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एकलव्य - पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम: एकलव्य

लेखक: रामगोपाल भावुक

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कुल पृष्ठ: 88

भाषा: हिंदी

श्रेणी: उपन्यास

समीक्षक: कुमार अजित

लेखक के बारे में: रामगोपाल भावुक ग्वालियर के भवभूति नगर (डबरा) के रहने वाले हैं. वे शिक्षा विभाग में प्राध्यापक रह चुके हैं. सेवानिवृति के बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन शुरू किया और अब तक 7 उपन्यास और 2 कथा संग्रह प्रकाशित करवा चुके हैं.

उपन्यास के बारे में: यह किताब “एकलव्य” महाभारत काल में जातिगत भेदभाव एवं निषादों (आदिवासी समाज) के साथ पांडवों के द्वारा किये गए अन्याय को दर्शाती है. यह किताब उस समय की गुरु-शिष्य प्रथा पर भी कुठाराघात करती है तथा बतलाती है कि कैसे उस समय की सवर्ण व्यवस्था ने कमजोर जातियों के साथ अत्याचार एवं दुर्व्यवहार किया. यह उपन्यास एकलव्य, द्रोणाचार्य, अर्जुन को केंद्र में रखकर लिखी गयी है. इसमें एकलव्य की पत्नी वेणु का भी अहम् रोल है.

उपन्यास में क्या है?:

इस उपन्यास की शुरुआत एकलव्य के बचपन से होती है जब वह धनुर्विद्या के प्रति अति रूचि रखता है. उसके पिता हिरान्यधेनु उसकी रूचि को देखते हुए चाहते हैं कि वह धनुर्विद्या आचार्य द्रोणाचार्य से सीखे. एकलव्य भी द्रोनाचार्य को अपना गुरु मान चूका था लेकिन हिरन्यधेनु को इस बात का भी डर होता है कि पांडवो और कौरवों जैसे राजकुमारों को विद्या देने वाले राजशाही गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य को अपना शिष्य मानेंगे. फिर भी एकलव्य एक विश्वास लेकर द्रोणाचार्य के पास जाता है और धनुर्विद्या सिखाने की बात करता है जिसे द्रोणाचार्य सिरे से नकार देते हैं तथा कहते हैं कि क्षत्रिय राजकुमारों को शिक्षा देने वाला गुरु एक निषाद को कैसे विद्या दे सकता है? निराश होकर एकलव्य वापस आ जाता है तथा द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगता है. उसके मन में द्रोणाचार्य के प्रति कोई मैल नहीं रहती बल्कि वह खुद को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाने को प्रयासरत रहता है. यहाँ तक की वह आँख मूंदकर धनुष चलाने में प्रवीण हो जाता है. एक दिन जब वह अभ्यास कर रहा होता है तो पांडवों का कुत्ता वहाँ आ जाता है. वह भूँककर एकलव्य की तन्द्रा भंग कर देता है जिससे परेशान होकर एकलव्य ने उसके मुंह में बिना नोक वाले बाण भर देता है. बाद में पांडव जब अपने कुत्ते को इस हाल में देखते हैं तो आश्चर्य से वे इस बारे में द्रोणाचार्य को यह बात बताते हैं. द्रोणाचार्य एकलव्य की धनुर्विद्या कुशलता को देखते हुए उससे उसका अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लेते हैं. फिर भी एकलव्य बिना अंगूठे के अभ्यास करता है और खुद को श्रेष्ठ धनुर्धारी बनाता है. बाद में वह कई मौके खोजता है जिससे वह अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या से परास्त कर सके लेकिन बदकिस्मती से उसे मौका नहीं मिल पाता है. उपन्यास के अंत में उसकी पत्नी वेणु अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या से हतप्रभ कर अहसास दिलाती है की ज्ञान पर किसी विशेष जाती का अधिकार नहीं होता है तथा व्यक्ति की जीत के लिए कठिन निश्चय ही काफी होता है.

इस उपन्यास की ख़ास विशेषताएं: उपन्यास में यह दिखाया गया है कि जहाँ आदिवासी पशु पक्षियों के लिए इतनी करुणा रखते थे वहीँ क्षत्रिय राजा उनका शिकार करने में अपनी शान समझते थे. उपन्यास के एक भाग में प्रमुख शिल्पी चक्रधर जब एकलव्य को शिल्प विद्या सिखा रहा होता है तो एकलव्य पक्षियों के झुण्ड को निशाना बनाता है. जिसके बाद चक्रधर उसे समझाता है कि पक्षियों को मारना वीरता नहीं है वरण उनकी रक्षा करना वीरता की निशानी है.

यह उपन्यास जातिगत भेदभाव और सवर्ण-दलित की बीच की सामाजिक खाई को दर्शाता है. इसमें इस बात को रेखांकित किया गया है कि कैसे एक गुरु भी जातिगत भावना से प्रेरित होकर एक आदिवासी बच्चे को शिक्षा देने से मना कर अपने पद एवं कर्तव्य से अन्याय करता है.

इस उपन्यास में इस बात को भी प्रमुख रूप से रेखांकित किया गया है कि जहाँ एकलव्य के एक अंगूठे के काटने से सम्पूर्ण निषाद समाज अपने अंगूठे का प्रयोग शस्त्र चलाने में न करने की कसम खाता है वहीँ क्षत्रिय भाई आपस में सत्ता के लिए युद्ध ही नहीं करते बल्कि अपनी औरत को भी दाव पर लगा देते हैं.

अपने ही गुरु को मारने के लिए एक शिष्य किस प्रकार अन्यायपूर्ण माध्यम का सहारा लेता है जबकि अंगूठा काटने के बावजूद एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य को भगवान की भांति पूजता है.

एक उपन्यास में एकलव्य की पत्नी वेणु को केंद्र में रखकर इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है की आदिवासी समाज में स्त्रियाँ किस प्रकार सशक्त थीं तथा युद्ध क्रिया में भाग लेती थीं वहीँ हस्तिनापुर की सभा में एक स्त्री का खुलेआम अपमान किया गया तथा सभी चुपचाप मौन साधे रहे. उपन्यास के अंत में एकलव्य द्वारिका से अर्जुन के साथ आई हुई स्त्रियों के अपमान पर अपने पुत्र, पत्नी वेणु तथा अपने सैनिकों को डांटता है तथा मानव का सच्चा कर्त्तव्य याद दिलाता है.

इसके अतिरिक्त एकलव्य का अंगूठा कटते समय कथित धर्मराज युधिष्ठिर की चुप्पी खलती है तथा एकलव्य को कमजोर कर भ्राता प्रेम में डूबी अपने भाई अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाने की उनकी उत्कंठा उनके स्वार्थ एवं दोहरे स्वभाव को दर्शाती है.

यह उपन्यास क्यों पढ़ें:

हम लोगों ने महाभारत सीरियल बहुत देखे हैं लेकिन एकलव्य के पात्र को मात्र एक-दो एपिसोड में सीमित कर पांडवों के अत्याचार को पांडव-कौरव संघर्ष में सीमित कर छिपाया गया है जिससे पांडवों को सहानुभूति मिले. यहाँ तक कि मैं भी एकलव्य के असल पात्र और उसकी कहानी को पूर्ण रूप से इस उपन्यास से ही जान पाया. क्षत्रिय एवं ब्राह्मण समाज के लोग महाभारत काल की अपनी गौर गाथा का बखान करते हैं. वो या तो महाभारत के इस पक्ष से अनभिज्ञ हैं या फिर जान कर अनजान बनते हैं ताकि उनके इतिहास की कलई न खुल जाए. समाज में व्याप्त जातिगत व्यवस्था को भी आलोचनात्मक रूप से इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है. कुल मिलाकर रामगोपाल भावुक जी का यह उपन्यास आज के समाज एवं उनकी मिथ्या इतिहास पर जमकर कुठाराघात करती है. इस उपन्यास को पढ़े बिना महाभारत को सही रूप में नहीं समझा जा सकता है.