Kalvachi-Pretni Rahashy - S2 - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

कालवाची-प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(१०)

और उस दिन के पश्चात् चारुचित्रा ने यशवर्धन से बात करना बंद कर दिया था और इधर यशवर्धन अपने कुकृत्य पर क्षण क्षण पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा,वो चारुचित्रा से क्षमा चाहता था जो कि वो देने के लिए तत्पर ना थी,चारुचित्रा की दृष्टि में यशवर्धन का अपराध क्षमा के योग्य नहीं था,इसी मध्य यशवर्धन और विराटज्योति की मित्रता अब भी स्थिर रही,उसे तो इन सब के विषय में कुछ ज्ञात ही नहीं था और एक दिवस विराटज्योति ने यशवर्धन से आकर कहा....
"मित्र! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे प्रेम हो गया है",
"कौन है वो भाग्यशाली कन्या जिससे तुम प्रेम करने लगे हो"यशवर्धन ने पूछा....
"वो कन्या कोई और नहीं चारुचित्रा है",विराटज्योति बोला...
और जैसे ही यशवर्धन ने विराटज्योति का उत्तर सुना तो एक क्षण को वो स्तब्ध रह गया,कुछ भी ना बोल सका,जब यशवर्धन कुछ ना बोला तो विराटज्योति ने उससे कहा...
"क्या हुआ मित्र! तुम चारुचित्रा का नाम सुनकर मौन क्यों हो गए?",
"कुछ नहीं मित्र! मैं तो ये सोच रहा था कि चारुचित्रा और तुम्हारी जोड़ी अत्यधिक सुन्दर रहेगी,चारुचित्रा जैसी योग्य एवं सुन्दर कन्या से ही तुम्हारा विवाह होना चाहिए",यशवर्धन बोला...
"तो शीघ्रता से तुम भी अपनी प्रेयसी खोज लो,तब हम दोनों का विवाह एक ही मण्डप में हो जाएगा" विराटज्योति बोला...
"ऐसा सम्भव नहीं है मित्र!",यशवर्धन बोला...
"क्यों सम्भव नहीं है,तुम इतने योग्य,सुन्दर एवं साहसी हो कि तुमसे तो कोई भी कन्या विवाह करने हेतु तत्पर हो जाएगी,उस पर तुम राजकुमार भी हो",विराटज्योति बोली....
"मेरा विवाह तो होता रहेगा मित्र!,तुम पहले अपना विवाह कर लो,तुम्हें ज्ञात है ना कि वो वैतालिक राज्य के राजा की पुत्री है और तुम्हारे पिता साधारण है,तनिक इस बात का ध्यान रखना,वैसे चारुचित्रा बहुत ही सुशील है उसके मस्तिष्क में ये सब नहीं आएगा,किन्तु तब भी..."यशवर्धन बोला....
"मुझे ये ज्ञात है मित्र! इसलिए तो मैं दुविधा में हूँ,क्या चारुचित्रा राजकुमारी होकर मुझसे विवाह करेगी" विराटज्योति बोला....
"यदि वो तुमसे प्रेम करती होगी तो अवश्य तुमसे विवाह करेगी",यशवर्धन बोला...
"वैसे तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि हम दोनों का विवाह तो हम दोनों के जन्म के पश्चात् ही हमारे माता पिता ने तय कर दिया था,ये बात बाल्यकाल में मेरी माता ने मुझसे कही थी",विराटज्योति बोला....
"वो बाल्यकाल था विराट! अब तुम दोनों व्यस्क हो चुके हो,इसलिए यही उचित होगा कि तुम एक बार ये बात राजकुमारी चारुचित्रा से पूछ लो",यशवर्धन बोला...
"तुम्हारा कथन उचित है मित्र! तो मैं शीघ्र ही ये बात राजकुमारी चारुचित्रा से पूछूँगा,किन्तु उस समय तुम्हें भी वहाँ उपस्थित रहना होगा",विराटज्योति बोला....
"मेरी उपस्थित क्यों आवश्यक है मित्र!",यशवर्धन ने पूछा...
"ताकि तुम उस बात के साक्षी बन सको और तुम मेरे परम मित्र भी तो हो,इसलिए तुम उस क्षण मेरे संग उपस्थित रहोगे",विराटज्योति बोला....
और एक दिवस वैतालिक राज्य के राजमहल की वाटिका में जब चारुचित्रा अपनी सखियों के संग विचरण कर रही थी तो तभी विराटज्योति यशवर्धन के संग वाटिका में पहुँचा,विराटज्योति को यशवर्धन के साथ में देखकर चारुचित्रा को अच्छा नहीं लगा,परन्तु उस समय उसने उससे कुछ नहीं कहा,वो नहीं चाहती थी कि विराटज्योति को ये सब ज्ञात हो इसलिए उसने दोनों से सामान्य व्यवहार किया,तीनों कुछ समय तक वाटिका का भ्रमण करते रहे और जब विराटज्योति ने देखा कि आस पास कोई भी दासी या चारुचित्रा की सखी नहीं है तो उसने पेड़ से एक सुगन्धित पुष्प तोड़ा और चारुचित्रा को देते हुए बोला....
"मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूँ चारुचित्रा! क्या तुम भी मुझसे प्रेम करती हो"
कभी कभी मानव परिस्थितियों के समक्ष विवश हो जाता है और वही चारुचित्रा के संग भी हो रहा था, वो तो वैसे भी यशवर्धन को इस बात का अनुभव कराना चाहती थी कि वो उससे घृणा करती है,इसलिए उसने विराटज्योति को शीघ्रतापूर्वक उत्तर दे दिया....
"हाँ! विराट! मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ"
चारुचित्रा का उत्तर सुनकर विराटज्योति हर्ष से झूम उठा और यशवर्धन को अपने गले से लगाते हुए बोला...
"मित्र...मित्र! आज मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ,मेरी दुविधा दूर हो गई,आज मुझे संसार का हर सुख प्राप्त हो गया",
और इधर विराटज्योति चारुचित्रा के उत्तर से शोक में डूब चुका था,उसे संसार से विरक्ति हो गई थी,इसलिए उसी रात्रि वो अपना राज्य छोड़कर ना जाने कहाँ चला गया....
और तभी एक दासी ने आकर चारुचित्रा का ध्यान तोड़ा और उस से बोली....
"महारानी! महाराज महल में पधार चुके हैं",
"उनसे कहो,मैं अभी आई",चारुचित्रा बोली....
इसके पश्चात् चारुचित्रा ने अपने वस्त्रों को ठीक किया और अपनी चुनर को शरीर पर डालकर वो कक्ष के बाहर निकली तो उसने देखा कि मनोज्ञा विराटज्योति का कवच उतारने में उसकी सहायता कर रही थी,ये कार्य तो सदैव चारुचित्रा किया करती थी,आज उसका स्थान मनोज्ञा ने कैंसे ले लिया,इसके पश्चात् मनोज्ञा ने विराटज्योति का मुकुट उसके सिर से उतारा और उसके पैरों के पास बैठकर उसकी चर्मपदुकाएँ(जूते) उतारने लगी और इस सबके मध्य विराटज्योति की दृष्टि मनोज्ञा पर पड़ रही थी,जो कि चारुचित्रा के लिए असहनीय था,किन्तु वो कुछ ना बोली,तब मनोज्ञा ने विराटज्योति से पूछा....
"महाराज! मैं इन सभी वस्तुओं को कहाँ रखूँ",
"मेरे कक्ष में रखकर तुम विश्राम करो,तुम्हें मेरे लिए जागने की आवश्यकता नहीं है", विराटज्योति बोला...
"रानी चारुचित्रा अपने कक्ष में विश्राम कर रहीं थीं तो मैंने सोचा मैं ही आपके आने की प्रतीक्षा कर लेती हूँ"मनोज्ञा बनी कालबाह्यी बोली...
"मैं आना नहीं चाहता था किन्तु मुझे अपने मित्र यशवर्धन के स्वास्थ्य की चिन्ता थी इसलिए आ गया" विराटज्योति बोला...
"ये आपने ठीक किया महाराज!",मनोज्ञा बनी कालबाह्यी बोली...
"तुम जाकर इन वस्तुओं को कक्ष में रखकर विश्राम करो,मैं महाराज की सेवा हेतु तत्पर हूँ", चारुचित्रा ने मनोज्ञा से कुछ तीखे स्वर में कहा....
इसके पश्चात् कालबाह्यी बनी मनोज्ञा चुपचाप वहाँ से उन वस्तुओं को लेकर चली गई,उसे कदाचित ज्ञात हो चुका था कि रानी को उसका राजा विराटज्योति के इतने निकट जाना अच्छा नहीं लगा था,इसलिए वो अपना सिर झुकाकर रानी चारुचित्रा की आज्ञा का पालन करते हुए वहाँ से जा चुकी थी,मनोज्ञा के जाते ही विराटज्योति चारुचित्रा से बोला...
"मैं तनिक यशवर्धन को देखकर आता हूँ"
"ठीक है! मैं तब तक कक्ष में आपकी प्रतीक्षा करती हूँ",चारुचित्रा बोली...
और विराटज्योति यशवर्धन के कक्ष में उसे देखने चला गया,वो उसके कक्ष में पहुँचा तो यशवर्धन अभी भी विश्राम कर रहा था,वो गहरी निंद्रा में लीन था,कदाचित वो उन औषधियों का प्रभाव था जो राजवैद्य ने यशवर्धन को दीं थीं,राजवैद्य ने विराटज्योति से कहा था कि ये जितना विश्राम करेगे तो उतनी ही शीघ्रता से स्वस्थ हो जाऐगें,इसलिए विराटज्योति ने उस समय यशवर्धन को जगाना उचित नहीं समझा और वो अपने कक्ष में वापस चला आया,जहाँ चारुचित्रा उसकी प्रतीक्षा कर रही थी.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा...