Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 7



अध्याय 7

ज्ञान-विज्ञान योग

पिछले अध्याय के अंत में श्रीकृष्ण ने कहा था कि योग की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करने वाला व्यक्ति यदि असफल भी होता है तब भी उसका अहित नहीं होता है। उसे अगले जन्म में अपना प्रयास जारी रखने का अवसर मिलता है। इस अध्याय के आरंभ में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ जो व्यक्ति पूर्णतया मेरे प्रति समर्पित रहता है वह मुझे पाने में सफल रहता है। वह अर्जुन से कहते हैं कि अब मैं तुम्हें वह ज्ञान प्रदान करूँगा जिसे पाने के बाद तुम्हारे लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा। हजारों में से कुछ ही इस ज्ञान को समझ कर उसमें सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं। उन कुछ लोगों में से भी बहुत कम वास्तव में मुझे जान पाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, इस सृष्टि में मेरी प्राकृतिक शक्ति के आठ तत्व हैं। इन्हीं से संपूर्ण सृष्टि का निर्माण होता है। परंतु इन आठ तत्वों के अतिरिक्त भी मेरी एक परा शक्ति है। यह शक्ति प्राकृतिक शक्ति से श्रेष्ठ है। मेरी यह शक्ति जीवात्मा के रूप में प्रणियों के भीतर निवास कर उन्हें चेतना प्रदान करती है। यह जान लो कि सभी प्राणी मेरी प्राकृतिक और परा शक्ति से उत्पन्न होते हैं। मैं ही सृजन का आधार और विनाश का कारण हूँ। सबकुछ मुझसे उत्पन्न होकर अंततः मुझमें ही विलीन हो जाता है। मुझसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है‌। जिस प्रकार मोतियों को एक धागे में पिरोकर रखा जाता है उसी प्रकार सृष्टि में जो कुछ भी है वह मुझ पर आधारित है।
मेरे अतिरिक्त इस सृष्टि में कुछ भी नहीं है। मैं जल का स्वाद हूँ‌। सूर्य और चंद्रमा की आभा मैं ही हूँ। वेदों में वर्णित ॐ भी मैं हूँ। अंतरिक्ष की ध्वनि और पुरुष का सामर्थ्य हूँ।
पृथ्वी की सुगंध, आग की चमक और ऊष्मा मैं हूँ। जीवों की चेतना और तपस्वियों का तप भी मैं हूँ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वही सभी प्राणियों का बीज हैं‌। मनुष्य की बुद्धि, तेज, बल, काम और आसक्ति रहित बल भी वही हैं। जो धर्म विरुद्ध न हो ऐसा काम भी मैं ही हूँ।
प्रकृति के तीन गुण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मुझसे ही उत्पन्न हैं पर मैं इन तीनों से परे हूँ। परंतु इन तीनों गुणों के प्रभाव के कारण मनुष्य मेरे वास्तविक रूप को नहीं जान पाता है। सिर्फ जो पूर्णतया मेरे प्रति समर्पित होते हैं वही इन तीनों गुणों के प्रभाव से मुक्त होकर मुझे पहचान पाते हैं‌।
वह जो अज्ञानी हैं, जो ज्ञान रखते हुए भी आलस्यवश मेरी शरण में नहीं आते, जिनकी बुद्धि भ्रष्ट है और जो आसुरी प्रवृत्ति के हैं वह कभी मुझ तक नहीं पहुँचते हैं।
चार प्रकार के मनुष्य हैं जो मेरी शरण में आते हैं। ऐसे व्यक्ति जो दुखी हैं अपनी व्यथा को दूर करने के लिए मेरी आराधना करते हैं‌‌। ऐसे व्यक्ति जो सत्य को जानना चाहते हैं मेरी तरफ आते हैं। सांसारिक शक्तियों की इच्छा लेकर भी लोग मेरी शरण में आते हैं। इनके अतिरिक्त जो ज्ञानी हैं वह मेरे विषय में जानकर मेरे पास आते हैं।
हे अर्जुन इन सभी में वह लोग जो मेरे प्रति पूरी श्रद्धा रखते हुए मेरी शरण में आते हैं वह मुझे परम प्रिय हैं। मुझ पर आस्था रखने वाले सभी का मैं हितैषी हूँ। पर जिन्होंने अपनी बुद्धि को सभी कामनाओं से मुक्त कर मुझे समर्पित कर दिया है वह मेरे ही समान हैं।
कई जन्मों के संचित आध्यात्मिक ज्ञान के कारण जो यह मानता है कि हर एक वस्तु का उद्गम मैं ही हूँ ऐसे महान व्यक्ति कम ही हैं।
अपनी कामनाओं के आधीन व्यक्ति देवताओं की शरण में जाते हैं। इच्छित फल की प्राप्ति के लिए विधि विधान से उनकी पूजा करते हैं। उन देवताओं के प्रति लोगों की भक्ति को मैं पोषित करता हूँ। अपनी भक्ति से वह वांछित फल प्राप्त करते हैं‌‌। परंतु वास्तविकता यह है कि उनका इच्छित फल प्रदान करने वाला मैं ही हूँ।
देवताओं की भक्ति से प्राप्त फल नश्वर होते हैं। देवताओं की भक्ति करने वाले अपने देवता के लोक को प्राप्त करते हैं। परंतु मेरी भक्ति करने वाले मेरे पास आते हैं।
अल्पज्ञानी मेरे अविनाशी दिव्य स्वरूप को नहीं जानते हैं। उनके लिए पहले मैं निराकार था और अब मैंने जन्म लिया है। परंतु मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ। मैं भूत भविष्य और वर्तमान सभी कुछ जानता हूँ। मैं सभी प्राणियों के बारे में जानता हूँ किंतु सभी प्राणी मुझे नहीं जानते हैं।
हे शत्रुओं को पराजित करने वाले अर्जुन सभी प्राणी जन्म से ही इच्छा और घृणा से उत्पन्न माया द्वारा ग्रसित होते हैं। परंतु पुण्य कर्मों के संचित फलों के कारण ज्ञानी व्यक्ति इस माया से मुक्त होकर मेरी शरण में आते हैं। वह पूर्ण आस्था से मेरी पूजा करते हैं।
मेरे शरणागत व्यक्ति जरा और मृत्यु से परे हो जाते हैं। मुझे सबकुछ जानने वाले इस लोक और परलोक में मेरे निकट रहते हैं।

