोलीं, "देखो बेटा, पता नहीं कौन बैठा है उधर कोने में."

"ई तो पगला है बुआ----- उतर स्साले चबूतरे से नीचे----- ऊ बुला रही हैं और तू बोलताई नहीं." गुरनाम ने पगले के पास लाठी पटकी तो वह चीखकर नीचे कूद पड़ा. गुरनाम ने उसका कान उमेठकर तड़ातड़ दो तमाचे जड़ दिए. "बोल,अब तो नहीं आयेगा कभी इधर ----- बोल."

"मत मार गरीब को गुरनाम ---- मत मार----- मैं तो समझी थी कि कोई चोर-उचक्का है. मुझे क्या मालूम कि ये बेचारा......" बुआ बीच में आ गईं और पगले को छुड़ाकर चबूतरे पर बैठा दिया. वह ऊं ऊं कर सिसकने लगा था.

"तूने नाहक मार दिया बेचारे को----- ऎसों पर कभी हाथ नहीं उठाना चाहिए----- आखिर यह भी तो हम सब की तरह इंसान है न !" बुआ पगले के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

"बुआ, तुम्हारे जांय के थोड़े दिन बाद ही ई पता नहीं कहां ते आ मरा था. और जब ते ई आवा गांव मा तब ते कुछ-न कुछ विपदा पड़तीई चली आ रही है. कभी कोऊ बीमार तो कभी कोऊ. आते ई तुम्हारे चौतरा पे अपना अड्डा जमा लीन्हेसि. भलि-भलि कोसिस कीन्हि गै, मारा-पीटा भी गवा----- पर ई जाताई नहीं. " चुनौटी से खैनी निकालकर गदोली पर मलता हुआ गुरनाम बोला.

"बेटा, विपदा जब आनी होती है तब आती ही है, इसमें इस बेचारे का क्या दोष! तुम देखो न, यह तो खुद ही विपदा का सताया हुआ है----- पागल है. फिर इसे मारने से क्या लाभ---- हो सकता है इसका इस गांव से किसी जनम का रिश्ता रहा हो---- तभी यहां आ गया हो." बुआ कुछ दार्शनिक-सी हो उठीं. गुरनाम नीचे के होंठ उठाकर और मसूढ़ों के बीच खैनी को इत्मीनान से दबाकर उठ खड़ा हुआ और बोला, "अपन बात तो हम कहि दीन कि ई पगला गांव के लिए अपसकुनी है.---- और गांव वाले भी यहै कहत हैं." फिर कुछ चिरौरी भरे स्वर में बोला, "बुआ, कमलिया को चार दिन ते बुखार आ रहा है, जरा से----."

"चिन्ता न करो----- मैं देख आऊंगी."

गुरनाम चला गया तो बुआ पगले से बोलीं, "चल उठ,चाय बनाती हूं, तू भी पी." लेकिन वह टुकुर-टुकुर उन्हें ताकता रहा. वे भी उसकी ओर देखती रहीं, फिर बैठ गयीं. तब तक सूरज की किरणें पास के नीम के पेड़ पर आकर लटक गयीं थीं. लोग अपने-अपने काम पर जाने लगे. गली से गुजरते लोग, दिशा-मैदान के लिए जाते बच्चे और औरतें ’बुआ पांय लागी,’ ’बुआ राम-राम’, ’बुआ नमस्ते, कब आयीं!’ कहते और बुआ सबको आशीषती-जवाब देतीं उस पगले को घर के अन्दर चलकर चाय पीने के लिए मना रही थीं. पगला डर से सहमा-सिकुड़ा केवल टुकुर-टुकुर उन्हें देख रहा था, न कुछ बोल रहा था और न ही उठ रहा था.

उस दिन के बाद पगला बुआ के यहां भली भांति जम गया. सुबह उठते ही वे उसे भी उठा देतीं. सबेरे की चाय प्यार से बुलाकर देतीं और जो रूखा-सूखा खुद खातीं, उसे भी खिलातीं. इससे उसका शरीर भी हरियाने लगा. थोड़े ही दिनों में वह बातें भी ढंग की करने लगा, लेकिन दिमाग का कुछ मोटापन तब भी बना ही रहा. बुआ ने अपने ज्ञान के अनुसार अनेक जड़ी-बूटियां कूट-पीसकर उसे चटाईं-खिलाईं पर वे उसे भली-भांति ठीक नहीं कर पायीं. धीरे-धीरे वे उसके प्रति अधिकाधिक आत्मीय होती गईं. उसे खिला-पिलाकर वे उतनी ही तृप्ति महसूस करतीं, जितनी कोई मां अपने छोटे बेटे को खिला-पिलाकर महसूस करती है.

