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कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर - 2

कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर

2

परिवार साथ हो और काम हाथ में ना हो तो अपना और प्रियजनों का पेट पालने के लिए इनसान कोई भी काम करने को तैयार हो जाता है।

बाहर से आए लोग तो कोई भी काम करने को तैयार थे किंतु ब्रिटिश निवासी इन्हें अपनाने को तैयार नहीं हुए। इतने सारे एक जैसे लोगों को देख कर वह वैसे ही घबरा गए थे। पहले ही कुछ वर्षों से ब्रिटेन के कारखानों में काम करने के लिए यहाँ की सरकार ने भारतवंशियों को वीजा देना शुरू कर दिया था। जो वह इनके कारखानों में काम करके प्रोडक्शन को योरोप के मुकाबले में और आगे बढ़ा सकें। मेहनती लोग सस्ते दामों पर मिल जाएँ तो और क्या चाहिए।

जहाँ पहले कभी जिन अंग्रेजों ने कोई भारतीय नहीं देखा वहाँ इतने सारे एक जैसे चेहरे देख कर वह पागल हो गए...। एक दूसरे से अपने दिल का डर बताने लगे...

"देखो तो... लगता है इतने सारे एलियंस हमारे देश पर हल्ला बोलने आ रहे हैं" खिड़की का पर्दा हटा कर बाहर झाँकते हुए बलिंडा ने कहा।

"नहीं बलिंडा ये एलियंस नहीं अफ्रीका से आने वाले कुछ और भारतीय हैं।"

"अब हमारा क्या होगा एनी...। यह भारत से आए लोग तो चारों ओर से हमें घेर रहे हैं...। लगता है हमने जो करीब दो सौ साल तक इन पर राज्य किया है ये शायद उसी का बदला लेने इतनी बड़ी संख्या में इकट्ठे हो रहे हैं। हैरानी तो इस बात की है कि सब कुछ जानते हुए भी अंग्रेज सरकार ने इतने सारे लोगों को यहाँ आने की अनुमति कैसे दे दी...।"

अनुमति तो मिली किंतु बेचारे अफ्रीका से निकाले गए लोग बहुत डरे हुए थे। अंग्रेजों का डरना अपनी तरह का था और भारतीयों का दूसरी तरह का। सब एक साथ रहने में ही अपनी भलाई मानते थे। इसमें उनका भी कोई दोष नहीं था। नया देश, नई भाषा, नए लोग वो एक गुट बना कर रहने में ही स्वयं को सुरक्षित समझने लगे।

इससे पहले कोई एक-आध भारतीय ही पढ़ाई के सिलसिले में ब्रिटेन आया करता था। उसे काफी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता था। कोई भारतीय कितना भी पढ़ा लिखा क्यों ना हो उसे हीनता की भावना से ही देखा जाता था। भारतीयों में भी हीनता आना और डर पैदा होना स्वाभाविक था। इतने साल अंग्रेजों की गुलामी जो सही थी। जहाँ थोड़े से अंग्रेज आ कर अपनी रणनीति से इतने बड़े भारतवर्ष पर राज कर सकते हैं वहीं उन्हीं के देश में कदम रखते हुए घबराहट तो होगी ही।

वैसे एक बात तो ब्रिटिश निवासी भी मानते हैं कि लेस्टर को असली पहचान भारतीयों ने ही दिलाई है। 19वीं सदी के आरंभ में लेस्टर के विषय में कोई जानता भी नहीं था। मोटर-वे पर कहीं लेस्टर का साईन तक नहीं था। यहाँ तक कि ब्रिटेन के नक्शे में छोटा सा लेस्टर का नाम कहीं लिखा मिलता था। यूँ कहिए कि लेस्टर की पहचान भारतीयों से, और भारतीयों की पहचान लेस्टर से हुई।

लेस्टर अपने टैक्सटाइल के नाम से भी जाना जाता है। कपड़ा बुनने से लेकर पूरा वस्त्र तैयार करने के कारखाने यहाँ मौजूद हैं। कच्चा माल सस्ते दामों में भारत से लाकर, फिर उससे सामान तैयार करके पूरी दुनिया में बेचा जाता। प्रोडक्शन और सामान की माँग बढ़ने लगी तो काम करने वालों की कमी महसूस हुई। ऑर्डर्स पूरे करने के लिए अधिक से अधिक लोगों को काम पर रखा जाने लगा।

काम की बात छोड़ो... ब्रिटेन के लोगों को किसी से भी मिल-जुल कर रहना अच्छा नहीं लगता। ये स्वयं को सब से ऊँचा और सभ्य मानते हैं। और तो और अपने जैसे गोरे दिखने वाले अपने ही देशवासी आइरिश लोगों के साथ भी यह मेल-मिलाप रखना पसंद नहीं करते। आइरिश लोगों को चर्च, पब, यहाँ तक कि आइरिश बच्चों को इनके स्कूलों में भी जाने की अनुमति नहीं थी। आइरिश बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई इंगलिश अध्यापक तैयार नहीं मिलता। इंगलिश और आइरिश बच्चों में भी आपस में भेद-भाव साफ दिखाई देता।

उस दिन गर्मी बहुत थी। कुछ आइरिश नौजवान ठंडी बियर पीने के लिए एक पब में घुस गए।

ग्राहकों को आया देख कर एक बारमैन ने मुस्कुराते हुए आगे बढ़ कर कहा... यस सर..."

"चार गिलास ठंडी बियर मेरे दोस्तों के लिए देना..."

उस लड़के का आइरिश एक्सेंट सुन कर बारमैन के होठों से मुस्कुराहट गायब हो गई। उसे बगलें झाँकते देख कर दूसरा बारमैन जल्दी से आगे आ कर बोला "हमारे यहाँ बियर नहीं बिकती..." पब लोगों से खचाखच भरा हुआ था। अधिकतर लोग बियर ही पी रहे थे। वह लड़का जरा गुस्से से बोला... "नहीं बिकती तो यह सब कैसे पी रहे हैं।"

"मैंने कहा न हमारे यहाँ बियर नहीं बिकती। आप लोग किसी अपने जैसों के पब में जाइए। यह इंगलिश पब है।"

इस प्रकार सब के सामने अपना अपमान होते देख वह चारों लड़के बारमैन की ओर गुस्से से देखते हुए पब से बाहर हो गए।

पब तो दूर की बात है इंगलिश चर्च में भी इन्हें जाने की अनुमति नहीं थी। चर्च तो इबादत का घर है। जब ऊपर वाले ने सब को एक जैसा पैदा किया है तो फिर ये धरती पे रहने वाले किस अधिकार से मतभेद करते हैं। वो भी इतना कि धर्म के नाम पर मरने मारने पर उतारू हो जाएँ। इंगलिश लोगों से अधिक तो आइरिश धार्मिक माने जाते हैं। हर रविवार को पूरे परिवार के साथ ये चर्च जाते हैं। आइरिश लोग अधिकतर केथोलिक धर्म को मानने वाले होते हैं। वैसे तो ब्रिटेन में हमेशा से ही दो धर्म मानने वाले पाए गए हैं - केथोलिक और प्रोटेस्टियन्स। जिनमें अकसर धर्म के नाम पर झगड़े भी होते रहते हैं...।

***

आज चर्च में बहुत भीड़ व चहल-पहल है। लोगों के चेहरे से खुशी साफ झलक रही है। बात ही कुछ ऐसी है। आज से आइरिश लोगों को भी चर्च में आने की अनुमति जो मिल गई है। अब यह लोग भी जब चाहें चर्च आ सकते हैं।

धार्मिक कार्य समाप्त होते ही माइकल अपने परिवार के साथ आगे बढ़ा पादरी के हाथ को किस करने के लिए जो पादरी उनके मुँह में भी वाइन में भीगा हुआ डबल रोटी का टुकड़ा डाल दें। उसे अपना हाथ देने से पहले ही पादरी ने खींच लिया। वह पीछे खड़े अंग्रेज की ओर बढ़ गया। आयरिश लोगों के चेहरे से सारी खुशी गायब हो गई। चर्च में आने का रास्ता तो खुला किंतु कोई अंग्रेज पादरी इनको संडे सर्विस देने को तैयार नहीं हुआ।

आइरिश लोग भड़क उठे। यह सरासर उनका अपमान था। वह एक दूसरे के सामने अपना गुस्सा प्रकट करने लगे...

"अब हम क्या करेंगे माइकल... केवल चर्च के दरवाजे खुलने से ही हमारी पूजा पूरी नहीं होती। जब सरकार ने हमारे लिए चर्च के दरवाजे खोल दिए हैं तो इन धर्म के ठेकेदारों को क्या आपत्ति हो सकती है।"

"घबराओ मत... यदि यहाँ के पादरी स्वयं को भगवान से भी ऊँचा समझते हैं तो हम इटली से पादरी बुलवाएँगे जो हमें संडे सर्विस दे सके।"

इटली से पादरी तो आ गया किंतु संडे सर्विस से पहले ही उस इटली से आए पादरी के सफेद लंबे चोगे को ले कर विवाद खड़ा हो गया। वैसे भी जब कहीं छोटा सा भी परिवर्तन होता है तो ना चाहने वाले आवाज तो उठाते ही हैं। इटली से आए पादरी और ब्रिटेन के पादरियों में झड़प हो गई... इंगलिश पादरी ने आगे बढ़ कर गुस्से से कहा...

"आप इस प्रकार के कपड़े पहन कर हमारे चर्च में नहीं आ सकते।"

"पहली बात तो चर्च किसी एक का नहीं होता। चर्च केवल इबादत का घर है। और दूसरा क्या आप सब पादरियों की कोई खास युनिफॉर्म है यहाँ पर..."

"नहीं... लेकिन यह पढ़े लिखे लोगों का चर्च है जहाँ ऐसे लंबे चोगों की गुंजाइश नहीं...।"

"धर्म कहाँ कहता है कि आप क्या पहन कर चर्च में आओ। मैं इटली से आया हूँ जो देश धर्म के विषय में आप से अधिक जानता है।"

"अच्छा अब धर्म की परिभाषा आप हमें सिखाएँगे। यह हमारी मेहरबानी समझो जो आप जैसों को हमने चर्च में आने की अनुमति दे दी है। हम अपने धर्म को किसी के साथ नहीं बाँटते।"

"यह धर्म का बँटवारा कब से होने लगा। चाहे किसी भाषा में भी इबादत करो धर्म तो धर्म ही रहेगा। इस प्रकार किसी दूसरे पादरी भाई के अपमान की धर्म अनुमति नहीं देता।"

"हम धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं..."

"धर्म तो भाईचारे का दूसरा नाम है मेरे भाई... धर्म सहनशीलता सिखाता है... आप यह क्यों भूल गए कि करुणा ही धर्म का आधार है... जो मुझे आप में दिखाई नहीं देती... आप धर्म का आदेश नहीं दे सकते। यह दिल से और प्यार से उत्पन्न होने वाली चीज है। जैसे प्यार बुद्धी को स्थिर करता है, धीरज मन को स्थिर करता है, प्रेम हृदय को स्थिर करता है, समर्पण शरीर के आवेश को स्थिर करके शांत करता है, न्याय आत्मा को स्थिर करता है... उसी प्रकार धर्म करुणा को जन्म हेता है। यह सब धर्म के आधार हैं। यह सारे आधार जब स्थिर हो जाते हैं तब मनुष्य करुणा से भर जाता है जिसे हम धर्म का नाम देते हैं। आप इन आधारों का बँटवारा कैसे कर सकते हैं..."

ऐसी धर्म की परिभाषा सुन कर वहाँ खड़े सब पादरियों के मुँह खुले के खुले रह गए। वह लंबे चोगे वाला केथोलिक पादरी उन्हें धर्म का अर्थ समझा कर चर्च से बाहर हो गया।

इटली से आने वाला पादरी अपने संग काफी पैसा लेकर आया था। अधिक पचड़े में ना पड़ने के कारण उन्होंने अपना अलग केथोलिक चर्च बनाने के लिए लेस्टर में ही एक जमीन का टुकड़ा खरीद लिया। जिसे देख कर केथोलिक लोग खुश तो हुए किंतु अपनी परेशानी लेकर पादरी के पास जा पहुँचे...

"फादर... जमीन तो हमने खरीद ली है किंतु इस पर चर्च बनाने का खर्चा कहाँ से उठाएँगे?" माइकल ने उदास स्वर में पूछा।

"बेटे जिसने यह जमीन खरीदने की हिम्मत दी है वही आगे भी सहायता के लिए हाथ बढ़ा देगा।"

प्रयत्नों के पश्चात सहायता मिलनी आरंभ हो गई। इटली में अधिकतर केथोलिक धर्म को मानने वाले रहते हैं। जब उनके पादरी ने ब्रिटेन में पहला केथोलिक चर्च बनाने का प्रस्ताव रखा तो धर्म के नाम पर इटली निवासियों ने दिल खोल कर दान दिया।

इस तरह लेस्टर में ही नहीं पूरे ब्रिटेन में इस पहले केथोलिक चर्च की स्थापना हुई जो लेस्टर की धरती पर बना। इसकी बाकी की बची हुई जमीन पर एक कम्युनिटी सेंटर बनाया गया जो बाद में एक स्कूल में परिवर्तित हो गया। यह स्कूल केवल लड़कियों के लिए ही था। आगे चल कर काफी मुसलमान लड़कियों ने इसमें दाखिला लिया। यह ब्रिटेन का सबसे पहला ऐसा स्कूल था जिसमें अधिकतर एशियंस और आइरिश लड़कियाँ थीं।

इधर आइरिश लोगों के लिए चर्च के दरवाजे खुले और उधर भारतीय बच्चों की मेहनत भी रंग दिखाने लगी। भारतीय बच्चे जान गए थे कि स्कूलों में अपना स्थान बनाने के लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना होगा। पढ़ाई में गोरे बच्चों से आगे निकल कर दिखाना होगा। जिन स्कूलों में वह पहले प्रवेश नहीं कर सकते थे उनकी पढ़ाई की लगन को देख कर उन्हीं स्कूलों के दरवाजे उनके लिए खुलने लगे। किंतु केवल स्कूलों के अंदर जाने से ही बच्चों की मुश्किलें समाप्त नहीं हुईं। वहाँ पढ़ने वाले कई अंग्रेज छात्रों को उन्हें अपनाने में बड़ा समय लगा। अंग्रेज और भारतीय छात्र अपने अलग गुट बना कर रहते। अक्सर खेल के मैदान में दोनों की आपस में भिड़ंत भी हो जाया करती।

ये नहीं कि केवल लड़के ही बुली करते हों, लड़कियों में यह भावना और भी अधिक पाई जाती है। हाँ! वह तभी ऐसा करतीं हैं जब तीन चार इकट्ठी होतीं। यह लड़कियाँ जब किसी एशियन को पास से निकलता देखतीं तो नाक पर रूमाल रख कर ऐसे रास्ता बदल लेतीं जैसे सामने से गंदगी का ढेर चला आ रहा हो। कुछ तो घृणा से उनकी तरफ देख कर सड़क पर थूक भी देतीं। वैसे सड़क पर थूकना अंग्रेजी सभ्यता के खिलाफ समझा जाता है। एशियंस के लिए पाकी, ब्लडी बास्टर्ड आदि सुनना तो आम सी बात हो गई...।

***

निशा जब ब्रिटेन आई थी तो कुछ महीने की बच्ची थी। ब्रिटेन में पहले प्ले ग्रुप व फिर यहाँ के स्कूल में पढ़ने के कारण उसे दूसरे बच्चों के समान अंग्रेजी भाषा समझने व बोलने में इतनी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। फिर भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना और अंग्रेजी माहौल में रहना दो अलग बातें हैं। निशा घर में तो अपनी मातृ-भाषा ही बोलती है। जो अंग्रेजी में बोलते ही नहीं सोचते भी अंग्रेजी में ही हों, उनके लहजे को समझने और पकड़ने में समय तो लगता ही है।

सैकंडरी स्कूल में पहुँचते ही निशा को अलग ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अंग्रेज बच्चे स्वयं को इन सब से ऊँचा मानते थे और अपना अलग ही गुट बनाए रहते थे। एशियन बच्चों का बोलने का ढंग, कपड़े पहनने का ढंग, खाने का ढंग आदि... सबका मजाक उड़ाया जाता।

मजाक उड़ता देख कर भी निशा ने हिम्मत नहीं हारी और अंग्रेज बच्चों से दोस्ती का हाथ बढ़ाने में पहल उसी ने की। एक स्कूल कैंटीन ऐसी जगह होती है जहाँ सभी बच्चे इकट्ठे बैठ कर खाना खाते हैं। कुछ सोच कर निशा अपनी प्लेट ले कर एक मेज की ओर बढ़ी जहाँ पहले से ही कुछ अंग्रेज छात्र बैठे खाना खा रहे थे...।

"इस लड़की का हौंसला तो देखो अपना गुट छोड़ कर अकेली ही हमारी मेज की ओर आ रही है।" खाना खाते हुए एक छात्र बोला...।

"आने दो ना मजा आएगा..."

निशा जैसे ही एक खाली कुर्सी पर बैठने लगी सब ने ऐसे मुँह बनाया जैसे अचानक कोई कड़ुवी चीज खा ली हो।

"हाय... मेरा नाम निशा है। हम एक ही कक्षा में पढ़ते हैं और आपस में जान पहचान ही नहीं तो सोचा क्यों न मैं ही दोस्ती का हाथ बढ़ा दूँ।" निशा ने जैसे ही हाथ आगे बढ़ाया सब ऐसे बनने लगे जैसे उसकी बात समझ में ना आ रही हो। फिर उसके एक्संट का मजाक उड़ा कर हँसने लगे।

उनकी हँसी ही नहीं जुबान भी बंद हो गई जब पढ़ाई में भारतीय बच्चे स्वयं को साबित कर गोरों से आगे निकलने लगे। भारतीय बच्चे समझ गए थे कि अंग्रेज बच्चों का मुकाबला करने के लिए उन्हें उनसे अधिक नंबर लाने होंगे जिसके लिए माँ-बाप ने भी अपना पूरा सहयोग दिया।

कुछ माता पिता इकट्ठे होकर स्कूल की मुख्य अध्यापिका के पास पहुँच गए। मुख्य अध्यापिका इतने सारे बच्चों के माता पिता को देख कर हैरान हो गई। वह शीघ्रता से दफ्तर से बाहर आकर उनके आने का कारण पूछने लगी...

आप सब लोग इतनी बड़ी मात्रा में यहाँ। कोई विशेष शिकायत...

"शिकायत तो नहीं एक विनती ले कर हम सब यहाँ उपस्थित हुए हैं... मैडम आप तो जानती ही हैं कि हमारे बच्चे कितने मेहनती हैं। अंग्रेजी हमारी मातृभाषा नहीं है जिस के कारण वह पिछड़ जाते हैं। हम चाहते हैं कि इन बच्चों को अलग से स्कूल के पश्चात एक दो घंटे अंग्रेजी की शिक्षा दी जाए जो उन्हें अंग्रेजी लहजा समझने में कोई कठिनाई न हो।"

इतने सारे बच्चों के माता-पिता की बात अध्यापिका कैसे ठुकरा सकती थी। उसने सबको आश्वासन ही नहीं दिया बल्कि स्कूल में ही भारतीय बच्चों को अंग्रेजी लिखना बोलना सिखाने के लिए अलग से कक्षाएँ लगनी आरंभ हो गईं। उनकी लगन और मेहनत को देखकर दूसरे अध्यापकों का रवैया भी धीरे-धीरे बदलने लगा। जिस स्कूल में भारतीय बच्चे पढ़ते थे उस स्कूल की पढ़ाई का परिणाम काफी अच्छा आने लगा। अब तो हर बड़े स्कूल ही नहीं बल्कि प्राइवेट स्कूलों ने भी भारतीय बच्चों को अपनाना आरंभ कर दिया जहाँ पहले अमीर अंग्रेजों के बच्चे ही पढ़ सकते थे।

बच्चों की अंग्रेजी भाषा में परिवर्तन साफ दिखाई देने लगा। निशा के माता-पिता के समान और माँ-बाप भी घर में अपने बच्चों को अंग्रेजी में ही बात करने के लिए प्रोत्साहित करते दिखाई दिए। इससे उनके दो मकसद पूरे हो रहे थे। एक तो बच्चों को यहाँ का समाज अपना ले, और वह दूसरे अंग्रेज बच्चों के साथ घुल-मिल कर रहें। इसी बहाने बड़े लोग स्वयं भी काफी अंग्रेजी के शब्द सीख रहे थे।

कुछ भी हो एशियन्स और अंग्रेजों के रहन-सहन में अंतर तो है ही। किसी हद तक ब्रिटिशर्स का डर भी सही था। जब बच्चे एक साथ बड़े होंगे, आपस में मिलें जुलेंगे तो जाहिर सी बात है कि यहाँ के स्वतंत्र माहौल में रहने के कारण लड़के लड़कियों में आपस में नजदीकियाँ भी बढ़ेंगी। युवा बच्चों के मेल-जोल को दोनों परिवार रोक नहीं पाएँगे। अंतर उस समय और भी सामने आएगा जब अंतर्राष्ट्रीय विवाह होंगे। दो भिन्न संस्कृतियों के ऐसे मिलने से टकराव भी अवश्य होंगे।

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