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बूढ़े मास्टर जी


दरवाज़े पर घंटी बजी | पत्नी रसोई में व्यस्त थी, तो गोपाल स्वयं ही दरवाज़ा खोलने के लिए उठा |

“अरे ..., गुरु जी, आप ....” - गोपाल को अपनी आँखों पर बिलकुल विश्वास नहीं हो रहा था | बीस वर्ष के बाद आज अचानक उसके स्कूल के अध्यापक उसके घर आए थे | गोपाल ने पैर छू कर उनका अभिवादन किया | पत्नी और बेटे अरविन्द से उनका परिचय कराया तो उन दोनों ने भी गुरु जी के पैर छुए | गुरु जी को सोफे पर बिठा कर गोपाल अतीत की गलियों से गुज़रता हुआ स्कूल में पहुँच गया |

वह ‘गवर्नमेन्ट’ स्कूल में पढ़ता था और पढने में बहुत तेज़ था | हर ज़िले में एक ‘गवर्नमेन्ट’ स्कूल होता था, जो सबसे अच्छा माना जाता था | वहाँ के अध्यापक बहुत मेहनत से पढ़ाते थे, जिसके कारण ‘बोर्ड’ की परीक्षा में उसका परिणाम सबसे अच्छा रहता था | गोपाल की योग्यता और अच्छे स्वभाव के कारण सभी अध्यापक उसे प्यार करते थे | उसके अंग्रेज़ी के अध्यापक मदन मोहन थे जिनका उस पर विशेष स्नेह था | मदन मोहन अनेक वर्षों से इसी स्कूल में कार्य कर रहे थे और अब ये शहर उनका घर जैसा ही बन गया था | कुछ समय बाद अचानक मदन मोहन का तबादला बद्रीनाथ के पास एक ‘गवर्नमेन्ट’ स्कूल में हो गया और उन्हें परिवार सहित जाना पड़ा |

गोपाल के पिता की अचानक मृत्यु के कारण उसे पढ़ाई छोड़ कर पिता की दुकान पर बैठना पड़ा था | परन्तु, अपनी योग्यता के कारण उसने तीन चार वर्षों में ही बड़ा व्यवसाय स्थापित कर लिया | उसकी कक्षा के कई साथी इंजीनियर, डॉक्टर और वकील बन गए थे | इंजीनियर नहीं बन पाने से वह निराश था, इसलिए उसकी इच्छा थी कि उसका बेटा अरविन्द ज़रूर इंजीनियर बन जाये | गोपाल बड़ा मेल-मिलाप रखने वाला व्यक्ति था और व्यवसाय में रहने के बावजूद अपने अध्यापकों और मित्रों से संपर्क बनाए रखता था |

अच्छा समय गुज़रते देर नहीं लगती | अरविन्द अब नवीं कक्षा में आ गया था | ‘गवर्नमेन्ट’ स्कूल गोपाल के नए घर से बहुत दूर था, इसलिए अरविन्द पास के ही एक प्राइवेट स्कूल में जाता था | पढ़ने में ठीक था, परन्तु अंग्रेज़ी में उसका परिणाम संतोषजनक नहीं चल रहा था | पिछली बार इस विषय में बड़ी मुश्किल से पास हुआ | गोपाल ने प्रिंसिपल से बात की तो पता चला कि पिछले एक साल में अंग्रेज़ी के कई अध्यापक जल्दी-जल्दी बदले थे, जिसके कारण अधिकतर विद्यार्थी मुश्किल में थे | कारण जो भी हो, परन्तु अरविन्द को लेकर गोपाल की चिंता बनी रहती थी |

मदन मोहन लम्बे अर्से के बाद गोपाल से मिले थे, पत्नी और बच्चों से तो पहली बार मिल रहे थे | गोपाल गुरु जी से परिवार का कुशलक्षेम पूछ रहा था, इस बीच गोपाल की पत्नी चाय ले कर आ गयी | चाय पीते-पीते गुरु जी अपने बारे में बताने लगे |

- “मैं बद्रीनाथ के स्कूल से ही ‘रिटायर’ हुआ | नौकरी में रहते हुए बेटी उर्वशी की शादी कर दी थी | उसके पति शिक्षा-विभाग में ‘डिप्टी डायरेक्टर’ हैं और आजकल बम्बई में हैं | ‘रिटायरमेंट’ के बाद मैंने और पत्नी ने पहाड़ में ही रहने का निश्चय किया | पहाड़ों की ज़िन्दगी बड़ी सुकून वाली थी | बम्बई की भाग-दौड़ वाली राक्षसी ज़िन्दगी में हमारा दम घुटता था |”

गोपाल ने पूछा- “ गुरु जी, आंटी कैसी हैं ? आप उन्हें भी साथ ले आते तो अच्छा होता |”

उसका प्रश्न सुनकर उनके मुख के भाव अचानक बदल गए |

चाय का आख़िरी घूंट पीकर प्याला नीचे रखा और उदासी के भाव में मज़ाक का पुट डालते हुए बोले- “क्या बताऊँ गोपाल, शकुंतला तो बड़ी धोखेबाज़ निकली | पांच-सात दिन बुखार में रही और एक दिन अचानक ही चली गयी मुझे मझधार में छोड़ कर | वहाँ के डॉक्टरों को बीमारी कुछ समझ में ही नहीं आयी |”

उन्होंने गोपाल की पत्नी को एक और चाय बनाने के लिए निवेदन किया |

फिर बोले- “उसके जाने के बाद मेरा मन वहाँ से उचटने लगा था | मकान में अकेलापन बर्दाश्त नहीं होता था, नींद नहीं आती थी | ऊपर से खाने-पीने की भी तकलीफ़ थी | तुम्हें याद होगा गोपाल... मेरी भतीजी संतोष स्कूल से थोड़ी दूर पर ही रहा करती थी |”

- “जी गुरु जी, मुझे बिलकुल याद है | उनके पति बिजली विभाग में ‘इंजीनियर’ थे |”

- “हाँ हाँ, वही | संतोष और उसके पति पिछले दिनों मेरे पास आए थे | बहुत आग्रह करके वे लोग मुझे साथ ले आए हैं | मैंने भी सोचा कि यहाँ पुराने विद्यार्थी और कुछ मित्र हैं, तो अकेलापन नहीं लगेगा | अब मैं यहीं रहूँगा |”

गुरु जी ने रात का खाना उन लोगों के साथ खाया और संतोष के घर लौट गए |

अपने पुराने शहर आकर मदन मोहन को बड़ा अच्छा महसूस हुआ | बाज़ार में इनके समय के कुछ दुकानदार और परिचित लोग मिल गए | दो-तीन अध्यापक साथी भी ‘रिटायर’ होकर यहीं बस गए थे | जिन बच्चों को कभी दसवीं कक्षा तक पढ़ाया था, उनमें से कई विद्यार्थी अब अपने पत्नी-बच्चों के साथ यहाँ रहते थे | अपने मृदु स्वभाव के कारण मदन मोहन जल्दी ही सारे परिवारों में घुल-मिल गए | नये वातावरण में वे पत्नी-वियोग के दुष्चक्र से निकल आए और जीवन फिर से पटरी पर आ गया |

‘गुरु जी’ के आने से गोपाल को ‘पिता’ का खोया हुआ साया मिल गया, तो वहीँ अरविन्द को एक ‘दादा जी’ मिल गए | असली दादा जी को उसने बस फोटो में ही देखा था | पहली मुलाकात में उसे उनको ‘बाबाजी’ कहना अधिक स्नेहिल लगा और वो उन्हें 'बाबाजी' पुकारने लगा | गुरु जी धीरे-धीरे गोपाल के पूरे परिवार के लिए ‘बाबाजी’ हो गए | यहाँ तक कि, गोपाल खुद भी उन्हें ‘बाबा जी’ कहने लगा था | कुछ ही महीनों में अड़ोस-पड़ोस के नए लोग भी उनको जानने लगे | ना जाने कैसे, इन सब लोगों के बीच गुरु जी अब ‘बूढ़े मास्टर जी’ के नाम से प्रचलित हो गए |

पत्नी के जाने के बाद मदन मोहन पर उम्र का असर कुछ दिखने लगा था | सफ़ेद बालों के कारण चेहरे पर बुजुर्गियत कुछ ज्यादा ही दिखने लगी थी | वे सफ़ेद कुर्ता-धोती पहनते थे और नियम से प्रातः काल में बैंत लेकर कंपनी बाग़ तक सैर करने जाते थे | एक रविवार को वे कंपनी बाग़ से सीधे गोपाल के घर आ गए | उस दिन नाश्ते में आलू के पराठों का प्रोग्राम था | सब ने गर्म-गर्म पराठों पर मक्खन रख कर जोरदार नाश्ता किया | बाद में चाय आ गयी और गपशप शुरू हो गयी |

थोड़ी देर बाद बाबा जी के अन्दर का ‘अध्यापक’ अरविन्द की ओर मुड़ गया |

- “बेटा, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है.... ?” से शुरू करके अगले 4-6 सवालों में उन्होंने अरविन्द की सही स्थिति का जायज़ा ले लिया | अंग्रेज़ी में उसे वास्तव में बहुत कठिनाई हो रही थी | बस, उन्होंने तुरंत उसे रोज़ एक घंटा अंग्रेज़ी पढ़ाने का प्रोग्राम तय कर दिया | हर सुबह सैर से लौटते हुए वे अरविन्द को खटखटा देते | एक साल की कड़ी मेहनत के बाद अरविन्द की अब तक की सारी कमी पूरी हो गयी और दसवीं कक्षा की अंग्रेज़ी की परीक्षा में उसकी ‘डिस्टिंक्शन’आयी | गोपाल को अब अरविन्द के 'इंजीनियर' बनने की उम्मीद हो चली थी | अन्ततः बारहवीं कक्षा के बाद उसे एक बडे ‘इंजीनियरिंग कॉलेज’ में दाखिला मिल गया | अरविन्द के जाने के बाद उसके अनेक दोस्तों ने भी ‘बूढ़े मास्टर जी’ से अंग्रेजी पढ़ी | वे अधिकतर सुबह की सैर के बाद बच्चों के घर पर जाकर ही पढ़ाया करते थे |

शहर भर में ‘बूढ़े मास्टर जी’ अंग्रेज़ी के लिए सबसे अच्छे गुरु के रूप में प्रसिद्द हो चुके थे | उन्होंने पढ़ाने के लिए किसी से कभी कोई पैसा नहीं लिया | उन्हें अपने खर्च के लिए सरकार से पेंशन मिलती थी | बल्कि, वे कभी कभी ग़रीब बच्चों को आवश्यकता पड़ने पर अपनी पेंशन से उनकी आर्थिक मदद भी करते थे |

‘बूढ़े मास्टर जी’ के एक पुराने शिष्य का बेटा ‘आई.पी.एस.’ हो गया था| वह उनके शहर में ‘पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट’ नियुक्त हुआ | उसे अपने पिता से उनके बारे में पता चला तो उसने अपने ऑफिस के द्वारा उनकी जानकारी मंगवाई और शाम को उनके घर पहुँच गया | सायरन बजाती हुई आती पुलिस की कई गाड़ियाँ मदन मोहन जी के मकान पर रूकती देख पड़ोसियों में हडकंप मच गया | मोहल्ले के लोग इकठ्ठे हो गए | मदन मोहन को सूचना मिली तो वे अन्दर से बाहर आ गए | इतने में ही ‘एस.पी. साहब’ अपनी कार से उतर कर आए और झुकते हुए पैर छू कर उनसे आशीर्वाद माँगा | पूरी बात बताने पर लोगों की जान में जान आयी और मदन मोहन ने गदगद भाव से “एस.पी. साहब” का गले लगा कर स्वागत किया |

‘बूढ़े मास्टर जी’ पचपन साल की उम्र में ‘रिटायर’ हुए और साठ पूरा कर के पहाड़ से लौटे थे | 'रिटायरमेंट' के बाद अपने पुराने शहर में उन्होंने फिर से एक पूरी नौकरी का कार्यकाल अनेक बच्चों का जीवन सँवारने में लगाया | न जाने कितने ही अत्यंत बूढ़े दिखने वाले लोग उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने आते थे | वे अब 99 वर्ष के हो चुके थे और कई सालों से पढ़ाने के लिये बच्चों के घर नहीं जाते थे | अपने घर पर ही कभी-कभी बच्चों को बुला लेते | नज़र कमज़ोर होने के कारण पुस्तक से देख कर पढाना संभव नहीं था, इसलिए मौखिक रूप से ही काम चलता था | उनके शिष्यों में कई परिवारों की तो तीन-तीन पीढ़ियाँ शामिल हो चुकी थीं |

एक दिन किसी मित्र से मज़ाक के लहज़े में कह रहे थे- “मैंने जितने दिन नौकरी की, उससे कहीं ज़्यादा दिन पेंशन खायी |” ‘बूढ़े मास्टर जी’ की ऊम्र ज़रूर बढ़ रही थी, परन्तु उसके अनुपात में उनका शारीरिक और मानसिक - दोनों स्वास्थ बहुत अच्छे थे | इसका सबसे बड़ा कारण वे मुख्य रूप से पैदल चलने को और तनाव-रहित जीवनचर्या को मानते थे |

उधर, बम्बई में मास्टर जी के दामाद भी ‘रिटायर’ हो चुके थे और उन्होंने लोनावाला में नया बंगला बनाया था | गृह-प्रवेश की तैयारी चल रही थी | बेटी उर्वशी ने दशहरे वाले दिन फ़ोन किया |

- “पापाजी, नया बंगला तैयार हो चुका है और दीवाली पर गृह प्रवेश करना है | हमारी इच्छा है कि ये शुभ-कार्य आपके आशीर्वाद से हो | उसके बाद हम सब वहीँ पर एक साथ रहेंगे |”- उसने अपने पिताजी को साथ ले जाने के लिए तैयार कर लिया | उन्होंने अंततः उन्होंने हामी भर दी |

उर्वशी पति के साथ पापाजी को लेने आ पहुंची | बम्बई जाने के लिए हवाई जहाज़ के टिकट पहले ही ‘बुक’ कर लिए थे | मास्टर जी के जाने की ख़बर उनके सारे ‘परिवारों’ में आग की तरह फैल गयी | उनके सम्मान में शहर में एक विशाल विदाई-समारोह का आयोजन किया गया | किसी को भी उनसे बिछुड़ना अच्छा नहीं लग रहा था | अंत में, जब 'बूढ़े मास्टर जी' ने विदाई भाषण दिया तो वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी | उन्होंने एक मजेदार बात सब को और बताई कि वे जीवन में पहली बार हवाई यात्रा करने वाले हैं |

जाने वाले दिन ‘बूढ़े मास्टर जी’ के बीस से सत्तर वर्ष तक की आयु के 40-50 विद्यार्थी एक पूरी बस भरकर उन्हें दिल्ली हवाई अड्डे तक विदा करने गए | हवाई अड्डे पर यह अद्भुत नज़ारा अन्य यात्रियों के लिए कौतुहल का विषय बन गया | ‘बूढ़े मास्टर जी’ सफेद कुर्ता-धोती में बेंत लहराते हुए अपनी पहली हवाई यात्रा के लिए ‘डिपार्चर गेट’ पहुँच कर क्षणभर के लिए रुके, मुड़ कर सभी शिष्यों का अभिवादन स्वीकार किया और भारी मन से अन्दर हॉल में चले गए |

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