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असमंजस

असमंजस

“मम्मी जी ! पापा की संपत्ति में हमें भी हमारा भाग मिलेगा न ?” आखिर हम भी पापा की उत्तराधिकारी हैं !"

“पापा की संपत्ति में तुम्हारा भाग ?”

बेटी के मुख से पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार की बात सुनकर महिमा असमंजस में पड़ गयी। वह जानती थी कि उसकी बेटी ने कुछ अनुचित नहीं कहा है, परन्तु न जाने क्यों ? आज तक कभी उसने इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया था कि उसकी बेटियाँ भी संपत्ति में भाई के समान अधिकारी हैं।

एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी महिमा अपनी दो बेटियों, एक बेटे और पति के साथ रहते हुए घर—बाहर के कार्यों में इस कुशलता के साथ सामंजस्य बनाकर रखती थी कि न तो उसके साथियों— सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह एहसास रहता था कि महिमा एक गृहस्थी—महिला है, न ही उसके बच्चे और पति को उसकी परिवार—संबंधी सेवाओं और घर की देखभाल का अभाव अनुभव होता था। अपनी कार्य—कुशलता और समय की प्रबंधन—क्षमता से महिमा ने बच्चों को माँ का, पति को पत्नी का तथा सास—ससुर को बहू का पूरा—पूरा सुख दिया था। अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व से बचे हुए शेष समय का उपयोग वह अपने रूचि के कार्य में खर्च करती थी। उसकी रूचि का कार्य था समाज—सेवा। इसी दिनचर्या के साथ वह अपने जीवन के पचास बसन्त पार कर चुकी है। वर्तमान में उसका बेटा तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सेवारत है और दोनों बेटियाँ भी तकनीकी क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करके किसी अच्छी नौकरी की तलाश में हैं,

महिमा एक सामाजिक—सांस्कृतिक कार्यक्रम में वक्ता के रूप में आमंत्रित थीं। वह जितनी कुशल गृहिणी थी, उतनी ही कुशल वक्ता भी थीं। आज प्रथम अवसर था, जब महिमा की बेटियाँ अपनी माँ के साथ उसके कार्यक्रम में गयीं थीं और माँ के वक्तव्य को मंच से सुन रहीं थीं। उसकी बेटियों ने देखा कि मंच पर उनकी माँ के बढ़ते कदमों के साथ सारा हॉल गूँज उठा था और माँ के हाथ में माइक आते ही पूरे हॉल में निःशब्दता भर गयी। लगभग पन्द्रह मिनट तक महिमा का वक्तव्य चला था। इन पन्द्रह मिनटों के अपने वक्तव्य में महिमा ने समाज में स्त्रियों की विषम स्थिति पर कई प्रश्न उठाये और हर प्रश्न पर उसके समर्थन में सारा हॉल तालियों की गूँज से भर गया था। महिमा की दोनों बेटियों ने अपनी माँ का ये रूप पहली बार देखा था। अपनी माँ द्वारा दिये गए महिला सशक्तिकरण संबंधी वक्तव्य पर दोनों बेटियों को गर्व भी हो रहा था और अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की आशा के साथ विश्वास भी। अपने इसी आशा—विश्वास को प्रकट करते हुए घर आकर महिमा की बड़ी बेटी रिचा ने सहज ही अपने उत्तराधिकार के विषय में कह दिया था | बेटी का प्रश्न सुनकर गरिमा कोई स्पष्ट उत्तर न दे सकी थी, इसलिए क्षणभर तक अपने मुख से निकले हुए शब्दों पर विचार करके स्वयं को सम्हालती हुई संयत शब्दों में बोली —

“बेटी, संपत्ति पर तुम्हारे पापा का अधिकार है, इस विषय में तुम्हारी माँ कुछ नहीं कह सकती ! हाँ, मैं इतना अवश्य कह सकती हूँ कि जिस संपत्ति को मैं अपने परिश्रम से अर्जित करुँगी, उसका मैं स्वयं अपने तीनों बच्चों के बीच बँटवाराड करुँगी !”

महिमा का उत्तर सुनकर उसकी बेटी अवाक् रह गयी। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में घर से बाहर दिये गये माँ के भाषण और घर में दिये गये बेटी के अधिकार सम्बन्धी तर्क को सुनकर उसके चेहरे पर अविश्वासयुक्त उदासी झलक आयी। महिमा ने भी यह अनुभव किया कि उसकी बेटी की उदासी का कारण उसके प्रश्न का उत्तर उसकी अपनी कथनी तथा बेटी की अपेक्षा के प्रतिकूल था। अतः बेटी को समझाते हुए महिमा ने पुनः कहा —

“बेटी, मेरे उत्तर से परेशान या निराश हाने की आवश्यकता नहीं है ! संपत्ति के उत्तराधिकार और हस्तान्तरण का विषय भावनाओं के साथ-साथ कानूनी भी है। कानून में यह व्यवस्था है कि पिता की संपत्ति में बेटे-बेटियों को समान अधिकार मिले, आपको आपका अधिकार अवश्य मिलेगा। किन्तु...?”

“किन्तु...?”

“किन्तु, मेरे विचार से संपत्ति में अपना भाग सुनिश्चित करने से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि तुम्हारा शारीरिक—मानसिक तथा भावात्मक विकास भली प्रकार से हो, जिससे तुम्हारा व्यक्तित्व प्रभावशाली और दृढ़ बने ; तुम्हारी स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो सके। मैंने ऐसी अनेक स्त्रियाँ देखीं हैं, जो किसी सामाजिक-राजनीतिक पद पर आसीन रहते हुए भी और अकूत संपत्ति की स्वामिनी होते हुए भी स्वतन्त्रतापूर्वक उससे संबंधी निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हुआ होता है। उनकी पद-प्रतिष्ठा और संपत्ति स्वयं द्वारा अर्जित की हुई नहीं होती है, इसलिए उनमें निर्णय लेने की शक्ति और आत्मविश्वास का अभाव रह जाता है। मैं चाहती हूँ कि तुम अपने व्यक्तित्व के विकास पर ज्यादा ध्यान दो, न कि पैतृक संपत्ति में से मिलने वाले छोटे अंश पर। यदि तुम अपनी प्रतिभाओं का पर्याप्त विकास कर सकोगी, तो पिता की संपत्ति में से मिलने वाले धन की अपेक्षा कहीं अधिक धन और मान—प्रतिष्ठा तुम स्वयं अर्जित कर सकती हो !”

महिमा का लम्बा वक्तव्य सुनकर रिचा एक पुस्तक उठाकर अध्ययन करने के लिए अपने कमरे में जाने लगी। किन्तु, जाते-जाते उसने माँ से कहा -- " आपके मुँह से एक-एक शब्द जिस निष्ठा और इमानदारी से हम दोनों बहनों के लिए कहा गया है, वैसे ही भाई पर भी लागू होगा ?"

अपने वक्तव्य के सफल सम्प्रेषण के पश्चात् भी रिचा का दूसरा प्रश्न सुनकर महिमा के हृदय में एक विचित्र—सी व्याकुलता भर गयी। उसके अन्तः में द्वन्द्व छिड़ गया — “ कितना अंतर है मेरी कथनी-करनी में ? महिला सशक्तिकरण के पक्ष में लम्बे-चौड़े भाषण देने वाली स्त्री अपने घर में कितनी संकुचित धारणा से परिपूरित होकर कार्य-व्यवहार करती है! माना कि अपनी अर्जित संपत्ति और पैतक संपत्ति का स्वामी मेरी बेटी का पिता है, परन्तु उस संपत्ति पर बेटी और बेटे के समानाधिकार की वकालत मैं घर से बाहर सभाओं और मंच पर जितनी बुलंद आवाज में करती हूँ, क्या अपने घर में भी कभी अपनी बेटी के लिए करती हूँ ?”

“नहीं ! कभी नहीं की ! आज भी नहीं की !”

“क्यों ?”

“शायद मैं स्वयं भी यह नहीं चाहती हूँ कि पैतृक संपत्ति में मेरी बेटी भागीदार बनकर मेरे बेटे का भाग छोटा करें !” मेरी यही छोटी सोच क्या मेरी बेटियों के सशक्तिकरण में बाधक नहीं बनेगी ?"

आत्मविशिलेषण करते हुए स्वयं को बेटी का अपराधी अनुभव करके महिमा ग्लानि से भर उठी | उसके कानों में एक-दूसरे को काटते-टकराते दयनीय स्वर गूंजने लगे-- "माँ, हमारे उत्तराधिकार में आप अवरोधक नहीं बनेगी न !"

वह सोचने लगी -- उत्तराधिकार के विषय में अपने माता-पिता के दृष्टिकोण की असमानता का दंश सहते हुए किसी भी बेटी का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है? पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार के साथ उनकी सेवा के भार से वंचित होने का भाव ही बेटी के मनोबल को अत्यधिक कम कर देता है, तब उसका आत्मविश्वास कैसे बना रह सकता है? आखिर क्यों एक स्त्री माँ होकर भी बेटी के साथ न्याय नही कर पाती है? बेटा और बेटी जन्म के समय समान क्षमताओं से युक्त होते हैं। अपनी शैशवावस्था में आँगन में खेलते हुए दोनों ही समान रूप से परिवार को आनन्दित करते हैं। फिर क्यों एक माँ ही सर्वप्रथम नन्ही-सी बेटी को अबला बनाने के लिए विवश हो जाती है। क्यों नहीं एक माँ अपनी बेटी को सशक्त और दृढ़ स्त्री बनाने के लिए उसका मार्ग प्रशस्त करती है ? "हे ईश्वर ! मुझे इतनी शक्ति दे कि मैं अपनी बेटी के साथ न्याय कर सकूँ और उन्हें अबला स्त्री नहीं, बल्कि संपूर्ण संवेदनशील मनुष्य बनाकर प्राणी—मात्र के हितार्थ कर्मरत रहने की प्रेरणा दे सकूँ !” यह सोचती हुई महिमा सिर पकड़कर बैठ गयी।

