Tere Shahar Ke Mere Log - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

तेरे शहर के मेरे लोग - 11

( ग्यारह )
इस नए विश्वविद्यालय का परिसर शहर से कुछ दूर था। हमारे सारे परिजन शहर में ही रहते थे। और इतने सालों बाद अब यहां आकर रहने पर ये तो तय ही था कि सब मिलने - जुलने आयेंगे, हमें बुलाएंगे।
अभी तक तो हम जब भी यहां आते थे तो मेहमानों की तरह ही आते थे और उन्हीं में से किसी के घर ठहर कर सबसे मिलना - जुलना करते थे।
किन्तु अब हम स्थाई रूप से यहां रहने आ गए थे। तो सभी को कम से कम एक बार तो आना ही था।
अतः यही सोच कर हमने विश्वविद्यालय परिसर में प्रस्तावित वाइस चांसलर आवास में न रह कर शहर में ही रहने का मन बनाया जहां पहले से ही हमारा एक फ़्लैट ख़ाली पड़ा हुआ था।
लंबे समय तक मुंबई दिल्ली जैसे स्थानों में फ्लैट्स में रह लेने के कारण हमें स्वतंत्र मकान की तुलना में फ्लैट में रहना ज़्यादा सुविधाजनक और आरामदेह लगता था।
एक बात ये भी थी कि फ्लैट्स में रहने पर आपको रख रखाव, सफ़ाई, सुरक्षा आदि पर काफी कम ध्यान देना होता है जबकि स्वतंत्र आवास में इन्हीं बातों के लिए ज़्यादा कष्ट उठाना पड़ता है।
अतः स्वतंत्र मकान में यदि आपके पास साफ़- सफ़ाई, रख रखाव व सुरक्षा के लिए घर में हर समय ख़ाली रहने वाले दो- एक लोग हों, तभी वहां रहना संभव हो पाता है। तब भी मकान को कभी ख़ाली छोड़ना निरापद नहीं होता। हां, ये बात ज़रूर है कि स्वतंत्र मकान में रहते हुए आपके भू खंड की कीमत अवश्य दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ती रहती है और आप बिना कुछ किए अमीर होते रहते हैं।
मेरे एक मित्र कहा करते थे, यहां हम ये सोच कर ख़ुश रह सकते हैं कि हमारे मरने के बाद भी हमारी संपत्ति करोड़ों की होती रहेगी, और इसी सोच में उनमें रहने वाले बिना कुछ किए दो कौड़ी के आदमी होते जाते हैं।
मेरे परिवार में तो महिलाओं सहित सभी व्यस्त रहने वाले लोग थे।
फ़िर फ्लैट्स में आपको कचरा प्रबंधन, चौकसी, पानी - बिजली, पेड़ - पौधों के रखरखाव के लिए कॉमन स्टाफ भी मिल जाता है।
ज़रूरत भर का सामान शिफ्ट करके हम लोग जयपुर में अपने नए आवास में आ गए।
लेकिन इस निर्णय के कारण मेरी पत्नी को रोज़ दो - तीन घंटे का कार का सफ़र ज़रूर करना पड़ता था।
इन दिनों एक और बात मैं गहराई से महसूस करने लगा था। ये बात "साहित्य" को लेकर थी।
मुझे ये कहते हुए काफ़ी संकोच होता है कि धीरे- धीरे साहित्य को सजावट का एक सामान समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी।
लोग ये समझ ही नहीं पाते थे कि वस्तुतः साहित्य समाज और व्यवस्था को सही रखने के लिए निरंतर निष्पक्ष दिशा निर्देश जारी करते रहने की अंतर्तम से उपजी प्रवृत्ति है जिसके पार्श्व में सबका मंगल छिपा है।
इस परिभाषा के संदर्भ में बौनों की तादाद लगातार बढ़ रही थी।
लोग मौलिकता से छिटक रहे थे, प्रामाणिकता से भटक रहे थे और इसमें उनके हाथों तकनीक का निरंतर दुरुपयोग हो रहा था।
"किताब आने से प्रतिष्ठा मिलती है, इसलिए हमारी भी किताब आ जाए",और यदि हमें प्रतिष्ठा फ़िर भी नहीं मिली तो दूसरे की भी धूमिल हो जाए। ये प्रवृत्ति बुद्धिजीवी वर्ग तक में देखी जा रही थी। और इसके लिए नकल, दूसरे से लिखवा लेना, सिफ़ारिश से छपवा लेना सब जायज़ था। येन केन प्रकारेण हम भी बुद्धिजीवी!
