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टेंटुआ

टेंटुआ

रमनथवा हजाम का घिघियाना बाबू दीनानाथ सिंह ने हवा में उछालकर बैरंग लौटा दिया, ‘‘नहीं, तू अगर अपना कल्याण चाहता है तो भलेमानस जैसा वापस लौटकर चूल्हे भाड़ में जा । जब कटनी का मौका आया तो चला है हजामत बनाने ? तबे तो लोग—लुगाई कहते हैं— नाई—धेबी—दर्जी, तीन जाति अलगर्जी ।''

बाबू दीनानाथ सिंह के मुँह से एक भद्दी—सी गाली बरछी की नाई निकली और रमनथवा हजाम के कलेजे में चुभ गयी । मगर मरता क्या न करता । गिड़गिड़ाना रमनथवा नाई की नियति है और गरियाना बाबू साहब की बपौती ।

‘‘काहे विरोध् करते हैं सिंह साहेब ? गुस्सा थूकिये और रमनथवा को मापफ कर दीजिये वरना बेचारा गरीब—गुरबा अकारण मारा जायेगा ।'' लोटा लेकर मैदान होने जा रहे चनरिका दादा ने पुचकारने की गरज से कहा ।

‘‘भला देखिये न, दादा । ससुरा छठे—छमाहे भूलकर आ जाता है मुआयना करने । मजूरी तो दू—चार सेर अध्किे चाहिए और काम—धम में बस तेरह—बाईस ।'' बाबू साहब ने मूँछ पर ताव देते हुए तरनाकर कहा ।

‘‘गलती हो गयी, मलिकार ।'' चिरकुट की पोटली से उस्तरा निकाल कर रमनथवा उसे सिल पर तेज करने, पिफर कटोरी के पानी से बाबू साहेब का माथा भिगोने लगा ।

बाबू दीनानाथ सिंह ने मूँछें ऐंठते हुए समझाने के लहजे में कहा, ‘‘देख रमनथवा ! टोला के इकलौते हजाम हो तो ज्यादा मनमौजी मत बनो । ढेर जोम जीव का काल होता है, समझे !''

रमनथवा मूंड़ी नवाकर चुपचाप हजामत बनाने में मशगूल हो गया । बड़े लोगों की पनही और गरीब—मजूर का कपार । जब ओखली में मूड़ी पड़ ही गयी तो पिफर जितना चाहो, मूसर बरसाकर थूर लो ।

‘‘क्यों रे रमथनवा ! क्या बात थी ? क्यों गरमा रहे थे बाबू साहब ?''

जब वह मेरे दुआर से होकर गुजरने लगा तो मैं चाहकर भी अपने को रोक नहीं पाया और रोबीले स्वर में पूछ ही बैठा । ‘‘मत पूछिये बाबू !'' वह रोवाइन—पराइन सूरत बनाकर बोला, ‘‘सब लोगन के कपार पर शहरी शैतान सवार हो गया है, सरकार ! चाहते हैं कि रोज हम दाढ़ी—हजामत बनाने आएँ । तो भला ई कबहीं हुआ है जो आज होगा ? इतना लमहर टोला और यह ससुरा निपट अकेला रमनथवा । सबका साला— ससुर हम ही हैं, साहेब ।''

मुझे लगा, रमनथवा हजाम सिपर्फ अपना नहीं, बल्कि गाँव के हर गरीब—मजूर के अनकहे दर्द का बयान कर रहा हो । उसकी राम कहानी आँखों के आईने में नाच उठी ।

रमनथवा के खानदान में भी ढेर सारे लोग थे । सभी मिल—जुलकर गाँव की मजूरी किया करते थे । मगर गाँव के नये—पुराने लोग जब पुरानी डगर छोड़कर नई—नेवली राह पर चल पड़े तो उन सबों का जीना दूभर हो गया । मजूरी की दर वही पुरानी, मगर रोज दाढ़ी और हजामत बनवाने का सिलसिला । नवहा लोग हजामत बनाने के उसके तौर—तरीके पर नाक—भौं सिकोड़ने लगे और कस्बे के सैलून में जाने लगे, जहाँ के कुर्सी—पौडर—क्रीम ने गाँव वाले बबुआनों का दिल जीतना शुरू कर दिया । पिफर तो एक—एक कर सारे नाई भी गाँव से शहरों की खाक छानने निकल पड़े । बच गया सबका लात—मुक्का खाने और गाली—गलौज सुनने के लिए टोला का इकलौता हजाम रमनथवा ।

