Anuthi Pahal - 4 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अनूठी पहल - 4

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अनूठी पहल - 4

- 4 -

आढ़त का काम करने के लिए जो दुकान किराए पर ली गई थी, उसके ऊपर दो कमरे बने हुए थे। काम शुरू करने के उपरान्त रामरतन ने अपना बोरिया-बिस्तर उन्हीं कमरों में जमा लिया था। जब वह धर्मशाला में रहता था तो वहाँ एक पन्द्रह-सोलह साल की युवती रहती थी जोकि मुलतान से उजड़कर आई थी। उसका भी कोई संगी-साथी नहीं था। साझी रसोई में सहायता करने के अलावा बाक़ी समय में वह गुमसुम रहती थी, किसी से अधिक बातचीत नहीं करती थी। रामरतन ने एक बार किसी को कहते सुना था कि दंगाई उसके साथ दुष्कर्म करके उसे घायलावस्था में छोड़कर भाग गए थे। अपना घर बसाने पर उसने महसूस किया कि चूल्हा-चौका करने के लिए सुबह से शाम तक एक स्त्री का घर पर रहना आवश्यक है। यही सोचकर वह धर्मशाला में गया। पता किया तो वह युवती अभी भी वहीं थी। उसने उससे बातचीत की और उसे अपने घर पर काम करने के लिए राज़ी कर लिया। तत्पश्चात् वहाँ के मैनेजर को सारी बातें बताईं और उसी दिन से वह युवती जिसका नाम जमना था, रामरतन के घर आने लगी। दो-तीन महीने बाद एक दिन सुबह आते ही उसने रामरतन को कहा - ‘बाबू जी, धर्मशाला में रहनेवाले सभी लोगों ने अपना-अपना कोई-ना-कोई ठिकाना बना लिया है। मैनेजर ने मुझे भी धर्मशाला छोड़ने के लिए कहा है। मैं कहाँ जाऊँ, मेरा तो कोई भी नहीं, जिसके पास रात बिता सकूँ?’

रामरतन जमना के काम से सन्तुष्ट था। वह भी सोचा करता था कि इस बेचारी का कोई स्थायी बन्दोबस्त कैसे किया जाए? लेकिन कभी अपने मुँह से यह बात कह नहीं पाया था। आज जब जमना ने स्वयं यह समस्या उसके सामने रखी तो उसने तुरन्त कह दिया - ‘जमना, यदि तू चाहे तो इस घर के ख़ाली कमरे में रह सकती है।’

औरत आदमी की नज़र एक बार में ही बख़ूबी पहचान जाती है। जब से वह रामरतन के लिए काम करने लगी थी, उसे आज तक कभी भी उसकी नज़र में खोट नज़र नहीं आया था। इसलिए उसने अपनी सहमति दे दी।

कुछ समय बाद की बात है। सर्दियाँ दस्तक दे चुकी थीं। रात का तापमान काफ़ी नीचे आ गया था।  रविवार का दिन था। पार्वती मन्दिर से लौटती हुई रामरतन के घर पहुँच गई। रामरतन ने ‘पैरी पैना माँ जी’ कहते हुए उसके चरणस्पर्श किए और पूछा - ‘माँ जी, आज सुबह-सुबह कैसे ….. ?’

‘राम, कल रात प्रभु ने बताया था कि तेरी तबीयत ठीक नहीं है तो मन्दिर से वापस आते हुए सोचा कि तेरा पता ही लेती चलूँ। कैसी तबीयत है बेटा अब?’

‘माँ जी, आधी रात को बुख़ार बहुत बढ़ गया था। शरीर तपने लगा था। शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। सोते समय जमना ने कहा था - बाबू जी, कमरे की कुंडी मत लगाना, किसी वक़्त ज़रूरत पड़े तो मुझे आवाज़ दे लेना। मेरे कराहने की आवाज़ सुनकर वह मेरे कमरे में आई और फिर सुबह चार बजे तक पानी की पट्टियाँ करती रही तो जाकर बुख़ार उतरा। …. यदि रात को जमना घर पर ना होती तो पता नहीं, मेरा क्या हाल होता?’

‘राम, तुझे कितनी बार कहा है कि अतीत को भूलकर वर्तमान की सुध ले, बेटा। लेकिन, तू है कि मानता ही नहीं। रात की हालत जैसे तूने बयान की है, उसके बाद तो तुझे समझ लेना चाहिए कि विवाह किए बिना गुज़ारा नहीं। घर-परिवार के साथ तू होता तो और बात होती। भरी जवानी में अकेले वक़्त काटना बहुत मुश्किल होता है।’

पार्वती के लिए चाय बनाकर लाती हुई जमना के कानों में पार्वती के आख़िरी शब्द पड़े। वह सोचने लगी कि यदि बाबू जी शादी कर लेते हैं तो मेरा यह सहारा भी छिन सकता है!

जमना के सामने पार्वती ने विवाह-सम्बन्धी और कोई बात नहीं की। चाय पीने के बाद जाते-जाते उसने इतना ज़रूर कहा - ‘राम, एक-दो दिन में जैसे ही बुख़ार पूरी तरह उतर जाए, तू घर आना।’

‘ज़रूर, माँ जी।’

पार्वती के जाने के पश्चात् बिस्तर पर पड़े-पड़े रामरतन सोचने लगा, माँ ने जो कहा है, वह जीवन की सच्चाई है। यदि विभाजन की आग न भड़की होती तो इस अनजाने प्रदेश में मुझे यूँ तो न भटकना पड़ता! मैं भी अपने परिवार के साथ हँसी-ख़ुशी जीवन का आनन्द ले रहा होता। माँ कहती हैं कि अतीत को भूलकर वर्तमान की सुध लूँ। कहना आसान है, लेकिन प्रभा के साथ बिताए दस वर्षों को, उसकी मीठी यादों को भुलाना क्या इतना आसान है! मिठ्ठू और गोलू, ख़ासकर गोलू की प्यारी-प्यारी बातें, गले में बाँहें डालकर झूलना, कंधों पर सवार होना, प्यारी-प्यारी शरारतों, अनगिनत यादों को कैसे भूल जाऊँ? आँखें बन्द कीं तो उसे लगा, प्रभा उसके सिरहाने खड़ी उसके माथे को अपनी नरम-नरम हथेलियों से सहला रही है और बालों में उँगलियाँ फिरा रही है। इस अनुभूति से उसका समस्त शरीर सिहर उठा और आँखों से दो आँसू टपक पड़े।

उसने स्वयं को संयत किया। दूसरे ही पल मन ने कहा, परमात्मा का शुक्र है कि जीवन का सर्वस्व छिन जाने के बाद भी यहाँ उसने प्रभुदास जैसे इन्सान से मिलवा दिया, जिसने मुझ डूबते को बाँह बढ़ाकर बचा लिया और जीवन के पथ पर अग्रसर होने के लिए मुझे सहारा दिया है। पार्वती में मुझे अपनी माँ का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। कितना प्यार, कितना स्नेह, कितना अपनापन महसूस होता है जब भी वे पास होती हैं!

और यह जमना! इस थोड़े-से समय में ही इसने मेरे जीवन में अपनी जगह बना ली है। अपने काम-से-काम रखते हुए भी मेरी छोटी-से-छोटी ज़रूरतों का कितना ख़्याल रखती है!

दो दिन बाद रामरतन रात का खाना खाने के बाद प्रभुदास के घर गया था। वे लोग भी खाना निपटा चुके थे। सुशीला ने उसके लिए कुर्सी पार्वती की चारपाई के पास ही लगा दी थी। पार्वती और प्रभुदास बिस्तर में सिरहाने-पैताने बैठे थे। पार्वती ने उसे भी पैर रज़ाई में करने को कहा। बूट-जुराबें पहनी हुई होने के कारण वह पैर लटकाए ही बैठा रहा।

बातें करते हुए पार्वती ने कहा - ‘प्रभु, तू ही राम को समझा कि विवाह कर ले।’

प्रभुदास कुछ कहता, उससे पहले ही रामरतन ने कहा - ‘माँ जी, इन दो दिनों में मैंने इस बारे में बहुत सोचा है। मैं सोचता हूँ कि ….’ वह निश्चय नहीं कर पा रहा था कि बात को आगे कैसे कहूँ, इसलिए चुप हो गया।

