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उजाले की ओर ---संस्मरण

स्नेही मित्रों !

नमस्कार

बरसात का पानी गिरते देखकर कुछ बातें सहसा याद आने लगती हैं | बचपन की बातें --ज़िद करके नाव बनवाने की फिर उस नाव को बरसात के सहन में गढ़े में भरे पानी में चलाने की और नाव के पिचक जाने के बाद उस गढ़े में छपाछप कूदने की ,कपड़े गंदे करने की फिर भीगे कपड़ों को बदलने के लिए कहे जाने पर उन्हीं गीले कपड़ों में रहकर सड़क पर जाने की ज़िद !

साठ/पैंसठ वर्ष पूर्व लड़कियों को ,वो भी उत्तरप्रदेश की लड़कियों को कहाँ छूट मिलती थी यह सब करने की !

लड़के तो भाग जाते सड़क पर ,किसी के हाथ न आते लेकिन लड़कियों को सहन के गढ़े तक ही रहने की इज़ाजत मिल जाए तो बड़ी बात थी |

मैं उन गिनी-चुनी खुशनसीब लड़कियों में से थी जिन्हें नाव भी बनाकर दे दी जाती और कभी बहुत बिसुरते देखकर नानी माँ सड़क पर भी ले जातीं ,वो भी अपने साथ !

समझ में नहीं आता था उन दिनों ,आखिर उन लड़कों के सींग निकले हुए हैं क्या जो उनको हर प्रकार की आज़ादी मिल जाती है ,लड़कियों को नहीं !

बड़ा विद्रोह होता और मन करता बगावत कर दी जाए !और बगावत करने का परिणाम यह हुआ कि साथ में खेलने वाली लड़कियों को चेतावनी मिलने लगी |

नानी माँ बोलतीं ;

"लो ,और करो ज़िद ।एक लड़की साथ नहीं खेलेगी तुम्हारे ---"

गुस्सा आता पड़ौस के परिवारों की सोच पर ! अब बताइए,बच्चों में लड़का,लड़की का क्या भेद ?बच्चे तो बच्चे ही होते हैं |

लेकिन यह था तो था ---मुझे तो खैर दिल्ली में पढ़ने जाने के कारण काफी छूट मिली हुई थी,परिवार शिक्षित था लेकिन अपने शहर में आने पर सखियों के माता-पिता को मेरे भीतर खोट ही खोट दिखाई देते |

जैसे --स्कूली शिक्षा दिल्ली में करने बाद जब अपने शहर में कॉलेज करने की बात आई तो मुझे सीधा 'को-एजुकेशन' में प्रवेश दिलवा दिया गया |

मेरी देखा देखी पड़ौस की लड़कियों में भी होड़ लग गई और कुछ ने तो चीख़ -चिल्लाकर 'को-एजुकेशन' में प्रवेश ले ही लिया |

वो बात और थी कि मुझे उन सहेलियों के परिवार के बुज़ुर्गों के व्यंग्य-बाण सुनने पड़ते |

क्रोध आता ,अरे ! नहीं दिलाना है को-एजुकेशन में प्रवेश तो मत दिलवाओ ,मेरे ऊपर लाल-पीली आँखें क्यों भैया ?

लेकिन ऐसा ही होता है ,अपने बच्चों के सामने तो चलती नहीं ---और बंदूक दूसरे कंधों पर रख दी जाती है ------थी ---

अपने ज़माने की बात कर रही हूँ |अब तो हमारा छोटा शहर भी अमीरों का शहर बन चुका है ,वो बात अलग है कि दिमाग की बत्ती बहुत कम लोगों की खुली है |

ख़ैर --बात तो मौसम की ,बूँदों की हो रही थी और मैं कहाँ बहक गई ---

वैसे यह भी कुछ जुड़ी बात है --हुआ कुछ यूँ कि बरसात के छींटों में मैं सहेलियों सहित घर से निकली थी लेकिन जब तक कॉलेज से लौटने का समय हुआ तब तक घनघोर बरसात होने लगी थी |

दो लड़कियाँ जल्दी घर के लिए निकाल गईं थीं ,मैं आराम से लाइब्रेरी में बैठे नोट्स बनाती रही |

जब बिजली काफ़ी कड़कने लगी तब लायब्रेरियन ने आकर पूछा कि-- बेटा !घर नहीं जाना है ?

जल्दी से रेफरेंस-बुक्स रखने के लिएउठने लगी तो उन्होंने कहा कि वे रख देंगे ,मुझे जल्दी निकाल जाना चाहिए वर्ना सड़कें पानी से भर जाएँगी |

साइकिल -स्टैंड पर जाकर साइकिल लेने लगी कि हमारे ही पड़ौस में रहने वाले भैया ने कहा कि वो मेरी साइकिल ले चलेंगे ,मैं उनका छाता ले लूँ |

वो उस दिन अपने किसी दोस्त के साथ आए थे जो चला गया था और उनके पास छाता था |

बहुत मना किया ,वे माने ही नहीं और मैं उनसे छाता लेकर चल दी ,वो बेचारे धीमे -धीमे मेरी साइकिल लेकर साथ -साथ चलते रहे |

मुझे अकेला नहीं छोड़ सकते थे इसलिए साइकिल पर बैठकर जल्दी नहीं जा सकते थे |

मैं उनके साथ साइकिल पर या छाते में नहीं चल सकती थी |

बड़ा खराब लग रहा था लेकिन उनके परिवार का हमारे यहाँ आना-जाना था | उनकी माँ भी माँ के साथ अध्यापिका थीं |

लगभग आधा घंटे की परेड के बाद छप छ्प करते अपने मुहल्ले में पहुँचे | मैं तो काफ़ी बच गई थी लेकिन नवीन भैया बेचारे बुरी तरह भीग चुके थे |

मुहल्ले में पहुँचकर देखा तो जमघट लगा था |

"लो ,आ गईं आपकी बिटिया ---" एक पड़ौसी ने माँ को इशारा किया |

मैंने अपने बैग से निकालकर नवीन भैया की दो पुस्तकें उन्हें दीं,थैंक्स कहा और घर में कपड़े बदलने जल्दी से चली गई |

नवीन भैया ने साइकिल बरामदे में रखकर स्टैंड पर लगाई और चाभी वहाँ खड़ी नानी माँ को दे दी |

किसीने बेचारे से यह भी नहीं कहा कि वह बिटिया को सही -सलामत वापिस लेकर आया ,एक कप चाय तो पिला दी जाए |

वो वैसे ही कहाँ पीते जब कि बुरी तरह भीगे हुए थे |

नवीन भैया घर पहुँचे और उनके पिता का झन्नाटेदार तमाचा उनके चेहरे पर पड़ा |

मुहल्ले के लोगों ने न जाने क्या-क्या बोलकर उनके पिता का दिमाग खराब कर दिया था |

अगले दिन से नवीन भैया ने मुझसे बात करनी बंद कर दी ,बहुत दुख हुआ |

मन में प्रश्न उठा --क्या किसी कठिन परिस्थिति में आदमी को समाज की बकवास के डर से मानवीय व्यवहार भी भुला देना चाहिए ?

इस बात को वर्षों बीत चुके हैं लेकिन मैं उनके बेकार ही थप्पड़ खाने की बात भूल नहीं पाती |

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती