Datiya ki Bundela kshatrani Rani Sita ju - 4 - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 4 - 5

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महाराजा दलपत राव ने 1694 से 1696 के मध्य, दतिया किले ( प्रतापगढ़ दुर्ग ) का निर्माण कराया। किले का नया परकोटा तथा किले के चारों तरफ खाई, भीतरी शस्त्रागार आदि बनवाए। प्रताप बाग, दिलीप बाग, राव बाग, बारादरियाँ आदि का भी निर्माण कराया। इसी के साथ दतिया का नाम बदलकर दिलीपनगर किया।

सन 1907 तक, राजकीय दस्तावेजों में दतिया का नाम दिलीप नगर ही चला किंतु आम जनमानस ने इसे दतिया ही बनाए रखा।

रामचंद्र का जन्म 1675 में हुआ। रामचंद्र की मां चंद्र कुँवरि परमार नौनेर वाली, दलपत राव की चार रानियों में से मँझली रानी थीं। तीसरे नंबर की संझली रानी गुमान कुंवर बिल्हारी वाली से भारती चंद, पृथ्वीसिंह रसनिधि, सेनापति एवं करन जू थे। बड़ी रानी चंद्रावली की कोई संतान नहीं थी। छोटी रानी ने एक दत्तक पुत्र नारायण जू को पोषित किया।
राव रामचंद्र अपने पिता की ही तरह पराक्रमी और निडर थे। परंपरा के अनुसार 17 वर्ष की आयु में, वर्ष 1692 में रामचंद्र ने पिता के साथ ही मुगल सेना के युद्ध अभियानों में जाना आरंभ कर दिया। 1693 में रामचंद्र का प्रथम विवाह सीता जू के साथ हुआ। बाद में उन्होंने 4 विवाह और भी किए।
कुछ नवोढ़ा का प्रेम, कुछ मां की वर्जना, रामचंद्र 1693 से 1694 के मध्य, अपने पिता के जिंजीगढ़ विजय अभियान में शामिल नहीं हुए। वे पिता के बुलावे की अवहेलना कर, दतिया में ही रुके रह गए। इनकी मां चाहती थी कि गद्दी का अगला वारिस होने तक रामचंद्र युद्धों में ना जाएँ अन्यथा राजगद्दी हाथ से निकल सकती है। रामचंद्र और उनकी मां चंद्रकुँवरि की इस हरकत से कुपित होकर, दलपत राव ने, रामचंद्र को युवराज पद से च्युत करके, भारती चंद को युवराज घोषित करते हुए, दतिया राज्य का बँटवारा भी कर दिया। इसका एक कारण यह भी था कि, भारती चंद की मां गुमान कुँवरि एक साहसी क्षत्राणी थीं और युद्ध अभियानों में दलपत राव के साथ ही रहा करती थीं। इसीलिए वे उनसे अत्यधिक प्रेम भी करते थे।
एक बार आगरा के पास शहंशाह की बेगम के साथ नदी पार करते हुए रानी गुमान कुमार का हाथी बिगड़ उठा, इस पर बेगम ने उन्हें यात्राओं के लिए, अपनी एक चौंड़ेल (शाही पालकी) भेंट की थी जोकि अब तक, शहंशाह की ओर से किसी रानी को दिया गया सबसे बड़ा सम्मान था।

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बंटवारे में भारतीचंद को दतिया, पृथ्वीसिंह रसनिधि को सेंवढ़ा, सेनापति को बँगरा खशीष तथा रामचंद्र को रामनगर- चिरगांव की जागीर मिली। सीता जू को विवाह के कुछ महीने बाद ही ससुराल छोड़कर, राजधानी से जागीर में जाना पड़ा। 1694 में चिरगांव में ही सीता जू ने रामसिंह को जन्म दिया।
अपने हक को इस तरह छीने जाने तथा रामचंद्र को उनकी मां से अलग करके राज्य के सुदूर कोने में धकेल दिए जाने से भौंचक्की सीता जू ने तभी समझ लिया कि अब बिना संघर्ष किए उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।
सीता जू के परामर्श अनुरूप ही रामचंद्र ने अपने पिता से बगावत करते हुए स्वयं को स्वतंत्र जागीरदार घोषित कर दिया। रामचंद्र एवं सीता जू ने सबसे पहले अपना आधार सुदृढ़ करने के लिए ओरछा महाराज के पास पहुँचकर, अपनी गुहार लगाई, इस पर उन्होंने इन्हें मान्यता दे दी। इसके तुरंत बाद रामचंद्र ने सपत्नीक जाकर, बादशाह औरंगजेब से भेंट की। इस मुलाकात में रामचंद्र ने बादशाह को, 1 वर्ष पूर्व, स्वयं द्वारा उनके पौत्र शहजादे बेदारवक्त की सेवाओं का हवाला दिया, नजराना भी पेश किया, दूसरी तरफ सीता जू ने भी बेगमों को नजराने पेश किए।
बादशाह औरंगजेब उड़ती चिड़िया के पर गिनना जानता था। वैसे भी दतिया राजपरिवार के प्रति उसका नजरिया हमेशा से भरोसे का रहा आया था। उसने रामचंद्र को माफ करते हुए, स्वतंत्र जागीरदार स्वीकार कर लिया। इसके बाद रामचंद्र औरंगजेब के निजी अभियानों में सम्मिलित होने लगे। वर्ष 1695 में रामचंद्र की वीरता से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने उनका मनसब बढ़ाकर 500 जात एवं 400 सवार कर दिया, इसके साथ ही रामचंद्र को राजा की स्वतंत्र पदवी देकर, लोहागढ़ का किलेदार नियुक्त कर दिया। 1696 में रामचंद्र को औरंगजेब द्वारा सतारा का किलेदार बनाया गया, किंतु बहुत कहने के बावजूद शहंशाह ने अपने प्रिय दलपतराव के राज्य व्यवस्था के भीतरी मामलों में दखलंदाजी नहीं की।