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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 18 - अंतिम भाग

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(18)

अब आते हैं अनश्वरता की बात पर। मुझे कोई भी बात (इतनी) स्पष्ट नहीं लगती जो कि इस विश्वास और लगभग भीतरी भाव जैसी बात पर है कि ज्यादातर भौतिकशास्‍त्री यह मानते हैं कि समय बीतने के साथ ही सूर्य और इसके साथ के सभी ग्रह इतने ठंडे हो जाएंगे कि जीवन का नामो-निशान मिट जाएगा। हाँ, इतना ज़रूर हो सकता है कि कोई बड़ा पिंड आकर सूर्य से टकरा जाए और सूर्य फिर से ऊर्जावान हो उठे तो जीवन बचा रहेगा। मैं यह मानता हूँ कि मानव इस समय जितना दक्ष है, आगे चलकर उससे कहीं ज्यादा दक्ष बनेगा। इस विचार को भी नकारा नहीं जा सकता कि मानव और सभी जीव अपनी इस सतत प्रगति के अन्त में प्रलय का सामना ही करेंगे। जो यह मानते हैं कि आत्मा अजर अमर है उनके लिए संसार का विनाश ज्यादा डरावना नहीं होगा।

``ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करने का एक और जरिया भी है जो कि भावनाओं से नहीं बल्कि कारण से जुड़ा है, और यह मुझ पर ज्यादा असर डालता है और इसमें कुछ वजन भी है। मानव में अपने अतीत में भी काफी पुरानी घटनाओं और कुछ हद तक भविष्य का अंदाजा लगाने की क्षमता है। इससे यह मानना कठिन या यूँ कहिए नामुमकिन सा हो जाता है कि यह विराट और सुन्दर ब्रह्मांड अचानक ही या किसी ज़रूरत से बन गया होगा। जब मैं इस तरह का विचार प्रकट करता हूँ तो मैं जबरन प्रथम कारण की ओर झुकने को मजबूर हो जाता हूँ कि मैं भी मानव की ही भांति बुद्धिमान हूँ और यहाँ मैं आस्तिक कहलाना पसंद करूंगा। उस समय मेरे दिमाग में यही निष्कर्ष काफी मजबूती से पैर जमाये था, और जहाँ तक मुझे याद है उस समय मैंने दि ओरिजिन ऑफ स्पीसिज लिखी थी और तब से अब तक वह विचार भी काफी नरम हो चुका है। लेकिन यहीं पर संदेह पैदा होता है कि मानव का दिमाग क्या शुरू में एकदम तुच्छ जीवों जैसा रहा होगा जो विकसित होते-होते इस दशा में पहुँच गया है। मेरा मानना है कि किसी बड़े नतीजे पर पहुँचने के लिए इस बात को मानना होगा।

``इस गूढ़ से गूढ़ समस्या पर मैं जरा-सा भी बोलने या कहने का साहस नहीं जुटा सकता। सभी चीजों के जन्म का रहस्य हमारे लिए रहस्य ही है और ऐसे में हमें संदेहवादी ही रहना चाहिए।

जीवनी में जो कुछ सारांश के तौर पर लिखा गया है, कुछ हद तक वही बात आगे के खतों में दोहरायी गयी है। पहला खत जुलाई 1861 में मैकमिलन मैगजीन में दि बाउंड्रीज ऑफ साइंस : ए डायलॉग में प्रकाशित हुआ था।

चार्ल्स डार्विन की ओर से मिस जूलिया वेजवुड को, 11 जुलाई 1861

किसी ने मुझे मैकमिलन का अंक भेजा है, और मैं आपको यह ज़रूर बताना चाहूँगा कि मैं आपके लेख की प्रशंसा करता हूँ, हालांकि साथ ही साथ मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि कुछ अंशों को मैं समझ नहीं सका, और शायद लेख के वही अंश खास अहमियत रखते हों, और इसका कारण यही है कि मेरे दिमागी घोड़ों को तत्त्वज्ञान की भारी गाड़ी खींचने की आदत नहीं है। मैं समझता हूँ कि आपने दि ओरिजिन ऑफ स्पीसिज को अच्छी तरह से समझ लिया होगा, हालांकि मेरे आलोचकों के लिए ऐसा कर पाना टेढ़ी खीर ही है। आखिरी पेज पर लिखे विचार कई बार मेरे दिमाग में बेतरतीबी से आए। बहुत सारे खतों का जवाब लिखने में लगा रहा और आपके द्वारा उठाए गए खासुलखास मुद्दे पर सोचने का तो समय ही नहीं मिला या यूँ कहिए कि सोचने का प्रयास भी नहीं कर पाया। लेकिन मैं जिस नतीजे पर पहुँचा वह हक्का-बक्का कर देने वाला रहा - कुछ ऐसा ही जो शैतान के जन्म के बारे में सोचने लगा, और आपने भी तो इसी तरफ इशारा किया है। यह दिमाग इस ब्रह्मांड की ओर देखने से भी इंकार करता है, कि इसकी रचना तो सोच समझ कर की गयी है, तो भी हम इसमें रूपरेखा की आशा करते हैं, जैसे सभी जीवों की बनावट में, लेकिन इस बारे में मैं जितना सोचता हूँ, मुझे कला कौशल में दैवत्व उतना ही कम मिलता है। एसा ग्रे और कुछ दूसरे विद्वानों ने प्रत्येक बदलाव तो नहीं लेकिन कम-से-कम हरेक लाभदायक बदलाव के लिए कहा है कि इसकी रचना सोच-समझ कर दैविक रूप से हुई है (एसा ग्रे ने इसकी तुलना बरसात की बूँदों से की है जो सागर पर नहीं बल्कि धरती पर गिरकर उसे उपजाऊ बनाती हैं)। इस बारे में जब मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन्होंने पहाड़ी कबूतर के बदलावों पर गौर किया है - जिसे पाल पोस कर इंसान ने ही लोटन कबूतर बनाया, क्या इसकी रचना भी दैविक रूप से इंसान के मनोरंजन के लिए हुई, तो उनके पास कोई जवाब नहीं। वे या कोई दूसरा यदि यह स्वीकार कर लें कि ये बदलाव प्रयोजन को देखते हुए बस संयोगवश है (दरअसल अगर उनकी उत्पत्ति को देखा जाए तो वह संयोगवश नहीं है) तो मुझे कोई कारण नहीं दिखाई देता कि हुदहुद या कठफोड़वे की रचना दैविक रूप से होने के बदलाव को वे क्यों नहीं देखते हैं। कारण यही है कि यह सोचना आसान है कि लोटन कबूतर या पंखदार पूँछ वाले कबूतर की दुम उस पखेरू के लिए भी कुछ उपयोगी होगी, खासकर उस प्राकृतिक हालात में जो जीवन की आदतों को बदलती रहती है। इस रचना के बारे में इन सब विचारों के कारण मुझे काठ मार जाता है, पर क्या आप इस तरफ कुछ ध्यान देंगे। मुझे तो नहीं पता।

परिरूप के बारे में उन्होंने डॉ. गे को लिखा (जुलाई 1860):

``परिरूपित विधि और गैर ज़रूरी नतीजे के बारे में मैं कुछ और भी कहना चाहता हूँ। मान लीजिए मैंने एक चिड़िया देखी और मेरे मन में उसे खाने की इच्छा पैदा हुई, मैंने बन्दूक उठायी और चिड़िया को मार गिराया, यह सब मैंने सोच-समझ कर किया। अब यह भी देखिए कि एक बेचारा भला आदमी पेड़ के नीचे खड़ा है और अचानक ही आकाश से बिजली गिरती है और उस आदमी का काम तमाम हो जाता है। क्या आप मानेंगे (और इस बारे में मैं आपसे जवाब ज़रूर चाहूँगा) कि ईश्वर ने उस आदमी को मारने के लिए रूपरेखा तैयार की होगी? बहुत से या ज्यादातर लोग इस बात को स्वीकार कर लेंगे; लेकिन मैं कर नहीं सकता और करता भी नहीं। यदि आप मानते हैं तो क्या आप यह भी मानेंगे कि जब एक अबाबील किसी मच्छर को पकड़ता है, तो क्या ईश्वर ने यह रूपरेखा बनायी होगी कि कोई खास अबाबील ही किसी खास मच्छर पर झपटे और वह भी ठीक उसी खास मौके पर? मैं मानता हूँ कि वह आदमी और यह मच्छर दोनों ही एक समान संकट या कष्ट की हालत में हैं। यदि उस आदमी या इस मच्छर की मौत की रूपरेखा नहीं बनायी गयी है तो फिर मैं इस बात को मानने में कोई औचित्य नहीं देखता कि उन दोनों ही का पहला जन्म या उत्पत्ति अनिवार्य रूप से रूपरेखा बनाकर की गयी होगी।

चार्ल्स डार्विन की ओर से डब्ल्यू. ग्राहम को लिखा गया खत (डाउन, 3 जुलाई 1881)

महोदय

आप मेरी इस गुस्ताखी को माफ करेंगे कि मैं आपकी काबिले-तारीफ पुस्तक क्रीड ऑफ साइंस को पढ़ने के बाद आपको धन्यवाद कर रहा हूँ। दरअसल इस किताब ने मुझे असीम आनन्द दिया। हालांकि अभी मैंने इस किताब को पढ़ कर खतम नहीं कर पाया हूँ। कारण इसका यही है कि अब बुढ़ापे में बहुत धीरे-धीरे पढ़ पाता हूँ। बहुत दिन के बाद मैं किसी किताब में इतनी रुचि ले पाया हूँ। जाहिर है कि इस काम में आपको कई बरस जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ी होगी और इस काम को काफी समय भी देना पड़ा होगा। आप हरेक से तो यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आप से पूरी तरह से सहमत हो खासकर इस प्रकार के अनजान विषय के बारे में, यही नहीं, आपकी किताब में कुछ ऐसे तथ्य भी हैं, जिन्हें मैं हजम नहीं कर पा रहा हूँ। इसमें सबसे पहली बात तो यही है कि इस तथाकथित प्राकृतिक कानून में भी कुछ प्रयोजन छुपा हुआ है। मैं तो यह नहीं समझ सकता। यह कहने के लिए तो गुंजाइश नहीं बचती कि बहुत से लोग यह आशा रखते हैं कि एक दिन ऐसा आएगा कि सभी बड़े-बड़े नियम अनिवार्य रूप से किसी एक ही नियम के पीछे चल रहे होंगे। अब इन नियमों को भी देखिए जिन पर हम बात कर रहे हैं। जरा चाँद की ओर देखिए वहाँ पहुँच कर गुरुत्व का नियम कहाँ चला जाता है - और ऊर्जा को बचाने के बारे में क्या कहेंगे - जब परमाणु शक्ति का सिद्धान्त या ऐसे ही अन्य नियम हों जो कि सत्य तो हैं ही। क्या इसमें भी कोई प्रयोजन हो सकता है कि चाँद पर भी कोई ऐसा निम्नकोटि का जीव हो जो अकल से भी पैदल हो। लेकिन मुझे इस तरह धूल में लठ चलाने का अनुभव नहीं है, और ऐसे में मैं तो भटक ही जाता हूँ। यह ब्रह्मांड महज संयोग का परिणाम नहीं है - यह मेरे दिल की बात थी, और कुल मिलाकर देखूं तो आपने यह इतने रोचक ढंग और साफ तौर पर कही है कि शायद मैं भी न कह पाता। लेकिन ऐसे में यह भयानक संदेह फिर भी घेरे रहता है कि मानव का दिमाग जो कि निम्नतर जीवों के दिमाग से विकसित हुआ है, उसका कुछ भी मूल्य है या यह ज़रा भी यकीन करने लायक है। क्या कोई भी किसी बन्दर के दिमाग में आयी संकल्पनाओं पर भरोसा करेगा, या फिर ऐसे दिमाग में किसी प्रकार की संकल्पना आयी भी होगी। दूसरे मैं सोचता हूँ कि आपने हमारे महानतम लोगों को जो व्यापक महत्त्व दिया है तो मैं इस पर कुछ केस बनाऊं, मैं तो दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर चल रहे लोगों को भी खासुल-खास समझता हूँ और विज्ञान के मामले में तो खासकर। और आखिर में मैं यही कहना चाहूँगा कि मानव सभ्यता की प्रगति के लिए प्राकृतिक चयन ने बहुत कुछ किया है और कर रहा है, लेकिन आप इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, और इस पर तो मैं बहस करने को तैयार हूँ। जरा ध्यान दीजिए कि यह कोई सदियों पुरानी बात नहीं है जब यूरोप के देशों में तुर्क लोगों के आक्रमण का कितना भय लगा रहता था, और अब यही विचार कितना मज़ाकिया लगने लगा है। तथाकथित सभ्य काकेशियन प्रजातियों ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए तुर्क हमले का मुँहतोड़ जवाब दिया। सारे संसार को देख लीजिए और इसके लिए वह दिन दूर नहीं जब अनगिनत निम्न प्रजातियों को उच्चवर्गीय सभ्य प्रजातियों द्वारा तबाह कर दिया जाएगा। लेकिन अब मैं और नहीं लिखूँगा और आपके लेख की उन बातों का जिक्र भी नहीं करूँगा जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुआ। वैसे तो मुझे आपसे इस गुस्ताखी के लिए माफी माँगनी चाहिए कि मैंने अपने विचारों से आपको परेशान किया, और इसका एकमात्र बहाना मेरे पास यही है कि आपकी किताब ने मेरे मन में तूफान खड़ा कर दिया।

मान्यवर,

मैं तो हमेशा ही आपका अनुग्रही और दासानुदास बन कर रहना चाहता हूँ।

डार्विन ने इन विषयों पर बहुत कम ही जुबान खोली और मैं उनकी बातचीत के हिस्सों से भी कोई बहुत याद नहीं कर पा रहा हूँ, जिनसे यह ज्ञात हो सके कि धर्म के प्रति उनकी क्या भावना थी। उनके विचारों के बारे में हो सकता है कि उनके खतों में छिटपुट कुछ अभिमत मिल जाएँ।


चार्ल्स डार्विन की प्रकाशित पुस्तकें

  • 1836: ए लैटर, मोरल स्टेट ऑफ ताहिती, न्यूजीलैंड,
  • 1839: जरनल एंड रिमार्कस (वोयेज ऑफ बीगल)
  • जूलॉजी और वोयेज ऑन बीगल:
  • 1840: भाग I. फासिल ममलिया,

    1839: भाग II.ममलिया,

  • 1842: द स्ट्रक्चर एंड डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ कोरल रीफ्स
  • 1844: जिओलोजिकल आबजर्वेशन ऑफ वालकनिक आइलैंड्स
  • 1846: जिओलोजिकल आबजर्वेशन ऑन साउथ अमेरिका
  • 1849: जिआलोजी फ्राम ए मैन्युअल ऑफ सांइटिफिक इन्क्वायरी;
  • 1851:ए मोनोग्राफ ऑफ सब क्लास सिरिपिडिया, विद फीगर्स आफ आल स्पेशीज.
  • 1851: ए मोनोग्राफ ऑन द फासिल लेपाडिडी
  • 1854: ए मोनोग्राफ आफ द सब क्लास सिरीपिडिया
  • 1854: ए मोनोग्राफ ऑन द फासिल बानानिड एंड वेरुसिड ऑफ दग्रेट ब्रिटेन
  • 1858: ऑन द परपेचुएशन ऑफ वेराइटीज एंड स्पेशीज बाय नेचुरल मीन्स आफ सेलेक्शन
  • 1859: ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पेशीज बाय मीन्स ऑफ नेचुरल सेलेक्शन
  • 1862: ऑन द वेरियस कन्ट्रीवेंसेस बाय विच ब्रिटिश एंड फारेन आर्चिड आर फ्रटिलाइज्ड बाय इन्सेक्ट्स
  • 1868: वेरिएशन ऑफ प्लांट्स एंड एनिमल अडर डोमेस्टिकेशन
  • 1871: द डीसेंट ऑफ मैन
  • 1872: द एक्सप्रेशन ऑफ इमोशंस इन मैन एंड एनिमल
  • 1875: मूवमेंट एंड हैबिट्स ऑफ क्लाइंबिंग प्लांट्स
  • 1875: इन्सेक्टिवोरस प्लांट्स
  • 1876: द इफैक्ट ऑफ क्रास एंड सेल्फ फ्रर्टिलाइजेशन इन द वेजिटैबल किंगडम
  • 1877: द डिफरेंट फार्म्स ऑफ द फ्लावर्स आन द प्लांट़स ऑफ द सेम स्पेशीज
  • 1880: द पावर ऑफ द मूवमेंट इन प्लांट्स
  • 1881: द फार्मेशन ऑफ वेजिटेबल मोल्ड थू एक्शन ऑफ वार्म्स
  • 1887: चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा (फ्रांसिस डार्विन द्वारा संपादित)
  • इनके अलावा सैकड़ों की संख्या में आलेख और निबंध
  • सूरज प्रकाश, एच/101रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड पूर्व मुंबई 400097

    के पी तिवारी, भारतीय रिज़र्व बैंक, मुंबई