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महाकवि भवभूति - 4

महाकवि भवभूति 4

कांतिमय गुरुकुल विद्याविहार

भोर का तारा उदय हुआ। भवभूति अपने साथियों के साथ नवचौकिया (नौचंकी) के पास स्नान करने पहँुच जाते। इसी स्थान पर जल ऊपर से नीचे गिरता है। धुआंधार का मनोरम दृश्य देखकर सहृदय जन भाव विभोर हुये बिना नहीं रह सकते। वर्षा के मौसम मैं यहाँ खड़े होकर इन्द्रधनुष के दर्शन भी किए जा सकते हैं। ऐसे मनोहारी दृश्य का आनन्द लेने के बाद सभी भगवान कालप्रियनाथ के मंदिर पहुँच जाते।

वे धारणा-ध्यान की साधना में लग जाते। इस तरह मंदिर के गर्भगृह में उनका यह कार्य दो-तीन घड़ी तक चलता। बाद में ऊॅ नमः शिवाय का जाप शुरू हो जाता। दिन निकलने से पूर्व सभी गुरुदेव ज्ञाननिधि के विद्याविहार की ओर चल देते। दिन निकलने तक पाटलावती नदी को पार कर जाते।

नदी पार करते ही विद्याविहार की सीमा प्रारम्भ हो जाती। विद्यार्थियों का आना-जाना दिखने लगता। घुटा सिर, गाँठवाली लम्बी चोटी, कमर के नीचे पीली धोती पहने हुये ,उसका एक छोर कन्धे पर डला हुआ रहता, गले में जनेऊ, प्रत्येक के मस्तिष्क पर त्रिपुण्ड की लकीरें दिखाई पड़ रही थी। गुरुकुल की परम्परा के अनुसार छात्र समय पर अपनी-अपनी अध्ययनशाला में पहँुचने के लिये व्याकुल दिखाई दे रहे थे।

प्रत्येक विषय की पृथक्-पृथक् अध्ययनशालाएँ । कुछ ही समय में छात्र गुरुकुल के मुख्य चौराहे पर नृत्य-संगीत शाला के पास खड़े थे। वाद्य यन्त्रों की मधुर-मधुर झंकार सुनाई पड़ रही थी। सहज ही ध्यान स्वर लहरी में खो गया।

एक-एक कर अन्य अध्ययनशालाएँ दिखने लगीं। वेदों की ऋचाऐं कण्ठस्थ करते विद्यार्थियों की स्वर लहरी सुनाई पड़ने लगी। कुछ छात्र पश्चिम दिशा की ओर मुड़ गये। सामने न्यायशास्त्र एवं व्याकरणशास्त्र की अध्ययनशालाएँ अपने अस्तित्व की कहानी कह रहीं थीं। इन्हें देख भवभूति अपने अतीत में खेा गये-इन्हीं अध्ययनशालाओं में अध्ययन करके आज मैं आचार्यप्रवर जैसे पद का भार सँभाल रहा हूँ।

महाकवि भवभूति गुरुदेव ज्ञाननिधि के प्रतिनिधि होने के कारण छात्र उन्हें ‘गुरुदेव’ के नाम से ही सम्बोधित करते हैं। भवभूति सोचते रहते हैं कि इस विद्याविहार में क्या परिवर्तन कर दें ? जिससे यह विश्व में श्रेष्ठ विद्याविहारों में गिना जाये। इस तरह सोचते हुये वे महाशिल्पी वेदराम के मृण्मूर्तियों की अध्ययनशाला में पहँुच गये। महाशिल्पी ने आगे बढ़कर उनका अभिवादन किया और अपनी कार्यशाला के छात्रों को निर्देश देते रहे। भवभूति चुपचाप उनके कार्यकलापों का निरीक्षण करने लगे। गीली मिट्टी की सुगन्ध मन को आनन्दित कर रही थी। छात्र मिट्टी से विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ बनाने में लगे थे। झरोखे में से दिख रहा था मिट्टी की कच्ची मूर्तियों को पकाता हुआ अवा। उसे देख आभासित हो रहा था कि हाल ही में उसमें अग्नि डाली गयी है।

जैसे ही भवभूति इस अध्ययनशाला से बाहर निकले महाशिल्पी भी उनके साथ उन्हें विदा करने बाहर तक आये। चलते-चलते भवभूति ने कहा- ‘यदि प्रलय हो जाये और सारी धरती जलमग्न हो जाये, उसके बाद इस धरती पर जब कभी सुबह होगी और इस धरती का मूल्याँकन करने के लिये लोग इसे खोदेंगे तो ये महल, दरवाजे, ईंटें, पत्थर ओर ये मृण्मूर्तियाँ हमारे इतिहास की साक्षी होंगी, किन्तु मैं जानता हूँ कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर कभी हमें इस तरह नहीं सोचना चाहिये।’

अगले दिन तीनों मित्र विद्याविहार के मध्य स्थित नाट्यमंच का निरीक्षण करने पहुँच गये। नाट्यमंच को मृण्मूर्तियों से सजाया गया था। मृण्मूर्तियों के अतिरिक्त पत्थर को उकेर कर बनाई मूर्तियाँ भी मंच का वैभव बढ़ा रही थीं। नाग राजाओं के इष्टदेव विष्णु और शिव की मूर्तियाँ नागवंश की याद दिला रही थीं। इस धरोहर को प्राचीन ऐतिहासिक इमारत मानकर सुरक्षित रखा जा रहा था।

महाशिल्पी मंच के बारे में वर्णन करते हुये बोले- ‘यह नागवंश युगीन मंच है। राजा-महाराजाओं की सुरक्षा की दृष्टि से तो यह मंच उचित हो सकता है, लेकिन आम जनता को यह पूरा आनन्द नहीं दे पाता। हमारे संस्कृत-साहित्य में तीन प्रकार के मंचों का वर्णन मिलता है। उनमें से एक इस मंच का उदाहरण भी उपलब्ध है। आदिकाल से चौपालें ऐसे ही ऊँचे टीलों पर बनाने की परम्परा रही है।

आचार्य शर्मा उनके तर्क से सहमत होते हुये बोले- ‘हमारे महाशिल्पी ठीक कहते हैं किन्तु इससे मंचन के समय आम जनता को उतना आनन्द नहीं मिल पाता जितना राज परिवार के निकट बैठे लोगों को मिलता है।’

महाकवि भवभूति उनके मंतव्य से पूरी तरह परिचित हो गये। अपनी विवशता प्रदर्शित करते हुये बोले-‘यदि नाट्य मंच नीचा रखा जावे तो हमारे राजपरिवार के लोग कहाँ बैठ कर उसे देख पायेंगे। राजपरिवार का तो आम जनता से स्थान ऊँचे ही है। मंचन के समय राजपरिवार को दूर भी नहीं बैठाया जा सकता। हाँ कभी हमारे देश में समय आया तो सम्भव है आपकी कल्पना के अनुरूप मंच बनाये जा सकें, लेकिन राजतंत्र के युग में यह कैसे सम्भव है।’

महाशिल्पी ने वर्तमान में नये-नये विकसित हो रहे नाट्यमंचों को भी आम जनता की दृष्टि से व्यर्थ ठहराया। बोले- ‘यदि किसी मंदिर के भव्य विशाल कक्ष में मंचन किया जाये तो आम जनता तो और भी दूर हो जायेगी। फिर वहाँ आम जनता को कौन प्रवेश देगा? इससे तो यही मंच ठीक है, इससे आम जनता उतना चाहे सुन- समझ न पाये पर दृश्यों का आनन्द तो पूरी तरह उठा ही लेती है।’

आचार्य शर्मा ने वर्तमान मंच की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते हुये कहा- ‘संस्कृत-साहित्य के आचार्यों ने इसकी कल्पना यूँ ही नहीं की होगी। बहुत सोचा समझ कर बनाया होगा। इस तीन मंजिल वाले मंच के ऊपर मंचन के समय राजपरिवार के लोग नजदीक बैठकर आनन्द लेते हैं। उससे नीचे वाली मंजिल पर सेठ साहूकारों का स्थान रखना उचित है, उस पर बैठकर आम जनता से उनके श्रेष्ठ होने का अहं पोषित होता रहता है। अर्थ की व्यवस्था तो उन्हीं के हाथों होती है, अतः उन्हें संतुष्ट करना भी अनिवार्य है।’

महाशिल्पी ने आचार्य शर्मा की बात पूरी की- ‘इसीलिये आम जनता को जमीन की सतह से ही आनन्द लेने का हक मिल पाता है। अच्छा है आज नहीं तो कल आम जनता का आदर निश्चित ही होगा।’

बातों ही बातों में वे विद्याविहार की पूर्व दिशा में पहुँच गये। उन्होंने आलेख वीथिका में हो रही प्रगति का मूल्याँकन करना चाहा। जैसे ही उसमें प्रवेश किया। वहाँ उपस्थित अर्जुन नामक चित्रकार ने उनका अभिनन्दन किया। वहाँ के चित्रकार दत्तचित्त होकर अपनी तूलिका से चित्रों को सँवारने में लगे थे।

इस वीथिका में महाकवि भवभूति के नाटक महावीरचरितम् को आधार मानकर चित्र अंकित किए जा रहे थे। वे छात्रों की तूलिका का वर्चस्व पहचानने में व्यस्त हो गये। सबसे पहले चित्र में सीता की अग्नि परीक्षा का दृश्य था। यह देखकर महाशिल्पी बोले- ‘नारी के साथ होने वाले घोर अन्याय का चित्र प्रदर्शित करने से समाज का कोई हित होने वाला नहीं है।’

