Flat No. 444 books and stories free download online pdf in Hindi

फ़्लैट नंबर 444

सरोज और उसके पति मयूर चौथी मंज़िल पर एक फ़्लैट में रहते थे। अभी दो माह पहले ही उनके पड़ोस के फ़्लैट नंबर 444 में किराये से रहने के लिए एक दंपति आये थे। हर दिन उस फ़्लैट से लड़ाई करने की आवाज़ें आती रहती थीं।

सरोज इस बात से काफ़ी परेशान थी। एक दिन उसने अपने पति से कहा, “मयूर मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है। उन दोनों का हर रोज़ झगड़ा होता है, ऐसी तो क्या बात होगी?”

“छोड़ो ना सरोज, हमें क्या करना है होगा कुछ।”

मयूर के समझाने के बाद भी सरोज का मन नहीं माना। जब भी झगड़े की आवाज़ें आती, वह अपने कान लगाकर सुनती रहती। कुछ समझ में आता कुछ नहीं। एक दिन तो जोर-जोर से बर्तन पटकने की आवाज़ आ रही थी; साथ ही लड़की के रोने की आवाज़ भी उसे सुनाई दे रही थी। सरोज बहुत बेचैन हो गई। वह समझ रही थी कि वह आदमी अपनी पत्नी को मार रहा है।

उसका मन कह रहा था, जा सरोज बचा उसे। लेकिन फिर मयूर की कही बातें उसे याद आ गईं, “क्यों किसी के फटे में टांग अड़ाना चाहती हो सरोज। ज़माना बहुत खराब है, तुम शांत होकर घर में ही रहो। कहीं उनके झगड़े का बीच बचाव करने चली मत जाना।”

फिर वह शांत होकर अपने घर में ही बैठी रही। अब तो मारपीट भी हर रोज़ की ही बात हो गई थी।

आज शनिवार का दिन था, छुट्टी का दिन। आज तो सुबह से ही फ़्लैट नंबर 444 में झगड़े की आवाज़ें गूंज रही थीं। आज उस फ़्लैट में रहने वाली लड़की नीलिमा की आवाज़ सरोज को अच्छी तरह सुनाई दे रही थी क्योंकि आज उसकी आवाज़ ऊँची होने के साथ ही उसमें गुस्सा और दर्द भी भरा हुआ था। जिसे सरोज महसूस कर रही थी।

तभी उसे नीलिमा की आवाज़ आई, “हमें साथ में रहते हुए पाँच साल हो गए हैं, इतने वर्षों से जब भी मैं शादी के लिए कहती हूँ तुम कुछ ना कुछ कह कर टाल ही देते हो। पर बस अब मैं और ना नहीं सुन सकती। तुम्हें मुझसे अब तो शादी करनी ही होगी।”

तभी दूसरी आवाज़ आई, “क्यों क्या कोई जबरदस्ती है? यदि मैं ना करूं तो क्या करोगी?”

आज पहली बार सरोज यह जान पाई थी कि यह तो लिव इन रिलेशन का मामला है।

“ओफ़ ओह! हे भगवान तुमने किसे हमारे पड़ोस में…!”

तब तक उसे फिर उस आदमी की आवाज़ आई, “देख नीलिमा तेरा धर्म अलग, तेरी जाति अलग। मेरा परिवार तुझे कभी स्वीकार नहीं करेगा।”

“यह आज कह रहे हो तुम, पाँच साल बाद? जब मैं आई थी तब भी तो तुम मेरी जाति, मेरा धर्म जानते थे ना फिर तब क्यों …? मैं भी तो अपने माँ बाप को छोड़ कर आई हूँ ना तुम्हारे पास?”

“बकवास बंद कर नीलिमा, तू तो है ही बेवफा जो अपने माँ-बाप को छोड़ आई पर मैं तेरे जैसा निर्मोही नहीं हूँ। तू छोड़ सकती है अपने माँ-बाप को लेकिन मैं नहीं। मेरे लिए सबसे पहले मेरा परिवार है समझी। यदि किसी का दिल तोड़ना ही है तो मैं तेरा तोडूंगा क्योंकि जो लड़की अपने माँ-बाप की नहीं हुई वह मेरी या मेरे परिवार की क्या होगी। तेरी जगह यदि मेरी बहन ऐसा करती ना, तो उसे वहीं के वहीं काट कर रख देता, या उसके प्रेमी को ही ख़त्म कर देता।”  

“हाँ-हाँ तुम यह सब कर सकते हो क्योंकि जल्लाद हो तुम, इसीलिए मुझे भी तो रोज़ बेरहमी से मारते हो।”

“हाँ-हाँ यदि शादी-शादी करेगी ना तो एक दिन ख़त्म ही कर दूंगा यह झंझट।”

आज तक वह नीलिमा को शादी की बात पर टाल दिया करता था लेकिन अब शायद उसका मन भर गया था इसलिए आज उसने खुले लफ्ज़ों में उसे मना कर दिया। वह कुछ समय के लिए फ़्लैट के दूसरे कमरे में गया। नीलिमा इस कड़वे सच को जानते हुए भी शायद अब तक अंजान बनी हुई थी पर आज उसकी आँखें खुल चुकी थीं। वह समझ गई थी कि वह केवल उसे एक च्युइंग गम की तरह जब तक मन किया चबाता रहा और मन भर जाने पर अब कचरे की तरह फेंक देना चाहता है। उसने कितने ग़लत इंसान के साथ नाता जोड़ रखा था, इस तरह के ख़्याल आते ही वह दरवाज़ा खोलकर अपने फ़्लैट से बाहर निकल गई।

आज उसकी आँखों से जो आँसू गिर रहे थे, उनमें पछतावा था, दर्द था, घुटन थी, नफ़रत थी अपने प्रेमी के लिए और सबसे ज़्यादा ख़ुद के लिए। सरोज ने उसे निकलते हुए देख लिया लेकिन आज तक उनकी आपस में बातचीत नहीं हुई थी क्योंकि नीलिमा और वह लड़का दोनों कभी किसी से बात करना ही नहीं चाहते थे। सीधे ऑफिस से आने के बाद फ़्लैट में और फिर दरवाज़ा दूसरे दिन सुबह ऑफिस जाते समय ही खुलता था।

सरोज उसे देखकर अनजान बन गई और नीलिमा सीधे सीढ़ी से उतर कर नीचे चली गई। आज वह समझ गई थी कि यदि कुछ और दिन वह उसके प्रेमी के साथ रह गई तो शायद वह उसे सच में मार ही डालेगा। इसीलिए अपनी तक़दीर और अपने आँसुओं को लेकर वह वहाँ से निकल गई।

उसे इस तरह जाते देख सरोज की आँखों में चमक आ गई कि चलो कम से कम इस लड़की ने यह फ़ैसला तो सही लिया है। रोज़-रोज़ पिटने से अच्छा है इस तरह के हैवान के साथ नहीं रहना। कितना मारता है उसे? शायद उसके पास दया वाला दिल ही नहीं है।

उधर जैसे ही नीलिमा सोसाइटी के गेट से बाहर निकली उसने एक बहुत गहरी साँस ली। आज उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह एक अपवित्र बंधन से मुक्त हो गई है। वह सोच रही थी कि उसके जीवन की यह सबसे बड़ी भूल थी लेकिन अगली भूल वह कभी नहीं करेगी। ना वह उस ज़ालिम के साथ रहकर जान से हाथ धोएगी ना ही वह हिम्मत हार कर ख़ुद ही जान गंवाएगी। आज वह खुली हवा में साँस ले रही थी। मुझसे शादी कर लो ऐसा कोई तनाव उसके मन में आज नहीं था। जबरदस्ती लादने और जबरदस्ती लदवाने वाले बंधन से उसने अपने आप को आज़ादी दिलवा दी थी। वह रास्ते में चलते हुए सोच रही थी, कहाँ गया वह प्यार जिसने माँ-बाप की दहलीज़ छुड़वा दी। कहाँ गया वह प्यार जिसके कारण उसने अपनों को बेगाना बना दिया था। अपने बहते आँसुओं को वह रोक नहीं पा रही थी। सोच रही थी कहाँ जाऊँ ? क्या उसी दहलीज़ पर वापस जाऊँ, जहाँ से मां-बाप का अपमान, उनका तिरस्कार करके निकल गई थी।

ख़्यालों में खोई हुई नीलिमा लगातार चलती ही जा रही थी। शायद वह इस समय होश में ही नहीं थी। बस उसके क़दम अपने आप आगे ख़ुद ही रास्ता ढूँढ कर चलते जा रहे थे। लगभग 90 मिनट तक वह लगातार चलती रही और अंततः चलते-चलते वह उस गली में पहुँच गई जो उसके बाबुल की गली थी। जहाँ उसका पूरा बचपन उसकी आँखों में दृष्टिगोचर हो रहा था। वह खेलना-कूदना, माँ का बुलाना, उसे प्यार से हाथ पकड़ कर घर में ले जाना, खाना खिलाना। पिता के ऑफिस से आने का बेचैनी से रास्ता देखना और पिता के आते ही दौड़ कर उनकी गोदी में चढ़ कर गालों की पप्पी ले लेना। उसके बाद उसके पिता का उसे ऊपर हवा में उछाल कर फिर से झेल लेना। गोद में उठाकर घर में ले जाना और फिर जेब से एक चॉकलेट निकालकर उसे खिलाना।

नीलिमा आँखों में यही दृश्य लिए अपने घर की दहलीज़ तक भी पहुँच गई। लेकिन वहाँ पहुँचते ही मानो उसके ख़्यालों की दुनिया से वह वापस हक़ीक़त की ज़मीन पर आ गई। अब उसने वहाँ से पूरे होशो हवास में अपने कदमों को वापस मोड़ लिया, यह सोचकर कि उसने कैसे कह दिया था, “अब मैं बड़ी हो चुकी हूँ मम्मा। मुझे मेरी ज़िन्दगी के निर्णय लेने का पूरा हक़ है। आप मुझे इस तरह से रोक नहीं सकतीं । मैं उससे प्यार करती हूँ और उसके लिए मैं कुछ भी कर सकती हूँ।”

तब उसकी माँ ने पूछा था, “हमें भी छोड़ सकती है?”

“हाँ छोड़ सकती हूँ, मैं जा रही हूँ माँ कभी ना लौटने के लिए। आप मेरे प्यार के दुश्मन हैं।”

वह सोच रही थी उसने तो हत्या की है अपने माता-पिता के प्यार की और उनकी भावनाओं की। उनके उस खून पसीने की जो उन्होंने उसके हर एक पल को खूबसूरत बनाने के लिए तन से बहाया था। नहीं-नहीं वह इस काबिल नहीं है कि इस दहलीज़ को उलांघ कर फिर से उसके अंदर जा सके।

वह लौटने ही वाली थी कि उसके पिता ने दरवाज़ा खोला। अपनी बेटी को देखते ही उनके मुँह से आवाज़ निकली, “नीलिमा मेरी बच्ची।”

यह आवाज़ सुनते ही नीलिमा की माँ भी दौड़ते हुए वहाँ आ गई।

“नीलिमा मेरा बच्चा,” कहते हुए उन्होंने लपक कर उसे अपने सीने से लगा लिया।

उसकी शक्ल जिस पर मार के कुछ निशान बेरहमी का सबूत बनकर उछले हुए थे और उसकी सूजी आँखें, बिना कहे ही सब कुछ बता रही थीं।

नीलिमा ने कहा, “पापा-मम्मा मुझे जाने दो, मैंने आपका दिल तोड़ा है। आपका अपमान, आपका तिरस्कार किया है।”

वह आगे कुछ भी बोले उससे पहले ही उसकी मम्मी ने कहा, “नीलिमा आगे कुछ भी मत कहना बेटा। तुम हमारी बेटी हो, हमारी जान, हमारा खून। हमारे लिए तुम्हारी हर ग़लती माफ़ है बेटा। आ जाओ, अंदर आ जाओ।”

नीलिमा अपने माँ बाप के सीने से लग गई और ख़ूब रोई। इतने समय से सीने में दफ़न किए हुए ज़ख़्म आज पल-पल आँसू बनकर उसकी आँखों से टपक रहे थे।

उसी समय उनके घर के बाजू में रहने वाली भावना आंटी उनके घर आ गईं। नीलिमा को देखकर उनके क़दम दरवाजे पर ही रुक गए। यह दृश्य देख कर वह सोच रही थीं यह मिलन है रक्त से रक्त का, प्यार का, भावनाओं का। ग़लतियों को माफ़ करने का और यह एहसास दिलाने का कि माँ-बाप से ज़्यादा प्यार दुनिया में हमें कोई और नहीं कर सकता। इसीलिए उनके निर्णय हमारे लिए कभी ग़लत नहीं हो सकते।

यह दृश्य देखकर वह उल्टे पाँव वापस चली गईं, यह सोच कर कि इन पलों को उन्हें जी लेने देना चाहिए।

घर जाते-जाते वह सोच रही थीं कि काश आजकल के बच्चे यह समझें कि माँ-बाप का निर्णय हमेशा उनके हक़ में होता है तो कभी भी इस तरह की घटनाएँ अपने पैर ना पसार सकें। 

नीलिमा कैसी हंसती, खेलती, चंचल बच्ची थी लेकिन आज कैसी निरुत्साही, दुःखी और पीड़ित लग रही है। मन में पछता भी रही होगी कि काश उसने अपने माता-पिता के निर्णय को मान लिया होता। काश वह बड़ी है, नहीं सोचा होता। काश चार दिन के प्यार के लिए वर्षों की तपस्या और प्यार को ना ठुकराया होता। किंतु यह वक़्त है समय पर यदि नहीं जागे तो देर हो ही जाती है और फिर कभी-कभी अँधेर भी हो जाती है।

ग़लत निर्णय के कारण वक़्त ऐसी चोट दे जाता है जो नासूर बन जाता है और जीवन के बचे हुए वक़्त में केवल दर्द ही देकर जाता है और एक ऐसा दाग दे जाता है जो दुनिया के किसी भी ब्रांड के साबुन या सर्फ़ से साफ़ नहीं हो पाता। नीलिमा के माँ-बाप ने तो उसे माफ़ कर ही दिया लेकिन नीलिमा क्या स्वयं को कभी भी माफ़ कर पाएगी? आजकल के बच्चों के लिए यह सोचने, विचारने वाला प्रश्न है; जिसका उत्तर उन्हें ही तलाशना होगा।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक

 

 

 

Share

NEW REALESED