Moods of Lockdown - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 6

क्वारंटाइन...लॉक डाउन...कोविड 19... कोरोना के नाम रहेगी यह सदी। हम सब इस समय एक चक्र के भीतर हैं और बाहर है एक महामारी। अचानक आई इस विपदा ने हम सबको हतप्रभ कर दिया हैं | ऐसा समय इससे पहले हममें से किसी ने नहीं देखा है। मानसिक शारीरिक भावुक स्तर पर सब अपनी अपनी लडाई लड़ रहे हैं |

लॉकडाउन का यह वक्त अपने साथ कई संकटों के साथ-साथ कुछ मौके भी ले कर आया है। इनमें से एक मौका हमारे सामने आया: लॉकडाउन की कहानियां लिखने का।

नीलिमा शर्मा और जयंती रंगनाथन की आपसी बातचीत के दौरान इन कहानियों के धरातल ने जन्म लिया | राजधानी से सटे उत्तरप्रदेश के पॉश सबर्ब नोएडा सेक्टर 71 में एक पॉश बिल्डिंग ने, नाम रखा क्राउन पैलेस। इस बिल्डिंग में ग्यारह फ्लोर हैं। हर फ्लोर पर दो फ्लैट। एक फ्लैट बिल्डर का है, बंद है। बाकि इक्कीस फ्लैटों में रिहाइश है। लॉकडाउन के दौरान क्या चल रहा है हर फ्लैट के अंदर?

आइए, हर रोज एक नए लेखक के साथ लॉकडाउन

मूड के अलग अलग फ्लैटों के अंदर क्या चल रहा है, पढ़ते हैं | हो सकता है किसी फ्लैट की कहानी आपको अपनी सी लगने लगे...हमको बताइयेगा जरुर...

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 6

फंदे

प्रतिमा पाण्डेय

वो अपनी दीदी को ध्यान से देख रही थी। बालकनी में बैठी उसकी दीदी अपने पैरों में सुर्ख नेलपॉलिश लगा रही थीं। बड़ी देर तक उनकी नेलपॉलिश को बेख्याली में ही निहारते रहने के बाद उसने ना जाने क्यों अपने पैरों की ओर चोर निगाहों से देखा।
क्या देख रही है संगीता।-दीदी ने पूछ ही लिया।
उफ..इसका मतलब इन्होंने देख लिया।-मन ही मन संगीता ने सोचा। उसे जवाब तो देना ही था, दीदी ने जो पूछा है, तो बस होठों को थोड़ा बाएं और दाएं फैला दिया। आंखें सिकोड़कर उन्हें हंसी के अंदाज में लाने की कोशिश की और बात खत्म करने की भी।
देख, मैंने कई बार कहा है कि जब मैं अपना काम करती हूं ना तो तू मुझे यूं घूरा ना कर।-दीदी ने चिढ़कर कहा।
संगीता उठकर अपने धाम चल दी। धाम क्या..रसोई। वहीं के लिए तो उसे रखा था दीदी ने। घर की साफ-सफाई और खाना-पीना। सब निपटाकर वह शाम को अपने घर पहुंच जाती। पर कुछ दिनों से उसकी दुनिया उसी दीदी के घर में सिमटकर रह गई है। संगीता, दरअसल लॉकडाउन के बाद यहीं की होकर रह गई मानो। लंबी और भारी कदकाठ की संगीता की उम्र यही कोई 26-27 साल होगी। झक्क गोरा रंग, फूले गाल, गदबदा सा शरीर। अलीगढ़ के गांव का मायका। वहीं से कुछ सालों पहले उसका परिवार काम की तलाश में नोएडा आया था। तब की ढाई फुट की संगीता को यहां के फ्लैट वाली बिल्डिंगे चांद छूती लगतीं। फिर चार-पांच साल में ही जब संगीता का कद और हसरतें परवान चढ़ीं, तो इमारतों के कद छोटे हो गए। जितना ज्यादा शहर पर रंग चढ़ा, उतना ही संगीता के रूप पर। नोएडा जैसी जगह में पलने के कारण पहनने ओढ़ने का सलीका भी गजब का था। इस रूप के गुमान में उसने बहुत जल्दी शादी कर ली। पढ़ाई बस आठवीं तक की। रूप का गुमान अभी भी नहीं गया। गुमान तो ऐसा कि दीदी से ही एक दिन कह बैठी, ‘दीदी, आज मुझसे गेट वाला गार्ड कह रहा था हाय संगीता तू तो एकदम फ्लैटवाली लगती है।’ कहते ही उसने अपने होंठ काट लिए थे। हालांकि दीदी ने उसे बस हंसते हुए देखा था और ज्यादा कुछ जाहिर नहीं किया। काम पे लगे हुए भी तब ज्यादा दिन नहीं हुए थे दीदी के यहां। अब तो सात-आठ साल से उनका साथ है।
शुरुआत में जब इस सोसाइटी में दीदी ने उससे काम की बात की, तो उसे दीदी बहुत ही आसान आइटम लगी थीं।
‘तू देखती जाना, मैं उस मुटकी को कैसे सेट कर लूंगी।’ उसने कमर से लेकर सिर तक शरीर को लहराते हुए बाकी कामवालियों से कहा था। ना तो पैसे को लेकर उसे ज्यादा तोल-मोल झेलना पड़ा, ना ही दीदी ऐसी तेज-तर्रार दिखती थीं कि उनसे डर लगे।
‘चलो, मुझे तो आराम का घर मिल गया।’ उस दिन संगीता ने जाकर अपने पति से कहा था।
इसी आराम का खयाल आ गया था, उसे जब लॉकडाउन से कुछ दिन पहले उससे दीदी ने कहा था- ‘जब तक ये कोरोना की परेशानी चल रही है, तू यहीं रुक जा संगीता। बीच-बीच में संडे-सैडरडे (संगीता सैटरडे को सैडरडे ही कहती है) अपने घर चली जाया करना। मुझे तो घर से काम का तय हो गया है। दिन भर तो ऑफिस का काम ही चल जाता है, घर का काम तू देख लेना।’
7 महीने की प्रेग्नेंट संगीता के मन में जैसे कई एक सोच उबाल खा गईं। ‘रामपाल भी कई दिन से काम पर नहीं गया है। घर में बराबर आटा भी नहीं हो रहा है। ऊपर से ये पेट में तीसरा भी आने को है। अगर घर में बैठ गई तो आधे महीने के पैसे ही मिलेंगे।’ उसने मन ही मन सोचा। ‘नहीं..नहीं...मैं अपनी बच्चियों से मिले बिना कैसे रह पाऊंगी। रोज तो वो आ ना सकेंगी। उनका बाप ही ना लावेगा। 5 किलोमीटर वो रोज अपना पेट्रोल तो फूंकने से रहा।’ दीदी का संगीता को घर रोकना मानो उसे एक फंदा लगने लगा। उसे लगा, जैसे दीदी कोई षडयंत्र करके रोक ना लें। वो ना कहने ही वाली थी कि दीदी ने उसके चेहरे पर बेचैन चुप्पी को समझ कर अपना फंदा फेंका, ‘सुन तू पैसे की चिंता मत कर। मैं बढ़ा के ही दूंगी। आखिर चौबीस घंटे घर पर रहकर काम करने में अंतर तो है ही ना।’
‘हां..हैं तो वो अच्छी। पर पता नहीं, पैसे कितने देवेंगी। अब कोई सौ-पचास के लिए अपना प्यार थोड़े ही बेख (बेच को वो बेख कहती है) खाएगा।’ उसके मन की सुरक्षात्मक पर्त से अगली आवाज आई।
दीदी थीं कि उसे रोक कर ही मानेंगी, सो कह ही दिया था, ‘अरे तुझे मुझ पर विश्वास नहीं है। संगीता। इतने साल से तू देख रही है। मैंने कभी पैसे को लेकर तोल-मोल किया है? वैसे भी देख। तुझे अच्छा खाना और आराम चाहिए। इस हालत में तेरा रोज का आना-जाना ठीक नहीं है। इसी बहाने तेरे पैसे भी बन जाएंगे और आराम भी रहेगा। वरना तू तो खुद ही कहती है कि घर जाकर पहले घर साफ करती है, बच्चों को नहलाती है, फिर ही खुद साफ-सुथरी होकर खाना नसीब होता है तुझे। यहीं रह जा। तेरी सास हैं ना। कुछ दिन बच्चों को वो संभाल लेंगी। तेरा हसबैंड भी तो अब घर ही पे है। क्या वो बच्चियों को नहीं देख पाएगा। इसी बहाने चार पैसे ज्यादा कमा लेगी। आगे तेरे काम ही आएंगे। अब प्रेंग्नेंसी के बाद तुरंत तो काम पे आ ना जाएगी। तो सोच, बैठ कर सही से खाने को मिल जाएगा तुझे? और दवाई वगैरह पर भी तो खर्चा होगा।’
दीदी उसकी जरूरतों की कीलें एक-एक करके उसके पावों में ठोकती जा रही थीं और उसके पांव वहीं के वहीं जमते जा रहे थे। और फैसला हो गया। ‘कुछ दिन ही तो नहीं मिलना है अपने परिवार से। फिर संडे अगर रामपाल मिलने नहीं आया, तो मैं ही चली जाया करूंगी। सही तो कह रही हैं, दीदी। अब थोड़ा सबर कर लूंगी, तो बच्चों के लिए ही अच्छा रहेगा।’ उसने सोचा था।

रसोई में संगीता उस लाल नेलपॉलिश के बारे में सोचती खड़ी थी। लाल नेलपॉलिश उसे भी खूब पसंद आती है। उसने अपने गोरे-गोरे पंजों को देखा। जिनमें हमेशा नेलपॉलिश वो लगा कर रखती है। पर आज वो चितकबरे से होकर रह गए हैं। वैसे भी गांव में सब चीजें महंगी बिखने लगी थीं। उसे याद आया। जो मेकअप का सामान बीस रुपये में मिलता था, वो 60 में बेच रहा था। इसीलिए तो यहां आते बखत वो ला ही नहीं पायी ये सब अपने साथ। उस दिन अगले सोमवार से वो तो आ गई थी यहीं। सोचा था कुछ दिन की बात है, पांच-छह दिन कमाकर वापस अपने घर पहुंच जाएगी। इसीलिए कपड़े भी ज्यादा नहीं रखे। पर टीवी पर प्रधानमंत्री जी का भाषण चला कि अब बाहर निकलना एकदम बंद। उसे सुनते ही उसे लगा मानो भूकंप आ रहा हो। उसे कुछ देर कुछ समझ ना आया। वैसे तो यहां कोई समस्या नहीं थी। वो आस लगाए बैठी थी कि एक हफ्ते में हाथ में 2000-3000 लेकर वो वापस अपने घर पहुंच जाएगी। अपने बच्चों के बीच। जाते समय अपनी दोनों बेटियों के लिए कुछ लेकर जाएगी। उन्हें चाउमिन बहुत पसंद हैं। वही ले जाएगी। और फिर मिले रुपयों का आधा रख देगी छिपाकर। बाकी बचे पैसों में महीना आराम से कट जाएगा। पहले उसे इस बात का लालच भी था कि इसी बहाने पूरा दिन गुदगुदे सोफे, चमकदार टाइल्स के घर में आलीशान टीवी के सामने उसका दिन गुजरेगा। खाने-पीने की कमी ना होगी। कुछ-कुछ पिकनिक जैसा। पर दिन बीतने के साथ-साथ उसका लालच भी कम होता जा रहा था। अब उसे वही गांव से आया गुड़ और रोटी कभी-कभी याद आ जाती। गुड़ तो दीदी के यहां भी था, पर वो कहे कैसे? फिर वो बात तो आएगी नहीं ना! उस दिन सोच ही रही थी कि अब वापस जाने की बात दीदी से करती हूं कि उस भाषण ने मानो उसके पैरों के नीचे से जमीन खींच ली थी। उसका मन जोर-जोर से रोने को करने लगा। रात गहरा आई थी। वैसे ही लोगों के आने-जाने को लेकर परेशानी हो रही थी। अब अगर वो घर भागे भी तो कैसे? वो भी इस हालत में। क्या करे?
अभी भी वक्त है। मैं तो कई बार रात साढ़े दस तक घर गई हूं।...फिर मन से आवाज आई। रामपाल को बोलती हूं कि मुझे ले जाए। उसने झटपट अपने पति को फोन लगाया था। लेकिन रामपाल का फोन बिजी जा रहा था। ये रामपाल भी साला..वो खीज गई। शायद मुझे ही फोन लगा रहा होगा। ठीक है, थोड़ा रुक कर फोन करती हूं। उसने फिर मन में सोचा और रुक गई। 10 मिनट बीत गए थे, पर रामपाल का फोन ना आया। उसने फिर फोन लगाया था। फोन बिजी जा रहा था।
‘ये साला किससे बात कर रहा है, इस बखत।’ उसने फोन काट कर सोचा ही था कि रामपाल का फोन आया। फोन आते ही उसने बेचैनी से कहा था, ‘सुन मुझे ले जा आकर। अभी रात तक तो आने दे रहे हैं ना? नहीं तो मैं यहीं फंसी रह जाऊंगी।’
रामपाल के तेज हंसने की आवाज आई थी। वो बड़ी बेफिक्री से बोला था, ‘क्या करेगी आकर। मेरी मान वहीं रह जा। तुझे खाने पीने की परेसानी तो ना है ना? यहां आवेगी, तो वही चूल्हे की बनी रोटिन संग आलू की सब्जी रोज खाइयो। वहां के परांठे पच ना रए तुझे के?’ रामपाल ने उसे चुनौती का फंदा फेंका था।
वो लड़कर जो आई थी उससे। उसे ताना मारकर आई थी, ‘यहां मुझे इस हालत में भी रोज आलू के मूत जैसी सब्जी खिलाता है तू। मेरे साथ घरन का ही काम करवा लेता, तो भी आज ये नौबत ना आती। पर तुझे तो संगीता बैठा के खिला रही है और खिलाएगी। इसीलिए जा रही हूं मैं।’ एकता कपूर की सीरियल की जैसी सक्षम, सबल और अपने पति का सिर ना झुकने देने वाली पत्नी का फंदा खुद उसने अपने लिए तैयार किया था। लेकिन आज उसे सब भूल गया था। उसे बस अपने अधपके घर की चारदीवारी चाहिए थी। रुपये पैसे से दमखम वाली और बहुत सा काम कराने वाली जेठानी चाहिए थी, वो सास जो भैंस का दूध सारा का सारा बेच देती है और जो उसे देती है, वो भी पैसे पे, उसे वो भी चाहिए। उसे अपनी दो बेटियां देखनी थीं। उसे रामपाल की वो स्कूटी वाली का भी पता करना था। कहीं हर चीज की डोर जो अभी हाथ में है, निकल ना जाए। संगीता पर स्कूटी वाली का एक डर और छा गया था।
‘नहीं तू आ जा, मुझे ले जा। अब मेरा मन ना लग रहा यहां। मुझे बच्चन की याद आवे है रामपाल। बस तू ज्यादा ना पूछ तू आ जा।’ उसने कैसे रिरिया के कहा था। फिर आवाज में तेहा लाकर बोली थी, ‘तू नहीं आया तो देख लियो फिर। संगीता से बुरा ना मिलेगा कोई।’
रामपाल बार-बार उसे समझा रहा था कि ये ज्यादा दिन का ना है। बस कुछ दिन रुककर महीना पूरा कर ले। तो तनखाह को लेकर कोई ना-नुकुर नहीं कर पाएंगी उसकी दीदी। फिर उसने उसे पेट में बच्चे का वास्ता भी डाल दिया। यही कि अगर गांव में तबीयत खराब होगी, तो डॉक्टर तक जाने की ही परेशानी होगी। लेकिन दीदी के पास रहेगी, तो उनकी जिम्मेदारी होगी।
संगीता ने गुस्से में फोन बंद कर दिया और दीदी के सामने जा खड़ी हुई। तड़पती सी आवाज में बोली, ‘दीदी मुझे घर छोड़ आओ। वरना मैं तो फंस जाऊंगी यहां।’ उसके मुंह से निकल गया।
‘क्यों, यहां क्या तकलीफ है तुझे।’ दीदी ने पलट कर पूछा था। शायद उन्हें बुरा लगा था। बात भी सही है। वो किसी चीज की कमी नहीं होने देतीं। खयाल भी रखती हैं। पर उनसे कैसे कहे कि उसे नहीं रहना यहां, तो नहीं रहना। बस।
‘दीदी..तुम नहीं जानती। वो साला अपनी स्कूटी वालिन के पीछे मुझे ना ले जा रहा यहां से। एक बार यहां से जाऊं तो फिर मैं देख लूंगी उस कमीनी को।’ आखिर में संगीता की चिंता का एक और फंदा सामने आ ही गया।
‘ये वही स्कूटी वाली है, ना जिससे चक्कर चल रहा था तेरे हसबैंड का?’ दीदी ने पूछा था।
‘हां वही तो। दीदी घर के बगल में ही आकर रहने लगी है साली। उसका मियां तो नसा करे है। मेरे वाले के पीछे पड़ी है।’ पहले से गुस्से में सनी संगीता की बोली एकदम गांव वाली हो गई। दीदी का लिहाज खत्म हो गया था इस वक्त। रामपाल की ये स्कूटी वाली का डर ही तो संगीता को और खाए जा रहा है। इसीलिए उसने तीसरे बच्चे की ठानी थी। सास ने समझा दिया था कि -कोख से बेटी ही निकलीं, तो बेटे की आस में वो दूसरी के पास तो जावेगा ही। तू जन छोरा। फिर देखियो।- और संगीता पहुंच गई थी सीधी अपने गांव के भगत की शरण में। तभी पेट में बच्चा भी आया। अब जो लच्छन दिक्खे हैं, वो भी बेटियों के होने पे ना दिक्खे थे। पक्का है छोरा ही है।’ वो मन ही मन सोच रही थी। इसके चक्कर में लाचार हो गई थी। तीसरी बार बच्चा खराब ना हो, यही चिंता रहती। ‘पर रामपाल साला हरामी अभी भी स्कूटी वाली की जींस पैंट पे ही मरा जा रहा है। जेठानी बता रही थी कि साली मेरी बेटियों को रोज खाना खिलावे है घर आकर। बेटियों ने खूब लाड़-लड़ावे है। देखो, एक बार भी मुझसे बात ना की मेरी बेटियन ने इन दिनों में। हरामी इसी लिए ना लेकर गया मुझे। अब जब वापस जाऊंगी, तो आराम से बैठकर खावेगा मेरी कमाई।’ उसने कई एक और गालियां रामपाल के लिए जोर-जोर से निकालीं। कुछ ऐसी कि उसकी दीदी ने उसे अजीब अचरज और गुस्से भरी निगाहों से देखा था, फिर शायद शांत करने के लिहाज से बोली थीं, ‘मैं अकेली हूं संगीता। तू तो जानती ही है। तू रह जाएगी यहां तो मुझे बहुत सहारा होगा...। अच्छा सुन अभी तो नहीं जा सकती, सुबह कोशिश करूंगी कि तुझे तेरे घर छोड़ आऊं। आगे भगवान पे छोड़ दे संगीता। रात भर सोच ले एक बार फिर। तुझे ज्यादा काम तो नहीं पड़ रहा ना यहां। थक जाती है, तो बता दिया कर। बाकी घर के बाहर तो निकलना तुझे वहां भी नहीं मिलेगा। वहां तो ज्यादा सख्ती होगी। यहां मन ना लगेगा तो नीचे कंपाउंड में टहल आना। पैसे की चिंता मत करना। अच्छा देख एक मन की बात और तुझे बता ही देती हूं। मैंने सोचा है कि अगर इस बार तेरी लड़की होगी तो...’
‘लड़की नहीं दीदी देख लेना लड़का ही होगा।’ संगीता थोड़ा नर्म पड़ रही थी। पर उसे अपनी उम्मीद पर दीदी का ये यथार्थवाद अच्छा नहीं लगा, सो फटाफट टोक ही दिया।
‘अरे यार..मैं कोई इच्छा थोड़े ही ना कर रही हूं। पर मैं कह रही हूं कि अगर लड़की हुई, तो मैंने सोचा था कि उसकी पढ़ाई का जिम्मा मैं उठाऊंगी। पर अब सोच रही हूं कि लड़का-लड़की का क्या फर्क। दरअसल तो जो भी हो, उसे तेरे लिए तैयार करना है, तो अच्छी पढ़ाई तो करानी ही होगी। सच कहूं, तेरा बच्चा मेरे बुढ़ापे में भी काम आएगा। क्यों मेरे बूढ़े होने तक तू मेरे यहां आती रहेगी ना? मैं तो कहीं जाने वाली नहीं अब यहां से।’
बेचैन सी संगीता दीदी से बात करके अपने कमरे में चली गई। रामपाल को फोन लगाके गालियां सुनाने का मन था, पर वो ना किया उसने। उसने स्कूटी वाली को फोन लगाया। बेटियों से दूर रहने की हिदायत दे डाली। उसे बाजारू भी बता डाला। तब वो जींस पैंट वाली फुंकारी थी। और जो बोली, उससे संगीता की नींद उड़ गई। स्कूटी वाली ने फोन पे चिल्लाकर उससे कहा था, ‘तेरा रामपाल किसी का नहीं है। आ जइयो और पूछियो कि जेठानी के कमरे में क्या करता रहता है घंटों। मेरा अहसान मान कि तेरी बेटियां ने खिला देती हूं। वरना उन्हें तो पता भी ना होवे है कि मेरा बाप कौन से कमरे में पड़ा है।’

संगीता सो तो नहीं पायी थी उस दिन। उसे समझ नहीं आ रहा था कि जेठानी की माने या स्कूटी वाली की। या जो दिल कह रहा है कि उसे दिल कड़ा करके मान ही ले कि रामपाल ऐसा ही है। उसे लड़कियों की चिंता हो आई। चिंता और गुस्से ने उसके मिजाज नर्म कर दिए थे। वो सोचने लगी दीदी की बातों को।
घर की कमाऊ बेटी हैं दीदी, इसीलिए इस शहर में अकेली पड़ी रहती हैं। ज्यादा शौक भी नहीं हैं घूमने-फिरने के। शादी भी नहीं की। बेचारी की जिंदगी में कुछ है तो नहीं। फिर भी दिल की अच्छी हैं। जो दिल में होता है, वहीं जुबां पर। उनसे धोखे का डर नहीं लगता। कम से कम 8-9 साल में ऐसा अब तक तो महसूस नहीं हुआ। विश्वास के इस सुकून ने जैसे ही विचारों के बीच जगह बनाई संगीता को नींद आ गई।
अगली सुबह वो घर नहीं गई थी। खुद उसने ही कह दिया था कि वो रुक जाएगी। कहते हुए उसका गला भर आया था, तो दीदी ने मन की बात पढ़ ली। उन्होंने समझाया था -स्कूटी वाली अभी तो मदद की साबित होगी। दोस्ती कर ले उससे। बेटियों से जब मन चाहेगा, बात करा सकेगी तेरी।
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बेटियों से भी बात हो ही जाती है हर दिन। कोई खास शिकवा तो नहीं है, लेकिन अपने मन से जी नहीं पा रही है वो शायद। उसने मन ही मन सोचा, ‘ना जाने कब खत्म होगी ये कैद। अब तो कई दिन गुजर गए हैं लागडोन को लगे।...’ यही सोच रही थी वो रसोई में खड़ी-खड़ी। दम घुट सा रहा था। उसके गले में वो लाल नेलपॉलिश अटकी थी, जो दीदी लगा रही थीं। अपने घर पे होती तो फटाफट खरीद लाती वो। पर ये वाली दीदी की है, महंगी वाली। काश...।
‘संगीता ये रिमूवर और ये ले नेलपॉलिश। लगा ले। तुझे अच्छी लगती है ना लाल नेलपॉलिश।’ दीदी एक हाथ में लैपटॉप पकड़े और एक हाथ में रूई, रिमूवर और नेलपॉलिश पकडे़ उसके सामने खड़ी थीं।
उसने ललक से हाथ बढ़ा दिया। बाहर जाकर वो चाव से नेलपॉलिश लगाने बैठ गई। दीदी ने उसे एक नजर देखा और फिर बड़ी शंका से पूछा, ‘अभी कुछ दिन और तुझे रहना पड़ेगा। मई तक। निकलने की तारीख आगे बढ़ा दी गई है।’ ‘अच्छा सुन चाय बना देना मेरे लिए। मैं काम करने जा रही हूं।’ उन्होंने स्टडी की ओर जाते हुए कहा था।
संगीता रसोई में चाय बनाने लगी। नेलपॉलिश वाला सारा सामान ड्राइंग रूम में सेंटर टेबल पर रख दिया था। बस चाय बन जाए, तो नेलपॉलिश लगाएगी। आज पता नहीं क्यों उसे यहां रुकने में वो बेचैनी नहीं हो रही थी।

लेखिका परिचय :- प्रतिमा पांडेय, 19 साल से मीडिया में । अमर उजाला से होते हुए अब हिंदुस्तान के लिए बतौर डेप्युटी फ़ीचर एडिटर कार्यरत। हिंदुस्तान के डिजिटल माध्यम के लिए इस समय podcaster के तौर पर भी सक्रिय। वर्ष 2018 में आयी ‘30 शेड्ज़ ऑफ बेला -30 दिन 30 लेखक ‘ में से एक कहानी की लेखक भी

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