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A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt - 11

हॉरर साझा उपन्यास

A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt

संपादक – सर्वेश सक्सेना

भाग – 11

लेखक - जितेन्द्र शिवहरे

दिन अब ढल चुका था और रात का सन्नाटा हर तरफ पसरा हुया था। रूद्रांश के सीने में बदले की आग भड़क रही थी। वह हर कीमत पर अपनी प्रेमिका मोहिनी के हत्यारें को दण्ड देना चाहता था। उसे पता था कि मोहिनी और उसका हत्यारा कोई ओर नहीं उसके अपने पिता सुजान सिंह ही थे। रुद्रांश ने अपना मन कठोर कर लिया और वह चल पड़ा अपने पिता को मृत्यू दण्ड देने के लिए।

“ एक पिता अपनी संतान के लिए इतना निर्दयी और कठोर कैसे हो सकता है, जिसने अपने बेटे की खुशी की परवाह नहीं की। उन्हें पता था मोहिनी के शरीर में उनके बेटे के प्राण बसते है, इसके बाद भी उन्होंने मोहिनी पर बुरी नज़र रखी। इस पर भी उनका मन नहीं भरा तो उन्होंने हम दोनों को जान से मरवाने की कोशिश की और मेरी मोहिनी को मुझसे छीन लिया पर मै बच गया, मेरे प्राण मेरे शरीर से इसीलिये नही निकले क्युंकि मुझे उस हत्यारे को उसकी करनी का दंड देना है।”

अपने मन मे बदले की ज्वाला लिये रूद्रांश यही सब सोच रहा था। उसे आज संसार में सबसे बडा शत्रु अपना पिता दिखाई दे रहा था।

“ लेकिन अब नहीं! अब मैं अन्य किसी व्यक्ति पर अत्याचार नही होने दूंगा। सुजान सिंह के प्राण लेकर मैं अपनी मां और प्रेमिका की मौत का बदला लूंगा।”

रूद्रांश दबे पांव सुजान सिंह को ढूंढ़ने लगा। रूद्रांश जब तक स्वयं चाहे, वह किसी को दिखाई नहीं दे सकता था। बैठक हवेली के बाहर पहरेदारों को वह इसीलिये दिखाई नही दिया। रूद्रांश बेखौफ़ हवेली के अंदर सुजान सिंह को खोज़ने लगा। हवेली के अंदर सन्नाटा पसरा था।

सुजान सिंह के सारे आदमी मारे गये थे और कुछ उन कैदियों को ढूंढ़ने निकल पडे थे जिन्हे रुद्रांश ने मुक्त कर दिया था। तब ही उसे ऊपर के माले के एक कमरें से किसी युवती के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी। रूद्रांश समझ गया की अवश्य ही उसके पिता ऊपर अपने कमरे में किसी युवती की इज्जत लुट रहे होंगे।

उसकी आंखों में खुन उतर आया। मारे क्रोध के उसका चेहरा लाल पड़ गया। सुजान सिंह की यह हरकत आग में घी डालने जैसी साबित हुई। रूद्रांश अब तेजी से अपने पिता के कमरे के द्वार पर पहूंचा। वहां उसने अपनी शैतानी शक्तियों के बल पर दरवाजा खोले बिना ही अंदर झांका। उसे अपने पिता सुजान सिंह एक खुबसूरत नवयुवती से जबरदस्ती करते हुये साफ दिखाई दे रहे थे। वह युवती रोते हुये दया की भीख मांग रही थी। किन्तु वासना में बुरी तरह झुलस रहे सुजान सिंह उस लड़की की साड़ी का पल्रु अपनी ओर खींचते जा रहे थे। जिससे वह युवती गोलाकार घूमने पर विवश थी।

धीरे-धीरे उसके शरीर से साड़ी का कपड़ा कम होता जा रहा था। वह अपने दोनों हाथ जोड़कर ईश्वर से अपनी इज्जत बचाने की प्रार्थना कर रही थी। एकाएक उस युवती ने अपने शरीर के अंदर एक अजीब सी शक्ती अनुभव की। और यह क्या! सुजान सिंह लगातार उसकी साड़ी का पल्लू खींच रहा था, मगर साड़ी थी की कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मानो स्वयं भगवान कृष्ण आकाश से अपनी बहन द्रोपदी की रक्षा कर रहे हो!

सुजान सिंह लगातार युवती की साड़ी अपनी ओर खींचते-खींचते थक गया। वह कुछ समय सुस्ताने वहीं पास रखी एक कुर्सी पर बैठ गया। सुजान सिंह हांफ रहा था। वह युवती जिसका नाम अरुणा था, वह अब एकदम शांत थी। जैसे अब उसे किसी ने बहुत सारी हिम्मत दे दी हो। वह मंद मंद मुस्कुराने लगी। यह देखकर सुजान सिंह का क्रोध बड़ गया। वह कुर्सी से उठना चाहता था ताकी अरुणा को थप्पड़ मार सके। लेकिन वह अपनी कुर्सी से उठ नहीं पा रहा था। अगले ही पल वह उस कुर्सी सहित हवा में उड़ने लगा। सुजान सिंह की घिग्घी बंध गयी। वह डर के मारे कांपने लगा।

अरुणा का रूप भी परिवर्तित होने लगा। उसने अपने बाल खोल दिये जो हवा में उड़ रहे थे। अरूणा अब बे-तहाशा हंसने लगी। उसके दांत काफी लम्बे और चमकदार हो गये। अरूणा के पीछे लाल रंग का प्रकाश निकल रहा था जिसकी रोशनी से सारा कमरा नहा गया था। उसकी हंसी सुजान सिंह के कानों को भेद रही थी। वह कभी कुर्सी पकड़ता तो कभी अपने कानों को, अचानक वह एक जोरदार धड़ाम की ध्वनि के साथ जमीन पर आ गिरा और जब उसने अपनी नजर हवेली की छ्त पर डाली तो छत पर बनी सुन्दर कलाक्रतियां जीवित होती दिखाई देने लगीं और देखते देखते वो और भयावह होने लगीं।

डर से कांप रहा सुजान सिंह बड़ी मुश्किल से डरते-डरते अपनी आंखें खोलकर इधर उधर देखने लगा। उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। तभी अरुणा जो एक सुन्दर युवती थी, एक कुरूप और डरावनी स्त्री मे बदल गई, वो जोर से चिल्लाने लगी उसका मुहं सामान्य से बहुत अधिक फैला हुआ था, उसकी आवाज इतनी कर्कश थी कि सुजान सिंह के ह्र्दय की गति रुकने लगी और देखते देखते अरुणा का मुँह फटने लगा लेकिन फिर भी वो लगातार चिल्लाये जा रही थी।

सुजान सिंह ने मौका पाते ही कमरे से भागना चाहा कि तभी उस कमरे में एक-एक कर वे सभी लड़कीयां और औरतें उपस्थित होने लगी जिसे भूतकाल में सुजान सिंह ने कभी बर्बाद किया था। इन सभी औरतों की आत्माओं का आव्हान रूद्रांश ने अपनी शक्तियों से किया था। असंतृप्त आत्माएं रूद्रांश के बुलाने पर आ गयी। उन्हें अपने शत्रु सुजान सिंह से बदला लेने का अवसर मिल गया जिसे वे सभी अपने हाथों से जाने नहीं देना चाहती थी।

वो सभी एक साथ अरुणा की तरह चिल्लाये जा रहीं थीं ।

तभी अचानक कमरे में शांती छा गयी और सुजान सिंह ने अपने कानों से अपने हांथ हटाये। उसने देखा कि उससे बदला लेने के लिए सामने खड़ी उन औरतो की आत्माएं उसको बदले की भावना से देख रही थीं। उन सभी के चेहरे पर भंयकर क्रोध दिखाई दे रहा था जिसकी धधकती आग जल्दी से जल्दी सुजान सिंह को जलाकर भस्म कर देना चाहती थी। सुजान सिंह को अपना काल साफ-साफ दिखाई देने लगा।

तब ही वह रोते हुये उन आत्माओं से अपने प्राणों की भीख मांगने लगा।

"मुझे छोड़ दो! आगे से मैं किसी औरत को परेशान नहीं करूंगा। मैं अपने सारे बुरे काम छोड़ दुंगा। सिर्फ एक बार मुझे जीवनदान दे दो, मै पूरे गांव को भी कर मुक्त कर दूंगा।" सुजान सिंह ने गिड़गिडाते हुये कहा।

उसकी याचना पर सभी औरतें जोर-जोर से हंसने लगी। उन सभी का भयानक अट्टाहस सुनकर सुजान सिंह के कान फिर से फटने को आतुर थे।

"तुझे तो बड़ा आनन्द आता है न, औरतों की इज्जत लूटकर! हा..हा...हा....हा.... आज हम सभी तुझसे अपनी मौत का बदला लेकर रहेंगे।" अरुणा ने एक भयानक स्वर मे कहा।

"सही कहा बहन! आज इसे हमारे हर एक आँसू का हिसाब देना होगा!" एक दूसरी आत्मा ने अपने होंटों पे जीभ फेरते हुये कहा।”

"तो कौन सी सज़ा सोच रखी है तुम लोगों ने?" तीसरी आत्मा ने कुटिल मुस्कान के साथ पूछा।

"वही! जिसके बल पर सुजान सिंह आज तक अपनी हैवानियत दिखाता आया है।" अरुणा ने तपाक से उत्तर दिया।

"मैं कुछ समझी नहीं?" एक अन्य स्त्री की आत्मा ने पुछा।

"मतलब ये की इसे अपनी मर्दानगी पर बड़ा घमण्ड है। आज हम भी देखते है कि ये कितना बड़ा मर्द है।" अरुणा ने कहा।

"तो तुम्हारा मतलब है कि....?" वो सब आत्मायें बोलते-बोलते रूक गयीं।

"हां! तुमने सही समझा। दुनियां के इतिहास में पहली बार होगा जब इतनी सारी औरतों की आत्माएं किसी जीवित पुरूष का बलात्कार करेंगी।" इतना कहकर अरुणा जोर जोर से हंसने लगी ।

"बिलकुल सही सज़ा है इस मानव रूपी दानव के लिए। बारी-बारी से इसे हमें संतुष्ट करना होगा और तब तक करना होगा जब तक की इसके प्राण पखेरू नहीं उड़ जाते।" उन आत्माओं मे मौजूद एक सबसे कम उम्र की लड्की की आत्मा ने कहा, ये वही लड्की थी जिसने जमींदार के आदमी कलुआ और शेर सिंह के डर से पहाडी से कूद कर अपनी जान दे दी थी।

"नहीं...नही! तुम चाहों तो मुझे अभी जान से मार दो। लेकिन मुझे इतनी निर्दयी मौत तो न दो।" सुजान सिंह गिड़गिड़ाते हुये बोला और भागने की कोशिश करने लगा पर उसका कोई भी इरादा सफल नही हुआ।

"क्यों? हम तो तुझे तेरी ही मनपसंद मौत दे रहे है। बहुत किस्मत वाला है तु! हा.... हा... हा....।" ये कहकर सभी आत्मायें जोर जोर से हंसने लगी।

इसके बाद रुदांश की आत्मा कमरे से बाहर निकल गयी।

नहीं... नहीं... नहीं... छोड़... दो! मुझे जाने दो। बचाओ! बचाओ! बचाओ! आह्ह्ह्ह नह्ह्ह्हीं!" सुजान सिंह लगातार चीख रहा था। मगर उसकी मदद करने वाला वहां कोई नहीं था। अरुणा सुजान सिंह की छाती पर बैठ गयी जिससे डरते हुये सुजान सिंह ने कहा “ अ..अ.. अरुणा ...तु..तुम तो जिन्दा हो फिर तुम भला इन आत्माओं का साथ क्युं दे रही हो, तुम तो मेरी मदद करो...... ।”

अरुणा ने उसकी छाती को अपने पैने नाखूंनो से चीरते हुये कहा “ दुष्ट ...अब मदद की भीखमांग रहा है, देख जरा उधर...... ।”

ये सुनकर सुजान सिहं ने बिस्तर के एक कोने मे नजर दौडाई तो अरुणा की लाश खून से भीगी हुई पडी थी।

“ अरे दानव ...मै तो उसी पल मर गई थी जब तू मेरा चीर हरण कर रहा था और मेरे लाख रोकने पर तूने मुझे उस भाले पर पटक दिया था।”

सुजान सिंह ये सुनकर कांपने लगा, मदिरा और हवश के नशे मे उसने ध्यान ही नही दिया कि उसने कब क्या कर दिया।

इसके बाद एक एक करके सभी स्त्रीयों की आत्मा ने सुजानसिंह के प्राणांत तक समागम किया। जिस मर्दाना ताकत और वहशीपन के बलबूते सुजान सिंह सैकड़ों औरतों की काया से खेल चुका था वहीं पुरषत्व खर्च करते हुये उसकी मौत का समय नजदीक आ पहूंचा।

उसकी चीख पूरी बैठक हवेली में गूंज रही थीं। रुद्रांश अपने पिता की ये चीखें सुनकर एक सुकून महसूस कर रहा था पर उसकी आंखों मे आंसू थे।

रात का सन्नाटा अपनी चरम सीमा पर था। ठंडी हवाएं कानों से टकराकर ना जाने क्या कह रहीं थीं। कुछ घंटों बाद सब कुछ शांत हो गया। सभी आत्माएं वहां से जा चुकी थी, सुजानसिंह अपनी आखरी सांसे गिन रहा था तभी रूद्रांश की आत्मा कमरे के अन्दर आई। रूद्रांश प्रसन्न था। उसने आज अपनी प्रेमिका मोहिनी के हत्यारे से बदला दे लिया था। वह धीरे-धीरे सुजान सिंह के पास गया।

अभी तक सुजानसिंह की सांसे चल रही थी। वह बेसुध होकर कुछ बड़बड़ा रहा था।

"मेरे बेटे! रूद्रांश! कहां चला गया तू.....। अब मेरी मौत के बाद मेरी ये हवेली, ये जमीन जायदाद कौन संभालेगा, मेरे शरीर को कौन आग देगा? हाय! बेटे तू जहां कहीं हो चले आ! अंतिम समय में पिता को उसका बेटा ही मुखाग्नि देता है। अब मेरा उध्दार कैसे होगा? मरने के बाद भी मेरी आत्मा भूत बनकर भटकती रहेगी। ओहहहह! मैंने कितना बुरा किया...इसीलिये मुझे मेरे पापों की सज़ा तो मिलनी ही थी और अब न जाने कब तक मेरी आत्मा भटकती रहेगी.... हाय!.....पर भगवान तूने मेरे कर्मों की सजा मेरे बेटे को क्यूं दी.....उसे ऐसे नही मरना चाहिये था....वो तो दुनिया का सबसे अच्छा बेटा था।"

सुजान सिंह अकेले ही अपनी अटकती सांसों के साथ ये सब बड़बड़ा रहा था।

तब ही सुजान सिंह ने देखा की उसका बेटा रूद्रांश ठीक उसके सम्मुख खड़ा है और पूरा कमरा एक अजीब से प्रकाश से भर गया है।

सुजान सिंह अपने चोटिल शरीर से घिसटते हुये अपने बेटे की ओर बढ़ने लगा और बोला “ मुझे पता था मेरे बच्चे... तू मर नही सकता ...तू ऐसे अपने पिता को अकेला छोड़ कर नही जा सकता..... आजा मेरे बच्चे एक बार अपने पिता को सीने से लगा ले और अपने पिता को उसके पापों से मुक्त कर दे।”

"हां सुजानसिंह! तुम सही सोच रहे हो, मै तुम्हे यूं अकेला छोड़कर नही जा सकता, और इसीलिये आज मै तुम्हे मारने आया हूं, अपनी और अपनी मोहिनी की मौत का बदला लेने आया हूं......मै तेरा बेटा नही, तेरे उस दुर्भागी बेटे की आत्मा हूं, जिसका शरीर तो तुमने मार डाला था लेकिन तुम मेरी आत्मा को नहीं मार पाये और अब मेरी यही शक्तिशाली आत्मा तुम्हारे प्राण लेगी।"

"मेरे बेटे! क्या तु एक बेटा होकर अपने बाप को मारेगा?" सुजान सिंह ने रूद्रांश से पुछा।

"जब तुम एक बाप होकर अपने बेटे को मार सकते हो, उसकी प्रेमिका को मार सकते हो तो मैं एक बेटा होकर अपने बाप को क्यों नहीं मार सकता?" रूद्रांश ने अपने पिता की बात का जवाब दिया।

"नहीं बेटे! मैंने तुझे नहीं मरवाया।" सुजानसिंह सिसकते हुये बोला।

"तुम अपने आपको बचाने के लिए मुझसे झुठ बोल रहे हो?" रूद्रांश की आत्मा ने कठोर होकर कहा।

"नहीं बेटा... मौत के मुहाने पर खड़ा होकर मैं झुठ नहीं बोलूंगा, ये सत्य है कि तुम्हारा और मोहिनी का रिश्ता मुझे बिल्कुल नामंजूर था लेकिन मैंने तुम्हें नहीं मरवाया।" सुजान सिंह रोते-रोते बोला।

रूद्रांश को आभास हो चुका था कि उसके पिता झूठ नहीं बोल रहे थे। मगर यदि सुजान सिंह ने रूद्रांश और मोहिनी को मारने की कोशिश नहीं की तो फिर वो आदमी कौन थे जो उन दोनों को उस दिन जान से मारने आये थे? और वो बार बार पिता जी का नाम क्यूं ले रहे थे।

रूद्रांश सोच ही रहा था की इतने में सुजान सिंह के प्राण पखेरू उड़ गये।

रूद्रांश अपने पिता के अंतिम पछतावे को सुन चुका था। पछतावे की आग में उसके पिता की आत्मा न जाने अब कब तक जलती रहेगी यह स्वयं वह खुद भी नहीं जानता था।

उधर धीरे धीरे मोहिनी उपचार के बाद बिल्कुल ठीक हो चुकी थी। उसके पिता बहादुर अपनी बेटी के जीवित बच जाने पर प्रसन्न थे। मोहिनी की देखभाल में वे कोई कोताही नहीं बरतते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी विधवा भाभी सुमित्रा से मदद मांगी।

सुमित्रा और मोहिनी के बीच मां-बेटी सरीखा संबंध स्थापित हो चुका था लेकिन मोहिनी रुद्रांश को अभी भी भूल नही पा रही थी और उदास रहती।

कुछ दिनों बाद एक सुबह सुमित्रा ने मोहिनी को अपने पास बडे प्यार से बिठाया और कहा “ बिटिया....ये आजकल तुझे क्या हो गया है, तेरे चेहरे की सारी कांती खतम होती जा रही है, ऐसे तो तू...... ।"

इतना कहकर सुमित्रा चुप हो गयी।

“ काकी ......चुप क्यूं हो गयी, बोलो.....बोलो ना.....तुम यही कहना चाहती हो कि ऐसे तो मै मर जाऊंगी, अरे काकी......मैं अब जिन्दा भी कहां हूं....मेरी तो सारी कांति मेरे रुद्रांश के साथ ही चली गई.....अब तो बस उनकी .....।”

मोहिनी इतना कहकर चुप हो गई, उसका गला भर आया और वो आगे कुछ ना कह सकी कि तभी उसका मन घबराया और उसे उल्टियाँ होने लगीं, मोहिनी के चेहरे पे पसीना आ गया, सुमित्रा उसका ये हाल देखकर एक भयावह सच सुनने के लिये अपना मनोबल बढाने लगी, शुक्र तो ये था कि पिता बहादुर कुछ कबीलों वालों के साथ बाहर गये हुये थे।

मोहिनी जान चुकी थी की उसके गर्भ में रूद्रांश का शिशु पल रहा है और अब यह बात सुमित्रा भी जान चुकी थी। मोहिनी अपनी बड़ी मां से प्रार्थना कर रही थी कि उसकी कुंवारी मां बनने की खब़र वो उसके पिता बहादुर को न दे। इससे उन्हें और भी अधिक पीड़ा होगी और क्रोध में वो कुछ भी उल्टा-सीधा कदम उठा सकते हैं जो कबीले वालों के हित में नहीं होगा।

"लेकिन बेटी! एक न एक दिन तो बहादुर को सब पता चल ही जायेगा।"

सुमित्रा ने मोहिनी से कहा।

"तब तक कोई न कोई रास्ता अवश्य निकल जायेगा बड़ी मां, और वैसे भी मुझे यकिन है की मेरा रूद्रांश अभी भी जिन्दा है। वह मुझे अवश्य मिलेगा।" मोहिनी ने कहा।

"पागल मत बनो बेटी...! तुम जानती भी हो कि तुम क्या कह रही हो, ये भेद आखिर तुम कब तक छुपा सकोगी, जिसके बाप ने मेरे पति को मार दिया, हमारे कबीले को शमशान बना दिया, तुम उसी के वंश को आगे बढाने के लिये कह रही हो.....नही बेटी..... ।" सुमित्रा इसके आगे बोलना चाहती थी लेकिन मोहिनी ने उसे रोक दिया ।

"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं बड़ी मां! आप किसी को नहीं बतायेंगी की मैं रूद्रांश के बच्चें की मां बनने वाली हूं।" मोहिनी ने सुमित्रा से कहा।

"ठीक है बेटी! तु अगर यही चाहती है तो मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगी।" सुमित्रा ने कहा।

मोहिनी प्रसन्न होकर अपनी बड़ी मां के गले लग गयी।

लेकिन इन दोनों को पता नहीं था कि जिस बात को छिपाने की दोनों योजना बना रही थीं वो बात द्वार पर खड़े बहादुर ने सुन ली थी वो कब लौटकर आ गया ये इन दोनों को पता ही ना चला।

'उस दुश्मन की औलाद ने आखिर अपनी दुश्मनी निकाल ही ली। और वो भी मेरी बेटी के साथ। बहादुर मन ही मन बड़बड़ाता हुआ बाहर आ गया।