बात कड़वी है। यही सोचकर आचार्य शर्मा बोले- ‘ आप सोचते हैं, इस प्रसंग को चित्रित करने की क्या आवश्यकता थी? जिसमें मानवता को तिलांजलि दी गई हो।’

यह सुनकर भवभूति को लगा-इस चित्र को मंच पर दिखाकर राम द्वारा प्रायश्चित स्वरूप पश्चाताप करना चाहिये। यही सोच कर बोले- ‘जब उत्तररामचितम् लिखा जायेगा तब राम इसे देखकर पश्चाताप अवश्य ही करेंगे।’

आचार्य शर्मा सहज बनते हुये बोले- ‘इस चित्र के कारण हमारे महाकवि ने उत्तररामचरितम् के सृजन की घोषणा तो कर दी ।’

महाशिल्पी ने अपनी बात रखी- ‘यह प्रसंग आप सब को भले ही अच्छा लगे, किन्तु मेरे मन को बहुत कष्ट दे रहा है। आज के परिवेश में नारी पर इतने अत्याचार बढ़ गये हैं कि ऐसी स्थिति में ऐसे प्रसंग की कोई आवश्यकता नहीं है।’

यह प्रश्न सुनकर भवभूति को उत्तर देना ही पड़ा- ‘इसका अर्थ यह निकला कि आने वाली पीढ़ियों के कवि अथवा लेखक ऐसे प्रसंगों को अपने लेखन में नहीं लेंगे।’

महाशिल्पी ने उत्तर दिया-‘ आपने ठीक सोचा, कोई भी कवि अथवा लेखक इससे अपने को बचाकर रखेंगे।’

भवभूति ने दोनों मित्रों को संतुष्ट करना चाहा- ‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि पौराणिक आख्यानों को विलोपित भी तो नहीं किया जा सकता।’

समय के अनुरूप आचार्य शर्मा ने विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये- ‘चित्त की वृत्तियाँ सदा एक सी नहीं रहतीं। पल-पल बदलती रहती हैं। एकदिन इसका स्वरूप भी बदल जायेगा। नारी तो युग-युगों से अग्निपरीक्षा से ही गुजरी है। और आगे भी...........। बस इसका स्वरूप बदल सकता है।’

महाशिल्पी ने भवभूति के विचार को थपथपाया-‘अब हमारे महाकवि उत्तररामचरितम् के लेखन की तैयारी में लग गये हैं, और हम हैं कि उन्हें दिग् भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं।’

अब वे चित्रवीथिका में लगे चित्रों का अवलोकन करने लगे। लम्बे समय तक गुमसुम हो तूलिका के नर्तन की कहानी का मूल्याँकन करते रहे। चलते-चलते भवभूति ने घोषणा की- ‘उत्तररामचरितम् इस प्रकार लिखा जायगा जिससे उसमें इन सभी चित्रों का उपयोग हो सके, क्योंकि ये सारे के सारे चित्र महावीरचरितम्’ के आधार पर बनाये गये हैं। इससे आगे की कृति में इनका उपयोग होना ही चाहिये।’

चित्रवीथिका से लौटते समय भवभूति बोले- ‘आचार्य श्री समय अधिक हो गया है। आज आपकी वाल्मीकि अध्ययनशाला की तरफ नहीं चल पायेंगे।’

आचार्य शर्मा ने निवेदन किया-‘ मेरी तो इच्छा थी कि वहाँ जो भी हो रहा है? उसका भी निरीक्षण हो जाता तो उचित होता।’

महाशिल्पी ने उनकी बात काटी- ‘दोपहर हो गयी है और पेट में चूहे उत्पात मचा रहे हैं। यदि देर से घर पहँुचे तो श्रीमती जी के प्रवचन सुनना पडे़ंगे। वे भी क्यों न सुनायें ? अपने पति की परम् भक्त हैं।

आचार्य शर्मा दर्शन की भाषा में बोले -‘जो जितना प्रेम करता है, उतना उग्र भी हो उठता है, चलिये घर ही चलते हैं।’

महाशिल्पी ने महावीरचरितम् और मालतीमाधवम् के बारे में सोचते हुये कहा-‘महर्षि वाल्मीकि अध्ययनशाला का कार्य तो सुचारु रूप से चल रहा है। क्यों आचार्य जी?’

आचार्य शर्मा ने ही उत्तर दिया, बोले- ‘उसका कार्य तो सुचारु रूप से चल ही रहा है। छात्र वाल्मीकि रामायण की रामकथा से राम कथा के अन्य ग्रंथों से कथा में अन्तर को रेखाकिंत करने का कार्य कर रहे हैं।’

महाशिल्पी अपने अन्तर्मन में सुषुप्त विषय को जगाते हुये बोले- ‘मेरी इच्छा तो यह है कि महावीरचरितम् की तरह मालतीमाधवम् को भी अध्ययन के लिये स्वीकार किया जाये?’

इसके उत्तर में भवभूति बोले-‘महावीरचरितम् का समन्वय वाल्मीकि अध्ययनशाला से बैठ गया है, इसी कारण उसे अध्ययन हेतु आपके आग्रह एवं आचार्य शर्मा के समर्थन के कारण स्वीकार करना पड़ा है।’

बात के क्रम में आचार्य शर्मा बोले-‘ महावीरचरितम् की तरह महाशिल्पी की इस प्रस्तावना का भी मैं समर्थन कर रहा हँू, इसे भी अध्ययन के लिये रखा जावे, इससे छात्रों को वंचित क्यों रखा जा रहा है ? ’

तब भवभूति बोले- ‘ मालतीमाधवम् का विषय महावीरचरितम् से भिन्न है, इसके अध्ययन के लिये विद्याविहार को एक और नई अध्ययनशाला का निर्माण करना पड़ेगा।’

आचार्य शर्मा ने नई अध्ययनशाला की कल्पना का नामकरण करते हुये कहा- ‘इसका नाम तो महाकवि भवभूति अध्ययनशाला ही रखा जाये।’

भवभूति ने दोनों मित्रों के प्रस्ताव पर आपत्ति प्रस्तुत करते हुये कहा- ‘नई अध्ययनशाला के निर्माण के लिये धन कहाँ से आयेगा ? राज सहयोग संभव नहीं हैं। यहाँ से सेठ साहूकारों ने हाथ खींच लिये हैं, अतः विवशता हैं।’

यह सुनकर आचार्य शर्मा लगभग भविष्यवाणी सी करते हुये बोले- ‘आज नहीं तो कल, किसी न किसी दिन विद्याविहार में महाकवि भवभूति अध्ययनशाला का निर्माण तो होगा ही, देख लेना।’

महाशिल्पी ने आचार्य शर्मा की भविष्यवाणी को स्वीकार करते हुये उत्तर दिया- ‘आपकी अन्य भविष्यवाणियों की तुलना में मुझे आपकी यह भविष्यवाणी अधिक सार्थक प्रतीत हो रही है। इसमें अन्धविश्वास नहीं बल्कि कार्य के आधार पर मूल्याँकन की बात कही गयी है, ज्योतिष वेधशाला बन्द की जा सकती है, उसके स्थान पर भवभूति अध्ययनशाला का कार्य शुरू किया जा सकता है।’

आचार्य शर्मा ने विरोध व्यक्त किया- ‘ज्योतिष वेधशाला को बंद करने की बात उचित नहीं है।’

महाशिल्पी ने उत्तर दिया-‘ उचित क्यों नहीं है ? ज्योतिष अन्धविश्वास का जन्मदाता है। इससे आदमी अकर्मण्य हो जाता है।’

दोनों मित्रों के बीच होते संघर्ष को शान्त करने के लिये भवभूति बोले - ‘देखिए ,ज्योतिष का अपमान मत कीजिये। ज्योतिष सांख्यकि विज्ञान है। यह भी हमारे देश की एक परम्परागत विद्या है भले ही लोग अपने निहित स्वार्थ के लिये इसका दुरूपयोग कर रहे हों। इसे अन्धविश्वास से जोड़कर आप इसका सही मूल्याँकन नहीं कर रहे हैं।’

भवभूति की बात से आचार्य शर्मा को बल मिला, बोले- ‘अध्ययनशालाएँ बंद कर देने की बात है तो अन्य शास्त्रों से संबंधित अध्ययनशालाएँ बंद की जा सकती है। कल वेदों की अध्ययनशालाएँ भी बंद करवा दीजिये।’

महाशिल्पी नर्म पड़ते हुये बोले-‘ मैंने ज्योतिष के माध्यम से समाज में फैले हुये अंधविश्वासों पर आक्रोश व्यक्त किया था। आप इसके अध्ययन को अधिक सार्थक बनाना चाहते हैं, तो ज्योतिषशास्त्र को इस तरह प्रस्तुत करें कि समाज में अंधविश्वास न फैले।’

आचार्य शर्मा बोले- ‘ये पण्डित लोग अपनी जीविका के लिये ज्योतिष से अध्ंाविश्वास फैलाते हैं। ज्योतिष सांख्यकि शास्त्र पर आधारित है, इसका अंधविश्वास से कोई संबंध नहीं है।’

बातों ही बातों में घर पहँुचने के लिये पारा नदी को पार करने के लिये वे अपने अधोवस्त्रों को ऊँचा करने लगे।

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