Kurukshetra ki Pahli Subah - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 22

22. तू हर जगह

यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के माध्यम से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर अर्थात हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही लगाएँ। 

अर्जुन ने पूछा: हे प्रभु! आप बार-बार आत्मा और परमात्मा की बात करते हैं। क्या संसार में केवल अपनी आत्मा और परमात्मा का ही सीधा संबंध है?ऐसे में अन्य चराचर प्राणियों की क्या स्थिति है?

भगवान श्री कृष्ण ने कहा: परमात्मा तत्व की यही तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है कि परमात्मा एक के जितने हैं, उतने ही दूसरे के भी हैं और उतने ही सबके हैं। 

अर्जुन :इसे और स्पष्ट कीजिए भगवन!

श्री कृष्ण: आत्मा मनुष्य के भीतर है तो यह सृष्टि के कण-कण में भी है और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर है। जो व्यक्ति सृष्टि के कण-कण में, प्रत्येक व्यक्ति में उसी परमात्मा को देखता है, वह उस परम तत्व से एकाकार और योगयुक्त स्थिति में होता है। 

अर्जुन:तो इसका अर्थ यह हुआ कि कण-कण में ब्रह्म हैं। ऐसे में हमारी आत्मा तो उस परमात्मा के साथ संयुक्त हुई लेकिन हमारे दृष्टिकोण से प्रत्येक व्यक्ति के लिए हमारे द्वारा वही परमात्मा भाव लाना कहां तक संभव है और उचित है?

श्री कृष्ण: जब ईश्वर स्वयं उस व्यक्ति में है, सृष्टि के कण-कण में और प्रत्येक प्राणी में है, 

तो वह व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर को ही देखेगा अर्थात वह स्वयं को अन्य लोगों में भी देख पाएगा। ठीक इसके साथ-साथ वह स्वयं में परमात्मा को देखता है, अन्य व्यक्तियों को भी देखता है। 

अर्जुन: व्यवहार में यह कठिन है केशव! एक दुष्ट बुद्धि व्यक्ति में परमात्मा को देखना और स्वयं को उससे संबद्ध मानना। 

श्री कृष्ण: अगर दृष्टिकोण में परिवर्तन लाएं तो यह सहज ही है अर्जुन! किसी व्यक्ति का कार्य व्यापार निंदनीय हो सकता है, उस व्यक्ति के आचरण के अनुसार हमारा व्यवहार भी निर्धारित होता है। तथापि हम उस व्यक्ति से अपने मन में अतिरेक घृणा और तिरस्कार भाव न रखें। ऐसा भाव स्वयं हमारी आत्मा को रुग्ण बनाता है। 

अर्जुन सोचने लगे, तो दुष्ट बुद्धि दुर्योधन का प्रतिकार तो मैं कर सकता हूं लेकिन उसको देखते ही मन में जो घृणा की भावना पैदा होती है, वह मेरे लिए अहितकर है। शायद वासुदेव मुझे यही समझाना चाहते हैं। 

सब जगह अपने स्वरूपको देखने वाला योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यान योगसे युक्त अन्तःकरण वाला योगी अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है। साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है। 

एक उदारवादी पांडव राजकुमार होने के बाद भी अर्जुन के मन में हमेशा यह बात रहती थी कि संसार के प्रत्येक प्राणी से एक समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है। दुर्योधन के नेतृत्व में कौरव पक्ष से मिले गहरे घावों के कारण अर्जुन की यह मान्यता दृढ़ होती जाती थी। वही जब भगवान श्री कृष्ण ने परमात्मा तत्व की सर्वव्यापकता बताते हुए सभी प्राणियों में स्वयं को देखने और स्वयं में सभी प्राणियों को अनुभूत करने का उपदेश दिया तो अर्जुन विचार मग्न हो गए। 

उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से जिज्ञासा प्रकट की। 

अर्जुन: अब सारे संसार में केवल मेरे या कुछ व्यक्तियों के ऐसा उदार दृष्टिकोण रखने से ही क्या होगा केशव? जब अधिकतर लोग या सभी लोग ऐसा दृष्टिकोण रखेंगे, तब ही आपके इस लोक कल्याण का उद्देश्य पूरा हो पाएगा। 

श्री कृष्ण मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा। 

श्री कृष्ण: अर्जुन सभी प्राणियों में उस व्यक्ति के बाह्य आकार - प्रकार, आचरण आदि के यथार्थ और दूसरे की मनोवृत्ति को प्रभावित करने वाला होने के बाद भी  तुम्हें उस व्यक्ति के भीतर परमात्मा तत्व को देखना है। ठीक उसी तरह सभी प्राणियों को मुझ परमात्मा तत्व के भीतर भी देखना है। सभी व्यक्ति की आत्मा में ईश्वर हैं। मैंने पहले भी कहा है कि ऐसा दृष्टिकोण रखने पर तुम्हारे मन की कलुषता समाप्त हो जाएगी। दुष्ट व्यक्ति में दुष्टता तो दिखाई देगी लेकिन उसके भीतर बैठे हुई उस परम सत्ता को देखने की बड़ी भावना रखना चित्त के शुद्धिकरण के लिए आवश्यक है। 

अर्जुन :तो इसका मतलब ऐसा दृष्टिकोण रखने वालों पर आपका विशेष अनुग्रह रहता है?

श्री कृष्ण: (हंसते हुए) हां अर्जुन! ऐसा व्यक्ति तो अपनी सोच में सीधे मुझसे ही जुड़ा रहेगा ना? मुझे उसका ध्यान कैसे नहीं रहेगा?