Aakhir vah kaun tha books and stories free download online pdf in Hindi

आख़िर वह कौन था

सोलह वर्ष की हँसती-खेलती सुशीला गुमसुम-सी बहुत उदास रहने लगी थी। कुछ दिनों पहले उसकी माँ इमारत पर काम करते समय, गिरकर स्वर्ग सिधार गई थी। पिता तो पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे। अब उनकी खोली में सुशीला के अलावा कोई नहीं था। यह अकेलापन ही उसकी उदासी का कारण था।

माँ के निधन के बाद एक दिन उसने बिल्डर से कहा, "साहब मैं अपनी माँ की जगह पर काम करना चाहती हूँ, यदि आप हाँ कहें तो..."

"नहीं-नहीं अभी तो तुम्हारी उम्र कम है, मैं तुम्हें काम नहीं दे सकता।"

"साहब उम्र से क्या होता है, अगर आप काम नहीं दोगे तो मैं कहाँ जाऊंगी? मेरा कोई सहारा नहीं है, तब या तो मुझे भीख मांगना पड़ेगा या फिर दर-दर की ठोकरें खाऊँगी। ऐसे में तो लोग मुझे ही नोच-नोच कर खा जाएंगे। अगर आप माँ की जगह काम करने दोगे तो मेरी दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ हो जाएगा और रहने के लिए यह खोली भी मेरे पास ही रहेगी। भगवान ने पेट दिया है तो उसे भरना तो पड़ेगा ना साहब।"

"ठीक है, तुम जो भी कह रही हो वह सच ही है। तुम अपनी माँ की जगह काम कर सकती हो लेकिन कभी कोई उम्र पूछे तो 18 वर्ष ही कहना। तुम्हारा नाम क्या है?"

"मेरा नाम सुशीला है।"

"ठीक है जाओ, कल से काम पर लग जाना।"

"जी साहब, धन्यवाद आपका।"

अब सुशीला अपनी माँ की जगह काम पर जाने लगी। उसके बाजू की खोली में शांता ताई भी अकेली ही रहती थीं। वह भी उसी इमारत में काम करके अपना पेट पालती थीं। उनकी एक बेटी थी विमला, जिसका विवाह उन्होंने एक वर्ष पहले कर दिया था। सुशीला काम मिलने के बाद अब ख़ुश रहने लगी। जब कभी उसे समय मिलता वह शांता ताई के पास आना-जाना करती रहती थी। शांता ताई भी उसे बहुत पसंद करती थीं।

शांता ताई को पता चला कि उनकी बेटी विमला का पति आए दिन उसे मारता रहता है। माँ का दिल भला फिर कहाँ मानने वाला था। इसीलिए वह कुछ दिनों के लिए अपनी बेटी के घर चली गईं। उन्होंने सोचा कि वहाँ जाकर उन्हें समझा बुझा कर आऊँगी, शायद बात बन जाए। शांता ताई ने वहाँ जाकर अपने दामाद को बहुत समझाया और अपनी बेटी विमला को हिम्मत दिलाकर वह लगभग दस बारह दिन में वापस आईं। वापस आने के बाद कुछ ही दिनों में उन्होंने महसूस किया कि सुशीला बदल गई है। अब वह बिल्कुल पहले जैसी नहीं है। उसकी हँसी-ख़ुशी मानो उसे तन्हा छोड़ कर कहीं चली गई है। उदासी उसकी नई साथी बन गई है। एक दिन उन्होंने सुशीला से पूछा, "सुशीला क्या कोई परेशानी है, तुम इतनी उदास क्यों हो? सब ठीक तो है ना?"

"हाँ-हाँ शांता ताई सब ठीक है, बस माँ की याद आ जाती है इसलिए मन उदास हो जाता है।"

"बेटा माँ की याद आना तो स्वाभाविक ही है पर कब तक इस तरह दुखी और उदास रहोगी। वह तो हमारे मालिक बहुत अच्छे हैं, जो तुम्हारी उम्र कम होने के बाद भी उन्होंने तुम्हें काम पर रख लिया, वरना दुःख में कौन साथ देता है। हमारे मालिक बड़े दयालु हैं, भगवान उन्हें सुखी रखे।"

सुशीला चुपचाप ताई की बातें सुनती रही, फिर बिना कुछ बोले वहाँ से अपनी खोली में चली गई। शांता ताई मन ही मन सोच रही थीं, बच्ची है, नादान है, माँ के जाने का ग़म अब तक भूल नहीं पा रही है। फिर आदत भी तो नहीं है, ईंट उठाकर ऊपर तक लेकर जाने की। बेचारी थक भी तो जाती होगी।

धीरे-धीरे पाँच माह गुज़र गए, अब सुशीला का शरीर बदल रहा था। वह साड़ी का बड़ा पल्लू लेकर अपने पेट को छुपा लेती थी लेकिन बाजू में रह रही अनुभवी शांता ताई समझ गईं कि दाल में कुछ काला है। सुशीला की उदासी का कारण माँ नहीं कुछ और ही है। शांता ताई ने सुशीला को ध्यान से देखा और वह यह भी समझ गईं कि इस बात को छिपाकर इसका अंत कर सकें वह समय बीत चुका है। अब कुछ नहीं हो सकता। सुशीला से इस बारे में कुछ भी पूछने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थीं। लेकिन वह सुशीला का ध्यान ज़रूर रखने लगीं। वह समझती थीं, अकेली नादान बच्ची है, ज़रूर किसी ने उसे बहला-फुसलाकर उसके साथ यह पाप किया है। भगवान उस पापी को कभी माफ़ नहीं करेंगे।

आख़िर एक दिन शांता ताई ने सुशीला से पूछ ही लिया, "बिटिया कौन है वह, उसका नाम बता दो तो उसके साथ तुम्हारा ब्याह करवा देती हूँ।"

सुशीला ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। ताई ने कई बार कोशिश की उस व्यक्ति का नाम जानने की पर सुशीला ने उसके होठों को मानो सुई धागे से सिल ही लिया था। शांता ताई पूछ-पूछ कर हार गईं किंतु सुशीला के होठों का एक टांका भी वह खोल ना पाईं।

गर्भवती सुशीला ईंटों से भरी तगाड़ी सर पर लेकर सीढ़ियाँ चढ़ती और उतरती रही। समय बीतता गया, हँसती-खेलती सुशीला का अल्हड़पन जाने कहाँ गुम हो गया। माँ बनने की उम्र नहीं थी उसकी लेकिन किसी ने उसकी ग़रीबी का फायदा उठाकर वक़्त से पहले उसे इस मुकाम पर लाकर छोड़ दिया था। वह भी सिर्फ़ कुछ पलों के अपने स्वार्थ के लिए।

ईंटों की तगाड़ी ऊपर ले जाते समय एक दिन सुशीला को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। वह वहीं पर तगाड़ी छोड़कर किसी तरह से अपनी खोली में आई। सीढ़ियों पर ईंट की तगाड़ी पड़ी देखकर शांता ताई का माथा ठनका। उन्होंने इधर-उधर देखा तो सुशीला उन्हें कहीं दिखाई नहीं दी। वह तुरंत ही खोली पर आईं। वहाँ आकर उन्होंने देखा सुशीला प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। अपने अनुभव का पूरा ज़ोर लगा कर उन्होंने कमसिन सुशीला की सफलतापूर्वक डिलीवरी करा दी। सुशीला ने एक बेटे को जन्म दिया जो कि बहुत ही कमज़ोर था। शांता ताई ने माँ की तरह सुशीला को संभाला। उसका पूरा ख़्याल रखा, देखते-देखते एक महीना गुज़र गया।

आज जब शांता ताई ईंट की खाली तगाड़ी लेकर नीचे आ रही थीं, तब वह देखकर हैरान रह गईं। सुशीला ईंटों से भरी तगाड़ी सर पर रखकर ऊपर चढ़ रही थी। उसे देखते ही उन्होंने कहा, "अरी सुशीला यह क्या कर रही है बिटिया? नाज़ुक, कच्चा शरीर है अभी तेरा, थोड़े दिन रुक जा, तेरा बच्चा कहाँ है?"

सुशीला ने कहा, "ताई आप भी तो बूढ़ी हैं, कब तक आप मुझे संभालेंगी। इस कच्चे शरीर को मुझे पक्का तो बनाना ही पड़ेगा ना। मुन्ना झूले पर है उसे भी सीखना होगा ना ताई। माँ काम करेगी तो रोटी मिलेगी, रोटी मिलेगी तभी तो माँ खाएगी और तभी दूध मिलेगा और उसका पेट भरेगा।"

सुशीला की सच्चाई से भरी बातें सुनकर शांता ताई के आँसू बह निकले, वह आगे कुछ भी ना कह सकीं। नीचे आकर देखा तो मुन्ना झाड़ की टहनी पर सुशीला की पुरानी साड़ी के टुकड़े से बने झूले पर लटका झूल रहा था।

जब भी वह रोता सुशीला आते-जाते उसे झूला दे देती। अगर ज़्यादा रोता तब अपने आँचल में छिपाकर उसका पेट भर देती और फिर काम पर लग जाती। संघर्ष से भरा सुशीला का जीवन देखकर शांता ताई हमेशा उससे पूछती रहतीं, "बेटा बता दे कौन है वह? तेरी सारी तकलीफ़ ख़त्म हो जाएगी।"

सुशीला के होंठ इस बात का कोई जवाब नहीं देते। शांता ताई सोचती आख़िर वह कौन था जिसने सुशीला की ज़िन्दगी बर्बाद कर दी और ख़ुद कहीं जाकर छुप गया। एक कुंवारी माँ बनने के कड़वे सच से वह हर रोज़ गुजर रही है। शांता ताई जानती थी कि सुशीला का संघर्ष बहुत लंबा है। वह यह भी जानती थी कि सुशीला शक्तिशाली नारी का स्वरूप है। वह इस संकट के समय का सामना भी डट कर लेगी।

उधर शांता ताई की बेटी जो कि गर्भवती थी, अपने पति के ज़ुल्म सहते-सहते जीवन से निराश हो चुकी थी। थक हार कर वह शांता ताई के पास वापस आ गई। सुशीला की उससे गहरी दोस्ती थी। सुशीला अक्सर उसके पास जाकर बैठती थी। उसकी निराशा देखकर उसे कई तरह से समझाती भी थी। विमला का पाँचवाँ महीना चल रहा था।

एक दिन उसने सुशीला को बताया, "सुशीला मेरा पति बहुत ही निर्दयी है। वह कह रहा था कि यदि बेटी जनेगी तो मैं उसे मार डालूंगा। मुझे उसके पास जाने में ही डर लगता है। वह रोज़ दारु पी कर आता है और फिर मेरे साथ बेरहमी से पेश आता है। मैं अपने जीवन से थक गई हूँ। सोचती हूँ ऐसे जीवन से मौत ही भली। यदि मुझे बेटी हो गई तब तो वह यहाँ आकर भी मेरी बच्ची को मार डालेगा। उससे अच्छा है मैं ही अपना जीवन ख़त्म कर लूं।"

"यह क्या कह रही है विमला? तू यहाँ शांता ताई के पास है, तुझे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। एक बेकार निर्दयी इंसान के पीछे तू अपना और अपने बच्चे का जीवन कैसे और क्यों ख़त्म करना चाहती है?"

तभी कमरे में आती शांता ताई ने उनकी बातें सुन लीं। उन्होंने विमला को समझाते हुए कहा, "बिटिया अब तुम यहीं रहोगी हमेशा मेरे पास। कोई ज़रूरत नहीं है, उसके हाथ की मार खाकर अपने जीवन को नर्क बनाने की।"

कुछ माह के पश्चात विमला ने एक प्यारी-सी बेटी को जन्म दिया। उसके पति को कहीं ना कहीं से यह ख़बर लग गई। पता चलते ही वह शांता ताई के घर आया। विमला के पास उस समय सुशीला भी बैठी थी। विमला के पति को देखकर सुशीला जाने लगी किंतु डरी हुई विमला ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक लिया। विमला के पति ने आते से अपनी गंदी ज़ुबान खोल दी और कहा, "छोकरी जनी है, तुझे मना किया था ना मैंने कि लड़की मत लाना।" इतना कहते हुए उसने सुशीला की तरफ़ देखते हुए कहा, "जानती नहीं क्या तू लड़कियाँ मुंह काला करवा देती हैं।"

सुशीला यह ताना सुनकर खून का घूंट पीकर रह गई। विमला उसकी बातें सुनकर रोने लगी। इतने में वहाँ शांता ताई भी आ गईं। अपनी बेटी को रोता देख और उसके पति की इस तरह की बातें सुनकर उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने उसे धक्के मार कर खोली से बाहर निकालते हुए कहा, "इसके बाद मेरे घर की तरफ़ क़दम भी मत रखना और मेरी बेटी की तरफ़ नज़र उठाकर भी मत देखना वरना पुलिस को बुला कर तुझे अंदर करवा दूंगी।"

पुलिस का नाम सुनकर वह डर गया और वहाँ से चला गया। विमला फूट-फूटकर रो रही थी और कह रही थी, "अब मैं क्या करूंगी? कैसे पालूंगी इसे? मुझ में इतनी ताकत नहीं है।"

सुशीला ने अपनी गोदी में खेलते हुए अपने छोटे से बेटे को दिखाते हुए कहा, "विमला यह देख तेरे पास तेरी बेटी के पिता का नाम तो है, शांता ताई भी हैं। मेरे पास तो इसके पिता का नाम भी नहीं है। आगे पीछे भी कोई नहीं है। जो जीवन प्रभु ने दिया है, हमें उसे पूरा जीना चाहिए, चाहे कितनी भी दुख तकलीफ़ क्यों ना हो। जिसने मेरे अल्हड़पन का नाजायज़ फ़ायदा उठाकर मुझे कुंवारी माँ बना कर छोड़ दिया। मैं तो जीवन में कभी अपने होठों पर उसका गंदा नाम तक नहीं आने देती। मैं उस इंसान से नफ़रत करती हूँ, फिर अपने बेटे को उसका नाम देने की बात तो बहुत दूर है। तुम्हारे पति ने जो ताना मुझे दिया, ऐसे तानों की मैं कई बार शिकार हुई हूँ। मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ उसने मुझ पर जबरदस्ती की थी। मैं कुछ ना कर पाई, तुम्ही बताओ विमला इसमें मेरी क्या ग़लती थी। उस दिन शांता ताई खोली में नहीं थीं। वह तुम्हारे गाँव आई हुई थी और मैं अकेली थी। वह रात को आया और उसने बेरहमी से मुझे अपना शिकार बनाया। मैं रोती रही, गिड़गिड़ाती रही किंतु उस पर कोई असर नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था मानो मेरा शरीर उसी का है, वह इस तरह से मेरा चीर हरण कर रहा था। अपनी हवस शांत करने के बाद वह मेरे पास फिर कभी नहीं आया किंतु अपनी निशानी मुझे दे गया। मैं तो जल्दी समझ भी ना पाई कि मेरे अंदर कोई है, किसी ने आकार लेना शुरू कर दिया है। विमला जो कुछ भी मेरे साथ हुआ किसी और के साथ कभी ना हो। बिना मेरी ग़लती के लोगों ने मुझे कुल्टा कहना शुरू कर दिया, चरित्रहीन भी कहा। उसका क्या जो मुझे लोगों की नज़रों में चरित्रहीन बना कर चला गया। विमला मैंने हिम्मत नहीं हारी क्योंकि मैं जानती हूँ कि मैं निर्दोष हूँ। ग़लती तो उस दरिंदे की है, चरित्रहीन भी वही है। इस लड़ाई में मैं अकेली थी विमला, मेरी कोई ना होते हुए भी शांता ताई ने मुझे सहारा दिया। तुम्हारी तो वह माँ हैं और माँ का सहारा सबसे बड़ा होता है।"

विमला ने सुशीला की बातें सुनकर रोना बंद कर दिया। ऐसा लग रहा था, मानो उसमें अचानक ही हिम्मत आ गई हो। वह सुशीला की हिम्मत और जज़्बा देखकर हैरान थी। विमला आश्चर्यचकित होकर सुशीला को देखे जा रही थी।

अपने दामाद को भगाने के बाद बाहर खड़ी शांता ताई ने आज पहली बार सुशीला के मुँह से उस सच्चाई को जाना जिसे उसने अपने सीने में छिपाकर रखा था। यह सब सुनकर वह अपने आँसुओं को रोक नहीं पा रही थीं क्योंकि मन ही मन तो वह भी कहीं ना कहीं सुशीला को ही इस ग़लती की गुनहगार मानती थी। वह आज इस बात का पश्चाताप कर रही थी कि एक यह पहलू भी तो हो सकता था जिसके बारे में उसनें कभी सोचा ही नहीं। नारी होकर भी उसने सीधे नारी को ही शक़ के कटघरे में रखा।

सुशीला ने अपनी सकारात्मक विचारधारा से निराश विमला को जीने की एक नई राह दिखा दी। विमला ने पूछा, "सुशीला तुम में इतनी हिम्मत आख़िर आई कैसे?"

"विमला, मेरा भी मन हुआ था कि जाकर किसी कुएँ तालाब में कूद जाऊँ या फिर इस बच्चे को ही मार डालूँ लेकिन मैंने ख़ुद ही अपने आप को संभाला। मैंने सोचा भगवान ने मेरी कोख में एक जान डाली है। उसकी साँसों को ख़त्म करने का हक़ भी उन्हीं को है, मुझे नहीं। मैं इसे मारकर हत्यारन नहीं बनना चाहती थी। ख़ुद को मारकर दुनिया से हारना नहीं चाहती थी। मैं चाहती ना विमला तो यहाँ से कहीं दूर भाग सकती थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने जिस पर विश्वास किया उसी ने मेरे साथ विश्वासघात किया । जिसने मेरे साथ यह किया मैं उसे यह दिखाना चाहती थी कि उसके दो पल के आनंद के लिए उसने मुझे जीवन भर की कितनी वेदना दी है। मुझे और मेरे बच्चे को देखकर शायद उसके मन में दर्द हो और आगे से वह किसी गरीब मुझ जैसी किसी और सुशीला को कुंवारी माँ ना बनाए। मुझे और इस प्यारे से बच्चे को देखकर उसे हमेशा वही दो पल याद आएँ जिसमें उसने एक गरीब की दया की भीख को जूती तले ठुकराया था। मेरी जीभ उसकी इज़्ज़तदार ज़िन्दगी पर दाग लगा सकती है। मैं चाहती हूँ कि वह हर पल इस डर में जिए कि कहीं मैं उसका नाम ना बता दूँ। यही उसकी हार और मेरी जीत है विमला।"

सुशीला की बातों ने विमला का भी जीवन जीने का नज़रिया बदल दिया। अब उसमें भी सुशीला जैसी ही विचारधारा ने जन्म ले लिया। सुशीला खोली से बाहर जैसे ही निकली उसे शांता ताई सामने आँसू बहाती हुई दिखाई दीं। सुशीला उन्हें देखकर उनके पास रुक गई और पूछा, "ताई आँसू किस लिए? आज मैंने आपकी बेटी को उस सच्चाई से मिलवाया है जिसे जानने के बाद वह अब कभी अपना जीवन ख़त्म करने के बारे में नहीं सोचेगी, आप बिल्कुल चिंता ना करें।"

शांता ताई ने कहा, "सुशीला यह आँसू विमला के लिए नहीं मेरे पश्चाताप के हैं बिटिया।"

"नहीं ताई आगे कुछ भी मत कहो, आपने तो मुझे माँ की तरह संभाला है। यदि आप नहीं होतीं तो मेरी यह राह और भी कठिन हो जाती", इतना कहकर सुशीला अपनी खोली में चली गई।

दरवाज़े के बाहर खड़ी शांता ताई को आज सुशीला की बातों ने यह महसूस करा ही दिया कि आख़िर वह दरिंदा था कौन?

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक