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महाकवि भवभूति - 3

महाकवि भवभूति 3

भवभूति उवाच

जब-जब मेरा चित्त उद्धिग्न होता है, मुझे सिन्धु नदी के उसी शिलाखण्ड पर विराम मिलता है। फिर रात बिस्तर पर लेटते ही उन्हीं विचारों में खोया रहा-

आज मुझे अपने वचपन की याद आ रही है। मैं भवभूति के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध होता जारहा हूँ। मेरे बाबाजी भटट गोपाल इसी तरह सम्पूर्ण विदर्भ प्रान्त में अपनी विद्वता के लिये जाने जाते थे। मैं अपनी जन्मभूमि में श्रीकण्ठ के नाम से चर्चित होता जा रहा था। मेरे बाबाजी ने शायद मेरे सुरीले स्वर को पहचान कर मेरा नाम श्रीकण्ठ रखा था। मेरे गायन में कण्ठ बहुत सुरीला था। इसी कारण मेरे बाबाजी ने अपनी कुछ कवितायें मुझे रटा दीं थीं। बाबाजी के मित्र के समक्ष उन्हें सुरीले स्वर में सुनाने लगा था। उनके मित्र मुझ से उनकी कवितायें सुनकर वाह वाह! कह उठते। अपनी प्रश्ंासा सुनकर में गद्गद् हो जाता। मेरे सुरीले स्वर के कारण लोग मुझे श्रीकण्ठ के नाम से बुलाने लगे थे। बाबाजी को भी उनका दिया हुआ नाम पसन्द आ गया था।

पद्मपुर कस्वे के कवि-नाटककार हमारे यहाँ आकर इकत्रित हो जाते। घर में काव्य गोष्ठियों का दौर चलता रहता था। वे लोग भी अपने मधुर स्वर में अपनी- अपनी कविताओं का बाचन करते। उनके स्वर की तान मेरे मन को आज भी झंकृत करती रहती है। ‘आप सब ये किसकी कविताओं का वाचन करते हैं।’एक दिन मैंने बाबाजी से पूछा था।

वे मुझे समझाते हुये बोले-‘हम सब किसी अन्य की नहीं, अपने द्धारा रचित रचनाओं को ही सुनाते हैं। इनमें हमने जो अनुभूतियाँ व्यक्त की है वे सजीब होकर कितनी मुख्रित हुईं हैं। यों हम उनका मूल्याँकन भी करते चलते हैं।’

मैंने पूछा था-‘‘ कैसे लिख लेते हैं ऐसी रचनायें!’’

उन्होंने मुझे समझाया-‘‘हमारे मन में हर पल नये-नये भाव बनते-मिटते रहते हैं। जो भाव हमें नयी-नयी अनुभूतियेंा से सराबोर करते हैं उन्हें हम छन्द-बद्ध कर लेते हैं।’’

‘क्या मैं भी ऐसी रचनायें लिख सकता हूँ। मुझे सिखलादो ना लिखना।’ मैंने बाबा जी से सहज ही कह दिया था।

बाबाजी ने मुझे कुछ छन्दों के नियम रटवा दिये और बोले-‘ मन में उठने वाले भावों को छन्द में लिपिबद्ध करते चलें।’

उसके बाद मैंने इसी प्रक्रिया से एक छन्द लिखकर पहली वार बाबाजी को सुनाया था। उन्होंने उसमें कुछ परिवर्तन कर मुझ से वह छन्द बार-बार सुना था और अपने कवि मित्रों की सभा में भी सुनवाया था। सभी ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसी दिन से मेरा लेखन शुरु हो गया था।

एक दिन की बात है ,बाबाजी के साहित्यकार मित्र तेजनारायण शर्मा जी एक काव्य नाटिका लिखकर लाये। प्रसंग था‘‘ सीता निर्वासन’’। वे वाल्मिकि रामायण से पृथक् काव्यमय संवाद का सृजन करके लाये थे। मधुर स्वर में गाकर जिसको उन्होंने अभिनय के साथ प्रस्तुत किया। वे मेरी ओर देखते हुये बोले-‘‘ इनमें से तुम किस पात्र का अभिनय कर पाओगे।’’

मेरे मँुह से निकल गया-‘‘ लव का।’’

मुझे खूब याद है, बचपन से ही मेरी स्मरण शक्ति इतनी ठीक थी कि किसी के मुख से किसी बात को एकबार सुन लेने पर जस की तस स्मृति में बस जाती थी। उस दिन मैंने उनके द्वारा सुने लव के संवाद को सस्वर यथावत् सुना दिया। इससे वे इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने उस गीतनाटिका में लव का पाठ मुझे दे दिया।

वे हमारे घर आकर मुझे उसका अभिनय सिखाने लगे। कुछ ही दिनों में उन्होंने दूसरे पात्रों का भी चयन कर लिया।

मुझे याद है, महाशिवरात्रि के अवसर पर वह नाटक पद्मपुर के शिवालय के मंच पर खेला गया था। उसमें सूत्रघार का कार्य स्वयम् उन्होंने ही किया था। मेरे अभिनय की सभी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसी दिन से मेरा चित्त नाटक के रूप में कुछ भी लिखने के लिये उत्सुक रहने लगा था।

मेरी माँ जतुकर्णी ने जब यह प्रशंसा सुनी तो उन्होंने मुझे अपने गले से चिपका लिया था। मेरे रक्तिम् गोरे गाल पर काजल की विन्दी लगा दी। जिससे मुझे किसी की नजर न लग जाये।

आज याद आ रही है परम पूज्य दादी केशर वा की। वे मुझे बहुत प्यार करतीं थीं। प्रतिदिन नोनी अर्थात् नवनीत का लोंदा मेरे भोजन में परोस देतीं और कहतीं-‘हमारे बालकृष्ण इस नवनीत को खाकर ही बलवान बने थे। इसमें जितने गुण हैं उतने घृत में नहीं हैं। हमारे राम जी तो माखन रोटी कौवों को खिला दिया करते थे।’ मैं बचपन से ही रात्रि के समय दादी के साथ ही सोता था। वे उस समय प्रतिदिन कोई न कोई कहानी सुनाती रहती थीं। उनकी कहानियाँ श्रीरामजी के चरित पर ही हुआ करती थीं।

एक दिन वा ने सोते वक्त कथा सुनाई-‘‘वत्स, तुमने महान तपस्वी शम्बूक का नाम सुना है?’

मैंने उत्तर दिया-‘जी, वा सुना तो है। वह कोई तान्त्रिक साधना कर रहा था।’

‘नहीं वत्स, वह सात्विक तपस्वी था। उस समय के व्राह्मणों को शम्बूक की तपस्या रास नहीं आई। वे उसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ने लगे।’

‘वा, मैंने ये बातें नहीं सुनी।’

‘जो नहीं सुनी ,मैं उन्हीं बातों को सुना रही हूँ।’’

‘तो सुनाइये ना वा। किसी की तपस्या, किसी को रास न आना न्यायोचित बात नहीं है।’

‘वत्स, तुम्हीं बताओ, राम जैसा व्यक्तित्व इस धरती पर कोई दूसरा नहीं हुआ है। ....फिर किसी के तप करने से किसी ब्राह्मण बालक की मृत्यु होना।.....और इस कारण को आधार मानकर राम के द्वारा उसे मारना, तुम्हें यह कथा क्षेपक नहीं लगती।’

‘ वा, आपकी बात ठीक लगती है।’

‘ ब्राह्मणों ने अपनी इज्जत बचाने के लिये यह कथा वाल्मीकि रामायण में जोड़ दी है।’

‘वा, आपकी बात विचारणीय तो है, मैं इस बात पर विचार करने का प्रयास करुँगा।’ यों इस प्रसंग के प्रति विचार बचपन से ही मेरे मन में बैठ गया था।

नाटकों के लेखन के प्रति आर्कषण हेतु एक घटना घटी-विदर्भ प्रान्त में गणेश चतुर्थी का त्योहार प्राचीनकाल से मनाने की परम्परा रही है। मैं प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके मध्यमा की पढ़ाई कर रहा था। हमारे मध्यमा के छात्रों द्वारा गणेश चतुर्थी के अवसर पर ‘श्रवण पितृभक्ति’ नामक नाटक खेला गया। मैंने उस नाटक में श्रवण कुमार की भूमिका का निर्वाह किया था।

मेरा अभिनय देखकर सभी दर्शक वाह-वाह कह उठे थे। मेरे बाबा श्री भटट गोपाल ने मुझे गले से लगा लिया था। मेरे इस अभिनय के लिये दर्शक बाबाजी को धन्यवाद दे रहे थे। इससे मेरा उत्साह बढ़ गया। उसके बाद तो मुझ पर ऐसा जुनून चढ़ा कि हर पल नये- नये नाटको के वारे में सोचने लगा।

उधर रामकथा से जुड़े प्रसंगों पर बचपन से ही चिन्तन प्रवाहित हो उठा था। जब मैं अकेला होता रामकथा के सम्वाद दर्पण के समक्ष अभिनय के साथ बोल कर देखने लगा। नारी का स्वर निकालते समय उसकी भाव भंगिमाओं के साथ अभिनय करके देखता। यों धीरे- धीरे नाटक लेखन के कार्य में दक्ष होता चला गया।

विदर्भ प्रान्त का पदमपुर कस्बा उन दिनों शिक्षा का केन्द्र था। क्षेत्र भर के विद्यार्थी पढ़ने के लिये वहाँ आते थे। घर में सुबह का कार्यक्रम यज्ञ से शुरू होता था। पिताश्री नीलकण्ठ पढ़ने वाले छात्रों से जैसे ही यज्ञ कराना शुरू कराते । बाबाश्री भट्टगोपाल सजे-सँवरे,माथे पर रामानन्दी चन्दन लगाये, पीला अॅचला ओढ़े, यज्ञशाला में प्रवेश करते। वेदों की ध्वनि वातावरण को आनन्दित करने लगती। वे यज्ञशाला में विश्वामित्र के सदृश विराजमान हो जाते। मैं भी वेद ऋचाओं की लय के अनुसार हाथ से अभिनय करते हुये वाचन करता। सारे छात्र इसमें एकाकार हो जाते।

बचपन में छोटी- छोटी बातों को लेकर जब-जब मैं व्यथित होता मेरे दादाजी मेरा चेहरा देखकर भँाप लेते। मुझे दुलारते हुये पास बुलाते और मेरे सिर को सहलाते हुये पूछते- ‘‘कहो वत्स, चिन्तित क्यों दिखाई दे रहे हो?’’

मैं उनके स्वभाव से परिचित था। वे जितने नरम थे उतने ही सख्त भी थे। मन की व्यथा कहने में, उनका कठोर स्वभाव दीवार बनकर खड़ा हो जाता। मैं सहज बनते हुये झूठ बोला-‘कहीं कुछ भी तो नहीं!’

वे समझ गये- मैं उनके कठोर स्वभाव के कारण मन की बात कहने से टाल रहा हूँ। उन्हांेने मुझे अपने हृदय से लगा लिया। इससे मैं समझ गया कि मेरी बात सुनकर वे क्रोधित नहीं हांेगे। मैं फिर भी डरते-डरते बोला- ‘दादाजी, आज मैं मित्रों के साथ बिना बतलाये बड़े सरोवर में स्नान करने चला गया था। जब लौटकर आया तो मेरी माताजी वहुत क्रोध में हैं।’

‘वत्स ,तुम्हारी माँ जातुकर्णी विदुषी हैं। उन्हें सम्पूर्ण रामायण कठस्थ है। वे संस्कारवान पिता की पुत्री हैं। तुम्हारे नानाजी महेन्द्र त्रिपाठीजी यहाँ राज परिवार में न्यायविद् हैं। उनके कोई पुत्र तो है नहीं। इसलिये वे चाहते हैं तुम न्यायशास्त्र के ज्ञाता बनो।’

‘बाबाजी ,मुझे न्यायशास्त्र उतना प्रिय नहीं लगता जितना वाल्मीकि रामायण पर कार्य करना।’

वे मेरे मन्तव्य को समझ गये फिर भी मुझे समझाते हुये बोले-‘तुम्हारी माँ की तरह हमें भी तुम्हारा कस्बे के आवारा लड़को के साथ खेलना अच्छा नहीं लगता। तुम्हारा पढ़ाई में भी मन कहाँ.....!’

‘बाबाजी, मेरी माँ भी ऐसा ही सोचतीं हैं।’

‘वे ठीक ही सोचती हैं। आपके काका के दोनों पुत्र पढ़ने-लिखने में प्रवीण हैं। मैं देख रहा हूँ, तुम्हारा सम्पर्क छोटी जातियों के लड़कों के साथ अधिक हैं। इससे हमारी प्रतिष्ठा को ठेस लगती है।’

बाबाजी की छोटी जातियों वाली बात उस दिन बहुत खली थी। मुझे बड़े कहलाने वाले लोगों से सामान्य जाति के लोग अच्छे लगते हैं। उनमें न कोई बनावट न अहं। यदि उनमें कोई अहं है तो अपनी जाति के गौरव का। सभी जातियों का अपना-अपना इतिहास है, उनका अपना गौरव है। हम अपनी जाति के गौरव के आगे उसे अनदेखा कर जाते हैं।

मूुझे वंशकार की लड़की वन्दना वहुत अच्छी लगती है। वाल्मीकि

ऋषि के द्वारा वणर््िात सीता की सहेली वासन्ती की मन मोहक मुस्कान की तरह उसका मुस्काना बहुत भाता है। कई बार उसे चूमने को मन होता है। मेरा बस चले तो मैं उसी के पास बैठा रहूँ।

मूुझे वह सरोवर पर मिली थी। मैंने उससे पूछा-‘वन्दना कैसी हो?’’ उसने दृष्टि नीचे करके धरती की ओर मुस्कराते हुये उत्तर दिया- ‘हमारी जाति के लोग जैसे होते हैं मैं वैसी ही हूँ।’

दिन-प्रतिदिन जातियों में दूरी बढ़ती जा रही है। आर्य एक जाति थी। उनने कार्य के आधार पर जातियों का बटबारा किया था, फिर किसी की जाति को छोटा-बड़ा कैसे माना जा सकता है। मुझे गडवड़ तो यहाँ लगती है कि उस स्वाभाविक बटवारे को जन्म से जोड़ उसमें गहरी खाई खोद दी गई। आर्याें की रोशनी को कैदखाने में डाल दिया गया। ऊँच-नीच की खाई गहरी होती जा रही है। मानवीय दृष्टिकोण नीचे खिसकता जा रहा है ।

मैं पन्द्रह बर्ष का हो गया था। अवस्था के कारण वन्दना के प्रति आकर्षण सहज ही होने लगा था। मुझे पता चल गया था, वह सरोवर में कब स्नाान करने जाती है? मैं उससे मिलने की इच्छा से पढ़ाई-लिखाई छोड़कर स्नाान करने के बहाने वहाँ पहुँच जाता। सरोवर के निकट वट वृक्ष की छाया का आश्रय लेकर उसे तैरते देखना अच्छा लगता था। उसके शरीर से चिपके वस्त्रों में उभरे उरोजों की आभा, सरोवर में खिले कमल सी उसकी चितवन, उसकी खिली पंखुड़ियों सी मुस्कान को मैं इतने लम्वे अन्तराल के बाद भी भूल नहीं पा रहा हूँ।

जब उसका स्नान करने से मन भर जाता तो वह सरोवर से निकलती, उस वक्त उसके अंगों की कलाकृति मुझे भावविभेार कर देती। वह मेरे देखने को अनदेखा करते हुये मुझे दिखा-दिखाकर वस्त्र बदलती। उससे निकटता बढ़ाने के लिये मन व्यग्र हो उठता। मैं वट वृक्ष की छाया से उठकर उसके पास पहुँच गया था। प्रकृति की शोभा से उसके अंगों की तुलना कर रहा था।

मुझे सोचते हुये देखकर उसने पूछा-‘ कहे! श्रीकण्ठ आपके घर वालों को जब यह बात ज्ञात होगी उस समय की तुमने कोई कल्पना की है।’

‘ इसकी चिन्ता मैं नहीं करता।’

‘ इससे आपके परिवार की साख नहीं गिरेगी?’

‘अमृतपान के बाद देवताओं की साख गिरी। ’मैंने उसकी बात का उत्तर दिया।

मेरी बात सुनकर वह ठहाका लगाते हुये बोली-‘ श्रीकण्ठ,दूर की चीज दूर से देखने में ही अच्छी लगती है।’ यह कहकर वह तेज कदमों से चली गई थी। उसकी बात गुनते हुये मैं वहाँ से चला आया था।

मैं जन सामान्य के निकट रहना चहता हूँ। यहाँ के लोग हैं कि मेरे परिवार की संस्कृत निष्ठ प्रतिष्ठा के कारण दूर रहना चाहते हैं। यह बात मुझे बहुत अखरती है। यह सोचते हुये मैंने करवट बदली। पत्नी दुर्गा बोलीं -‘आज आप व्यथित दिख रहे हैं? ’

मैंने उन्हें समझाया-‘ व्यथित तो ऊँच-नीच की खाई के कारण उस दिन भी रहा था जब उस बालिका से दूर होना पड़ा, किन्तु आज याद आ रही है उस दिन की जब मैंने ऐसी ही समस्याओं से जूझते हुये अपनी पहली कृति महावीरचरितम् का मंचन कराया था। सभी वर्गों के लोगों में से पात्रों का चयन करना बहुत कठिन कार्य था। फिर उन्हें पढ़ाया-लिखाया। नाट्यकला में दक्ष करने में बहुत समय निकल गया। ऊँच-नीच की खाई को पाटने का पूरा प्रयास किया गया। तब कहीं मंचन हो पाया है।’

वे बोलीं-‘ यह सब रामजी की कृपा ही है।’

मैंने दुर्गा से कहा-‘ रामजी की कृपा तो है किन्तु जाने यह क्यों लग रहा है कि मैं रामजी के चरित के साथ न्याय नहीं कर पाया हूँ?े’

यह सुनकर वे मेरे चहरे पर दृष्टि गड़ाते हुये बोलीं-‘ मैंने महावीरचरितम् के सारे सम्वाद पढ़े हैं मुझे तो उसमें कहीं कोई दोष दिखाई नहीं देता। कहें आप कहाँ संतुष्ट नहीं हैं!’

मैंने उन्हीं की भावभूमि में उत्तर दिया-‘‘सीता माँ की अग्नि परीक्षा वाला प्रसंग न्यायोचित नहीं है।’’

‘यह तो आप महार्षि वाल्मीकि के लेखन पर शंका कर रहे हैं।’

मैंने संतुलित होकर उत्तर दिया-‘ आज नारी की स्थिति और बदतर हुई है। आज के परिवेश में ऐसे लेखन का क्या औचित्य!’

वे बोलीं-‘ महाकवि, ऐसा न करके पौराणिक आख्यान के प्रति छेड़-छाड़ न होती। जो कथानक जनमानस के अन्तःकरण में छिपा बैठा है उसे कैसे विदा करेंगे! जनमानस उसके साथ छेड़-छाड़ पसन्द नहीं करेगा। आपने उस प्रसंग को यथावत् प्रस्तुत करके जनजीवन के साथ खिलवाड़ नहीं की है।’

‘ हमारे इसी मोह ने इस प्रसंग को महार्षि बाल्मीकि के अनुसार रहने दिया है। किन्तु आज का परिवेश........।’

‘महाकवि, परिवेश तो युग-युगों से बदला है और बदलता चला जायेगा। किन्तु पौराणिक आख्यान वही के वही इतिहास के साक्षी बनकर उपस्थित रहेंगे।’

‘किन्तु देवी, मैंने इस कृति को लिखकर आज के समाज को क्या देना चाहा है! कहीं यह पौराणिक प्रसंगों की पुनरावृति तो नहीं है? यदि ऐसा है तो ऐसे लेखन से क्या लाभ? जो पहले से था उसे फिर से लिख दिया। क्यों लिख दिया यह सब? अब कहो इसका क्या उत्तर है तुम्हारे पास?’

‘ अब क्या कहती, इसका मंचन तो हो ही चुका है। अब कृति आपकी नहीं रही बल्कि सारे समाज की हो गई है। अब इसमें परिवर्तन-संवर्घन न्यायोचित नहीं होगा।’

उनकी बात सुनकर मुझे लगा-इस कृति की उपादेयता पर विचार करके मुझे व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है।

इस समय याद आने लगी है बचपन की जब में व्यथित होकर करवटें बदलने लगता तो मेरे बूढ़े बाबाजी भट्ट गोपाल मेरी खटिया पर झुककर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुये पूछते-‘ आज क्या बात है, नीद नहीं आ रही है?’

उस दिन मैंने अनमने मन से उत्तर दिया था। बाबाजी जाने क्यों मेरा सिर भारी है। विचार विराम ही नहीं ले रहे हैं।’

बाबाजी सिर के बालों में अगुलियॉ डालकर सिर को सहलाते हुये पूछते- ‘वत्स, क्या मैं यह जान सकता हूँ कि कौन से विचार उठ रहे हैं?’’

मैं झूठ बोला था-‘ ऐसे कोई निश्चित विचार नहीं हैं। किसी भी विषय पर विचार घनीभूत होने लगते हैं।’

‘बाबाजी बोले-‘सोने के लिये विचार शून्य होना आवश्यक है।’

मैंने पूछा-‘‘विचार शून्य हानेे का पथ ?’

बाबाजी ने मुझे प्यार से समझाया कि मैं तुम्हें सोने के लिये मन्त्र बतलाता हूँ। जरा ध्यान से सुनें- ‘सृष्टि की उत्पति शब्द से हुई है। हमारे अन्दर से भी शब्द उठ रहा है। जब हम एकान्त में होते हैं तो उसे ध्यान से सुनने का प्रयास करें। यों अपने अन्दर झाकने का प्रयास तब तक करते रहें जब तक कुछ ध्वनियाँ सुनाई न पड़नेे लगें।। धीरे-धीरे कुछ ही दिनों के प्रयास से कुछ ध्वनियाँ हमें सुनाई पड़नेे लगेंगी। इससे दो लाभ होगे। एक विचार शून्यता आने लगेगी। दूसरे नींद आसानी से आ सकेगी। वत्स, मेरी बात कुछ समझ में आई।’

‘बाबाजी , आपकी बात समझने के लिये तो अभ्यास करना पड़ेगा।’

बाबाजी बोले- ‘मैं समझ गया मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गई है।’ यह कहकर वे अपने बिस्तर पर सोने के लिये चले गये।

विदर्भ प्रान्त के प्रसिद्ध कस्बे पदमपुर में मेरे बाबाजी भटट गोपाल का एक सुसंस्कृत संभ्रान्त परिवार था। रात्रि के तीसरे प्रहर से ही घर के लोग जाग जाते और ध्यान में लग जाते। भोर से ही कर्मकान्ड की शिक्षा ग्रहण करने छात्र आ जाते। यज्ञ इत्यादि के पश्चात् एक प्रहर तक उनका पठन-पाठन चलता। वेदों के शुद्ध उच्चारण के लिये ‘बाबाजी और पिताजी नीलकण्ड उन्हें बारम्बार अभ्यास कराते। इसके बाबजूद कोई बालक यदि शुद्ध उच्चारण न कर पाता तो वे उसे दण्डित करने में संकोच न करते। यह बात मुझे बहुत बुरी लगती। इस तरह बच्चों को प्रताड़ित नहीं करना चाहिये। पढ़ाई की रटन्त संस्कृति मुझे बहुत खटकती। कुछ बातें रटकर सीखें किन्तु उन्हें अभ्यास के द्वारा। यही नियम बना लें। हमारा लक्ष्य रटना नहीं समझना है।

मुझे यहाँ वहाँ घूमना-फिरना अच्छा लगता है। मुझे वे ही मित्र अच्छे लगते हैं जो अपने अन्दर की बातें बेझिझक सामने उड़ेल दें।

मैं ऐसे ही जाने क्या-क्या सोच रहा था कि घर के भृत्य कलहंस ने सूचना दी-‘घर के सभी परिजनों की बैठक कक्ष में जमी है। आपको वहाँ शीघ्र बुलाया है, चलें।’ यह सुनकर मेरा माथा ठनका-अनायास घर के सभी लोगों की बैठक और उसमें भी मुझे बुलाया गया है। इसका अर्थ है कहीं बैठक का बिषय मैं ही तो नहीं हूँ। कहीं वंशकार की लड़की की बातें किसी ने बाबाजी से तो नहीं कह दीं। यह सोचकर मेरा दिल धड़कने लगा। न चाहते हुये कदम बैठक कक्ष की ओर बढ़ने लगे।

जब मैंने बैठक कक्ष में प्रवेश किया उसमें सन्नाटा पसरा था। मेरी दादी केशर वा और मेरी माताश्री एक कोने में सिमटी बैठीं थी। मैं समझ गया कहीं कोई विशेष बात है जिसकी आहट में ये सन्नाटा शान में तना इतरा रहा है। मैंने सबसे पहले कक्ष में बाबाजी को साष्टांग प्रणाम किया। उनके मुखारविन्द से शब्द निकले- ‘प्रभू तुम्हें सद्बुद्धि दे।’

दादी ने मुझे आवाज दी-‘श्रीकण्ठ इधर मेरे पास आकर बैठ।’ उनकी बात सुनकर मुझे कुछ राहत मिली। मैं उनके पास जाकर उनसे सटकर बैठ गया। इससे मेरे मनोबल को कुछ सहारा मिला।

जब-जब मुझे कोई डाँट रहा होता तो मैं उसी समय दादी के पास पहुँच जाता। वे मेरे गलत होने पर भी मेरा पक्ष लेने में संकोच नहीं करतीं। उस समय बाबाजी उनसे कहते- ‘तुमने इसका पक्ष लेकर इसे बिगाड़ दिया है।’

यह सुनकर दादी मुस्कराते हुये कहतीं- ‘अभी उम्र ही क्या है? जब समझ आयेगी तब देखना। यह अपने परिवार की तरह महाकवि ही होगा।’

बाबाजी के व्यंग्यबाण मुझे आहत करते- ‘सो तो पूत के पाँव पालने में ही दिख रहे हैं।’

आज भी बाबाजी के शब्द बैठक कक्ष में गूँजे-‘ श्रीकण्ठ की दादी, देख लिये अपने दुलारे के आचरण।’

आचरण शब्द से स्पष्ट हो गया कि मैं पकड़ा गया हूँ। उन्होंने सुझाव प्रस्तुत किया- ‘पानी सिर के ऊपर से निकले इससे पहले उसका निदान खोज लेना चाहिये।’

दादी ने उनके आक्रामक रूप को शान्त करने के लिये कहा- ‘अभी ना समझ है। पिछले माह ही तो पन्द्रह वर्ष का हुआ है

उन्होंने दादी के तर्क का विरोध करते हुये कहा-‘ तुम्हारे कारण ही यह इतना बढ़ गया है कि इसे हमारी मान-मर्यादा का ही ध्यान नहीं है। अभी यहाँ का अध्ययन ही पूरी हुआ है, इसे सुधारना है तो इसका तत्काल ब्याह करना पड़ेगा। कई ब्राह्मण कुलीन परिवारों से रिश्ते आने लगे हैं। मैं सेाचता हूँ यह व्याकरण, न्यायशास्त्र और मीमांसा का विद्वान् बन जाये। किन्तु इसका पढ़ने में मन ही नहीं है।’

दादी ने फिर मेरा साथ दिया-‘यह पढ़ने की कब मना कर रहा है!’

यह कहकर वे मेरी तरफ देखते हुये बोलीं- ‘बोल श्रीकण्ठ बोल, तुम पढ़ना चाहते हो या घर-गृहस्थी के काम में लगना चाहते हो?

दादी ने मेरे सामने दोनों ही रास्ते खोल दिये। मुझे एक रास्ता चुनना था। मैं अभी शादी- ब्याह के चक्कर से दूर रहना चाहता था। इसलिये अध्ययन का रास्ता चुनना ही श्रेयकर था- ‘दादी, मैं आगे अध्ययन करना चाहता हूँ।’

मेरी बात सुनकर बाबाजी झट से बोले- ‘व्याकरण, न्यायशास्त्र और मीमांसा का अध्ययन तो इन दिनों पद्मावती नगरी में मेरे सहपाठी ज्ञाननिधि करा रहे हैं। जिनकी तुलना आज सम्पूर्ण भारत वर्ष में अंगरा ऋषि से की जा रही है। हम चाहते हैं तुम उनके पास अध्ययन करने चले जाओ।

दादी बोलीं-‘ इतनी दूर?’

इस पर दादाजी बोले- ‘यदि श्रीकण्ठ की दादी इसे नहीं भेजना चाहतीं तो इसका ब्याह किये देते हैं। अच्छा है पौत्रवधू साथ रह कर सेवा करती रहेगी।’

बाबाजी की यह बात उन्हें व्यंग्य लगी। वे बोलीं- ‘यह वहाँ जाने को तैयार तो है। बोलो, कब जाना है?’

इसके बाद गुरुदेव ज्ञाननिधि के पास जाने की तैयारियाँ की जाने लगीं। मेरे साथ घर का प्रिय भृत्य कलहंस रहेगा। यह दिखने में काला दिखता है किन्तु बहुत विवेकशील है। इसीलिये बाबाजी ने इसका नाम कलहंस रखा है। हमारे साथ नानाजी के मित्र का पुत्र मकरन्द भी अध्ययन की रुचि के कारण चलने के लिये तैयार है। इसके पिताश्री के पद्मपुर के राज परिवार से गहरे सम्बन्ध हैं। मकरन्द बचपन से ही मेरा मित्र है। कलहंस के साथ भी मेरी निकटता है।

हमारे पदमावती नगरी के प्रस्थान की बात सारे पद्मपुर में फैल गई। नगरभर में दूर देश की बातें चर्चा का विषय बन गयीं। इन्हीं दिनों नगर के कुछ छात्र अवन्तिकापुरी के सांदीपनि आश्रम के लिये अध्ययन करने हेतु प्रस्थान कर रहे हैं। यों अवन्तिकापुरी तक उनका साथ रहेगा। किन्तु वहाँ से आगे की यात्रा मकरन्द और कलहंस के साथ करना पड़ेगी।

जिस दिन से जाने की योजना बनी थी उस दिन से दादी और माँ दोनों ही अधिक दुलार प्रदर्शित करने लगी थी। उन्हें लगने लगा होगा कि उनका इकलौता इतनी दूर जा रहा है। इससे वे व्यस्थित भी रहने लगी थीं। मैं उनके पास होता तो वे मुझे अपने सीने से लगा कर रोने लगतीं। एक दिन पिताजी ने यह सब देख लिया तोे वे बोले-‘जातुकर्णी, तुम विदुषी होे, यह शोभा नहीं देता। इससे तो इसका मन और कमजोर पड़ जायेगा। अरे! कभी हम मथुरा के प्रवास पर चलेंगे। पास ही पदमावती नगरी है। इसके पास रह लेंगे। चिन्ता की बात नहीं है। कुछ पाने को कुछ खोना ही पड़ता है। यों उन्होंने उन्हें ढाढ़स बाँधाया था।

पिताजी पद्मावती की ओर जाने वाले यात्रियों की खेाज में रहने लगे। इन दिनों बंजारे माल लादकर इधर से उधर जाया करते थे। इससे देश एक सूत्र में बाँधा सा लगता था। लम्बे समय से काशीनाथ नामक बंजारा हमारे नगर में डेरा डाले हुये था। वह संतरे की खरीद कर रहा था। जब उसके गधे और ऊँट लद गये तो पता चला कि वह शीघ्र ही पद्मावती की ओर प्रस्थान कर रहा है। बाबाजी ने उसी के साथ हमें रवाना कर दिया। वह विर्दभ से संतरे लेकर चला था और शिवरात्रि तक कालप्रियनाथ के मेले से पहले वहाँ पहुँचना चाहता था, जिससे मेले के अवसर पर संतरे का व्यापार कर सकें।

काशीनाथ ने सुरक्षा के लिये कुछ चौकीदार रखे थे। उनमें से कुछ आगे और कुछ पीछे निगरानी करते हुये चलते थे। यों उसके साथ चलने में दस्युयों से बचने की व्यवस्था थी। आराम से यात्रा धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। शाम होने से पहले जो भी गाँव अथवा कस्बा मिला, कोई चौरस जगह अथवा धर्मशाल दिखी वहीं पडाव डाल दिया, तम्बू लगा लिये। उनके भेाजन बनाने बाले भेाजन बनाने लगे।

कलहंस पर मेरे और मकरन्द के लिये भेाजन बनाने का दायित्व था। दल के सदस्यों की तरह कलहंस रास्ते से ही लकड़ियाँ बीन लिया करता था। तीन पत्थर रखकर चूल्हा बनाने में देर नहीं लगती। जब तक हम सन्ध्या-वन्दन करके निपटते भोजन तैयार मिलता। भोजन करने के उपरान्त जमीन पर ही बिस्तर लगाये और लेट गये। दिनभर के थके होने से नीद आ जाती। इस तरह यात्रा सुगमता से आगे वढ़ने लगी।

खुले आकाश के नीचे सोने का मेरा यह पहला अनुभव था। बड़ी देर तक आकाश की ओर आँखें फाड़-फाड़ कर निहारता रहता। सप्तऋषि मंडल को पहचानने की कोशिश करता रहा। सारे तारागण मिलकर अन्धकार को दूर करने का प्रयास कर रहे थे। दिनभर की थकान से नीद आगई। सुवह जब उठा काशीनाथ का दल चलने की तैयारी कर रहा था। मैं दौड़कर सरोवर के निकट निवृत होने चला गया। स्नान के बाद रास्ते में ही पूजा अर्चना हो पायी थी।

हम घने जंगलों के मध्य बने पथ से आगे बढ़ते रहे। एक प्रहर दिन चढ़े एक बावड़ी के पास रुककर सभी ने जलपान किया और शीघ्र ही आगे बढ़ गये । दोपहर के समय भी किसी बाग-बगीचे के पास भेाजन-विश्राम का समय मिल जाता। इन दिनों मकरंद मेरे पास ही रहता। हर क्षण अपने घर-परिवार की बातें करता रहता। मैंने उसे समझाया-‘मित्र मकरंद, वहाँ की याद करके क्या होगा? अब लौटकर जाया तो नहीं जा सकता। वर्तमान में जीने में ही लाभ है।’

उसने उत्तर दिया-‘ इसका अर्थ यह हुआ अध्ययन के बहाने हमें देश निकाला हुआ है।’

मैंने उसे परामर्श दिया-‘अब तो हम इस काशीनाथ के कब्जे में हैं।’

मकरंद ने फिर कहा-‘देखा, जब इसे चलना होता है तो चलने का आदेश दे देता है और जब इसे जलपान करना होता है तो वह रुकने का आदेश प्रसारित कर देता है। इच्छा हो रही है कि हम इसका साथ छोड़ दे ंऔर अपनी गति से चलें।’

‘नहीं मित्र मकरंद, फिर हम स्तंत्रता से तो चल सकेंगे किन्तु यात्रा की नई-नई समस्याएॅ हमारे सामने होंगी।’

‘आप ठीक सोचते हैं, फिर पथ-प्रदर्शन की नई समस्या सामने होगी। रास्ता पूछते-पूछते बावरे हो जायेंगे। भटक गये तो जाने कहाँ पहुॅचेंगे!’’

मैंने उसी की बात का समर्थन किया-‘ इसके साथ में निश्चिन्त होकर तम्बू में सो तो लेते हैं। चोर और दस्युओ का भी भय नहीं रहता।’

कलहंस ने करवट बदलते हुये खाँसा और हमें सुनाकर धीरे से बोला-अरे! देखो, काशीनाथ इधर ही आ रहा है। ’

वह गोरा-चिट्ठा, सिर पर पगड़ी, शरीर में बण्डी पहने हुये और कमर से नीचे वणिक प्रवृति की धोती पहने हुये। हम दोनों उसी ओर देखने लगे। वह हमारे पास आकर बोला- ‘क्यों बच्चो, कोई परेशानी तो नहीं है। हो तो कहने में संकोच न करैं। आपके नानाजी मेरे परम मित्र हैं। जब लौटकर आऊँगा तो पूछेंगे, बच्चे कैसे रहे। किसी भी चीज की जरुरत हो तो कह देना। हमारे पास आवश्यकता की चीजें पर्याप्त रहती हैं।’

मैंने उनसे निवेदन किया-‘जी अभी दो-तीन दिन ही तो हुये हैं। जिस चीज की जरुरत होगी, हम संकोच नहीं करेंगे।’

उसने हमें पुनः समझाया-‘रास्ता लम्बा है। हम व्यापारी लोग हैं ,कहीं रुकना भी पड़ सकता है बैसे वहाँ पहुँचने की जल्दी है। डर है कहीं पहुँचते-पहुँचते संतरे खराब न हो जायें। ’’यह कहते हुये वह दूसरे समूह के लोगों के बीच पहुँच गया था।

मैंने मकरंद को समझाया-‘‘ये व्यापारी लोग हैं। अपने सद्व्यवहार से सभी का दिल जीत लेते हैं। हमारे बाबाजी का निर्णय ठीक ही रहा, नहीं तो हम जाने कहाँ- कहाँ भटकते फिरते!’

मकरंद ने मुझ से कहा-‘आपके नानाजी ने कहा है कि हम दोनों पद्मावती में न्यायशात्र, व्याकरण और मीमांसाशास्त्र का अध्ययन करके आयें और उनके दायित्व का निर्वाह करें।’

मित्रो, ऐसे दायित्व का बोध कराने वाले मकरंद और कलहंस का साथ पाकर मैं कृतार्थ हूँ। इसी कारण अपनी कृति मालतीमाधवम् में इन्हें पात्र के रूप में स्थान देना पड़ा है।

यह सोचते हुये मैंने करवट बदली। पत्नी दुर्गा चुपचाप पड़ी-पड़ी अर्धरात्रि तक मेरी छटपटाहट देखतीं रहीं। उनके स्वभाव में था कि वे जब समझ लेतीं कि मैं किसी गहन चिन्तन में डूवा हूँ तो वे बोलतीं नहीं थीं। किन्तु पता नहीं क्यों मेरी तरह छटपटाने लगतीं। जब उन्हें मेरी यह दशा सहन न होती तो बोलतीं-‘‘ स्वामी, आज ऐसा क्या हो गया है जो नींद नहीं आ रही है।’

मैं समझ जाता, पकड़ा गया हूँ इसलिये सच कह देता-‘ बचपन की घटनायें पीछा कर रहीं है। कैसे इस चौराहे तक आया हूँ और यहाँ आकर अपने बनाये पथ की ओर बढ़ रहा हूँ।

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