उसे खाना खिलाते समय वे कितनी बार सोचतीं कि यदि वह उनकी ही औलाद होता तो---- लेकिन कैसे होता उनकी औलाद ! वे तो अभागी ही इस धरती पर उतरी थीं. दस साल की रही होंगी जब पिता को खो बैठी थीं. छो‍टे भाई को गोद से चिपटाये और उन्हें संभाले मां मायके में भाई के पास जाकर रहने के लिए विवश हो गईं थीं. दो वर्ष भी न बीते थे कि मां भी चल बसीं----दोनों भाई-बहन को मामा के सहारे छोड़कर. लेकिन धन्य मामा, जिन्होंने दोनों को पाल-पोसकर बड़ा किया. पंद्रह की होते ही उनके हाथ पीले कर दिए, लेकिन दुर्भाग्य वहां भी उनका पीछा कर रहा था. साल बीतने के पहले ही उनकी मांग का सुन्दूर मिट गया. वे विधवा होकर मामा के पास लौट आयीं. एक बार वापस आयीं तो फिर एक बार के अलावा कभी ससुराल नहीं गईं. जाना चाहकर भी नहीं. एक बार भाई को लेकर पहुंची थीं------ विधवा होने के डेढ़ साल बाद----- लेकिन दरवाजे पर जेठ ने दुत्कार दिया था, "कुलच्छिनों के लिए इस घर में कोई जगह नहीं है. खबरदार जो ड्योढ़ी के अन्दर पैर रखा ! भूल जा कि तू कभी इस घर में आयी भी थी----- ब्याह कर."

वे उल्टे पैर लौट आयी थीं खून का घूंट पीकर और कसम खायी थी कभी उस ओर मुंह न करने की. अब तो उन्हें यह भी याद नहीं कि उनकी ससुराल के गांव का नाम क्या था और क्या नाम था उनके जेठ-ससुर का. करतीं भी क्या वे उनके नाम याद रखकर जिनमें मानवता नाम की चीज तक नहीं थी.

उस दिन से ही वे न केवल समझदार,बल्कि जिम्मेदार भी हो उठी थीं. भाई सुखराम जैसे ही चौदह साल का हुआ, वे उसे लेकर अपने गांव रामगढ़ी वापस लौट आयीं अपने पिता की जायदाद संभालने. सुखराम से केवल सात साल बड़ी थीं वे, लेकिन उसके प्रति मां और पिता दोनों की जिम्मेदारी उन्होंने ओढ़ ली थी. चार साल बाद उसकी शादी की और ठाठ से रहने लगीं. दिन भर भाई के साथ खेतों में काम करतीं,मजदूरों से काम करवातीं और रात भौजाई के हाथ की पकी खाकर वे अपने को धन्य समझतीं. उस क्षण वे सोचतीं, ’अब बुरे दिनों की छाया टल गई है----- भगवान, इन दोनों को सदा सुखी रखना----- जो भी कष्ट देना हो ईश्वर, मुझे दे लेना----- इनको कभी न सताना." लेकिन भगवान ने उनकी प्रार्थना अनसुनी कर दी. भरी जवानी में भौजाई नन्हे गोपाल को उनकी गोद में छोड़कर चल बसी. उनका दिल चीत्कार कर उठा. लेकिन विपदाओं की अटूट धरा में अपने को बहने से उन्होंने साहसपूर्वक रोक लिया. खुद संभलीं, गोपाल को संभाला और सुखराम को ढांढ़स बंधाया.

गजब का धैर्य और साहस है उनमें. दुधमुंहे गोपाल को उन्होंने मां, पिता और बुआ -- तीनों का ही प्यार दिया. क्योंकि पत्नी की मृत्यु के बाद सुखराम ने तो अपने को केवल खेत और खलिहान तक ही सीमित कर लिया था. दिन भर वह खेतों में खटता और रात घर आकर सो रहता. वे सुखराम के दर्द को समझती थीं, इसीलिए उन्होंने कभी उसे इस बात के लिए नहीं टोका कि वह गोपाल को कभी प्यार क्यों नहीं करता, दो बोल उससे बतियाता क्यों नहीं. वे समझती थीं कि बेटे के प्रति बाप का यह रुख स्थाय़ी नहीं है. एक दिन स्वयं सुखराम बेटे से बतियायेगा, उसे प्यार करेगा. और उनकी धारणा ठीक थी.जब एक बार गोपाल बुखार से तप रहा था, सुखराम ने अपने आप कांपती आवाज में पूछा था, "दीदी, डॉक्टर को लेने जाऊं? बबुआ की तबीयत कुछ ज्यादा ही---मुझे फिर डर लग रह है."

"डॉक्टर कोई एक-दो मील पर थोड़े ही बैठा है जो तुम दौड़कर बुला लाओगे. दस मील की दूरी तय करके जाने-आने में ही इतना वक्त बीत जायेगा कि----- तुम चिन्ता न करो------ मैं जो दवा दे रहीं हूं, ईश्वर ने चाहा तो सुबह तक बबुआ बिलकुल चंगा हो जायेगा."

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