Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 21 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 21

21

मेरे पास है अमर होने का नुस्खा!

राजा कृष्णदेव राय साधु-महात्माओं की बड़ी इज्जत करते थे। इसलिए अकसर पहुँचे हुए साधु और महात्मा भी उनके दरबार में आकर, उन्हें आशीर्वाद देते थे और प्रजा के कल्याण के लिए मंगल कामना करते थे। इससे राजा ही नहीं, प्रजा भी प्रभावित होती थी। कभी-कभी राजा धार्मिक रीतियों से यज्ञ भी करते थे, जिसमें प्रजा भी उत्साहपूर्वक शामिल होती थी। इससे दूर-दूर तक विजयनगर की कीर्ति एक सांस्कृतिक नगरी के रूप में थी।

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक तांत्रिक आया। वह देखने में बड़ा भव्य और आकर्षक लगता था। खूब ऊँचा कद, चौड़े माथे पर त्रिपुंड। लहराती हुई दाढ़ी। काले रंग का लंबा चोला, जिस पर रुंड-मंडों की कुछ विचित्र आकृतियाँ बनी थीं। गले में रुद्राक्ष की बड़ी-बड़ी मालाएँ। आँखों से जैसे ज्वाला निकल रही हों।

आते ही उस तांत्रिक ने हाथ उठाकर राजा कृष्णदेव राय को आशीर्वाद दिया। फिर कुछ ऊँची, लरजती आवाज में बोला, “महाराज, मेरा नाम वज्रगिरि परमसिद्ध योगी योगीश्वर है। मैं हिमालय पर पिछले साठ बरसों से सिद्धि योग कर रहा था। इस काल में मैंने दिव्य अनुभूतियाँ कीं। सब तरह की दुर्लभ सिद्धियाँ हासिल कीं, जिनके लिए बड़े-बड़े तपस्वी और राजा-महाराजा तक तरसते हैं। आपका बहुत नाम सुना। तीनों लोकों में आपकी कीर्ति-पताका लहरा रही है। विजयनगर की प्रजा आपको जी-जान से चाहती है और हर क्षण आपके चिर स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करती है। यही देखकर मैं आपके दरबार में आया हूँ।”

राजा कृष्णदेव राय मुग्ध होकर, बड़े ध्यान से तांत्रिक की बात सुन रहे थे। तांत्रिक के चेहरे पर बड़ा अजब भाव था। आवाज में कड़क। कुछ रुककर वह बोला, “आपके लिए मैं ऐसा अनोखा रसायन लाया हूँ महाराज, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। इसे पीते ही आपकी उम्र दोगुनी हो जाएगी। कोई बड़े से बड़ा शक्तिशाली भी आपका अनिष्ट न कर सकेगा। साथ ही आपके राज्य का विस्तार दूर-दूर तक हो जाएगा।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर संतोष का भाव झलका। उन्होंने उत्सुक होकर कहा, “तो क्या वज्रगिरि जी, ऐसा रसायन सचमुच प्राप्त कर लिया गया है? मुझसे बहुत पहले हिमालय से आए योगी धौलाचार्य ने कहा था कि वे ऐसी सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। और उसे प्राप्त करते ही वे सीधे विजयनगर आएँगे, ताकि विजयनगर की प्रजा का कुछ कल्याण हो सके?”

“ठीक कहा महाराज, आपने बिल्कुल ठीक कहा!” वज्रगिरि ने बड़े आनंद भाव से हँसते हुए कहा, “असल में महा तपस्वी धौलाचार्य जी ने ही तो मुझे आपके पास भेजा है। वे मेरे गुरु हैं। महायोगी हैं और लंबे समय से वे इसी साधना में लगे हुए हैं। उन्होंने ही मुझे यह सिद्धि प्राप्त करने का सच्चा मार्ग बताया। बाद में जराजीर्ण होने के कारण उन्हें यह कठिन साधना बीच में रोक देनी पड़ी। पर उनके आशीर्वाद से मैंने यह अति दुर्लभ सिद्धि प्राप्त कर ली। जब मैं श्रीगुरु के चरणों में प्रणाम करके उन्हें बताने गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि सुनो वज्रगिरि, अब तुम जरा भी विलंब किए बिना सीधे विजयनगर जाओ। वहाँ राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा के लिए रात-दिन चिंता करते रहते हैं। जाकर उन्हीं को अमरता का यह रसायन देना, ताकि विजयनगर और उसकी प्रजा को आनंद मिले…!”

“अच्छा...! यह तो मेरे लिए गौरव की बात है। आपकी बात सुनकर मैं धन्य हो गया, योगीश्वर!” राजा कृष्णदेव राय ने कृतज्ञ भाव से कहा।

उनकी आँखों में आनंद भरी चमक थी। सुख की मृदु छाया पूरे चेहरे पर नजर आने लगी थी। गद्गद होकर बोले, “यह तो बहुत अच्छा है कि जो काम मैं कर रहा हूँ, उसके महत्त्व को दूर-दूर तक लोग जान रहे हैं। मुझे अपने लिए कोई लालसा नहीं। पर अगर मेरी प्रजा का सुख-आनंद इसमें है और बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि भी अपने आशीर्वाद के साथ मुझे अमरता का रसायन पीने की आज्ञा दे रहे हैं, तो मैं इसे अवश्य पीना चाहूँगा।”

फिर जैसे वर्तमान में आकर बोले, “हाँ, तो वज्रगिरि जी, कहाँ है वह रसायन? आप लाए नहीं!”

इस पर वज्रगिरि ने हँसकर कहा, “महाराज, वह रसायन तो मैं ले आया हूँ। वह है ही ऐसी दुर्लभ वस्तु कि आप पीने के बाद उम्र भर मुझे याद रखेंगे। पर वह दिव्य रसायन ऐसे नहीं दिया जा सकता। आपके महल में ही तीन दिनों तक निरंतर चलने वाली, शक्ति की देवी काली की विशेष पूजा-अर्चना करूँगा। इस पूजा के बाद ही वह रसायन पीने से आपका भला होगा।”

राजा कृष्णदेव राय ने खुशी-खुशी इसकी इजाजत दे दी। बोले, “वज्रगिरि जी, जैसा आपको उचित लगे, आप करें। आपको किसी चीज की जरूरत हो तो बताएँ। मेरे सेवक हर क्षण आपकी सेवा में तत्पर रहेंगे। फिर भी कोई कठिनाई हो तो आप सीधे मेरे पास संदेश भिजवा दें। आपको पूजा के लिए जो भी सामग्री चाहिए, उसका तत्काल प्रबंध हो जाएगा।”

फिर उन्होंने मंत्री से कहा, “मंत्री जी, वज्रगिरि महान योगी हैं। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं। इन्हें अपनी साधना में कोई कष्ट न हो, इसका जिम्मा आपका है। जैसा ये कहें, वैसी ही व्यवस्था कर दी जाए।”

“ठीक है, महाराज! ऐसे दिव्य योगियों का आना तो विजयनगर के लिए वरदान है। योगी जी यहाँ से संतुष्ट होकर जाएँ, मैं इसका पूरा ख्याल रखूँगा।” मंत्री ने कहा।

अगले दिन से वज्रगिरि ने राजा कृष्णदेव राय के महल के ही एक कक्ष में शक्ति की विशेष पूजा शुरू कर दी। वहाँ निरंतर सुगंधित धूप जलता रहता। स्वाहा के साथ-साथ ह्रीं-क्लीं-फट् और जोर-जोर से मंत्रोच्चारण की ध्वनियाँ सुनाई देतीं। बीच-बीच में अस्फुट स्वर में सुनाई देता, “मर अमर... मर मर अमर....मर हे हे रे भुर् भंगुर अमर, फट्-फट् हे हे रे अति व्यति मति मदंति, हे रे रे अमरामर...अजर-अमर...ह्रीं-क्लीं-फट्...!”

मंत्री ने साथ वाले कक्ष से सुना तो राजा कृष्णदेव राय के पास जाकर कहा, “योगी योगीश्वर तो बहुत पहुँचे हुए तांत्रिक हैं, महाराज! बड़ी ही कठिन और दुष्कर साधना में लीन हैं। मैंने साथ वाले कक्ष में बैठकर सुना। उसका रात-दिन निरंतर पाठ जारी है। अहा, सुनते हुए मन किसी और ही दुनिया में पहुँच जाता है!”

“हमारा सौभाग्य...!” राजा कृष्णदेव राय ने मृदु हास्य के साथ कहा और अर्धोन्मीलित नेत्रों से विजयनगर के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखने लगे।

तीन दिनों के बाद वज्रगिरि उस साधना कक्ष से बाहर निकलकर आया। सारे शरीर पर धूनी रमाए हुए। आँखों में प्रचंड ज्वाला। उसने गुरु गंभीर स्वर में राजा कृष्णदेव राय से कहा, “महाराज, अब सभी को बाहर जाने के लिए कहें। एकांत में ही आपको इस रसायन का सेवन करना होगा।”

सबके जाने के बाद वज्रगिरि ने ताम्रपात्र हाथ में लिया और तेज स्वर में मंत्रोच्चारण करना शुरू कर दिया।

राजा कृष्णदेव राय विनत भाव से काली की मूर्ति के सामने रखे हुए एक श्वेत आसन पर बैठ गए और माँ काली को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

“महाराज, माँ काली ने इस अनोखे रसायन के रूप में आपको आशीर्वाद दे दिया है। अब आपकी सारी चिंताएँ खत्म हो जाएँगी।” कहकर तांत्रिक वज्रगिरि विचित्र ढंग से हँसा।

फिर उसने ताम्रपात्र को सात बार काली की मूर्ति के सामने गोल-गोल घुमाया और जोर-जोर से मंत्र पढ़ने लगा, “ह्रीं क्लीं फट्...! ह्रीं क्लीं फट्...! ह्रीं क्लीं फट्...!” उसका स्वर निरंतर तेज और उग्र होता जा रहा था। एकाएक वह रुका और पात्र राजा के आगे रखकर कहा, “लीजिए महाराज, अब जल्दी से यह अमरता का रसायन पी जाइए...! बड़ा ही शुभ मुहूर्त है।”

पर राजा कृष्णदेव राय उसे उठाते, इससे पहले ही बड़ी गंभीर आवाज आई, “रुकिए महाराज, रुक जाइए...!”

और इसके साथ ही काली की विशाल मूर्ति के पीछे से, खूब लंबी सफेद दाढ़ी वाला एक बूढ़ा साधु निकला। श्वेत वस्त्र। घुटनों तक लटके लंबे केश। माथे पर बड़ा-सा चंदन का तिलक और होंठों पर रहस्यपूर्ण मुसकराहट।

हवा में दोनों हाथ लहराता वह तेजस्वी साधु राजा कृष्णदेव राय के पास आकर आशीर्वाद देता हुआ बोला, “आयुष्मान हो राजन! आपका कल्याण हो, विजयनगर की प्रजा का कल्याण हो। मैं हूँ माँ काली का विशिष्ट दूत। मुझे माँ काली ने ही आपके पास भेजा है। वे आपसे बहुत प्रसन्न हैं। इसीलिए उन्होंने मुझे तत्काल आपके पास जाकर यह विशेष संदेश देने के लिए कहा है।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय अवाक्। काँपते स्वर में बोले, “क्या सचमुच माँ काली ने मेरे पास विशेष संदेश भिजवाया है?”

“हाँ, महाराज!” श्वेत आभा वाले उस रहस्यपूर्ण साधु ने एक गहरी मुसकान के साथ कहा, “मैं अपनी साधना में लीन था। पर तभी अचानक माँ काली प्रकट हुईं।...अभी-अभी उन्होंने मुझे दर्शन देकर बताया है कि इस रसायन का प्रभाव तभी होगा, जब आपसे पहले वज्रगिरि इसका सेवन करेगा। वज्रगिरि से कहें कि वह सामने पड़े ताम्र-पात्र से अंजुलि भर रसायन लेकर, पहले खुद पिए, नहीं तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा महाराज!”

सुनते ही तांत्रिक वज्रगिरि की हालत खराब हो गई। चेहरे का रंग उड़ गया। टाँगें थर-थर काँपने लगीं। उसने भागने की कोशिश की, पर पकड़ा गया।

विजयनगर के चौकन्ने सैनिकों ने उसे पकड़कर रस्सियों से बाँध दिया। तलाशी ली गई तो उसके पास एक विषबुझी कटार मिल गई। साथ ही विजयनगर के महल, किले तथा सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील कई अन्य स्थलों के नक्शे मिले। राजा कृष्णदेव राय के अलावा मंत्री, सेनापति, तेनालीराम तथा कुछ और लोगों के नामों की सूची भी उसके पास थी, जिन्हें वह मारना चाहता था।

देखकर राजा कृष्णदेव राय हक्के-बक्के थे। हकबकाकर बोले, “अरे, ऐसा...?”

पर वे कुछ समझ पाएँ, इससे पहले ही श्वेत दाढ़ी वाले बूढ़े साधु ने अपने लंबे केश और दाढ़ी उतार दी। सामने तेनालीराम खड़ा था। उसे देखते ही राजा के चेहरे पर मुसकान आ गई।

तेनालीराम बोला, “महाराज, पड़ोसी देश नीलपट्टनम के इस चालाक तांत्रिक ने आपका राज्य हड़पने के लिए सारी चाल चली थी। रसायन में बहुत तेज विष मिला था। उसे पता था, आप साधु-संतों, योगियों और सिद्ध पुरुषों का बड़ा सम्मान करते हैं। इसी का उसने फायदा उठाया और राजमहल में घुस आया। वह आपके साथ-साथ बहुतों को एक साथ खत्म करना चाहता था।...बेचारे वज्रगिरि ने चाल तो खूब चली, पर अंत में आकर उसका दाँव उलट गया।”

राजा कृष्णदेव राय ने आगे बढ़कर तेनालीराम को गले से लगा लिया। बड़े स्नेह के साथ बोले, “इसीलिए तो तुम मुझे इतने प्रिय हो, तेनालीराम!”

उन्होंने तेनालीराम को एक हजार अशर्फियाँ भेंट कीं। साथ ही अपने गले का बेशकीमती हार उतारकर उसे तेनालीराम को पहना दिया।

अगले दिन विजयनगर में जिस-जिस ने भी इस घटना को सुना, सबने तेनालीराम के खूब गुण गाए। आखिर उसी ने तो अपनी तेज बुद्धि और तत्परता से विजयनगर के प्यारे सम्राट की रक्षा की थी।

राजा कृष्णदेव राय के सकुशल बच जाने पर पूरे विजयनगर में यज्ञ और हवन हुए। लोककवि डुंगा मारा ने तेनालीराम की प्रशस्ति में अनोखा गीत ‘तेनालीरामन प्रशस्तिपद’ लिखा। उसका भाव यह था, “जिस तेनालीराम ने हमारे प्यारे राजा कृष्णदेव राय को बचा लिया, उसे सलाम! बार-बार सलाम!! आखिर उस पर देवी माँ दुर्गा की कृपा जो है। इसलिए कोई उसका अनिष्ट नहीं कर सकता और न हमारे प्यारे राजा कृष्णदेव राय का!”