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समर्पण

कहानी

समर्पण

राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव,

ऐयर बैग अपने कन्‍धे पर टॉंगकर स्‍टेशन से निकलते ही मैंने सोचा चार साल बाद कौशल्‍या की ससुराल जाकर उसे यह बताने कि मन में इच्‍छा जागी, ‘’मैं बैंक में क्‍लर्क के लिये चुन लिया गया हूँ।‘’ अब कोई खास महत्‍व नहीं रखता.....क्‍या कहेगी वह? लेकिन फिर भी उसे यह सुनाने के लिये बैचेन हूँ। दिल में एक ऑंधी उठी हुई है। उससे मिलने की, सब कुछ कहने सुनने की।

तॉंगा तय करके उसमें बैठा कि ‘’सटाक्‍क!’’ आवाज से चौंक पड़ा। घोड़े की पींठ पर चाबुक छप गई। और वह चीखनुमा हिनहिनाता हुआ आगे बढ़ गया। टापों की ‘’टिप..टाप’’ ध्‍वनि में उसके गले के घुंघरूओं ने भी अपनी छन-छनाहट मिला दी और ताँगा हिचकोले खाता हुआ ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ता गया....त्‍यों-त्‍यों मेरा घ्‍यान पीछे.....खिसकता गया। सब कुछ ज्‍यों का त्‍यों दिखाई देने लगा......

.....झोंपड़ी के दरवाजे को ठेलकर घुसता हुआ मैं पुराने बर्तन और पहनने-ओढ़ने के पुराने-अधपुराने कपड़े। सारा का सारा माहौल ही निर्जीव है। पर कौशी यानि कौशल्‍या बैठी है। सिमटी-सिमटाई हाड़-मांस की गठरी-सी बनकर। आँखें उदास और अतृप्‍त, जिनमें अनेक सुनहरे सपने तैर रहे हैं। नहीं, डूब रहे हैं। पतले-पतले गाल चिपके हुये भूरे सूखे से ओंठ।

मैं जैसे तड़फ उठा और मेरे मुँह से निकल गया, ‘’इतनी खामोश और उदास मत हो कौशी, मैं तुम्‍हें इतना सुख दूँगा कि तुम लाल गुलाब सी खिल उठोगी।‘’

‘’कैसे...? होटल में झूठी प्‍लेटें धो-धोकर?’’ इस बात से जयादा तो तीखा–उसका घूरना था, बामुश्किल पेट की आँतें भरने से ज्‍यादा क्‍या कमाओगे तुम?, वह बोलती ही गई, ‘’जब तक तुम पढ़ोगे नहीं....तुम्‍हारे पास कोई साधन नहीं होगा तो क्‍या खाक सुख दोगे?’’

सोचा था मेरे कमाने पर कुछ खुश होगी, मगर शायद उसे मेरा पढ़ाई छोड़कर होटल में काम करना अच्‍छा नहीं लगा। मुझे ऐसा मेहसूस हुआ कि हमारी सगाई टूट चुकी है। या टूट रही है।

उसे विश्‍वास भी कैसे दिलाता कि मैं काम के साथ ही पढ़ाई जारी रखूँगा।

ना जाने किस संकल्‍प या आवेश ने मेरे मुँह से यह निकलवा दिया, ‘’मेरा इन्‍तजार करना, मैं तुम्‍हें सर्व सुख देने लायक बनकर ही अपना मुख दिखाऊँगा।‘’

दिल पर चोंट कुछ गहरी सी मेहसूस की और मैं एक लम्‍बी कशमकश में उलझ गया। आखिर....

-‘’धच्‍चाक...।‘’ तॉंगे का चक्‍का गड्ढे में से होता हुआ निकल गया। मुझे टिप-टाप और छन...छनाहट फिर सुनाई देने लगी, मगर दिमाग में एक के बाद एक वाक्‍य कौंधने लगे...

-पिताजी अकेली जान हम पॉंच भाई-बहन के पेट पालने के लिये अपने आपको निचोड़ रहे थे। मॉं जरूर उन्‍हें अपनी क्षमतानुसार सहयोग करती, परन्‍तु इसके बावजूद भी रोज-रोज किच्-किच् बनी रहती। आज वह नहीं तो कल वह नहीं। ऐसे अभावग्रस्‍त व कलहपूर्ण वातावरण में मुझे सबसे बड़ा लड़का होने पर ग्‍लानि होती। आत्‍मा धिक्‍कारती मुझे। सोचता क्‍यों ना मैं कुछ कमाई के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखूँ और मैंने होटल में काम करना शुरू कर दिया, जो मुझे बड़ी जल्‍दी और आसानी से मिल गया।

क्‍या मालूम था ऐसा करने से कौशी नाराज हो जायेगी, अनाप-शनाप उगलने लगेगी। और घर का रवैया ज्‍यों का त्‍यों बना रहेगा।

मुझे भ्रम हो गया कि मैं घर में रहकर कुछ भी नहीं कर सकूँगा और मैं अपनी कुछ किताबें तथा प्रमाण-पत्रों को लेकर अधिक आमदनी के साथ पढ़ाई जारी रखने का संकल्‍प लेकर किसी को कुछ बताये बगैर अन्‍य शहर की और पलायन कर बैठा।

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शहरों में जितनी काम-धन्‍धे की समस्‍या नहीं है, उतनी आवास की है।

अनेकों जगह नाक रगड़ी, खाक छानी-कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाया, फॉंके झेला, मगर किसी को मेरा दु:खड़ा सुनने की फुरसत नहीं। सहानुभूति तो दूर रही। उफ! कितनी बेरहम है दुनिया!

आवास रोजगार दोनों का हाल मुझे होटल में काम करने पर ही मिला, मगर कौशल्‍या की आँखें मुझे घूरती हुई क्रोधपूर्ण और नाराज दिखाई देने लगती और मैं तुरन्‍त होटल का काम छोड़ देता।

एक काम छोड़कर दूसरा पकड़ता, दूसरा छोड़कर तीसरा पकड़ता। और पकड़कर छोड़ना। इसी तरह भटकता रहा-भटकता रहा।

अन्‍त में मुझे लकड़ी टाल पर काम करने में राहत मिली। स्‍थायित्‍व मिला। और आाशा बंधी अपनी पढ़ाई जारी रखने की।

हालांकि दिनभर लकडि़यों की उठा-धरी व तोला-ताली में थककर चूर हो जाता। वहीं बनी लकड़ी की झोंपड़ी में रात को पढ़ता और सो जाता। इस तरह मुझे भी पढ़ने के लिये रात में शॉंत जगह मिल गई और टाल-की नि:शुल्‍क चौकीदारी भी हो जाती। इसीलिये टाल-मालिक भी मुझसे खुश रहता....।

‘’आ गई साब; लेबर कॉलोनी।‘’

तॉंगेवाले की आवाज से जैसे मैं चौंक गया। मुझे छन-छनाहट और टिप्-टाप बहुत जोर से सुनाई देने लगी।

ताँगा रूक गया था।

मैं हड़बड़ाकर अपना ऐयर बैग सम्‍हालता हुआ उतर गया। पैसे देते समय मैंने उससे पूछा, ‘’ये बीस नम्‍बर ब्‍लॉक किधर पड़ेगा?’’

‘’जी मालूम नहीं, अन्‍दर जाकर पता कर लीजिए। वह अपना तॉंगा मोड़ने लगा।

मैंने अपनी स्‍वेटर नीचे खींची। ठण्‍डी हवा अब कुछ तेज लगने लगी थी।

सहपाठी का वह पत्र जो मेरे प्रथम व अं‍तिम पत्रोत्तर में मुझे प्राप्‍त हुआ था। कौशल्‍या के पते का एक बार फिर अवलोकन किया, लेकिन पत्र का एक-एक वाक्‍य मेरे दिल-दिमाग में गहरे उतर चुका था एक-एक वाक्‍य ही नहीं बल्कि एक-एक शब्‍द भी कौशलया की नहीं बल्कि मेरी भी बर्बादी की कहानी थी। पत्र मेरी आँखों में उतरने लगा....

....अजीज दोस्‍त,

तुम्‍हारे ख़त से यह जानकर खुशी हुई कि तुमने अपनी मंजिल हासिल कर ली है। पर अफसोस है कि तुम्‍हारे मुताबिक मैं यह खबर कौशल्‍या तक नहीं पहुँचा सकूँगा, क्‍योंकि वह इस वक्‍त अपनी ससुराल में है।

निहायत ही अफसोस के साथ तुम्‍हें इत्तला देनी पड़ रही है, कि तुम्‍हारे अचानक गायब हो जाने के बाद दो साल तक तुम्‍हारे नाम को रटती रही। मगर वह हालातों से इस कदर मजबूर हो गई कि उसे शादी के लिये राजी होना पड़ा....।

....उस पर मुसीबतों की बिजलियॉं और पहाड़ टूटने शुरू हो गये। बारातियों की बस वापसी में दुर्घटना ग्रस्‍त हो गई और अन्‍य कुछ लोगों के साथ दूल्‍हे का भी इन्‍तकाल हो गया....इस सदमें से कौशल्‍या के वालिद साहब भी चल बसे। मॉं तो उसे बचपन में ही बिलखती हुई छोड़ गई थी।

उसके नसीब में रहे बस ससुराल और समाज के जुल्‍मों-सितम्।

इस वक्‍त वह एक दम बीरान और तन्‍हा मजार बनी अपनी सॉंसों का बोझ ढो रही है....मुमकिन है अब भी उसे तुम्‍हारा इन्‍तजार हो। उसका पता है,

....ब्‍लाक नं. बीस....

तुम्‍हारा

सलीम,

....काश! मैं उसे छोड़कर ना गया होता। ऊफ! मैंने उसे जीते जी मार डाली.....अपराधी हूँ...।

मेरा रोम-रोम कॉंपने लगा। उसके सामने जाने का साहस जुटाते हुये कॉलोनी के ब्‍लाक नम्‍बर पढ़ता हुआ आगे बड़ता गया.....अधिकांश ब्‍लॉकों के नम्‍बर मिट चुके थे, धुंधले पड़ चुके थे या पोतकर मिटा दिये गये थे।

सामने मैदान में एक सज्‍जन आराम से कुर्सी पर बैठे अख़बार देखते हुये धूप की गर्मी ले रहे थे। उनके बगल में एक कुर्सी और खाली पड़ी थी। एक दूसरा बूढ़ा आदमी कदम गिनता हुआ उन्‍हीं के पास शायद बैठने जा रहा है। क्‍यों ना इन्‍हीं से पूछूँ!

उसके मुँह से, ‘’कौशल्‍या।‘’ शब्‍द सुनकर मेरे पॉंव जड़ हो गये। परन्‍तु उनकी तरफ अपनी पीठ करके सारा ध्‍यान उनकी बातों के सुनने में लगादिया।

‘’मुझसे अब उसकी दुर्दशा देखी नहीं जाती... मैंने कितनी बार कहा-कौशल्‍या बेटी यूँ क्‍यों अपना जीवन खो रही हो, मैं कोई अच्‍छा सा लड़का देखकर तेरा दूसरा घर बसा देता हूँ।....मगर मुंडी हिलाकर इन्‍कार कर देती है। और ना जाने क्‍या सोच में लग जाती है।....हॉं आजकल उसे एक बीमारी लग गई है....वह नींद में ना जाने क्‍या-क्‍या बड़बड़ाती है- और बुरी तरह चिल्‍लाने लगती है...हीरा! हीरा!’’

ऊफ! मेरे ऊपर कड़कड़ाती हुई बिजलियॉं गिरने लगी। जैसे वे मुझे जलाकर राख कर देंगी।

मेरे अन्‍दर ना जाने क्‍या उबलने लगा। कौशल्‍या की नवीन मगर विचित्र सी आकृतियॉं तैरने लगीं कभी अनेक ज़हरीले सॉंपों से जकड़ी हुई तड़फड़ाती दिखाई देती, तो कभी अथाह गहरी भयानक खाई में बिलबिलाती नजर आती...।

‘’चलें दवा पिऊँगा!’’

बुड्ढे की आवाज फिर सुनाई दी, ‘’वो आ गई’’

मैंने पलटकर देखा-बुड्ढा रोड की और देखता हुआ खड़ा हो गया था।

मैं रोड पर आती हुई ये किसे देख रहा हूँ। हाथ में शीशी रखे हुये, नीचे से ऊपर तक सफेद लिवास में ये कौन आ रही है। ऐं! ये तो कौशी ही है। एकदम सूख गई है।

वह रूककर मुझे टकटकी बाँधे इस तरह घूर रही है। जैसे अपने आप पर गुजरे जुल्‍मों, ज्‍यादतियों और हादसों का मुझसे हिसाब मॉंग रही हो।

उसके हाथ से शीशी अपने आप छूटकर फूट जाती है। जैसे मेरे या उसके अन्‍तर में कुछ फूट गया हो।

‘’हीरा!!!’’ उसकी हृदय विदारक चीख मेरे सीने को चीरती हुई रोम-रोम में कम्‍पन्‍न्‍ पैदा कर देती है-

पलक झपकते दौड़कर वह मुझसे इस कदर चिपक गई जैसे विद्धुत भरा तार चिपक गया हो।

मैं निर्जीव सा हो गया। मेरी आँखें तो सिर्फ नम ही हुई, मगर उसके आँसू मेरी स्‍वेटर को पार करके मेरे कन्‍धे से होते हुये मेरे जिस्‍म को गर्म करते हुये भिगोने लगे।

एक पल को मुझे मेहसूस हुआ जैसे वह मुझे अपने पहलू में छुपा लेना चाहती है या मेरे पहलू में छुप जाना चाहती है।

मैंने सामने नजर फैलाई अनेकों नजरों की चुभन मेहसूस की, ‘’होश में आओ कौशी, सभी लोग कैसी-कैसी निगाहों से घूर रहे हैं।’’

‘’घूरने दो।‘’ वह कुछ सर उठाकर रीति-रिवाजों को तोड़कर तुम्‍हारे पहलू में यह समर्पण अद्वितीय व अविस्‍मर्णिय है, इसे मैं खोना नहीं चाहती।‘’ उसकी कॉंपती हुई आवाज सारे माहौल में गूँज उठी।

इति


संक्षिप्‍त परिचय

नाम:- राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव,

जन्‍म:- 04 नवम्‍बर 1957

शिक्षा:- स्‍नातक ।

साहित्‍य यात्रा:- पठन, पाठन व लेखन निरन्‍तर जारी है। अखिल भारातीय पत्र-पत्रिकाओं में

कहानी व कविता यदा-कदा स्‍थान पाती रही हैं एवं चर्चित भी हुयी हैं। भिलाई

प्रकाशन, भिलाई से एक कविता संग्रह कोंपल, प्रकाशित हो चुका है। एवं एक कहानी

संग्रह प्रकाशनाधीन है।

सम्‍मान:- विगत एक दशक से हिन्‍दी–भवन भोपाल के दिशा-निर्देश में प्रतिवर्ष जिला स्‍तरीय कार्यक्रम हिन्‍दी प्रचार-प्रसार एवं समृद्धि के लिये किये गये आयोजनों से प्रभावित होकर, मध्‍य- प्रदेश की महामहीम, राज्‍यपाल द्वारा भोपाल में सम्‍मानित किया है।

भारतीय बाल-कल्‍याण संस्‍थान, कानपुर उ.प्र. में संस्‍थान के महासचिव माननीय डॉ. श्री राष्‍ट्रबन्‍धु जी (सुप्रसिद्ध बाल साहित्‍यकार) द्वारा गरिमामय कार्यक्रम में सम्‍मानित करके प्रोत्‍साहित किया। तथा स्‍थानीय अखिल भारतीय साहित्‍यविद् समीतियों द्वारा सम्‍मानित किया गया।

सम्‍प्रति :- म.प्र.पुलिस से सेवानिवृत होकर स्‍वतंत्र लेखन।

सम्‍पर्क:-- 145-शांति विहार कॉलोनी, हाउसिंग बोर्ड के पास, भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.) पिन-466001, व्‍हाट्सएप्‍प नम्‍बर:- 9893164140 एवं मो. नं.— 8839407071.

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