पार्वती और प्रभुदास उसकी पूरी बात सुनने के लिए उत्सुक थे। प्रभुदास ने उसे टोकते हुए कहा - ‘भाई, क्या सोचा है, खुलकर कहो।’

रामरतन ने प्रभुदास की बजाय पार्वती को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘माँ जी, मैं सोचता हूँ कि जिन परिस्थितियों में से मैं गुजरा हूँ, कौन अपनी लड़की मेरे पल्ले बाँधने को तैयार होगा?’

सुशीला जो शायद कमरे के बाहर खड़ी इन लोगों की बातों पर कान धरे हुए थी, रामरतन का जवाब सुनकर अन्दर आते हुए बोली - ‘भाई साहब, आप एक बार ‘हाँ’ तो करो, रिश्ता तो मैं कल ले आऊँगी।’

अब भी उसने सुशीला की बजाय पार्वती को ही जवाब दिया - ‘माँ जी, मैं सोचता हूँ कि यदि मुझे दुबारा विवाह करना ही है तो क्यों ना अपनी तरह भाग्य के हाथों छली किसी स्त्री का हाथ थामूँ?’

पार्वती मन-ही-मन सोचने लगी, कहीं रामरतन के मन में जमना का ख़्याल तो नहीं, लेकिन अपनी सोच पर लगाम लगाते हुए उसने कहा - ‘विचार तो ठीक है बेटा, क्या कोई ऐसी लड़की तेरी निगाह में है?’

‘हाँ, है….। मेरी तरह जमना का भी कोई अपना नहीं है।’

‘बेटा, भरा-पूरा परिवार तेरे साथ है, फिर तू ऐसा क्यों समझता है कि तेरा अपना कोई नहीं है?‘

‘माफ़ करना माँ जी, मैं सियालकोट वाले परिवार को याद करते हुए ऐसा कह गया। आपका सहारा ना मिलता तो पता नहीं, मैं कहाँ धक्के खा रहा होता!’ कहते हुए उसकी आँखें भीग गईं।

उसकी भीगी आँखें देखकर पार्वती ने कहा - ‘राम बेटा, ऐसा हो जाता है। इतने बड़े दु:ख को कैसे भूला जा सकता है! तुझे माफ़ी माँगने की ज़रूरत नहीं। ….. बेटे, तूने जमना से कोई बात की है?’

‘नहीं, मैंने अभी तक उससे कोई बात नहीं की। लेकिन, मुझे नहीं लगता कि उसे कोई एतराज़ होगा!’

‘तो एक बार उसका मन टटोल कर देख। यदि वह राज़ी हो जाती है तो अच्छी बात है।’

अब प्रभुदास से रहा नहीं गया। उसने कहा - ‘माँ, जमना राज़ी क्यों न होगी? नौकरानी से घर की मालकिन बनने में भला उसे एतराज़ क्यूँ कर होगा?’

‘प्रभु, यह ऐसा मसला है, जहाँ एकतरफ़ा फ़ैसला नहीं लिया जा सकता। जमना, नौकरानी का काम ज़रूर कर रही है, लेकिन क्या पता पीछे उसकी स्थिति कैसी रही होगी? राम, मैं तो कहूँगी, तू जमना  से खुलकर उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी ले, फिर अंतिम फ़ैसला करना।’

‘ठीक है माँ जी। आपने बहुत अच्छी बात कही है।’

पार्वती ने सुशीला को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘जा बहू, राम के लिए दूध ले आया।’

‘भाभी, दूध रहने दो। अब मैं चलता हूँ,’ राम का यह सम्बोधन सुशीला और पार्वती दोनों के लिए था। इसलिए पार्वती ने अपने आदेश की अगली कड़ी में कहा - ‘राम, अभी बुख़ार से उठा है, दूध तो तुझे पीना ही है।’ पार्वती का कथन सुन सुशीला रसोई की ओर चली गई।

……..