हमारे लिखे में किसी के लिए कुछ हो, इससे कोई लेना- लेना नहीं।
जब मैं समारोहों, संभाषणों आदि में ऐसे मंतव्य प्रकट करता तो लोग समझते कि शायद इसी खिन्नता के चलते मैं अब कुछ नहीं लिख रहा हूं और अरसे से मेरी कोई किताब नहीं आयी है।
इसी समय मेरे पहले उपन्यास "देहाश्रम का मनजोगी" के पहले प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे होने पर दिशा प्रकाशन, दिल्ली ने इसे दोबारा छापा।
लेकिन ये भी सच था कि मैं इन दिनों नया कुछ लिख पाने के लिए समय नहीं निकाल पाया था। मेरे पास बहुत से मित्र या परिचित संपादकों के पत्र रचनात्मक योगदान के लिए आते थे पर उन्हें भी कुछ नहीं भेज पाता था। कई सामूहिक संकलनों, विशेषांकों आदि में मैं मांग पर भी शामिल नहीं हो सका।
बल्कि स्थानीय स्तर पर भी मेरे स्टाफ व अन्य परिचितों के बीच ये धारणा बनने लगी कि मेरा रवैया बदलने लगा है और अब मैं हिंदी तथा साहित्य को लेकर पहले सा प्रतिबद्ध नहीं रहा।
इस सोच से मुझे तकलीफ़ होती थी और इसकी भरपाई मैं कई पत्रिकाओं में आजीवन सदस्यता शुल्क अथवा विज्ञापन आदि भेज कर करने की कोशिश करता था। लेकिन कुछ लोग इस बात को भी संदेह से देखते थे कि कोई लेखक ऐसा भी है जो पत्रिका का चंदा, विज्ञापन आदि तो भेज देता है पर मांगने पर भी रचना नहीं देता।
मुझे अपने संस्थानों में भी हिंदी के तुष्टिकरण के आरोप से बचने के लिए अंग्रेज़ी के स्टाफ तथा अन्य भाषा भाषी लोगों से सायास अनौपचारिक संपर्क रखने पड़ते।
लेकिन इसी का एक बड़ा लाभ भी मुझे हुआ। मैंने एक पंजीकृत अनुवाद ब्यूरो खोल दिया जिससे कई लोगों से वैचारिक व रचनात्मक आदान- प्रदान संभव हो पाया।
मेरी पत्नी अब कभी - कभी शाम को देर हो जाने के कारण विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में ही रुक जाती थीं। उनके लिए महिला छात्रावास के समीप ही एक पूर्णतः सज्जित कक्ष विशेष रूप से बना दिया गया था।
ये एक ऐसा ही दिन था।
दिन में उनका मेरे पास फ़ोन आया कि कल से विश्व विद्यालय के पहले सत्र का शुभारंभ हो रहा है। सुबह एक भव्य उदघाटन समारोह रखा गया है और शाम को एक सामूहिक डिनर भी रखा गया है।
आज सभी व्यवस्थाएं सुनिश्चित करने के लिए रात देर तक कार्यालय चलेगा। और फिर सुबह जल्दी ही हवन होगा इसके बाद ग्यारह बजे समारोह शुरू हो जाएगा। उन्होंने बताया कि बाहरी राज्यों से बड़ी संख्या में विद्यार्थियों के अभिभावक भी परिसर में आ चुके हैं और परिसर कल से विधिवत आरंभ हो जाएगा।
उन्होंने मुझसे भी कहा कि मैं कल शाम को वहां आ जाऊं फ़िर डिनर के बाद हम लोग साथ साथ वापस लौट लेंगे।
इस कार्यक्रम से मुझे लगभग डेढ़ दिन का समय मिल गया।
मैंने इस समय का इस्तेमाल उस काम के लिए करने का मन बनाया जिसे मैं पिछले कुछ समय से करना चाहता था।
वहां गांव में और उसके समीप औद्यौगिक क्षेत्र में मेरे जो दो मकान थे, उनमें बहुत सारे सामान के साथ ढेर सारी किताबें भी रखी हुई थीं।
ये किताबें साहित्यिक भी थीं और शैक्षणिक भी। इनमें कई बेशकीमती उच्च स्तरीय किताबें तो थीं ही, कुछ पत्रिकाओं और नोट्स का भी बहुत अच्छा संग्रह था। कई दूर दराज से आने वाले प्रोफेसर्स तथा शिक्षक भी जाते समय पुस्तकें और पत्रिकाएं हमें दे जाया करते थे, ताकि ये ग्रामीण व निर्धन विद्यार्थियों के काम आ सकें।
मैं इस बहुमूल्य संग्रह से कुछ चुनिंदा किताबें लेे आना चाहता था ताकि वो और ज़्यादा लोगों के काम आ सकें। हम कुछ दुर्लभ पुस्तकें विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में भी देना चाहते थे। कई किताबें अत्यधिक महंगी भी थीं।
मैंने अगले दिन सुबह अपने एक सहायक तथा ड्राइवर को बुला लिया और मैं ग्रामीण क्षेत्र के लिए निकल पड़ा।
सितंबर के महीने की उतरती गर्मी, नमी और ठहराव का बदनसीब सा समय था।
कोई भी समय कभी सबके लिए खूंखार नहीं होता, पर फिलहाल बात मेरी है, क्योंकि ये मेरी कहानी है।
मैं अपने सहायक के साथ चाकसू कस्बे को पार करके हाईवे पर मंथर गति से चलती गाड़ी में चला जा रहा था कि अचानक मेरे फ़ोन की घंटी बजी।
एक घबराया हुआ सा स्वर सुनाई दिया। आवाज़ मेरी पत्नी के निजी सहायक की थी...सर, गड़बड़ हो गई है, आप आ जाओ!
उसने हड़बड़ाते हुए मुझे बताया कि मेरी पत्नी को उदघाटन समारोह में भाषण देते हुए बीच में ही दिल का दौरा पड़ा है और बेहोश हो जाने के कारण अब उसे हॉस्पिटल लेकर गए हैं...
मैंने ड्राइवर को गाड़ी वापस मोड़ लेने के लिए कहा। उसने कुछ हैरानी से गाड़ी घुमा तो ली पर वो प्रश्नवाचक निगाहों से बार- बार मेरी ओर देखता रहा।
लगभग एक घंटे बाद अभी हम जयपुर पहुंचने ही वाले थे कि वही फ़ोन दोबारा आया।
...संदेश ऐसा था कि उसका अर्थ मेरे लिए हर दृष्टिकोण से एक ही था- "सब कुछ खत्म"!
ड्राइवर हिम्मत हार गया। बोला- सर, यहां से गाड़ी आप लेे जाओ... मैंने उसे दिलासा देते हुए समझाया और वो अपने में लौटा।
इस बीच मैंने जयपुर में रह रहे अपने सभी निकट परिजनों को फ़ोन पर ही ये कह दिया था, कि ऐसा - ऐसा हो गया है, और यदि वहां पहुंच सकते हों तो पहुंच जाएं!
मैं खुद जब वहां पहुंचा तो मैंने अपनी पत्नी को सफ़ेद चादर में लिपटे हुए दुनिया की सबसे ज़्यादा चैन की नींद में सोते पाया।
मेरे सभी भाई और भाभी भी वहां पहुंच चुके थे। मेरे छोटे भाई के घर सफ़ेद चादर में लिपटे उस बुत को हम लोग लेे आए, जिसे उस दिन सुबह तक मैं और मेरे सभी मित्र- परिजन मेरी धर्मपत्नी कहा करते थे।
विश्वविद्यालय में उसके शव को सम्मान से विदाई दी गई और सहयोगियों,परिजनों, मित्रों की कई कारों का काफ़िला इस लुटे कारवां को वापस ले आया।
मेरी पत्नी के अंतिम संस्कार के सारे विधि- विधान मेरे भाई के घर ही संपन्न हुए क्योंकि मेरी मां उन दिनों वहीं पर थीं।
जो कुछ हो चुका था उसे तो अब किसी ढब बदला नहीं जा सकता था लेकिन इस वक़्त मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि हज़ारों मील दूर बैठे बेटे को काल के इस दुष्चक्र की सूचना कैसे दूं!
मैं ये भी जानता था कि अब यदि बेटे को अमरीका से वापस बुलाता हूं तो फ़िर वो लौट कर वापस नहीं जाएगा और उसका बालपन से देखा हुआ सपना खंडित होकर रह जाएगा।
दूसरे, घर में रखी उसकी मां की पार्थिव देह तो चंद घंटों में अपने त्रास और त्राण से निजात पा लेगी पर अपने टूटे सपने के टुकड़े लेकर बच्चे को तो इस लोक ही में रहना होगा।
अतः मेरी चिंता दृढ़ता से उसे सूचना देने, समझाने और जो हो गया उसे सहने की कोशिश करने की सलाह देने की ही थी।
मैंने घर में बर्फ़ के सहारे रखी देह के पार्श्व में बैठे हुए ही उसे पांच फ़ोन किए। थोड़े- थोड़े अंतराल से।
पहली बार उसे कहा गया कि तुम्हारी मम्मी की तबीयत बिगड़ी है, चिंता मत करना।
धीरे धीरे उसे नानाजी नानीजी, मामा मामी, दीदी जीजाजी वगैरह के आ जाने और मम्मी के आईसीयू में होने की सूचना दी गई।
किन्तु जब पांचवीं बार मैंने ये सोच कर फ़ोन किया कि अब उसे सच बता ही देना चाहिए, तब मुझे फ़ोन पर उसके एक दोस्त की आवाज़ सुनाई दी- " अंकल, मैं आपके बेटे का दोस्त बोल रहा हूं, उसे आपके पहले फ़ोन से ही पता चल गया था कि आंटी नहीं रही हैं, उसके बाद के आपके सभी फ़ोन उसने चुपचाप मुस्कराते हुए सुने। हम सब रोए पर वो नहीं रोया। हम उसे कॉलेज से घर ले अाए हैं, अब वो सोया हुआ है, वो बाद में आपको फ़ोन करेगा, आप अपना और दीदी, माताजी वगैरह का ध्यान रखें।"
कभी- कभी हमें लगता है कि अपनी दुनियां हम चला रहे हैं लेकिन तभी अहसास हो जाता है कि नहीं, हम बढ़े- पनपे हुए वृक्ष सही, लेकिन बीज और अंकुरों में भी तो आगत की ताकत और क्षमता छिपी है।
संस्कारों, रिवाजों, प्रथाओं के अनुसार मेरे भतीजे ने पुत्र वाली सारी औपचारिकताएं निष्ठा से पूरी कीं।
बहुत सारे लोग शोक संवेदना प्रकट करने के लिए एकत्र हुए।
एक भीतरी बात आपको और बता देने का मन है। मैं और मेरी पत्नी इन बातों में यकीन तो नहीं रखते थे पर एक बार शौक़िया तौर पर हम अपने एक मित्र परिवार के आग्रह पर उनके गुरु, दिल्ली स्थित एक स्वामीजी को अपना हाथ दिखा बैठे थे।
उन्होंने मेरी पत्नी का हाथ देख कर बताया था कि इस विलक्षण महिला के पास केवल पैंतीस साल की उम्र तक का ही समय है।
मेरी पत्नी की हर काम में तेज़ी और चपलता हमेशा मेरा ध्यान खींचती रही थी। और जब पैंतीस साल की उम्र कुशलता से उसने पार कर ली तो कभी - कभी स्वामीजी का ज़िक्र चलने पर परिहास में ही वो कह देती थी कि शायद स्वामीजी ने अंक गणना में भूल से पांच- तीन को तीन- पांच पढ़ लिया!
मज़ाक की ये बात अब कभी- कभी मेरे मन में कौंध जाती थी क्योंकि उसकी मृत्यु जब हुई तो उसकी आयु तिरेपन साल में केवल पांच दिन कम थी।
एक स्वस्थ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाली मेरी पत्नी को ये पहला ही दौरा था, जिसने उसका जीवन लेे लिया।
इससे पहले उसे ब्लडप्रेशर की मामूली शिकायत ज़रूर रही थी जिसके लिए वो सामान्य दवा लेती ही थी।
एक बार चिकनगुनिया की बीमारी फैलने पर वो इसकी गिरफ्त में भी आई थी किन्तु इसके अलावा वो पूर्ण स्वस्थ व सक्रिय थी।
मेरा मन इस बात पर अवश्य उद्विग्न रहता था कि वो आराम बहुत कम करती थी और उसे लगातार कई घंटे काम में व्यस्त रहने की बहुत आदत थी।
वो खाली बैठ ही नहीं सकती थी। घर की अन्य महिलाएं तक कई बार कहती थीं कि हम तो इसके साथ बात करने तक को तरस जाते हैं। वो घरेलू और दफ़्तरी कामों में अतिव्यस्त रहती थी।
मैंने घर से हज़ारों किलोमीटर दूर संपन्न हुई अपनी बेटी की शादी के समय फेरों पर बैठे हुए भी उसे फ़ोन पर अपने ऑफिस में फाइलों की बात करते सुना था। शादी के फेरे मुहूर्त के अनुसार दिन में संपन्न हुए थे।
लेकिन मैं कभी - कभी सोचने पर इस बात के लिए अपने आप को भी दोषी पाता था कि हमारी शादी के बाद शुरू में जब मैं उसे इतना काम न करने और आराम भी करने के लिए कहता था तो वो बदले में मुझसे से भी यही कहा करती थी और मेरे एक लेखक,पत्रकार, बैंकर होने के नाते मुझे भी वो अपने मनोभावों, मूड्स पर नियंत्रण न पा पाते हुए देखती हो। मुंबई में मैं भी तो अपने औसतन सोलह घंटे काम पर ही खर्च करता रहा था।
किन्तु बाद के वर्षों में उसकी बढ़ी जिम्मेदारियों ने शायद व्यस्तता को उसकी विवशता में बदल दिया जबकि मैं उम्र के साथ अपनी दिनचर्या में बेहद सुविधा धारक होता गया।
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