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सुनील चतुर्वेदी - उपन्यास- ‘गाफिल’

सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास ‘गाफिल’
राजनारायण बोहरे

उपन्यास-गाफिल
लेखक-सुनील चतुर्वेदी
प्रकाशक-अन्तिका प्रकाशन दिल्ली
सुनील चतुर्वेदी जब भी नया उपन्यास लेकर आते हैं उनके पास सर्वथा एक नया विषय होता है और उसका ट्रीटमेंट भी एकदम नया होता है। उनके टूल्स भी सर्वथा अलग होते हैं। साहित्यिक बातचीत में सुनील जी खुुद को सदैव साहित्य का एक विद्यार्थी मानते हैं, न तो ख्द को लेखक कहते हैं न ही आलोचक । जिन दिनों ये नया रच रहे होते हैं, एक चतुर फोटोग्राफर की तरह डार्करूम में बैठ कर चुपचाप अपना काम करते हैं, आप उनसे कितना भी बतियाते रहें, उनके साथ रहें , मजाल क्या कि आपको उनके नये प्रोजेक्ट की भनक भी लग जाये, यह एक साधना है, एक तपस्या, जिसमें में बहुत चतुर सुजान हैं।
आपका नया उपन्यास गाफिल सन साठ और सत्तर के कस्बे के उस आत्मीय माहौल को पुनर्जीवित करता है जो हमारी पीड़ी ने बचपन में जिया, इनके लिए वह मालवा का अंचल है तो मेरे लिए बुन्देलखण्ड और दूसरे किसी पाठक के लिए निमाड़ी, भोजपुरी या पूर्वांचल का । उपन्यास की कथा यह है कि रघुनंदन नाम के एक सफल व्यवसायी को ब्रेन हेमरेज हुआ है और उन्हं शहर के एक बड़े अस्पताल में भरती कराया गया है जहाँ डॉक्टर तापड़िया उनका इलाज कर रहे हैं। ब्रेन हेमरेज का शिकार हुए रघुनंदन के मस्तिष्क में फिल्म की रील की तरह अपने बचपन से प्रौड़ावस्था तक की प्रमुख घटनाऐं आती जाती हैं, जिनके माध्यम से पाठक के सामने एक सामान्य सा कस्बाई बच्चा बिजनिस की दुनिया का सफल और धनाढय कांइयां व्यक्ति बनता चला जाता है और मजेदार बात यह है कि उसको काइंयां बनाने के पीछे आभिजात्य वर्ग से आई उसकी पत्नी का हाथ नहीं होता जेसा कि निन्यानवे प्रतिशत लोगों के साथ होता है, बल्कि रघु की मानसिकता बदलने के पीछे का सारा रसायन उसके भीतर बैठी वह हीनग्रंथि है जो अभावग्रस्त बचपन और ठेला पर सब्जी का ठेला लगाने वाले पिता के कारण उसके भीतर विकसित होती है। वह किशोर उम्र का होते ही अपने आसपास के समूचे वर्ग से येन केन प्रकारेण मुक्त् हो जाना चाहता है, जिसमें वह जल्दी ही सफल हो जाता है भले ही इसके लिए उसे अपनी निष्काम प्रेयसी सहित पूरे परिवार को भुलाना पड़ता है और वह एक उच्च सभ्रांन्त्य वर्ग में बाइज्जत सम्मिलित होजाता है। अपनी मां की बीमारी की चिटठी को वह फाड़कर फेंक देता है और अंत में तब घर जाता है जबकि उसकी कंपनी की मालिकिन और होने वाली पत्नी ही उसे पांच हजार रूप्ये एडवांस देते हुए घर जाने का हुक्मनुमा परामर्श देती है।
विवाह के बाद रघु की दुनिया धंधा और उच्च सोसायटी तक सिमट जाती है, इसके बाहर बच्चे और पत्नी को भी कोइ्र जगह नहीं बचती, वह पत्नी जिसकी वजह से उसे ससुर की ओर से जमा जमाया धंधा मिला, इज्जत मिली और एक शानदार स्टेटस मिला, उस पत्नी को भी वह कल्चर्ड और व्यर्थ भ्रमों में फंसी हुई कह कर अपने शिशु बेटे को उससे छीन कर हॉस्टल में पढ़ने भेज देता है। पत्नी को यह सब धीरे धीरे तोड़ने लगता है और एक दिन वह संसार से विदा हो जाती है जिसके बाद अकेले रघु को धीरे धीरे महसूस होता है कि उसकी यह हवस उससे ज्यादा उसके बेटे में भर गयी है। यह स्वार्थ परता उसके बेटे में साकार होती दिखती है जिसे अपने पिता से न कोई लगाव है न पिता की कोई चिनता , वह पिता को अच्छे अस्पताल में इसलिए रखता है कि सोसायटी के लोग ताने न मारें। रघु की पुत्रवधू को तो पिता का ब्रेन हेमरेज भी उसकी विदेश यात्रा में बाधा डालने की साजिश लगती है। रघु उस चक्र व्यूह में फंस चुका है जहां प्रवेश करने का तो उसे रास्ता दिख रहा है पर बाहर आने की कोई गली और सुरंग उसे नही दिखती ।
डॉक्टर तापड़िया एक अलग ही तरह से रघु का इलाज कर रहे हैं, वे सोये हुये श्लथ मस्तिष्क को अपने स्पर्श के मार्फत विचार तरंगे भेज कर उसे स्वस्थ करने के प्रयोग या अनुसंधान में जुटे हैं। जिसमें वे खूब सफल होते है।
उपन्यास का अंरंभ एक बड़े अस्पताल की बोरियत भरी दिनचर्या से होता है जहां रघु भर्ती है तो इसका अंत ऐसे रहस्यपूर्ण अंदाज में होता है कि पाठक को वह एक अनूठे आनंद से भर देता है। उपन्यास की कथायोजना बहुत बढ़िया बुनी गयी है तो उसकी शैली बहुत रोचक और बातचीत की भाषा से सजी हुई है। उपन्यास के अध्याय दर अध्याय अलग अलग काल खण्ड में ले जाते हैंं और लेखक का चमत्कार है कि जब अध्याय समाप्त होता है तो वह अपनी स्मृति के सहारे उपन्यास से और ज्यादा गहराई्र से जुुड़ा हुआ महसूस करता है।
सुनील जी के उपन्यास को पढ़ते हुए हमको याद आता है कि हमारा समाज दरअसल एक बड़ा परिवार है, जिसमें अलग अलग कमरों में रहते परिजन परस्पर जुड़े हुए हैं, जो हर सुख दुख में सहभागी हैं, जहां सब्जी वाले का रघु अच्छा पढ़ता है तो मकान मालिक की पत्नी उसे गर्म दूध पीने को देती है, अपने एक अलग कमरे में उसे टेबिल कुर्सी पर बैठ कर पढ़ने की सुविधा दी जाती है, और जब रघु की बहन को देखने के वास्ते लड़का वाले आते हैं तो सारा मुहल्ला मिल जुल कर उनकी खातिरदारी करता है, किसी के घरसे चादर आती है तो किसी के घर से चाय के मग। विवाह में भी यही मुहल्लेदारी निभाई जाती है जिसकी वजह से रघु की वहन की शादी हैसियत से बढ़ कर होती है। पारस्परिक साहचर्य का यह भारतीय जीवनदर्शन और परंपरा वाला समाज वह समाज है जिसको तथाकथित आधुनिकता ने हमसे छीन लिया है, समृद्धि ने जिसे समाज से विदा कर दिया है और हममें से हरेक के मन में एक अजीब सा संकोच आ बैठा हे कि मदद मांगूगा तो लोग क्या कहेंगे ? या किसी से घर की बातें डिसकस करूंगा तो कितनी बेइज्जती होगी।
यह कहानी हमारे वर्तमान समाज के हर आठवें नवें घर की कहानी है, बल्कि नवधनाढय होते लोगों के वर्ग में से हर दूसरे आदमी की कहानी है। लेकिन हम हैं कि अपनी समृद्धि और झूठी प्रतिष्ठा में ऐसे गाफिल हैं कि वास्तविकता को भुलाए बैठे है। इस तरह उपन्यास का नाम गाफिल बहुत उपयुक्त है।
हिन्दी में इस समय बहुत बड़े उपन्यासों की जगह मध्यम आकार के उपन्यासों का प्रचलन चल रहा है। प्रज्ञा रोहणी का उपन्यास ‘ गूदड़ बस्ती’ , राजेंद्र लहरिया का ‘ आलाप विलाप’ और ‘ जगदम्बा बाबू की उत्तर कथा’ मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘शालभंजिका’, पंकज सुबीर का ‘ अकाल में उत्सव’ और ‘ जिन्हें जुर्म ए इश्क पर नाज था’, अनुराग पाठक का बेस्ट सेलर उपन्यास ‘ ट्वेल्थ फेल’ तथा स्वयं सुनील जी का महामाया और कालीचाट का भी आकार मध्यम आकार का रहा है, इन सबको पाठक ने बहुत रूचि से पढ़ा है और ये सभी उपन्यास चर्चित भी हुऐ है। कविता वर्मा का उपन्यास ‘ छूटी गलियां ’ भी बहुत छोटा है और मातृभारती की वेब सार्इ्रट पर इसके 21000 से ज्यादा डाउनलोड हुए हैं। इस नजरिये से गाफिल एक सही आकार का सुनियोजित ढंग से रचा गया उपन्यास है।
ऐसी आशा हैकि यह उपन्यास अनेक नई बहस और परंपरओं को जन्म देगा ।
राजनारायण बोहरे