‘‘तुम कहीं बाहर नहीं गए, रमनथवा ?'' मैंने सवाल ठोंक ही तो दिया ।

रमनथवा के चेहरे की झुर्रियाँ और उभर आर्इं । दर्दीले स्वर अनायास पूफट पड़े, ‘‘हम भी शहर में जाने को तय कर चुके थे, मलिकार । लेकिन माटी का मोह ही हमें यहाँ के लोगों से बाँध्े रहा । कहाँ—कहाँ छिछियाता पिफरूँ ? सब करम का पेफर है, बाबू ! एक तो मजूरी का पुराना रेट, तिस पर भी बाजरा—जोन्हरी—कोदो—खेसारी जैसे गये—गुजरे अनाज को ही लोग हमें देते हैं मजूरी में । उध्यिाइल सत्तू पितरों को ! उस पर भी दिन भर माँगो तो भी सवा सेर और घंटा भर माँगो तो भी सवे सेर । कहने को तो टोले—भर का हजाम हूँ, दिन—रात जाँगर ठेठाना पड़ता है, पिफर भी जून पर सुबहित भोजन नसीब नहीं होता ।''

मैं रमनथवा के झुर्रीदार चेहरे में झाँककर भरसक कुछ टटोलने की कोशिश करने लगा । क्या सचमुच उसका खून बड़मुँहवा लोग ही चूसते आ रहे हैं ? जनमते ही छठियार से लेकर मौत के बाद श्रा( और बरसी तक रमनथवा खटता रहा है । मगर इसके एवज में पाता क्या है— डाँट—पफटकार, गाली—गलौज और मजूरी के नाम पर भीख । तिस पर भी बड़े लोगों का परजा—पवनी है वह । क्या मजाल, जो बीमारी—हेमारी में भी उसे इस शोषण से छुटकारा मिले !

मगर मैंने ढाढ़स बँधते हुए कहा, ‘‘घबरा मत रमनथवा ! अब सरकार ने पिछड़ों को आरक्षण की सुविध मुहैया करा दी है । तुम्हारे बेटे—पोते, अब राज करेंगे ।'' ‘‘रिजरभेसन !'' रमनथवा की विद्रूप हँसी ने मुझे चौंका दिया । पिफर कुछ थमकर बोला वह, ‘‘ई सब बड़मुँहवा लोगन के चोंचले हैं बाबू । रिजरभेसन का दाना पेंफककर चिरई पफँसाने की बड़ी निठाह हिकमत है ई सब । अगड़ों—पिछड़ों को लड़ाओ और कुरसी हथियाओ । रिजरभेसन की बात आएगी तो पद भेंटाएगा शहरी पढ़ुआ और पिछड़ों को । हमारे बेटे—पोते टापते रह जाएंगे । बबूर के नीचे आम सबको कहीं भेंटाता है बाबू ! मुखदेव धेबी को नहीं देखते । हरिजन को तो केतना बरस से रिजरभेसन है, मगर उफ ससुर जिनगीभर कपड़ा ही धेते रह गए ।''

कभी—कभी बड़ी बेध्ड़क बात करता है रमनथवा । सचमुच सोडा रेह में कपड़े सान, धेबीघाट पर पटक—पटक कर ‘छिओराम—छिओराम' का संगीत गुँजाने वाले मुखदेव को बुढ़ौती में भी जाँगर ठेठाना पड़ रहा है । पिफर भी कपड़े धेने की जीतोड़ ध्ंध्े की कमाई से उसके परिवार को भरपेट अन्न भी मयस्सर नहीं हो पाता । तभी तो वह भट्‌ठा में र्इंटा ढोने का अतिरिक्त काम भी करने लगा है । आज भी, जबकि लोग पक्की इमारत ध्ड़ाध्ड़ बनवाते चले जा रहे हैं, मुखदेव धेबी का ढहता हुआ सीलन और सड़ाँध्—भरा भुतहा घर दिन—रात काटने को दौड़ता है । बाभन, क्षत्रिाय, दुसाध्, चमार—सबका छुतिहर और गड़ितर धेने वाले मुखदेव जैसे शोषितों की राम कहानी दलितों और असुविधजीवी लोगों को मिलने वाली सरकारी सुविधओं की जीती—जागती दास्तान है । रमनथवा की बात मुझे ठीक वैसी ही लगी थी जैसे किसी ने बाल गिनने को कहा हो और उसने माथा छीलकर गिराते हुए कह दिया हो, ‘बाबू, आप खुदे गिन लो ।'