अपने अन्तःकरण में उठने वाले अनेकानेक प्रश्नों का उत्तर भी महिमा अपने अन्तः में ही खोज रही थी। उसने अनुभव किया कि समाज के प्रत्येक बेटा-बेटी, स्त्री-पुरुष को अपने सामाजिक परिवेश से विरासतस्वरूप जो विचार-दृष्टि मिली है, वह तर्कशून्य है। पीढ़ी-दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती हुई एक विचार-दृष्टि,जो शायद कभी प्रासंगिक रही हो, आज पूर्णतया रूढ़ व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी है। यह रूढ़ सामाजिक व्यवस्था स्त्रियों को उत्तरोत्तर विवकेशून्य बनाते हुए उन्हें अशक्त बना रही है। स्त्रियों को सशक्त बनाने में आज एक माँ ही प्रबल भूमिका का निर्वाह कर सकती है, क्योंकि जाने-अनजाने उसको अशक्त करने का अपराध भी वही करती है, क्योंकि माँ ही संतान की सोच को दिशा देती है, जिसमें उसका व्यक्तित्व सृजित होता है। किसी भी बेटी की दयनीय-दुर्बल दशा के लिए उसकी माँ की भूमिका पर विचार करते-करते महिमा के हृदय में अब एक प्रकार की दृढ़ता आ गयी थी | उसने दृढ़तापूर्वक संकल्प किया कि वह अपनी बेटियों को अबला नहीं बनायेगी ; उनके कर्तव्यों और अधिकारों का निर्धारण किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना करेगी और सदैव उनके साथ खड़ी रहेगी |

संकल्प की कार्यरूप में परिणति हेतु सकारात्मक दिशा में यथावश्यक सक्रियता के अभाव से महिमा के दृढ़ निश्चय में शिथिलता आने लगी थी और हृदय के किसी कोने में रिक्तता का आभास होने लगा था | एक सप्तााह पश्चात महिमा को पुनः एक कार्ययक्रम मे मंच से नारी-सशक्तिकरण पर विचार प्रस्तुत करने का आमन्त्रण मिला | अपना चित्त स्थिर न होने के कारण पहले तो उसने आमन्त्रण अस्वीकार कर दिया था, किन्तु आयोजनकर्ताओं के बहुत अनुनय-विनय करने पर महिमा उनका आतिथ्य स्वीकार कर कार्यक्रम में चलने के लिए तैयार हो गयी |

जिस समय महिमा कार्यक्रम में पहुँची, तालियों की गूँज से उसका स्वागत हुआ | परन्तु, ज्यों-ज्यों वह मंच की ओर बढ़ रही थी, उसको अनुभव हो रहा था कि उसके पैर उसका साथ नहीं दे रहे हैं | अन्ततः वह मंच पर पहुँच गयी और हाथ में माइक लेकर भाषण आरम्भ कर दिया | उस क्षण उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी वीणी में न तो आज पूर्व की भाँति ओज है, न प्रभाव है ! उसकाउसके वक्तव्य में न उसकी आत्मा तथा न ही उसकी जिह्वा उसका साथ दे रही थी | आज उसके मनःमस्तिष्क में एक विचित्र-सा तूफान उठ रहा था, जिसका न तो उसको कारण ज्ञात था, न परिणाम | कुछ समय पश्चात अपनी असहज स्थिति का आभास करके भाषण पूरा किए बिना ही यह कहकर कि उसका स्वास्थ ठीक नहीं है, वह क्षमा माँगते हुए मंच से नीचे उतर आई और उसी समय अपने घर वापस लौट आयी |

कार्यक्रम से लौटने के पश्चात भी महिमा स्वस्थ-चित्त नहीं थी, अत्यन्त व्यग्र थी | अपनी इस अस्थिरता का कारण और निदान खोजने के लिए उसने पिछले एक सप्ताह के प्रत्येक क्षण का विश्लेषण करते हुए छोटी से छोटी घटना की एक-एक कड़ी से कड़ी जोड़ना आरंभ किया, तो उसकी आँखों में चमक आ गई | क्षण-भर में शिथिलता दूर होकर उसके तन-मन में ऊर्जा का संचार होने लगा और चित्त में दृढ़ता आ गई | उसी ऊर्जा-शक्ति और दृढ़ता के साथ महिमा ने पति से निवेदन किया -

"आपको अपनी सम्पूर्ण चल-अचल संपत्ति में तीनों बच्चों को समान उत्तराधिकार की पंजीकृत घोषणा कर लेनी चाहिए ! " महिमा का प्रस्ताव सुनकर उसके पति वैभव ने ऐसे घूरकर देखा, जैसेकि उसने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो |

"तीनों बच्चों को क्यों ? बेटियों को उनकी ससुराल में अधिकार मिलेगा ! "

"जहाँ एक पिता अपनी बेटी को उसके अधिकारों से वंचित कर देता है, वहाँ ससुराल वालों से क्या आशा-अपेक्षा की जा सकती है ?" महिमा ने आक्रोश की मुद्रा धारण करके कहा |

"तो क्या बेटियों का विवाह किसी सड़क-छाप युवकों के साथ करने का इरादा है, जहाँ न कोई सम्पत्ति होगी और न ही अधिकारों की लड़ाई ! हमारे यहाँ तो ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ कि बेटियों को जमीन-जायदाद में बराबर हिस्सा देने के लिए बाप को वसियत करनी पड़ी हो ! तुम्हारे परिवार में भी ऐसी परम्परा नहीं रही है | रही होती, तो हमें भी थोड़ा-बहुत लाभ अवश्य मिलता !" वैभव ने उपहासत्मक मुद्रा में ठहाका लगाया |

"जहाँ हमारी परम्पराएँ पर्याप्त सुविधा-सहायता नहीं देती हैं, वहाँ कानून अधिकार देता है और अधिकारों की लड़ाई पिता की सम्पत्ति से आरम्भ होती है !" महिमा ने गम्भीर शैली में कहा |

उत्तराधिकार की परम्परा और कानून को लेकर दम्पति में चर्चा छिड़ गयी और वाद-विवाद बढ़ने लगा | यद्यपि महिमा की बातों का उसके पति के रूढ़ दृष्टिकोण पर उस समय कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा, परन्तु उस प्रस्ताव को प्रस्तुत करके महिमा को मानसिक शांति की अनुभूति अवश्य हुई थी | बेटियों के अधिकारों के लिए जो करना था, वह अभी शेष था | अगले दो दिन में महिमा ने कठोर शब्दों में वैभव को यह बता दिया था कि अपने पिता की चल-अचल संपत्ति में उसकी दोनों बेटियाँ भी बेटे के समान अधिकारिणी है | उसने वैभव को समझाया था -

"आपकी संपत्ति में उत्तराधिकार पाकर बेटियों को केवल आर्थिक सुरक्षा भर नहीं मिलेगी, उनके मन का उत्साह भी बढ़ेगा कि वे किसी प्रकार से किसी से कम नहीं हैं | पैतृक संपत्ति में अपने अस्तित्व की स्वीकृति पाकर हमारी बेटियाँ अपने व्यक्तित्व को अपेक्षाकृत अधिक सबल बना पाएँगी |"

महिमा का कथन पितृसत्तात्मक मनोवृति के अनुरूप नहीं था, इसलिए उसके पति वैभव को उसका तर्क रास नहीं आया | "यही तो प्रॉब्लम है, लड़कियों को पिता की संपत्ति में अधिकार मिलेगा, तब वे घर-परिवार संभालने के बजाय स्वच्छन्द होकर उसको पैरों के नीचे रोंदने लगेंगी | सोचो, जब स्त्री पर किसी का नियंत्रण नहीं रहेगा, तब इस दुनिया का क्या हश्र होगा ! कुछ नहीं कहा जा सकता !"

"अवश्य कहा जा सकता है ! जब स्त्री समर्थ-स्वतन्त्र होगी, तब दुनिया में प्रेम होगा ; सहिष्णुता होगी, सद्भावना और समरसता होगी ! न दर्प होगा, न शोषण होगा !"

दोनों में वाद-प्रतिवाद होता रहा और धीरे-धीरे सामान्य-सा प्रतीत होने वाले वाद-विवाद ने संघर्ष का रुप धारण कर लिया | वैभव द्वारा महिमा पर आरोपों के व्यंग्य-बाणों की वर्षा होने लगी | बच्चे ढाल बनकर माँ की रक्षा करने लगे | लगभग एक वर्ष तक घर में शीत-युद्ध की स्थिति बनी रही | लगभग एक वर्ष उपरांत महिमा का प्रस्ताव स्वीकार करके जब वैभव ने कोर्ट में जाकर तीनों बच्चो को उत्तराधिकारी के रूप में पंजीकरण करा दिया, तब संघर्ष विराम के साथ महिमा का असमंजस दूर तथा चित्त स्थिर हो गया |

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