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क्या यह प्यार नहीं

प्यार,इश्क,मुहब्बत के अनगिनत किस्से सुने-सुनाए जाते हैं, कसमें-वादे किए और निभाए जाते हैं।सफल- असफल प्रेम की कहानियां कम नहीं हैं जमाने में।
युवा बेटी ने जब एक दिन कहा कि माँ, कैसे आप लोगों ने बिना प्यार के एक अजनबी से विवाह कर लिया?
मैं सोच में पड़ गई कि आखिर यह प्यार है क्या?क्या वाकई हमनें प्यार नहीं किया?नहीं जानती वह मेरी बातों,भावनाओं को समझ भी पाएगी या नहीं।मुझे समझाना भी नहीं है, क्योंकि कुछ बातें समझाई जा भी नहीं सकती।
हां, हम बिल्कुल अजनबी थे,हमारी अरेंज मैरिज थी,जब वे अपने परिवार के साथ देखने आए थे तो, भर निगाह देख भी नहीं पाई थी।जब दिखाने की प्रक्रिया संपन्न हो गई थी तो अंदर जाकर पर्दे के पीछे से देखने का प्रयास किया था, तब भी दिल धड़क रहा था कि कहीं लड़के वालों को पता न चल जाय।जबकि तब तो यह भी ज्ञात नहीं था कि रिश्ता होगा भी या नहीं, लेकिन उन लोगों ने तत्काल ही हां में जबाब दे दिया।तब विवाह के पहले बात करने की न परम्परा थी,न फोन की सुविधा कि चुपचाप बात ही हो जाय।एंगेजमेंट के पश्चात एक पत्र पति ने लिखा था, जिसका जबाब भी देने का मैं साहस न जुटा सकी।
लेकिन नैनों ने ख्वाब बुनने शुरू कर दिए थे, अक्सर एंगेजमेंट की तस्वीर में उन्हें निहारा करती थी।उंगली की वह छुअन होठों पर मुस्कान ले आती थी।तिरछी आँखों से निहारना मन को गुदगुदा जाता था।शीघ्र ही विवाह की प्रतीक्षित तिथि निकट आ गई।तिलक की रस्म से लौटी बहनों से जीजाजी की बातें पूछती रही थी।विवाह की तमाम रस्मों के साथ अनोखा सा बन्धन जुड़ता जा रहा था।। विदाई के समय परिजनों से बिछड़ने का दुःख तो था,लेकिन पिया के संग की अद्भुत प्रसन्नता थी,कोई झिझक, सन्देह,भय नहीं था।था तो एक अटूट विश्वास कि हम आज से एक-दूसरे के आजीवन साथ हैं।हम हर कदम पर, हर सुख-दुःख में सहभागी हैं।हमसे जुड़े हर रिश्ते दोनों के हैं, हर जिम्मेदारी हमारी साझी है।
आज भी याद है कि जब पति की माँ, भाई या बहनें उनकी कोई बुराई या शिकायत करतीं तो मुझे बेहद बुरा लगता,जबकि उनका रिश्ता मुझसे पहले था।
जब पहली बार प्रेग्नेंट हुई थी तो प्रारंभ से ही तबीयत काफी खराब रहती थी।पति अधिक कुछ तो नहीं कर सकते थे लेकिन मैं बर्तन मॉजती थी तो वे धुल देते थे, किचन की सफाई भी करवा देते थे, डेढ़ साल तक अपने कपड़े तो खुद ही साफ कर लेते थे,मेरे भी जब कभी रह जाते तो धुल देते।जब मैं नाराज होती तो कहते कि तकलीफ तो तुम्हारी बांट नहीं सकता, काम तो बांट ही सकता हूँ।सास को बुरा लगता कि अरे,हमने भी तो बच्चे पैदा किए हैं।डिलीवरी के समय जब मेरी हालत गंभीर हो गई थी तो मेरा हाथ थामे बच्चों की तरह फूट फूटकर रोए थे।
जब पति को सियाटिका की समस्या हुई थी तो उनकी तकलीफ़ से मेरी बेचैनी चरम पर थी।मैं हमेशा यही प्रार्थना करती हूँ कि वे स्वस्थ रहें, जो भी बीमारी होनी है मुझे हो जाय क्योंकि मैं दवाइयां आसानी से खा लेती हूँ।ये अलग बात है कि जिसे जो परेशानी होनी है, उसे ही होगी।मैं स्वयं से सम्बंधित काम भले भूल जाऊं, उनसे सम्बंधित नहीं भूलती।
वे जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी, त्यौहार पर कभी साथ जाकर खरीददारी नहीं करवाते,पैसे देकर कह देते हैं कि जो चाहो ले आना।नहीं ले जाते अधिक घुमाने-फिराने।गुस्सा भी काफी करते हैं लेकिन आजतक कभी भी किसी से मेरी या मेरे मायके वालों की शिकायत नहीं की है।मेरे बनाए खाने में कोई नुक्स नहीं निकाला है, जबकि मैं कोई परफेक्ट खाना नहीं बनाती हूँ।
मुझे भी ढेर सारी शिकायतें हैं उनसे,उनकी बहुत सी आदतें और बातें नापसंद हैं,लेकिन उनके बगैर जीने की कल्पना स्वप्न में भी नहीं कर सकती।जब भी ईश्वर के समक्ष प्रार्थनारत होती हूँ, बस पति का साथ मांगती हूँ।हम बेहिसाब बातें भी नहीं करते,लेकिन एक दूसरे की खामोश उपस्थिति भी अत्यंत सुरक्षा और सुकून देती है।ऐसी अनगिनत बातें हैं जो हमें विभिन्न सोच और व्यवहार के बावजूद सदैव एक दूसरे की पूरक होने का अहसास दिलाती रहतीं हैं।
उम्र के छठें दशक तक हमनें कभी भले ही शब्दों से प्रेमाभिव्यक्ति नहीं की होगी,कभी सड़क और पार्क में हाथ में हाथ थामे नहीं चले होंगे,एक-दूसरे के तारीफ के कसीदे नहीं काढ़े होंगे,बुके ,केक की बजाय जरूरत की चीज लेना पसंद किया होगा हमनें।लेकिन एक दूसरे के लिए हमारे दिलों में बेहद सम्मान है,परवाह है,त्याग की भावना है, मेरा-तुम्हारा नहीं, सबकुछ हमारा है।क्या यह प्यार नहीं है?
खैर,अपनी-अपनी सोच है।मैं किसी को गलत नहीं ठहरा रही,शायद आज के युवावर्ग के पास इतना पेशेंस नहीं है, या भागती-दौड़ती जिंदगी में समय नहीं है।लेकिन प्यार की चाहत तो सभी को है,तरीका भले ही अलग हो सकता है।वैसे,युवा बहुत भावुकता से निर्णय नहीं लेना चाहते, जो समयानुकूल भी है।
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