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उजाले की ओर---संस्मरण

अनेही मित्रों को स्नेहमय नमस्कार

आशा है ,सब स्वस्थ,आनंदित हैं |

आज आप सबसे एक अलग बात साझा करती हूँ ,लगता है आप मुस्कुराए बिना नहीं रह पाएँगे |

घटना लगभग 35/38 वर्ष की है | मैं गुजरात विद्यापीठ से पी.एचडी कर रही थी |

उन दिनों हम आश्रम-रोड़ पर ही रहते थे | घर से विद्यापीठ लगभग डेढ़-एक कि .मीटर की दूरी पर होगा |

युवावस्था थी,इतना चलने में कोई ख़ास परेशानी न होती |

ख़ास इसलिए लिखा कि होती तो थी परेशानी लेकिन युवावस्था के कारण बहुत अधिक नहीं क्योंकि परिवार होने के कारण 'टीन-एज' के बच्चों को भी संभालना होता |

घर की पूरी व्यवस्था ,पतिदेव तो ख़ैर 15 दिन बम्बई में ओफ़शोर पर रहते ,पंद्रह दिन में घर पर --यानि बच्चों के पास |

फिर भी आप सब समझते हैं कि परिवार के साथ शिक्षा ,वो भी रेग्युलर शिक्षा लेना कठिन तो हो ही जाता है |

ख़ैर,हम पूरे दम-खम से घर से बाहर निकले थे कि पढ़ना तो है ही |

लौटती बार अधिकांश रूप से मैं घर पर पैदल ही आती |

रास्ते पर बनी दुकानों से कुछ ज़रूरी सामान खरीदती हुई ,रास्ते पर खड़ी लारियों से फल आदि लेती हुई या जो कुछ भी सामान अथवा बच्चों की डिमांड होती ,उसे पूरे करती हुई लौटती |

एक दिन लारी पर बहुत अच्छे फल देखे | मैं और सामान ले चुकी थी सो वहाँ पर रुकी ,कुछ फल ख़रीदे | निगाह पड़ी ,बड़े अच्छे केले थे ,बिल्कुल ताज़े ! सोचा वो भी ले लेती हूँ |

घर में केले बच्चे ही खाते थे सो बहुत अधिक लेने की ज़रूरत तो नहीं थी फिर भी छह यानि आधा दर्ज़न से कम तो क्या लेती |

फल वाले भैया ने प्लम,सेव आदि एक थैले में भर दिए थे | दूसरे प्लास्टिक के थैले में केले रख दिए जिन्हें मैंने अपने सीधे हाथ की ऊंगलियों में लटका लिए |

दूसरे हाथ में मेरी फ़ाइल व पेपेर्स थे और कुछ ज़रूरी सामान था कंधे पर खादी के टँगे झोले में |

तात्पर्य यह कि मैं खूब लदी-फँदी थी लेकिन ऑटोरिक्शा नहीं ली और क्विक-मार्च करते हुए घर की ओर क़दम बढ़ाओ करती रही |

घर पहली मंज़िल पर था ,नीचे पहुँचने तक अच्छी-ख़ासी साँस फूल चुकी थी |

नीचे से ही बच्चों को आवाज़ लगाई ,दोनों दौड़कर आए |

मेरा बोझ बच्चों ने अपने ऊपर लाद लिया और दौड़ते-दौड़ते सारा सामान ऊपर ले गए |

मैं अब तक बहुत थक चुकी थी अत: धीरे-धीरे ऊपर पहुँची |

मेरे पास बहुत वर्षों से एक लड़की सहायिका के रूप में रह रही थी कांता --वो घर का सारा काम करती |

आवाज़ मैं बच्चों को लगाती थी लेकिन सामान पकड़ने अधिकतर कांता ही आती थी |

उस दिन बच्चे बड़े उत्साह से मेरी एक आवाज़ पर नीचे आ गए थे ,वह उन्हें आवाज़ लगाती रह गई लेकिन उन्होंने लॉबी में से ही झाँककर पैकेट्स देख लिए थे और उनको ख़्याल आ गया था कि माँ उनके पसंद की चीज़ें लेकर आई है | अत: वे फटाफट नीचे उतर आए थे |

ऊपर जाकर बच्चों ने डाइनिंग-टेबल पर सामान लगभग पटक ही दिया और अपनी मंगाई हुई चीज़ों के पैकेट्स उठाकर भागने लगे |

कांता ने मुझे पानी दिया और टेबल से सारा सामान समेटने लगी |

अचानक कांता की नज़र एक केले पर पड़ी और उसके मुँह से निकल गया |

"एक केला ?"

"मतलब ?" मैंने कांता से पूछा |

उसने टेबल पर से एक केला उठाकर मुझे दिखाया |

ओह ! मुझे याद आया,रास्ते में मेरे केले की थैली फट गई थी ,मैंने उसे एक ऊंगली पर लटका लिया था और बड़ी झूमते हुए शान से आगे बढ़ गई थी |

केले एकजुट में थे सो ध्यान ही नहीं गया कि वे टपक भी सकते हैं !

रास्ते में मैंने एक-दो लोगों को कुछ इशारा करते हुए तो देखा था लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आया और मैं 'बढ़े-चलो बहादुरों'की तरह बढ़ती रही |

अब बच्चों ने कांता के साथ मिलकर जो मेरी हँसी उड़ाई है ,मैं इतने वर्षों बाद याद करके भी मुस्कुरा पड़ती हूँ |

इस प्रकार की घटना कभी न कभी सबके साथ होती रहती है जिसको बाद में चित्रात्मकता से याद करने पर बरबस हँसी छूट जाती है |

अब किसी दूसरे संस्मरण के साथ 'उजाले की ओर' में मिलती हूँ |

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती