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ढिबरी

ढिबरी

खटिया पर पड़े—पड़े माँ को झपकी आ गयी थी । उनकी सूनी—सपाट आँखों के कपाट अचानक बन्द हो गये थे । मगर खर्राटों के मध्य भी कभी—कभार उनकी दर्दीली कराह पूफट ही पड़ती थी । चित लेटी माँ का मुँह खुला था और लार की दो चार कतारें मुँह से होती हुई गरदन के रास्ते बह रही थीं । वह कबाड़खाने जैसा कमरा कपफ से भर आया था । उसे भी घिन आ रही थी, मगर करे भी तो क्या ? खटिया के पास ओखली पर रखी ढिबरी का तेल पेंदी तक पहुँच गया था । वह अब बुझने की स्थिति तक पहुँच चुकी थी—एकदम माँ की जिन्दगी की तरह । कमरे से दबे पाँव निकलकर आहिस्ता से उसने किवाड़ बन्द कर दिया और बाहर आँगन में लावारिस—सी पड़ी एक टूटी बँसखट पर पसर गया ।

सुबह का खाना खाने के बाद से अभी तक उसके पेट में एक बूँद जल भी नहीं गया है । ज्यों ही उसे यूनिवर्सिटी में माँ की बीमारी का पफोन मिला, बस पकड़कर गाँव आ गया । उस वक्त उसके हाथ में एक कानी कौड़ी भी नहीं थी । मगर भगवान बनाए रखे उसके सेठ को, जिसने दो महीने के ट्‌यूशन के पैसे देे दिये और उसके किराये का जुगाड़ हो गया । वह सोचता है— आखिर वह इतना गरीब क्यों है ? उसका परिवार तो छोटा है, पिफर भी अभाव का यह लपफड़ा

क्यों.....? माँ लम्बे अरसे से चली आ रही बीमारी से जूझ रही है, पर दवा—दारू का इंतजाम भी कर पाने का सामर्थ्य क्यों नहीं है ? बूढ़ा बाप खेतों में हाड़—माँस गला रहा है, पिफर भी उसकी जिन्दगी में हरियाली क्यों नहीं आती.....?

अल्युमीनियम का लोटा हाथ में थामे उसकी राध मैदान होकर आ गयी है । उसकी ओर एक बार देखकर वह घर के काम—ध्ंधें में उलझ जाती है । मगर वह उसे बार—बार देखता रह जाता है । यह उसकी पत्नी है.... वही राध जिसकी माँग में उसने सिंदूर भरा था । अब राध कितनी निस्पंद बनी रहती है । वह कुत्सित और वीभत्स, मगर यथार्थ जिन्दगी का पर्याय लगती है..... उजड़े चमन में बची सूखे गुलाब की कंटीली डालियों—सी जिन्दगी का पर्याय.....।

मगर उसने भी क्या किया अपनी राध के लिए ? करे भी तो क्या ? कर भी क्या सकता है ? एम.एस—सी. करने के बाद कहीं ठौर—ठिकाना न लगने पर रिसर्च में गया । पूफल—सी कोमल राध को काँटों में उलझी जिन्दगी जीने को मजबूर कर दिया ।

राध के बर्तन माँजने की आवाज सुनकर बच्चा रोता हुआ उठ गया । वह नाक सिकोड़ती हुई कालिख में सना हाथ धेने लगती है— ‘‘विधता तुझे क्यों नहीं उठा ले जाता अभागे.....!'' उठकर वह अपने ढीले—ढाले स्तन को उसके मुँह में देती है । यह सब नाटक देखकर वह अपनी नजरें घुमा लेता है ।

बाबूजी आकर चुपचाप आँगन में खड़े हो जाते हैं । वह उठकर उनके चरण छूता है और पिफर एक कोने में दुबककर बैठ जाता है । बाबूजी एक मरा हुआ सवाल करते हैं, ‘कब आये ?'

वह उनके चेहरे पर उभरी अनेकानेक झुर्रियों को देखता जमीन पर कुछ लिखते हुए कह दे रहा है, ‘अभी एक घंटा पहले ।'

आँगन में पिफर सन्नाटा छा जाता है ।

सिर उठाकर वह पिफर बाबूजी की ओर देखता है । बढ़ी हुई सपेफद दाढ़ी, झुर्रियों को और भी उभारे दे रही है । यह उसका वही बाप है, जिसने समूचे खेत को गिरवी रखकर उसे यहाँ तक पहुँचाया.... खेतों में खाद डालने के लिए तकाबी के रुपये लेकर उसकी पढ़ाई में झोंक दिये....मगर कहाँ गये वे रुपये....? उतनी दौलत ? वे तमाम खेत....? सब खा—पचा गया वह । मगर क्या किया उसने ? वह खोज करेगा, पी—एच.डी. की डिग्री लेगा और माँ—बाप, राध.... एक—एक कर सबकी जान लेगा । एक ओर उसकी ‘थीमिस' पूरी होगी, समाचार—पत्राों में उसकी तस्वीर छपेगी और दूसरी ओर उसके बूढ़े बाप, उसकी बूढ़ी माँ का जनाजा

उठेगा.... । उसका बदन पीपल के पत्ते—सा काँप उठता है ।

बाबूजी पिफर टोकते हैं, ‘तुम्हारी खोज कैसी चल रही है ?' इसके पहले कि वह कुछ कहे, वे पिफर पूछ बैठते है, ‘अच्छा..... वो जो तुमने दो—चार जगह अप्लाई किया था, उनका क्या हुआ ?'

वह कुछ भी जवाब देना नहीं चाहता । कहे भी तो क्या ? जब कोई खबर ही नहीं आयी तो भला क्या बताये ! मगर कुछ—न—कुछ तो कहना ही है । उन्हें दिलासा देने की गरज से कहता है, ‘उन सबके लिए अब इण्टरव्यू होने वाला है ।' मगर खुद से ही सवाल कर बैठता है—आखिर कब तक खुद को छलता रहेगा वह ? चेहरे पर हाथ पेफरकर अपनी काँच की गोली जैसी आँखों को मींचते हुए बाबूजी कहते चले जा रहे हैं— ‘मरजी राम की !' वह पिफर जाकर खटिया पर पैर लटका कर बैठ जाता है ।

स्टेशन से उतरकर, जब वह भूखा—प्यासा घर आ रहा था कि एक—ब—एक गाँव के मुखियाजी उसे मिले थे । पूछा, ‘आजकल कहाँ हो, लल्लू ?'

हाथ जोड़कर उसने पफीका—पफीका जवाब दिया था, ‘कहाँ हूँ दीनू दा ! एम.एस—सी. के बाद रिसर्च में हूँ ।'

सुनकर जैसे पूफले नहीं समाये थे । शाबाशी देते हुए कहा था, ‘बबुआ, तुम लोगों पर गाँव को ही क्या, देश को गर्व है, लल्लू ! मैं चाहता हूँ कि गाँव का हरेक युवक कम—से—कम ग्रेजुएट हो, सभी ग्रामवासी उफँचे—उफँचे पद पर

जाएँ.... सबके सब गजटेड अपफसर हों....।'

मुखियाजी एक लम्बा—चौड़ा भाषण देते चले जा रहे थे । वह चुपचाप सुनता जा रहा था ।

अल्युमीनियम के कनकट्‌टे कटोरे में भात परोसकर राध उस पर तसले से बिना हल्दी—मसाले की काली दाल उड़ेलने लगी । हाथ—पैर धेकर वह एक टाट पर खाने बैठ गया । अभी दो कौर ही निगल पाया था कि माँ की जोरों से हाँपफने की आवाज आने लगी । बाबूजी दुआर पर से दौड़े हुए आए । राध भी उसी कमरे की ओर भागी ।

वह भी खाना छोड़कर जूठे हाथ माँ के पास जा पहुँचा । खाँसते—खाँसते माँ का गला अवरु( होता जा रहा है । माँ को देखकर वह आत्मविस्मृत होने लगता है । उसकी आँखों के सामने एक पुरुष की छायाकृति उन्मत्त—सी दौड़ती आती है, जिसकी भुजाओं में सामर्थ्य है.... कमरे में स्याह अँध्यिारी घिरने लगती है.... चारों ओर कड़वा—कसैला ध्ुआँ भर जाता है..... वह छाया माँ को लेकर उड़ जाती है.... ध्ू—ध्ू करके चिताएँ जलने लगती हैं.... खोपड़ियों के टुकड़े बिखरने लगते हैं.... वह कबाड़खाना शमशान बन जाता है— मंडराते कौवों और सूक्ष्मदर्शी गि(ों का शमशान.... जलती देहों और नवजीवन धरण करती आत्माओं का श्मशान । उस भयानक शमशान के तट पर नाचते भूत—बैतालों के बीच माँ की तड़पती आत्मा भी प्रेत हो उठी है.... वह भयावह व डरावना रूप धरण करके उन सबों के मध्य हिहियाती हुई खड़ी है.... अपनी भूख—प्यास की दर्द—भरी व्यथा—कथा सबको सुनाती है.... ओर उन सबों की ओर भूखी शेरनी—सी झपटती है...।

उसकी बन्द नजरें एकदम खुल जाती हैं । माँ सिमटकर ढेर हो गयी है । सब एक—दूसरे की तरपफ टुकुर—टुकुर ताक रहे हैं । आँसू की नदियाँ आँखों में ही सूख गयी हैं । ढिबरी कब की बुझ गयी है । कमरे का अन्ध्कार सबको अपने में समेटे हुए हैं ।