रात गहराई हुई थी। चाँदनी चहुँओर फैली हुई थी। घर की ओर आते हुए रामरतन सोचने लगा, शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। माँ के कहे अनुसार अभी जाकर जमना से बात कर लेनी चाहिए। उसके कदम तेज़ी से उठने लगे।

जाते हुए रामरतन सीढ़ियों के नीचे वाले दरवाज़े पर ताला लगा गया था। इसलिए जमना को दरवाजा खोलने के लिए तो नहीं कहना था, किन्तु अपने कमरे की ओर जाते हुए उसने जमना के बन्द कमरे के पास से गुजरते हुए इतना ज़रूर कहा - ‘जमना, यदि जाग रही है तो एक बार मेरे कमरे में आना।’

जमना चाहे सोने के हिसाब से ही बिस्तर में घुसी थी, लेकिन उसने रामरतन के वापस आने तक नींद को दूर ही रखा था। रामरतन की बात सुनकर सोचने लगी, बाबू ने रात को इस तरह तो अपने कमरे में कभी बुलाया नहीं। सख़्त बुख़ार में भी मैं ख़ुद ही इनके कमरे में गई थी। आज क्यों बुला रहे हैं, क्या बात हो सकती है? एक बार तो उसके मन में आया कि नींद का बहाना बनाकर पड़ी रहे, लेकिन दूसरे ही पल उसके मन ने कहा, ज़रूर कोई ख़ास काम होगा जो बाबू ने बुलाया है, इस तरह मचल के पड़े रहना ठीक नहीं। और उसने उठकर अपने कपड़े ठीक किए, शॉल लपेटा और रामरतन के कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी।

‘आ जा जमना, दरवाजा खुला है।’

रामरतन ने कमरे में आकर लैम्प जलाया था और बिस्तर में रज़ाई लेकर बैठ गया था। उसे उम्मीद थी कि जमना जागती हुई तो ज़रूर आएगी।

‘बाबू जी, कुछ चाहिए था?’

‘चाहिए तो कुछ नहीं। तेरे साथ दो-चार बातें करनी हैं,’ कहकर उसने पैर इकट्ठे किए और चारपाई के दूसरे कोने की ओर संकेत करते हुए कहा - ‘आ बैठ।’

‘मैं ठीक हूँ। आप कहिए, क्या बात है?’

उसकी दुविधा को लक्ष्य करके रामरतन ने कहा - ‘जमना, घबराने की ज़रूरत नहीं। बैठ जा। पाँच-दस मिनट लगेंगे। ठंड में खड़े रहना अच्छा नहीं।’

उसने सोचा, बाबू ने आज तक कभी आँख उठाकर भी नहीं देखा, इनकी बात मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। यही सोचकर वह बिस्तर पर पैरों की ओर बैठ गई।

रामरतन सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ, लेकिन कोई सूत्र हाथ नहीं लग रहा था। उसे चुप देखकर जमना ने पूछा - ‘बाबू जी, आपकी तबीयत तो ठीक है?’

‘तबीयत ठीक है। दरअसल, बात यह है कि…. मैंने आजतक तुमसे तुम्हारे परिवार के बारे में कभी कुछ पूछा नहीं। अगर तुम्हें बुरा ना लगे तो मुझे थोड़ा-बहुत अपने परिवार के बारे में बताओ।’

