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प्रेमचंद

मचंद एक युग सृष्टा साहित्यकार थे उनमें जो जीवंतता थी वह अनुकरणीय है प्रेमचंद एक आम आदमी के रूप में जीवन जीते थे और आम आदमी के लिए ही लिखते थे समाज में व्याप्त जाति प्रथा विधवा दुर्दशा और भ्रष्टाचार उन्हें तनिक भी न सुहाते थे । उनके जीवन का प्रारंभ में भारतवर्ष का एक जागरण काल था । जिसमें महात्मा गांधी का हरिजन ,यंग इंडिया आदि समाचार पत्र अपनी भूमिका निभा रहे थे । मुंशी प्रेमचंद ने भी उस दौरान समाचार जगत में अपने आर्थिक अभावों के बावजूद अपनी भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और उन्होंने सामाजिक बुराइयों हिंदू मुस्लिम व जातीगत भेदभाव के समूल नेष् करने हेतु जी तोड प्रयास किया सामाजिक समन्वय हिंदू मुस्लिम भेदभाव खत्म करना दलितों की आवाज उठाना आदि जैसे महत्वपूर्ण काम ते रहे उनके हंस पत्रिका ने न केवल कथा साहित्य दिया वरन भारत में सद्भाव की एक निर्झर बहाने में महत्वपूर्ण भूमिका ।उन्होंने अपना व्यक्तित्व इतना समृद्ध कर लिया था कि उन्हें किसी की दया और मदद की जरूरत नहीं थी । वैसे भी वे दया का पात्र बनना उपयुक्त नहीं समझते थे उनके जीवन में जीवन पर यह उक्ति उन पर रितार्थ होती है
"खुद को ही कर बुलंद इतना हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है?"
श्री जैनेन्द्र कुमार कहते हैं कि जब मुंशी प्रेमचंद मरणासन्न अवस्था में थे तो उन्होंने कहा लोग इस समय अक्सर ईश्वर को याद करते हैं मुझसे भी यही कहा गया है पर मुझे तो ईश्वर को परेशान करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । उन्हें अपने आप पर पूर्ण भरोसा था और उनके कहानी उपन्यासों के पात्रों चिरित्रों संवादों में भी ऐसा ही परीलक्षित होता है ।

वे स्वतंत्रता के स्वप्न दृष्टा
रहे । उनके अपने साहित्य द्वारा वे लोगों को भी स्वतंत्रता के लिए जागरूक करते रहे भले ही उन्हें छद्म नाम से लिखना पड़ा ।
जाति प्रथा के वे सख्त खिलाफ थे मानव मानव को बराबर देखते थे । कहानी सद्गति में वे दलित मजदूर के साथ रहना पसंद किया न कि विद्वान पंडित के साथा ।
पौष की रात कहानी में उन्होंने जो खुले में केवल चादर में सोनी वाले किसान की दशा का मार्मिक चित्रण किया है उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है । फिर नीलगायों द्वारा फसल किये जाने पर भी किसान की निश्चिंता का विवरण का रहस्य मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से ही समझ में आती है ।

उन्हें ब्यूरोक्रेसी बिल्कुल पसंद नहीं थी अपनी निजी जिंदगी में उन्होंने शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर की नौकरी छोड़ दी । नमक का दरोगा नामक कहानी में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठ था के साथ साथ उनकी उनके इसी गुण का प्रदर्शन होता है ।
पंच परमेश्वर कहानी में ग्रामीण समाज और बुजुर्गों की दुर्दशा के यथार्थ का भी दिग्दर्शन कराया है पंच के कर्तव्य बोध को बड़े और मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है ।
जुम्मन शेख हो या अलगू चौधरी जब पंच के पद पर बैठते हैं तो न्याय ही करते हैं ऐसा न्यायाधीश में ही परमेश्वर का वास होता है । यह भी कह सकते हैं की परमेश्वरी पंच के मुंह से बोलता है । एक रोचक बात इस कहानी से जुड़ी एक रोचक बात पिछले दिनों पता लगे की इस कहानी का नामकरण प्रेमचंद ने पंचों के भगवान रखा था सरस्वती के संपादक श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस नाम को बदलकर पंच परमेश्वर कर दिया। हम कह सकते हैं की पंच परमेश्वर शीर्षक पंचों के भगवान से गुना प्रभावशील और गाम्भीर्य युक्त शीर्षक साबित हुआ है ।
ठाकुर का कुआं में तत्कालीन समाज में प्रचलित अस्पर्श्यता को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है ।
संक्षेप में वे साधरण जनमानस के साहित्यकार थे उन्होने अपने साहित्य में उन्हीकी दशा और उनके इस संघर्ष को और बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है । जिन आदर्शों को उन्होंने अपने साहित्य में प्रदर्शित किया है उन्होंने अपने जीवन में भी उन्हें उतारा है । एक विधवा से विवाह करना उनका यही उसूल प्रदर्शित करता है । उनका उर्दू और हिंदी पर समान रूप से अधिकार था । प्रारंभ में उन्होंने उर्दू में ही लिखा था ।
प्रेमचंद को सादर श्रद्धांजलि प्रेषित करते हुए हम उनके आदर्शों की अनुकरण करने की प्रेरणा ले ऐसा करने से न केवल वर्ग संघर्ष से मुक्ति मिलेगी वरन सामंजस्य और सौहार्द युक्त वातावरण भी बनेगा ।