सिर झटककर मैं सोच के मकड़जाल से बाहर निकल आया और उँगली बढ़ाकर रमनथवा से नाखून कटवाने लगा। तभी मन में केंचुए की तरह कुछ कुलबुलाने लगा और उबकाई—सी आने लगी । खँखारकर थूकने पर इदरीस का दम तोड़ता चेहरा आँखों की गहराई में उतरता दिख पड़ा । ताजिन्दगी इदरीस गाँव के लोगों के कपड़े सीता रहा, नंगे लोगों की नंगई को ढाँपता रहा, मगर गाँव में शहरीपन की सुरसा ने ज्योंही कदम बढ़ाया, लोग—लुगाई इदरीस की सिलाई से कतराने लगे और शहरी टेलरों की जेब मोटी और मोटी होती गयी । इदरीस आगे चलकर लकवे का शिकार हो, ध्नाभाव में परकटे पाखी की तरह पफड़पफड़ा रहा था । गाँव के हिमायती लोगों का हुजूम सहानुभूति के दो—चार शब्द उछालकर ही अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो गया था । इदरीस की नियति थी मरना और वह मरा भी । वैसे, वह जिन्दा ही कब था ? जीवन—भर घुट—घुटकर मरता ही तो रहा था ।

अचानक बाबू दीनानाथ सिंह जब इध्र ही आते दिखे तो पिफर मेरे जेहन में उनकी उलाहना भरी उक्ति उमड़ने लगी —‘नाई—धेबी—दर्जी, तीन जाति अलगरजी ।' मेरी नजरों में कभी नगर—महानगर के वातानुकूलित सैलून वाले, ड्राईक्लीनर्स, टेलर्स के चमकते—दमकते चेहरे आ—जा रहे थे तो कभी इन निपट मजूरों की सूरत । सोच के अथाह समंदर में डूबता—उतराता मैं अनेक सवालों में घिर गया । माटी के बरतन पकाने वाले कुम्हार, कपड़े सीने वाले दर्जी, हजामत बनाने वाले नाई क्या यों ही शहरों की तरपफ भागते रहेंगे ? मगर वहाँ भी चैन कहाँ ? वहाँ का पुफटपाथी जीवन क्या उन्हें तोड़कर नहीं रख देता ? यहाँ साँपनाथ तो वहाँ नागनाथ । तो क्या सचमुच इदरीस, मुखदेव, रमनथवा जैसे परजा—पवनी की नियति ही है— टूटना, लुटना और मिटना ? इनके बाद कल इनके नाती—पोते भी इसी प्रकार घुट—घुटकर तिलतिल मरते—मिटते रहेंगे और बबुआन लोग मूँछों पर ताव दे—देकर गरजेंगे —‘अरे, ससुरा, ढेर जोम हो गया है का रे ?'

जब एकाएक छनाक से कुछ लगा तो मेरी तन्द्रा भंग हुई । नोहरनी से नाखून कटवाते वक्त तर्जनी उँगली कुछ जियतार कट गयी और मैं सिसकारी भरने लगा । उँगली से लहू रिसता देख एकबारगी जी में आया कि उँगली मुँह से लगाकर चूसने लगूँ अपना लहू । तभी ऐसा आभास हुआ मानों उँगली मेरी नहीं, बल्कि रमनथवा की हो और बाबू दीनानाथ सिंह उसका रिसता लहू चूसे जा रहे हों, लगातार चूसे जा रहे हों । अचानक रमनथवा के अभ्यस्त हाथों ने जोर से मेरी उँगली पकड़ ली । मुझे लगा जैसे शिकारी ने आदमखोर का टेंटुआ पकड़ लिया हो ।