Moods of Lockdown - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 5

क्वारंटाइन...लॉक डाउन...कोविड 19... कोरोना के नाम रहेगी यह सदी। हम सब इस समय एक चक्र के भीतर हैं और बाहर है एक महामारी। अचानक आई इस विपदा ने हम सबको हतप्रभ कर दिया हैं | ऐसा समय इससे पहले हममें से किसी ने नहीं देखा है। मानसिक शारीरिक भावुक स्तर पर सब अपनी अपनी लडाई लड़ रहे हैं |

लॉकडाउन का यह वक्त अपने साथ कई संकटों के साथ-साथ कुछ मौके भी ले कर आया है। इनमें से एक मौका हमारे सामने आया: लॉकडाउन की कहानियां लिखने का।

नीलिमा शर्मा और जयंती रंगनाथन की आपसी बातचीत के दौरान इन कहानियों के धरातल ने जन्म लिया | राजधानी से सटे उत्तरप्रदेश के पॉश सबर्ब नोएडा सेक्टर 71 में एक पॉश बिल्डिंग ने, नाम रखा क्राउन पैलेस। इस बिल्डिंग में ग्यारह फ्लोर हैं। हर फ्लोर पर दो फ्लैट। एक फ्लैट बिल्डर का है, बंद है। बाकि इक्कीस फ्लैटों में रिहाइश है। लॉकडाउन के दौरान क्या चल रहा है हर फ्लैट के अंदर?

आइए, हर रोज एक नए लेखक के साथ लॉकडाउन

मूड के अलग अलग फ्लैटों के अंदर क्या चल रहा है, पढ़ते हैं | हो सकता है किसी फ्लैट की कहानी आपको अपनी सी लगने लगे...हमको बताइयेगा जरुर...

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 5

लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ

मॉर्निंग – ग्लोरी

मैं हमेशा इश्क़ में नाकामयाब रहा हूँ। इस शहर की फितरत ही ऐसी है, यह परमानेंट रिलेशनशिप का वादा नहीं करता। आप अकसर ऐसे जोड़ों से मिलेंगे, जो महीना भर पहले किसी और के साथ मुब्तिला रहे होंगे और उनके साथ भी, पब या रेस्तरां में सर जोड़े, फुटपाथों-बाज़ारों में हाथ में हाथ डाले चलते हुए एक – दूसरे को सोलमेट कहते नज़र आए होंगे। ख़ैर दूसरों की क्या कहूँ?

बस सात महीने पहले ही तो मैं भी इस फ्लैट में ‘निहार जोशी’ के साथ ‘लिव-इन’ था। मैं अभी भी भावुक हूँ, क्योंकि मुझे इस महानगर आए हुए तीन ही साल हुए हैं। यह शहर एकदम आपको नहीं बदलता, धीरे-धीरे जिबह करता है और या तो आप ‘ब्लीड’ करना बंद कर देते हो या दर्द से स्थायी तौर पर सुन्न हो जाते हो।

मुझे इस शहर के दोस्तों ने न जाने कितनी बार कह कर, मेरे साथ करके मुझे सिखाया है कि – “साले, किसी रिश्ते में बहुत भीतर उतरने की ज़रूरत नहीं। भीतर से मर्डर कर देने की हद तक नफ़रत हो तब भी, हाय ब्रो, हाय बेस्टी, हाय माय सोलमेट कहते रहो, जब तक तुम्हारा काम न निकल जाए।“

मैं पूछता था – “फिर?”

वो कहते – “च्युइंगम की तरह किसी दीवार पर चिपका दो!”

मैं सतहों पर नहीं तैर सका, भीतर उतरा तो बार - बार डुबोया गया, गनीमत थी कि मैं एक बेहतरीन तैराक था। निहार ने भी कम से कम मुझे च्युइंगम नहीं समझा था। हाँ, लेकिन मैं उसका स्थायी विकल्प नहीं हूँ, यह उसने ब्रेकअप से ज़रा पहले बताया था। जबकि एक अच्छा हमसफर बनने की कोशिश में इस फ्लैट का किराया पूरा मैं ही देता था। मैं नौकरी करता हूं और वह पढ़ रही थी तो मेरी कस्बाई समझ से यह मेरी ज़िम्मेदारी थी। मुझे उम्मीद थी कि वह अपनी पीएच.डी. पूरी करके मुझसे शादी कर लेगी। हम बहुत कुछ एक जैसे थे, ट्विन सोल! यही कहती थी वह, कि हम एक ही समय पर एक-सा जो सोचते हैं। हम दोनों मिडल-क्लास परिवारों के थे। हम दोनों ने ही अपनी वर्जिनिटी एक-दूसरे को सौंपी थी,साप्ताहिक मेन्यू से लेकर बजट और हम कॉन्ट्रासेप्टिव ऑप्शन क्या लें यह भी बात टेबल पर बैठ कर तय करते थे। हममें कभी बहस भी नहीं हुई थी, वह अपनी पढ़ाई के साथ भी ब्रेकफास्ट और डिनर बनाने में आलस नहीं करती थी। लंच हम दोनों बाहर करते थे।

लेकिन एक दिन अचानक ही मुझे पता चला वह अमेरिका जा रही है, मुझे बिना बताये वीज़ा के लिए एप्लाय कर चुकी है, बस टिकट्स के लिए उसे वो पैसे वापस चाहिए जो इस फ्लैट को किराए पर लेने के लिए हम दोनों ने मिलाकर एडवांस दिये थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें तब भी उस सरल मासूमियत से भरी था, जिस मासूमियत से वह सुबह की चाय थामते हुए कहा करती थी।

“मयंक, तुम्हारा चेहरा ना देखूं तो मेरी सुबह ही न हो।“

मैं उसे नहीं कह सका कि तीन सालों के उस किराए का हिस्सा कौन देगा? मैं जाते हुए लोगों को रोकने के मामले में एकदम बर्फ़ हूं, वहीं खड़े-खड़े पिघल सकता हूँ मगर हाथ बढ़ा रोक नहीं सकता।

“आय विल मिस यू मयंक! बी इन टच!”

उसकी कैब गली के मोड़ से मुड़ी होगी और मैंने उसने मेरा फोन नंबर ब्लॉक कर दिया था। मैं ‘ऑल द बेस्ट’ कहने की जगह उसके फोन की टूं.... टूं सुन रहा था। अब मैं हूं, भीतर कही भरता हुआ ज़ख़्म है और………मैं और मेरी तन्हाई से भरा यह लॉकडाउन है। मैं क्योंकि सॉफ़्टवेयर डिज़ायनर हूँ तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ नयी बात नहीं मेरे लिये।

मैं टीवी पर अमरीका में रोज़ हज़ारों लोगों के मरने की ख़बर उदासीनता से देखता हूँ, निहार का ख्याल उस तरह नहीं आता मुझको। लेकिन भारत में कोरोना से हर मरने वाले के लिए मेरा मन उदास होता है। मुझे आँकड़े बढ़ते देख चिंता होती है। प्रवासी मजदूरों की सहायता के लिए मैंने अपनी एक वीक की सैलेरी दी है। वह दान नहीं है, वह क़र्ज़ है उनका मुझ पर। हम सब पर। मैं रोज सुबह नासिक अपने मम्मी - पापा को फोन कर लेता हूँ। लॉकडाउन हुए तीसरा सप्ताह बीतने को है रोज़ रोज़ कुकिंग अब मेरे लिए अज़ाब बन गयी है। लिविंग रूम से बेडरूम, बेडरूम से बाथरूम, या किचन तक की सैर अब घुटन देने लगी है। ऐसे में बॉलकनी राहत है। शाम के ढलने का समय मैं दीवारों में नहीं बिता सकता। दस मिनट भी ढलती शाम, पेड़ों की हिलती पत्तियां, लौटते पंछी और लाल से सलेटी होता आसमान देख लूं मुझे सुकून मिल जाता है।

आमने-सामने ब्लॉक्स की बॉलकनी में कुछ चेहरे दिख जाते हैं तो लगता है, इस धरती पर अपने फ्लैट में बंद छूटा हुआ मैं अकेला आदमी नहीं हूं। लेकिन लोगों के चेहरों की उदासी अब गहराने लगी है, उनकी आँखों के डर ज़ाहिर होने लगे हैं। खिड़कियों के पीछे से झांकते बच्चों को देखता हूं तो घबरा जाता हूं। कोरोना क्या पहला और आखिरी वायरस होगा क्या? जिसने पूरी दुनिया के कारोबार को शटडाऊन कर दिया है। मैं जुमले सुनता था कि तीसरा विश्वयुद्ध ज़हरीली गैसों से लड़ा जाएगा, या जैविक हथियारों से। मास्क में बंद चेहरे देख लगता है, यह किसी भविष्यवाणी का सच है क्या? या धरती का प्रतिशोध? एक आँख से न देखे जाने वाले माइक्रोस्कॉपिक वायरस ने 166 सालों में पहली बार भारतीय रेल को बंद करवा दिया। संसार के आसमानों को चीरते हवाईजहाज़ चुप खड़े हैं। पॉवरफुल देशों की दहाड़ मिमियाहट में बदल गयी है?

मैं इस तरह की बहुत-सी बातें बॉलकनी में सिगरेट पीते हुए सोचता हूं। आज भी मेरे सामने ब्लैक कॉफी रखी है और सिगरेट उंगलियों में फंसा है। मैं अपनी निंदासी रग़ों को कैफीन और निकोटीन से जगा रहा हूं। मैं नासिक होता तो वहां उफ़क पर शाम ढलती हुई देखता। यहां तो आकाश के सीने को उंगलियों सी कौंचती ये लंबी बिल्डिंगें हैं। जिनके पीछे सूरज डूबता तो क्या होगा आत्महत्या कर लेता होगा! निश्चय ही असफल रहता होगा, तभी तो फिर सुबह सलेटी धुएँ से थके-हारे मजदूर सा उगता है। लेकिन आजकल आकाश रंग बदल रहा है, आजकल इसका नीलापन अच्छा लगता है। सामने ‘इंडिया-बुल्स’ की बिल्डिंग साफ़ दिखने लगी है। मन में भीतर कहीं दो पल को धरती और उसके पर्यावरण के लिए राहत भरी उम्मीद खिलती है। लेकिन तीसरे ही पल छटपटाहट होती है, कहीं ऐसा न हो लंबा लॉकडाउन चले तो और कंपनीज़ की तरह मेरी कंपनी भी एक महीने की सैलेरी के साथ मुझे घर न बिठा दे! मैं कोरोना के बीत जाने के बाद की दुनिया कल्पना नहीं करना चाहता।

मैं फिर भी यह तो सोचता ही हूँ कि या तो सबक ले लेंगे सब और चैन सुकून और भाईचारे से रहेंगे। कम में संतुष्ट और बेवजह सड़कों पर घूमते हुए नहीं। या फिर मार-काट, महँगाई, बेरोज़गारी और लालच के मकड़जालों से निकली दुनिया उन्हीं में धंस जाएगी अगली आपदा आने तक।

सूरज सामने वाली बिल्डिंग पर ठिठका है। जिस खिड़की को अपनी रोशनी से नहला रहा है उस पर अचानक मेरी नज़र जाती है। अरे! यह क्या? वहाँ बड़ी-सी खिड़की के भीतर एक लड़की नाच रही है पूरे जोश से। अपनी कमर हिलाते हुए वह एक चक्कर लेती है फिर हाथ ऊपर उठा कर एक पैर से आगे -पीछे मूव करती है। जैज़ म्यूज़िक ही चला रखा होगा उसके बॉडी के मूवीज़ बता रहे हैं। मैं शकीरा को याद करता हूं – Hips don’t lie.

मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है और निगाह खिड़की पर टिक जाती है। मैं केवल डांस और उस डांस करने वाली के उल्लास से सम्मोहित हूं, मुझे पता नहीं चलता उसने क्या पहना है। मगर लड़कियाँ, भगवान ने इन्हें तीसरी ही नहीं इंट्यूशन की चौथी-पांचवी आँख दी है, इतनी दूर से उसे मेरी निगाह महसूस हो जाती है।

वह रुक जाती है। उसे याद आ जाता है कि नाचते-नाचते अपनी सफेद शर्ट उतार कर फेंकी थी और वह आईने के आगे स्पोर्ट्स ब्रा और स्कर्ट में नाच रही थी। लड़की रुक भले जाती है मगर झिझकती नहीं है, न गुस्सा होती है। बस शर्ट पहन कर, झेंप हुई हंसी के साथ हाथ हिलाती है और पर्दा डाल देती है। शायद उसकी भीतरी कोई आँख जानती है, मैं चीपस्टर नहीं हूँ।

मेरे चेहरे पर देर तक मुस्कान बनी रहती है। मैं अपने छोटे से ‘सैलर’ में से बहुत दिनों से यूं ही रखी ‘टकीला’ खोलता हूं। दो शॉट कटे हुए नीबू के साथ लगाता हूं, उस खिड़की ने मेरे मन में एक छोटी खिड़की खोल दी है। मुझे नहीं पता मैं क्यों उत्सुक हूं यह जानने के लिए कि कौन है यह लड़की? पहले तो कभी नहीं देखा इसे! बिंदास है। मैं फिर से बैडरूम से झांकता हूँ खिड़की बंद है, परदा डला हुआ है। इस अपार्टमेंट, सामने वाले अपार्टमेंट की तमाम बंद खुली खिड़कियों के पीछे से टीवी की तरह तरह की आवाज़ें आ रही हैं मिली जुली हर आवाज़ में एक शब्द मौजूद है – कोरोना – कोरोना पहली बार, दिमाग़ पर हथौड़े-सा पड़ता शब्द मुझे उतना बुरा नहीं लगा।

पांच–छ: दिनों मैं जान गया था कि मेरे अपार्टमेंट के बाहर से गुज़रती सर्विस-लेन के उस पार बने अपार्ट्मेंट के चौथे माले के उस फ्लैट की खिड़की दिन भर तो बंद रहती है और ठीक शाम छ:-सवा छ: बजे खुल जाती है। मनहूसियत भरी दिनचर्या से बोझिल मन, दिन भर कंप्यूटर के स्क्रीन से थकी मेरी आँखें छ: बजे का इंतज़ार करने लगी थीं। मैं हर रोज़ पौने छ: बजे किचन में चाय का पानी चढ़ा देता था फिर चाय लिए बॉलकनी में ऐसे खड़ा रहता कि मानो उस खिड़की के खुलने का मुझे कतई इंतज़ार न हो। मैं यूं दार्शनिक और सोच में डूबा पोज़ बना लेता कि लगे मैं तो सामने डूब कर आत्महत्या करते सूरज या बिना बच्चों के हवा में हिलते-डुलते उस उदास झूले को देख भर रहा हूँ। मैं ऐसे एंगल से खड़ा होता कि मुझे खिड़की की हर हलचल दिखे और खिड़की खुले तो मैं उस लड़की को अपने बेहतरीन एंगल में दिखूं।

लड़की खिड़की खोल कर मुझे देख कर मुस्कुराती थी। थोड़ी देर खिड़की में गहरी–गहरी सांसे लेती फिर फिर सूरजमुखी के फूलों वाला पर्दा डाल देती। वह अब डांस नहीं करती या शायद खिड़की पर पर्दा डाल कर करती हो, हो सकता है कमरे की उस जगह पर नाचती हो जहां से मैं उसे न देख सकूँ। इन दिनों दूर से मैंने उसके बारे में केवल चार बातें जानी थीं – पहली, लड़की बहुत अलग ढंग से खूबसूरत है। अनकन्वेंशनल ब्यूटी जिसे कहते हैं। दूसरी – वह खुशमिजाज़ है। तीसरी – वह उस फ्लैट में अकेले रहती है। चौथी – वह किसी हॉस्पिटल में नर्स है।

आज मुझे चाय का दूसरा कप बनाना पड़ा मगर खिड़की नहीं खुली। मैंने यह सोच कर अपनी टील ग्रीन टी शर्ट पहनी थी कि उससे कुछ गुफ़्तगू की शुरुआत करूंगा। पता नहीं बीच में हमारे अपार्ट्मेंट का पार्क है, फिर सड़क है उस तक आवाज़ पहुंचेगी कि नहीं? चलो, इशारे ही सही। मुझे डर था सूरज के पलट कर भागते ही, अंधेरा न चला आए। दूसरे कप का आख़िरी क़तरा मेरे लिए उम्मीद लेकर आया। खिड़की खुली, वह मुस्कुराई। मैं अपनी तरफ़ से हाथ हिलाए बिना रह न सका, यह अनजाने ही हुआ था और मेरा बेसब्र हाथ हिलता रहा, तो वह दोबारा मुस्कुराई उसकी मुस्कान में पैठी थकान ने गुफ़्तगू को राह दे ही दी।

मैंने इशारे से पूछा ‘ क्या हुआ?’

उसने सर पर हाथ रख, गर्दन लटका कर जताया कि ‘थकान!’ मैंने चाय का मग दिखाया और सीने पर हाथ रख कर कहा- “आओ! चाय बना कर पिला दूँ।“

इस पर वो ‘गार्ड-रूम’ की तरफ इशारा करके हंसी – कैसे? लॉकडाउन जो है!

मैंने डांस का पोज़ बना कर पूछा – “आजकल नाचती नहीं!”

इस पर वो हंसती चली गयी। उसकी हंसी से तारे खिल गये मगर अंधेरा हो गया। वह बाय करके चली गयी। मैंने अरसे बाद कैरेवान पर ग़ज़लें चलाईं, जो मुझे निहार ने उनतीसवें बर्थडे पर दिया था। मैं महसूस कर रहा था कि उसकी याद और वह ख़लिश फीकी पड़ने लगी है। मैं उदास ग़ज़लों को आगे बढ़ा कर एक जगह रुका--

“तेरे आने की जब ख़बर बहके

तेरी खुश्बू से सारा घर महके

शाम महके तेरे तसव्वुर से

शाम के बाद फिर सहर महके

दीद हो जाए तो नज़र महके ”

हाँ यह ठीक है। मैं टकटकी लगाए उसकी खिड़की को देखता रहा। पर्दे के सूरजमुखी हवा से हिल रहे थे। मैंने बिस्तर पर आकर वह रोमांटिक नॉवल उठा लिया जो निहार के जाने के बाद से अधूरा छूटा पड़ा था। आज कंप्यूटर पर धँसने का बिलकुल मन नहीं था। जो शब्द कोरे बुलबुले लगते थे, वही आज बहला रहे थे। हथेलियों की ज़िल्द में छुअनों की चाह उग आई थी। बस इतनी कि उसकी थकान से बोझिल पेशानी को सहला भर दूं। किसकी? उसका नाम तक तो जानता नहीं था। खैर....

किताब में डूब कर पूरी रात जागता रहा, पता नहीं था यह किताब इतनी लेयर्ड और सायकोएनालिटिकल होगी। अंत की उत्सुकता ही नहीं और एक और बात मुझे जगाए रही कि वह सुबह जाती कब होगी? मैं तो नौ बजे उठता हूँ, तब तक खिड़की के पल्ले कसकर बंद हो जाते हैं।

मैं सुबह साढ़े पांच बजे किताब पूरी करके सोने नहीं गया। डंबल्स करता रहा, फिर चाय बना कर पी। दो सप्ताह के रखे कपड़े मशीन में धोने लगा दिए।

सुबह सात बजे मैंने अपने पर्दे की ओट से देखा कि सूरजमुखी अपनी जगह से हट गये थे, वह खिड़की में चाय का कप लिए खड़ी उबासियां ले रही थी। दुबले और नाज़ुक शरीर पर फिरोज़ी सैटिन की शमीज़नुमा नाइटी पहनी थी। वह परदे के सूरजमुखियों के बीच एक ताज़े मॉर्निंग-ग्लोरी के नीले फूल की तरह खिली हुई थी। मेरी नज़र जाने क्यों अपनी फितरत के उलट उसके सीनों की जगह बांहों पर पड़ी। बहुत खूबसूरत गोल बनावट के गंदुमी रंगत के लंबे हाथों को उसने लहरा कर उठाया और कप को पास की टेबल पर रख दिया।

मैं झट से बाल्टी में कपड़े लेकर बॉलकनी में आ गया।

“गुडमॉर्निंग”

सुबह के सन्नाटे में उसने मेरी आवाज़ सुन ली और पलट कर कहा -

“गुडमॉर्निंग” सामने खिला अमलताश चौंक गया और झुमकों जैसे पीले फूल सिहर कर टपक पड़े।

अहा! अगर उसकी आवाज़ को छू सको तो यकीनन उसका टैक्सचर सिल्क-सा निकले। बड़ा खूबसूरत कॉनवेंटी एक्सेंट !

“ऑफिस टाइम?” मैं चिल्लाया।

“यस! नाईन।“ उसने गर्दन हिला कर, सीने के आगे उंगलियों से नौ बजा दिये। उसके पूरे वज़ूद में एक दोशीज़गी थी। अब मैं उसका नाम जानने को मरा जा रहा था। कायनात साथ दे रही थी। तभी उसके अपार्टमेंट के गार्ड ने चिल्ला कर कहा।

“सिस्टर कैरोल, नीचे आकर दूध के पैकेट ले जाइए।“

“कमिंग।“ वह खिड़की से ओझल हो गई, मैं नीचे झांकता रहा। वह नाईटी बदल कर जीन्स–टी शर्ट में गार्ड से बात कर रही थी। मुंह पर मास्क लगा था। मेरा मन किया कि जॉगिंग के बहाने नीचे जाकर उससे बात करूं। मगर रात का जागा मेरा जिस्म बग़ावत कर रहा था। ज़रा देर में वह फिर खिड़की में नमूदार हुई तो मैंने जानबूझ कर पुकारा – कैरोल! I am Manav!

उसने मुंह से मास्क नीचे खिसका कर उसने छोटी सी हंमिंग-बर्ड की तरह हम्म किया। फिर हंसकर चिल्ला कर कहा –

“ Humm… So what? We all are Manav.”

“Can I have your phone number? “

मैंने थोड़ा कम वॉल्यूम में फोन का इशारा कर के पूछा तो उसने मुझे हंसते हुए चांटा दिखाया। मगर मैं उस हंसी को भुना लेना चाहता था।

“please… वो क्या है ना मेरे पड़ोसी बूढ़े कपल हैं तो कभी....”

मेरी चिल्ल-पौं से परेशान होकर हमारी बिल्डिंग के गार्ड ने वॉचरूम से निकल कर देखा? मैं झेंप कर चुप हो गया।

उसने उंगलियों के इशारे से एक नंबर नोट कराया। जो दिखने में कतई उसका निजी नंबर नहीं था। बाद में पता चला कि वह उसके अस्पताल का एंबुलेंस-हैल्प-नंबर था।

नंबर देकर वह खिड़की से हट गई थी मगर उसने पर्दा और खिड़की दोनों खुले छोड़े हुए थे। मैं उसे नर्सिंग युनिफॉर्म में कमरे में चहलक़दमी करते देख रहा था। ठीक साढ़े आठ बजे खिड़की बंद हो गयी। वह चली गयी। मैं उसे जाते हुए भी देखे जा रहा था, वह केवल एक कल्पना क्यों लगती है?

नंबर मिलाने पर मैं उसकी बदमाशी जान गया था मगर मैं भी तो एथिकल हैकर हूं । यह के.जी.एम.एच. नाम के बड़े अस्पताल का हैल्प नंबर था। उनकी वैबसाईट भी है। कुछ तरकीबों से जिन्हें मैं आपको कतई नहीं बताउंगा, मुझे उसका मोबाईल नंबर मिल गया था। ग़लत मत समझिये, मैं इतना बेहूदा बिलकुल नहीं कि मैं उसे स्टॉक करूं। मैं उसके वर्किंग-टाईम में फोन नहीं करने वाला था। उस शाम फिर वह अपना कुम्हलाया हुआ मगर सुंदर चेहरा लिये नियत समय पर खिड़की में आई तो मैं वहाँ बॉलकनी में नहीं था। मैं कमरे से देख रहा था कि वह मुझे न पाकर थोड़ी हैरत में थी और मेरी बॉलकनी की तरफ घूरे जा रही थी। फिर कंधे उचका कर अचानक वहाँ से चली गई। मैं मुस्कुरा दिया। वह फिर खिड़की में आई तो उसके हाथों में पिज़ा का पैक्ड डिब्बा था और कोल्ड कॉफी का मग। वह हैरत में थी और अब समय था कि मैं उसे कॉल करूं।

“भूख लगी थी ना!”

“आप कौन?”

“मानव, चायवाला तुम्हारा पड़ोसी।“

“आपने भेजा है पिज़ा? मैंने सोचा, डॉ. खरे ने....लेकिन आपको नंबर....” यह सुन कर मैं बॉलकनी में आ गया था।

“सॉरी आपके हॉस्पिटल की वेबसाईट से... सॉरी! बुरा तो नहीं लगा????”” अब मैं कान पकड़ चुका था। वह मुस्कुराई।

“बुरा लगता अगर सच में टायर्ड नहीं होती और तेज़ भूख नहीं लगी होती तो! सच आज मेरी कुक करने की हिम्मत नहीं थी। थैंक्स! “ एक हाथ से फोन पकड़े और एक हाथ से डिब्बा खोलते हुए उसने पूछा। फिर ‘वन मिनट’ कह कर उसने फोन कहीं रखा और एक कुर्सी खिसका लाई।

“पर आपको कैसे पता मुझे चिकन पैपरिका, डबल चीज़ पिज़ा ही पसंद है?” उसने एक टुकड़ा उठा कर मुंह में रख लिया।

“मैं पिज़ा – पर्सेनेलिटी रीडर हूं। पिज़ा खाते देख लोगों के बारे में और लोगों को देख उनकी पिज़ा पसंद बता सकता हूं।“

“मींस, टैरो कार्ड रीडर्स की तरह पिज़ा रीडर्स भी? फिर आपकी पसंद तो, टिक्का मसाला पिज़ा होगी।” फोन पर उसके चबाने की आवाज़ मज़ेदार थी।

“गलत ! सुनो आराम से खा लो, थोड़ा रेस्ट कर लो।“ मैंने कह कर हाथ हिलाया। उसने फिर से चबाते हुए थैंक्यू बोला।

मैं भीतर आ गया मुझे अपना पेट भरा हुआ सा लग रहा था और मन बहुत शांत था। मानो बस इतनी भर ही उसकी ज़िंदगी में जगह चाहता होऊं।

मैं जब शांत मन से अपना असाईनमेंट कर रहा था कि वाट्सएप पर मैसेज आया, मुझे लगा मेरी छोटी बहन का होगा, मगर यह कैरोल थी जिसका नाम मैंने ‘मॉर्निंग ग्लोरी’ सेव किया था।

“Once again thanks.”

“Carol enough of thanks, I should say thank you on behalf of all humanity, the way u people are working hard.”

“Busy?” था तो पर उस हर शाम उगने वाले पहले सितारे के लिए नहीं। मैंने फोन मिला दिया।

“मैं आज बहुत सल्क थी जब घर आई आज हॉस्पिटल में बहुत-से नये कोरोना केस आए। आपने....Sorry no more thanks. How lucky you people are.You can safely stay at home.”

मैंने बात का छोर पकड़ा कि बस यह कह कर फोन न रख दे।

“Yes I am lucky I could see your dance… You dance so well.”

“प्लीज़! मुझे सच में पता नहीं था आपके फ्लैट से……दिखता होगा। उस दिन मैं खुश थी... हमने एक बूढ़े कोरोना पेशेंट को ठीक कर घर भेजा था। लगा था जंग जीत ली मगर...आज...”

“वैसे लॉकडाउन से पहले मुझे कभी नहीं दिखीं तुम!” मैं सिगरेट जला कर खिड़की में आ गया था। वह वहाँ नहीं थी शायद बिस्तर में हो, जो वहाँ से नहीं दिखता था।

“मैं पहले लेडी हार्डिंग के नर्सिंग-कॉलेज हॉस्टल में थी। मैंने तीन महीने पहले ही यहाँ जॉब जॉइन किया और शेयरिंग में इस फ्लैट में शिफ्ट किया। वो खिड़की दूसरी लड़की के रूम की है वह दुबई में फंस गयी है. What do u do? “

“I am software engineer at present working from home!”

“लकी!”

“काहे का लकी यार? मैं तो अब फ्रस्ट्रेट हो चुका हूं, सच कहूं तुम्हारी खिड़की के सहारे पिछला वीक पता ही नहीं चला कैसे बीत गया। वरना लॉकडाउन तोड़ कर किसी जंगल-पहाड़ पर चले जाने का मन कर रहा था। उन मजदूरों की तरह पैदल – पैदल। लेकिन अब मैं बाखुशी महीनों लॉक-डाउन रह सकता हूं, बशर्ते तुम रोज़ छ: बजे खिड़की में मिलो और जब थकी होओ मुझे अपने लिए खाना ऑर्डर करने का प्रिवलेज देती रहो।“

फोन पर उसकी हंसी पास से गूंजी, जैसे कोई घुंघरुओं लदी पाजेब।

“क्या कर रही हो?”

“ एक पाकिस्तानी सीरीज़ देख रही उसमें मेरा फेवरेट फ़वाद खान है!”

“बस पाँच मिनट को आओ न खिड़की में। अच्छी हवा चल रही है।“ फोन के उस पार खामोशी थी। मुझे लगा मैंने बेजा बात कर दी, वह थकी भी तो होगी। यक-ब-यक एक हरकत हुई मुझे लगा दरख़्त अंधेरे में कानाफूसी कर रहे होंगे। खिड़की रोशन हुई तो माथे और कन्धों पर गिरे हुए बाल लिये, वह वहाँ थी। उसकी बाँहें खुली थीं।

चाँद तो आसमानों में नहीं था ऊंची बिल्डिंगों में फंसा चाँदनी ज़रूर छितरा रहा था।

“सिगरेट नहीं पीनी चाहिए। कोरोना स्मोकर्स के साथ बिलकुल जस्टिस नहीं करता।“

“अच्छा! कम कर दूंगा। मैं दिख रहा हूँ तुम्हें?”” हाँ। उड़ते बाल और एक लंबी शेडो बस और सिगरेट की जलती हुई टिप। और मैं?”

“तुम्हारी खुली बाँहें और गोल चेहरा, सुनो दूर कहीं बरसात हुई है ठंडी हवा से तुम्हारी खुली बांहों को सर्दी लग जाएगी। जाओ सो जाओ।“

“नींद नहीं आ रही थी।“

“अपने बारे में बताओ न? क्या तुम कोरोना वार्ड में हो?”

“सीधे-सीधे तो नहीं, मैं एमरजेंसी के फ्रंट डेस्क पर बैठती हूं।“

“ थैंक-गॉड!”

“गॉड को किसलिए ट्रबल करना मानव? रिस्क तो फिर भी है। गॉड केवल अपनी बनाई दुनिया और बीमारियों की परवाह करता है, अगर यह वायरस लैब में बना है तो उसके बस का भी नहीं कुछ....”

हमने उस दिन देर तक बात की। वह मलयाली क्रिश्चियन थी। उसकी मां भी कोच्चि में मिलिटरी हॉस्पिटल में नर्सिंग ऑफिसर थीं। जगह जगह रहने के कारण उसकी हिंदी अच्छी थी। मैंने कोरोना के वाट्सेपिया मज़ेदार जोक्स सुना कर उसका मूड हल्का कर सोने भेज दिया।

अगली शाम मैं सौ बार बालकनी में आवा-जाही कर चुका था।

मगर खिड़की नहीं खुली। फिर थक कर टीवी देखने लगा, मीडिया डराए जा रहा था। इटली में ताबूत कम पड़ गये थे, अमरीका नया एपिसेंटर बनने जा रहा था। मुझे नासिक में आई-पापा की चिंता लगातार थी। छोटी बहन ने दोपहर ही बताया था कि उनसे दो किलोमीटर दूर पर एक पूरा परिवार कोरोना-ग्रस्त है। वजह वही कि सबसे ट्रेवल–हिस्ट्री छिपाई गई थी।

बाहर अचानक बारिश होने लगी तो मैं चौंका। फोन उठाया थोड़ी हिचक के साथ मिला ही दिया। उसने बताया कि आज गायनी वार्ड में हड़कंप मच गया था। एक बच्चा सीज़ेरियन से हुआ और बाद में पता चला कि मां कोरोना ससपेक्ट है। फिर तो सब सर्जन, एनेस्थिशियन, सब नर्सों और वॉर्ड बॉयज़ का टेस्ट कर उनको क्वारेंटाईन कर दिया। वह बच गयी क्योंकि वह फ्रंट-डेस्क पर थी। वह बस निकल रही है, हॉस्पिटल के ट्रांसपोर्ट से।“

“सुनो कैरोल, मैंने तुम्हारे लिये भी डिनर बना कर पैक कर रहा हूँ। तुम सीधे अपने अपार्ट्मेंट में मत जाना सर्विस लेन के सामने एक तीन नम्बर का लॉक्ड-गेट है हमारे अपार्टमेंट का वहाँ आ जाना। मैं वहाँ टिफिन लिए मिलूंगा।“

“ अरे नहीं आप प्लीज़ नहीं....” वह कहती रही मैंने फोन काट दिया।

मैंने जल्दी-जल्दी पाव-भाजी बनाई पैक कर दी। मेरा बस चलता तो मैं उसके घर पहुंच जाता टिफिन लेकर, मगर हमारे अपार्ट्मेंट में से निकलना पूरे दिल्ली के लॉक-डाउन से निकलने से कहीं कठिन था। ई-पास जैसी कोई सेवा नहीं थी। सुबह एक गाड़ी आती थी, ज़रूरी सब्जी और ग्रॉसरी वाली। मास्क लगा कर एक दूरी बना कर आप सामान लो और फिर अपने फ्लैट में घुस जाओ। सोसायटी के मेंबर्स की पर्मिशन के बिना न कोई आ सकता है न जा सकता है।

हमारे पूरे अपार्ट्मेंट में कोई अर्जेंट सर्विसेज़ वाला नहीं था। कैरोल ने बताया था कि उसके अपार्ट्मेंट में कई डॉक्टर्स रहते हैं। डॉक्टर्स तो अपने फ्लैट के ओनर्स हैं। मगर कैरोल किरायेदार है सो उसे कभी-कभी दूसरे लोगों से छुआछूत और बदतमीज़ी झेलनी पड़ी जाती थी।

मैं हल्की फुहार के बीच एक पार्क और लंबा कॉरीडोर पार करके गेट नंबर तीन पर आ गया था। बीस मिनट बाद उसकी

मेटाडोरनुमा बस दिखी जिस पर लिखा था के.जी.एम.एच. उसका गेट खुलते ही मैंने पैक्ड टिफिन दिखा कर आवाज़ दे दी – कैरोलाईन !

वह अपने बैग को अपने माथे पर रख कर भीगने से बचती हुई अपने गेट में न घुस कर सर्विस-लेन पार कर फुटपाथ पर चढ़ कर मेरी ओर आई। सफेद युनिफॉर्म पहने, वह कुछ दूर खड़ी हांफ रही थी। उसके चेहरे पर स्ट्रीट-लाईट ऎसे पड़ रही थी जैसे वह स्टेज पर हो और स्पॉटलाईट उसे घेरे हो। मेरा दिल केवल धड़क नहीं रहा था मेरे जिस्म में उस धड़कने के शोर को ईको कर रहा था।

“पास से तो यह यकीन की हद से परे खूबसूरत है। दूर से सांवली लगती है, पास से तो यह गेंहूं के सुनहरी बालों से झूमते खेत जैसी है, ये हांफते और भीगे अधखुले....ताज़ा तोड़ी स्ट्रॉबेरी जैसे नम होंठ। मुझे खुदको ताकते पाकर सलीकेदार लड़कियों की तरह उसने बात उठाई।

“ Why have you bothered yourself?”

अब वह गेट की सलाखों के थोड़ा पास आकर मुझे ग़ौर से देख रही थी। मैं देखने में अगर फ़वाद खान जैसा न सही मगर बकौल निहार मैं अर्जुन कपूर का थोड़ा फेडेड वर्ज़न तो हूँ ही। टॉल हूं, थोड़ा टैन्ड मगर गोरा रंग है, फिट हूं और अच्छा रिलायबल बंदा हूं। जब उसकी निगाह मेरी आँखों पर आ टिकी तो मैंने कहा।

“कैसी बातें करती हो? पकड़ो, इसमें पाव-भाजी है। जब लॉक-डाउन खत्म हो जाए तो यह अहसान उतार देना। इडियप्प्म और अप्पम वगैरह खिला कर। सुनो, तुम ने गलत रीडिंग की, मैं ‘चिकन टिक्का’ टायप नहीं, पोरन-पोली टायप हूं,यानि मराठी!“

”वैसे आप लगते पंजाबी हैं। सुनिये इस टिफिन को टेढ़ा करके आप यहाँ मेरे इस स्कार्फ़ पर फेंक दीजिए।“ कह कर उसने फुटपाथ पर स्कार्फ़ बिछा दिया।

“लेकिन...”

“ प्लीज़! मैं हॉस्पिटल से आ रही हूँ, सोशल-डिस्टेंसिग ज़रूरी है। मेरे और आपके दोनों के लिए।“ वह सख़्त लहज़े में बोली। वरना मेरा मन तो चाहता था गेट कूद कर उसके करीब जा खड़ा होऊं, उसका हाथ थाम लूँ...चाहे फिर कुछ भी हो! लेकिन मैं हैकर ज़रूर हूँ मगर एथिकल।

वह टिफिन लेकर मुस्कुराई और बोली – “थैंक्यू तो आप कहने नहीं देंगे न?”

“बस एक बार वैसा ही जोशीला डांस करके दिखा देना। हाँ भले शर्ट पहने रहना।“ मैंने उसे हंसाना चाहा। मगर वह ब्लश करती हुई, बाय कह कर भाग गई। गेट पर जाकर बोली – “कल! पक्का दिखाऊंगी!”

मैं मुस्कुराता हुआ गार्ड और बारिश से बचता हुआ ऊपर आ गया। गलियारों में अजब मनहूसियत थी, मगर मेरा मन एक मीठे गुनगुन शोर से भरा था। चलते हुए टीवी पर प्रधानमंत्री जी देश भर से कोरोना से लड़ते हैल्थ-वर्कर्स और दूसरे लगातार काम कर रहे कर्मचारियों के लिए दीपक – कैंडल्स जलाने की बात कर रहे थे। मैं यह सुन कर चिढ़ गया।

“हंह थाली बजा लो, दिये जला लो कोरोना इससे चला जाएगा क्या?”

भीगने के कारण मुझे दो – तीन छींके आ गयी थीं। मैंने माथा पौंछा, खाना खाया और बिस्तर में घुस कर कैरोल के बारे में सोचते हुए सोने की कोशिश करने लगा। नर्स होना यानि ‘सेल्फ-लैस’ होना। कितनी प्यारी है यह...क्या मैं उसे पसंद करता हूं? और वो? न भी करे तो क्या इतनी ज़िंदादिल लड़की का तो मैं ताउम्र दोस्त भी बना रह सकता हूँ।

अगले दिन मैं शाम को मैं उसका बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। लेकिन लगता था वह फिर कोरोना के बढ़ते केसेज़ के कारण जल्दी नहीं आ सकी। शाम ढले एक घंटा बीत चुका था। रोज़-रोज़ फोन करके मैं उसे परेशान भी नहीं करना चाहता था। वह जाने चिढ़ ही जाए और सख़्ती से कह दे कि --- सोशल डिस्टेंसिंग!

अचानक बॉलकनियों और टैरेस पर, खिड़कियों में लोग दिये, कैंडल जलाने लगे, क्योंकि प्रधानमंत्री का आग्रह है। एक पल को मैं फिर चिढ़ा मगर मेरा मन कैरोलाईन के लिए ‘कैंडल्स’ जलाने का मन कर आया। वह खुश होगी आकर देखेगी तो।

मैं भीतर गया एक नहीं सात कैंडल्स जला दीं। हवा से बुझतीं मगर मैं फिर जला देता। मैं बॉलकनी से हिला ही नहीं, रात के बारह बज गये मगर वह नहीं आयी। मुझे लगा उसको नाईट ड्यूटी के लिए रोक लिया होगा। मैंने उसे मैसेज किया कि ‘Is everything fine ?Please keep me informed.’

मुझे बामुश्किल दो घंटे नींद आई कि मैं सुबह चार बजे फिर जाग गया और बॉलकनी में आ बैठा। मोमबत्तियों के नीचे पिघला मोम आंसुओं की शक्ल में ढल गया था। मैंने वाट्सेप पर रात को जो मैसेज लिखा था उसके टिक दो तो थे मगर ब्लू नहीं थे।

रोशनी हुई बंद कांच के पीछे पर्दे के सूरजमुखी उदास थे। मॉर्निंग-ग्लोरी खिली ही नहीं। आठ बजे-नौ बजे....लंच टाईम हो गया मगर वह खिड़की नहीं खुली। मुझसे सुबह की चाय के साथ खाए चार रस्क के बाद कुछ भी खाया नहीं गया। मैंने बेसब्र होकर फोन कर दिया, अब फोन स्विच्ड ऑफ था।

मैंने हैल्प-लाईन पर फोन किया, वहाँ से कोई खबर नहीं मिली।

उस शाम मैंने सूरज जलते ही कैंडल्स जला दीं और बॉलकनी में ही गद्दा डाल कर लेट गया, मच्छरों की और मेरी ठनी रही सुबह तक न वो गये न मैं गया। फिर मोम आंसुओं की शक्ल में पिघल कर जम गया। अगले दिन भी न मेरा काम में मन लगा न किसी और चीज़ में। मैं गेट नंबर तीन पर आकर खड़ा हुआ। चिल्ला कर गार्ड से पूछा मगर उसने हाथ हिला दिया। उसका फोन स्विच्ड ऑफ ही रहा, मैसेज भी अब एक टिक पर टिके रहे। ग्रॉसरी वाली गाड़ी आई तो मैंने दस पैकेट कैंडल्स ले लीं। खाने का सामान कुछ भी नहीं।

अब मैं थक चुका था, दर्द हदें पार कर चुका था। तीसरी शाम भी मैंने फिर खुदको और मोमबत्तियों को बॉलकनी में जलता छोड़ा। मैंने उसके हॉस्पिटल के न जाने कितने नंबरों पर लोगों को तंग कर दिया मगर कुछ पता न चला। बस एक नंबर पर कोई बोला—“सिस्टर कैरोलाईन तो....वो तो...आप उनका कौन?” मेरा बेचैन दिमाग़ अच्छी - बुरी आशंकाओं से भर गया, घर चली गयी क्या? बीमार हो गयी? क्या कहीं को…. रो…..नहीं!नही! मैंने दुबारा उस नंबर दर्जनों कॉल की मगर किसी ने फोन ही नहीं उठाया।

चौथी शाम, पांचवी शाम.....सातवीं...दसवीं....मुझे अब दर्द नहीं हो रहा था, मैं दर्द की हदें पार कर सुन्न हो चुका था। कैरोलाईन मुझे अपनी कल्पना की उपज लगने लगी थी। ऎसा सुंदर भी कोई होता है? समुद्र की लहरों की तरह लहराते जिसे नाचते देखा वो कोई असली लड़की कैसे हो सकती है? ऎसा तिलिस्मी नाच और बिना शर्ट....

ग्यारहवें दिन मुझे अपनी नायक़ीनी पर यक़ीन होने लगा था, आखिरी पाँच कैंडल्स बचे थे। उनको जला कर मैंने उसके वाट्सेप पर लिखा --- आय लव यू कैरोलाईन! गुडबाय!! मैंने भीतर जाकर ऑन द रॉक्स वोड्का के लाईन्ड-अप पाँच पैग तब तक पीता रहा जब तक सब कैंडल्स बुझ न गईं। मच्छर भी खून पीकर टल्ली होकर दीवार पर जा चिपके।

सुबह धूप चढ़ आयी थी, तब मैं जागा और भीतर आ गया। अब मैंने कांच के पीछे उदास सूरजमुखियों को देखना छोड़ दिया था। मैं बाथरूम में घुसा कि मेरे शॉर्ट्स से मेरा फोन गिर पड़ा, मैंने फोन ऑन करके देखा चल रहा था। वॉट्सेप खोला और चौंक गया मेरे आखिरी मैसेज के आगे ब्लूटिक थे।

मैंने उसके नंबर पर सीधे विडियो कॉल किया। उसने उठा लिया। वह वार्ड में थी, नाक में ट्यूब्स थे, वैंटीलेटर पर थी और गालों पर आंसू थे मगर मुस्कुरा रही थी। बायां हाथ उठा कर उसने होंठों पर ले जाकर किस किया और बुदबुदाई जिसका अर्थ जो भी हो मेरे लिये प्यार था।

मुझे अब यकीन के कैंडल्स कुछ दिन और जलाते रहना था। क्योंकि एक दिन फिर उन सूरज-मुखियों के बीच मॉर्निंग-ग्लोरी को खिलना था।

लेखिका परिचय

मनीषा कुलश्रेष्ठ

जन्म : 26 अगस्त 1967

शिक्षा – बी.एससी., एम. ए. (हिन्दी साहित्य), एम. फिल., विशारद (कथक)

प्रकाशित कृतियाँ –

7 कहानी संग्रह - कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, बौनी होती परछांई, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्वगाथा, अनामा, रंगरूप-रसगंध ( 51 कहानियां)

5 उपन्यास- शिगाफ़, शालभंजिका, पंचकन्या, स्वप्नपाश, मल्लिका ( भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेमिका पर जीवनी परक उपन्यास)

1. कला वैचारिकी पर पुस्तक – बिरजू - लय

2. मेघदूत वर्णित मेघमार्ग पर यात्रावृत्तांत शीघ्र प्रकाश्य

किए गए अनुवाद – माया एँजलू की आत्मकथा ‘ वाय केज्ड बर्ड सिंग’ के अंश, लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास ‘हाउस मेड ऑफ डॉन’ के अंश, बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद

रचनाओं के अनुवाद : उपन्यास शालभंजिका का डच में अनुवाद, कई कहानियों का अंग्रेजी और रूसी सहित कई भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद, ‘किरदार’ (कथा संकलन) अनुवाद हेतु फ्रांस सरकार द्वारा चयनित

पुरस्कार, सम्मान और फैलोशिप :

कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप – 2007

रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष 2010 ( राजस्थान साहित्य अकादमी)

डॉ घासीराम वर्मा पुरस्कार 2011

कृष्ण प्रताप कथा सम्मान 2011

गीतांजलि इण्डो – फ्रेंच लिटरेरी प्राईज़ 2012 ज्यूरीअवार्ड

रज़ा फाउंडेशन फैलोशिप – 2013

सीनियर फैलोशिप – संस्कृति मंत्रालय ( 2015-16)

वनमाली कथा सम्मान - 2017

के. के. बिरला फाउंडेशन का प्रतिष्ठित बिहारी सम्मान – ( 2018)

ढ़ींगरा फाउंडेशन अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान – ( 2019)

संप्रति – स्वतंत्र लेखन और इंटरनेट की पहली हिन्दी वेबपत्रिका ‘हिन्दीनेस्ट’ का पंद्रह वर्षों से संपादन.

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