जमना सोचने लगी, आज बाबू यह सब क्यों पूछ रहा है जबकि काम पर रखने से पहले तो एक भी सवाल नहीं किया था। कुछ क्षण सोचने के बाद उसने अपनी कहानी बतानी शुरू की - ‘मुलतान से चार-एक कोस पर हमारा गाँव था। मेरे परिवार में दादा-दादी, माँ-बापू, चाचा तथा मेरा छोटा भाई थे। हमारा अच्छा खाता-पीता परिवार था। गाँव की आधे से अधिक आबादी मुसलमानों की थी। हमारी गली की नुक्कड़ वाले मकान में जो मुसलमान परिवार रहता था, उनका लड़का शाहिद मियाँ जो मुझसे दो-तीन साल बड़ा था और ब्याहा हुआ था, अक्सर मुझे देखकर फब्तियाँ कसा करता था।  एक बार तो उसने यहाँ तक कह दिया था कि यदि मैं उससे विवाह के लिए तैयार हो जाऊँ तो वह अपनी बीवी को तलाक़ दे देगा। मैं हमेशा उसके सामने पड़ने से बचा करती थी। पिछले कुछ अर्से से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच प्रेम-भाव कम हो गया था। इसलिए मैंने घर पर कभी किसी को इस बारे में कुछ नहीं बताया। मैंने सोचा था, मेरे बताने पर पड़ोस में वैर-भाव ही बढ़ेगा। जब दंगे शुरू हुए तो एक दिन बाहर से बहुत-से मुसलमान झुंडों में गाँव में आ पहुँचे। जब उन्होंने हिन्दुओं के घरों पर धावा बोला तो गाँव में रहने वाले काफ़ी मुसलमान भी उन झुंडों में शामिल हो गए थे। ज़रूर गाँव के कुछ मुसलमानों के बुलावे पर ही बाहर के मुसलमान हिन्दुओं पर ज़ुल्म ढाने के लिए आए थे। जिस झुंड का शिकार हमारा परिवार बना, उसमें शाहिद भी शामिल था। झुंड के हर शख़्स के हाथ में तलवारें और तमंचे थे। हम तो निहत्थे थे। उन्होंने आते ही सारे परिवार को बंधक बना लिया और बन्दूकें तान दीं। इतने में शाहिद मुझे बाँह से घसीटते हुए अन्दर वाले कमरे में ले गया। क्रोध के मारे उसकी आँखें उसके माथे पर उगी हुई थीं। कमरे में आते हुए उसने अपने साथियों को कहा - ‘कर दो काम तमाम इन सबका।’ मुझे लोहे के पलंग पर धकेल कर उसने दरवाज़े की चिटकनी लगा दी। मैं घबराई हुई घुटनों में सिर दिए बैठी थी। शाहिद ने कहा - ‘आख़िरी बार कहता हूँ, मेरी बात मान जा वरना बहुत बुरा होगा।’ मैंने हाथ जोड़कर मिन्नतें करते हुए कहा - ‘मेरे परिवार को बचा लो, मुझे छोड़ दो। हम तो पड़ोसी हैं।’ वह बोला - ‘छोड़ देता हूँ यदि तू मेरा कहना मान ले।’ उस समय मैं उसका कहा मान लेती तो शायद मेरा परिवार बच जाता। लेकिन अब सोचती हूँ कि उन्होंने तो वही करना था जो उन्होंने किया चाहे मैं शाहिद की बात मान भी लेती। …. कुछ ही क्षणों बाद मैंने गोलियाँ चलने की आवाज़ें और अपने परिवार की चीखें सुनीं। इधर शाहिद बेरहमी से मुझ पर टूट पड़ा। मैंने उससे बचने की बहुत कोशिश की। उसकी बाँह को दांतों से ज़ख़्मी किया, लेकिन इसके बाद तो वह दरिंदगी पर उतर आया। सबसे पहले उसने मेरे कपड़े फाड़े। मेरे ही दुपट्टे से मेरे दोनों हाथ बाँध दिए। फिर कितनी ही देर तक मेरे शरीर को निचोड़ता-झिंझोड़ता रहा। मैं तो लगभग बेहोश ही हो गई थी। शाहिद के बाद कितनों ने मेरी मिट्टी ख़राब की, मुझे कुछ याद नहीं। उस समय इस नृशंसता का परमात्मा ही साक्षी था। पता नहीं, मरते हुए मेरे परिवार और मुझ ज़िन्दा लाश की चीखें उस तक पहुँची होंगी या नहीं ……।’

जब जमना बोलते-बोलते रुकी तो रामरतन ने सिरहाने रखे लोटे में से पानी गिलास में उँड़ेला और उसे पकड़ाया। जमना ने गिलास में से थोड़ा-सा पानी पिया और गिलास चारपाई के नीचे रख दिया।

रामरतन - ‘फिर….?’

जमना - ‘यह सब सुबह ही हुआ था। जब दंगेबाज मारकाट और लूटपाट करके चले गए और माहौल शान्त हुआ तो हमारे घर के दायीं ओर रहनेवाले परिवार की बूढ़ी दादी नुसरत हमारे घर आई। सारे परिवार की लाशें बिछी देखकर उसकी चीख निकल गई। लाशों में मुझे न देखकर उसने मेरा नाम लेकर पुकारा। तब तक मुझे होश तो आ गया था, लेकिन अंग-अंग में पीड़ा होने के कारण उठकर बैठने की मेरी कोशिश नाकाम रही। मेरे मुँह से निकला - ‘दादी, मैं यहाँ हूँ।’ वह अन्दर आई। मेरी हालत देखकर एक बार फिर उसकी चीख निकली। उसने मेरे कपड़े ठीक किए और अज्ञात दंगेबाजों को श्राप देते हुए कहा - ‘कीड़े पड़ें ऐसे नामुरादों के, दोज़ख़ की आग में झुलसें। अल्लाह ऐसे दरिंदों की सात पीढ़ियों का नाश करे। ….. पुत्तर, मुझ अकेली से तू उठ नहीं पाएगी। मैं तेरी चाची को बुलाकर लाती हूँ।’ चाची अपने साथ एक बुर्का लेकर आई थी। मुझे बुर्का पहनाकर उसने अपने कंधे पर मेरी बाँह रखकर उठाया। आँगन में परिवार की बिछी लाशें देखकर मैं दहाड़ मारकर रोने लगी। मुझे ढाढ़स बँधाते तथा चुप कराते हुए चाची ने कहा - ‘धीए, सब्र कर। कहीं किसी दरिंदे को पता लग गया तो तेरे साथ हमारी भी ख़ैर नहीं।’ वे मुझे अपने घर ले गईं। सबसे पहले मुझे हल्दी डालकर दूध दिया। मेरे ना-ना करते भी चाची ने गिलास मेरे मुँह से लगा दिया। जैसे-तैसे मैंने दो-चार घूँटें हलक के नीचे उतारीं। फिर चाची ने मेरे सामने रोटी और सब्ज़ी की थाली रखी। मेरी आँखों के आगे तो परिवार की लाशें घूम रही थीं। रोटी का कोर तोड़ने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। अन्दर-ही-अन्दर रोना आ रहा था। चाची और दादी ने बहुत मनाया। उनका मान रखने के लिए मैं बड़ी मुश्किल से एक रोटी खा पाई। शाम को चाचे ने आकर मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा - ‘शोहदे शाहिद ने शैतानों वाला काम किया है। जो अल्लाह को मंज़ूर था सो हो गया। लेकिन पुत्तर! तू फ़िक्र ना कर, तुझे हिन्दोस्तान बॉर्डर तक मैं छोड़कर आऊँगा।’ रात को मुझे नींद तो क्या आनी थी! आधी रात को मुझे महसूस हुआ, हमारे आँगन से जैसे आग की लपटें उठ रही हों। सुबह चाचे ने बताया कि रात में उसने अपने एक साथी की मदद से मृतकों का दाह-संस्कार कर दिया है और हो सका तो उनके ‘फूल’ भी पानी में बहा दूँगा। ….. चाची ने मुझे नहलाया, अपनी सलवार-क़मीज़ पहनने को दी। बुर्का पहनाकर चाचा मुझे लेकर मुलतान की ओर चल दिया। रास्ता वीरान था। मुलतान तक कोई साधन नहीं मिला। पैदल ही सारा रास्ता तय किया। शुक्र परमात्मा का कि मुलतान में पहले शिविर के बाहर ही मिलिटरी की गाड़ी मिल गई। गाड़ी भरी हुई थी, फिर भी चाचे ने मिन्नत करके मुझे चढ़ा ही दिया। ….. हिन्दोस्तान बॉर्डर पर पहुँचने पर हमारी तलाशी लेकर कैम्पों में भेज दिया गया। दस-बारह दिन मैं कैम्प में रही। एक दिन शाम को घोषणा हुई कि कल सुबह दौलतपुर के लिए एक ट्रक जाएगा, जो जाना चाहें, सुबह तैयार रहना। दौलतपुर का मुझे कुछ पता नहीं था कि कहाँ है, लेकिन मन कह रहा था कि बॉर्डर पर पड़े रहने से तो दौलतपुर जैसा भी होगा, अच्छा ही होगा! यही सोचकर रात आँखों में ही बिताई और दूसरे दिन शाम को यहाँ आ गई।….. आज सोचती हूँ, शाहिद तो गली का पड़ोसी था, इस चाम के आकर्षण में अपनी मानवीयता भूल गया, दरिंदगी की सभी हदें पार कर गया, अपने ही पड़ोसियों की नृशंस हत्या करने के लिए दरिंदों को बुलाते हुए उसकी रूह नहीं काँपी होगी! काल का वह एक दिन ताउम्र मेरी यादों में नासूर बनकर रहेगा। ….. तो बाबू जी, यह है मेरी कहानी या जो भी इसे आप नाम देना चाहें ….।’

जमना मुँह नीचे किए बोल रही थी। जब अपनी बात ख़त्म करके उसने सिर उठाया तो देखा, रामरतन की आँखों से आँसू टपक रहे थे। ये आँसू जितने जमना के दुखों की दास्तान सुनकर निकले थे, उतने ही उसके अपने दुखों के साक्षी थे।

‘बाबू जी, यह क्या…?’ और उसने आगे बढ़कर रामरतन के आँसू अपनी हथेली से पोंछ दिए। रामरतन के लिए यह अप्रत्याशित था। जमना के हाथ के कोमल स्पर्श से उसका शरीर झंकृत हो उठा। उसे लगा कि अब वह अपने मन की बात सहजता से कह सकता है।

‘जमना, तेरी दास्तान तो मेरी दास्तान से भी दुखद है। तेरे साथ हुए दुष्कर्म की बात तो मेरे कानों में पड़ी थी, लेकिन यह नहीं पता था कि मेरी तरह तेरा सारा परिवार भी दरिंदों की हवस का शिकार हो गया है। ….’

‘बाबू जी, आपके परिवार के साथ आपके तो दो छोटे-छोटे बेटे भी मारे गए, उन मासूमों पर भी किसी को रहम नहीं आया!’

‘जमना, तुझे यह सब कैसे पता…..?’

‘एक दिन माँ जी ने बताया था।’

‘तो उन्होंने तेरे बारे में भी तो पूछा होगा?’

‘हाँ, लेकिन बात बीच में ही रह गई थी, क्योंकि दीदी उन्हें बुलाने आ गई थी। ….. बाबू जी, अब मैं जाऊँ?’

‘नहीं, थोड़ा और बैठ।’

जमना सोचने लगी, अब और किसलिए बैठने को कह रहे हैं!

‘बाबू जी, रात बहुत हो गई है, और कोई बात है तो सुबह कर लेना, अब मुझे जाने दो।’

‘नहीं जमना, मुझे सारी बातें अभी ही करनी हैं।’

जमना हैरान, ऐसी कौन-सी बातें हैं जो सुबह तक नहीं टाली जा सकतीं! फिर भी वह रामरतन की अवज्ञा नहीं कर सकती थी। अत: टिककर बैठ गई तो रामरतन ने सोचा कि अब मन की बात ज़ुबान पर लाई जा सकती है। अत: उसने दृढ़ निश्चयात्मक स्वर में कहा - ‘जमना, मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।’

जमना को यह बात सुनकर झटका-सा लगा, किन्तु उसने सहज होते हुए पूछा - ‘मेरे बारे में सब कुछ जान लेने के बाद भी …..?’

‘हाँ, क्योंकि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं था, सब नियति का खेल था। यदि तुम ‘हाँ’ कहती हो तो मेरे मन को शान्ति मिलेगी।’

जमना सोच में पड़ गई। थोड़ी देर बाद उठते उसने कहा - ‘बाबू जी, किन शब्दों में परमात्मा का शुक्रिया अदा करूँ, समझ से परे है,’ कहकर चारपाई से नीचे उतरकर उसने रामरतन के चरणों में सिर नवाया और जाने के लिए मुड़ने लगी तो रामरतन ने उसका हाथ पकड़कर चूम लिया।

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