अध्याय की विवेचना
इस अध्याय को ज्ञान-विज्ञान योग का नाम दिया गया है। यहाँ ज्ञान से आशय ईश्वर को जानना है। विज्ञान से आशय है ईश्वर के बारे में जानकारी प्राप्त कर उसके वास्तविक स्वरूप को समझना।
ईश्वर के विषय में सिर्फ जानकारी प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं है। उस जानकारी के आधार पर ईश्वर को समझने का प्रयास करना और उसके वृहद रूप को पहचानना ही उस जानकारी को सार्थक करता है। जो जानकारी को आत्मानुभूति में बदलने में सफल हो जाते हैं उनके लिए फिर किसी और ज्ञान को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग मेरे स्वरूप को समझ कर मेरे प्रति समर्पित होते हैं वह मुझे अत्यंत प्रिय होते हैं। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण तभी आ सकता है जब मनुष्य उसके वास्तविक रूप को समझ पाता है। यदि ऐसा होता है तो फिर वह स्वतः ही पूर्ण समर्पण के भाव में आ जाता है‌। यह पूर्ण समर्पण का भाव ही भक्ति है। एक भक्त अच्छा और बुरा सबकुछ ईश्वर की इच्छा मानकर समान रूप से ग्रहण कर लेता है। वह अच्छा होने पर अति उत्साहित होकर उसका श्रेय स्वयं को नहीं देता है। इसी प्रकार यदि काम मन के अनुरूप न हो तो उसके लिए दुखी नहीं होता है। उसे ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार कर लेता है।
ईश्वर का वास्तविक स्वरूप है क्या ? क्या ईश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा में वास करता है ? या जैसा कि हम लोगों में अधिकांश को लगता है कि ईश्वर वह परम शक्ति है जो परलोक में रहकर हमारे अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब रखता है।
ईश्वर के इस रूप की हमारी अवधारणा बहुत संकुचित है। अतः स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने वास्तविक रूप का परिचय दिया है।
ईश्वर इस सृष्टि के हर चर अचर में विद्यमान है। वही सृष्टि का आधार है। इस सृष्टि का विस्तार ईश्वर से ही होता है और अंत में सबकुछ उसी में समाहित हो जाता है। इस दृष्टि से देखें तो कुछ भी ईश्वर से पृथक नहीं है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ईश्वर के ही आधीन हैं। सूर्य और चंद्र का प्रकाश ईश्वर से ही है। एक सूक्ष्म कीट से लेकर मनुष्य तक सभी में वह आत्मा के रूप में वास करता है।
ईश्वर से ही सब उत्पन्न है। ईशोपनिषद का यह श्लोक इस बात को और अधिक स्पष्ट करता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
वह परब्रह्म पूर्ण है, उसकी पूर्णता से ही यह पूर्ण संसार उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म से यह पूर्ण संसार उपजा है परंतु फिर भी ब्रह्म पूर्ण है।
इस श्लोक में कहा गया है कि पूर्ण से पूर्ण निकलने के बाद भी पूर्ण ही बचता है। इसका अर्थ है कि ईश्वर अपने आप को विभिन्न रूपों में प्रदर्शित करता है। पर इतने रूपों में विभक्त होने के बावजूद उसकी पूर्णता पर कोई असर नहीं आता है। ईश्वर ही वह शक्ति है जो संसार की चर अचर सभी वस्तुओं में व्याप्त है। उसके अतिरिक्त इस संसार में कुछ भी नहीं है। अतः हमें ईश्वर को इस व्यापक रूप में देखना चाहिए।
जब हम ईश्वर के दर्शन इस वृहद रूप में करते हैं तो अपने आप ही उसकी विशालता के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं। उसके विराट रूप के सामने स्वयं के कर्ता होने का एहसास उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य के प्रकाश में ओस की बूंद उड़ जाती है।
ईश्वर की इस विराटता को समझ पाना मुश्किल है। हम प्रकृति के गुणों के आधीन हैं। उसके कारण हम भ्रमित रहते हैं। अपनी इच्छाओं के वशीभूत रहते हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हम ईश्वर की शरण में न जाकर उसके आधीन रहने वाले देवताओं की पूजा करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि इस ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी शक्ति ईश्वर है। बाकी सबकुछ उसके आधीन है।
इस दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जो ईश्वर को समझ कर उसके प्रति पूरी आस्था रखते हैं। अधिकांश लोग ईश्वर के विषय में अपनी सीमित अवधारणा लेकर ही जीते हैं।
ईश्वर हमें आश्वासन देते हैं कि किसी भी रूप में मनुष्य हमें पूजता है तो वह उसका उद्धार करते हैं। लेकिन जो उनके वास्तविक स्वरूप को समझ कर पूरी निष्ठा से उनकी शरण में आता है उसका कल्याण सुनिश्चित है।

हरि ॐ तत् सत्