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छोछक

‘बधाई हो, लाला हुआ है’ अस्पताल के रिसेप्शन के सामने सरोज की सास प्रेमावती अपनी समधिन मनोहरी देवी से गले मिलते हुए कहती हैं ।

‘आपको भी बधाई बहन जी... कौन-से रूम है लाला’ ?

‘रूम नं. 205’ ।

अस्पताल में अंदर बढ़ते हुए प्रेमावती को याद आया कि समधी कहीं पीछे ही छूट गये हैं, ‘कहाँ रह गयें भाई साहब’ ?

पीछे मुड़ कर देखा तो तीन-चार झोलों के बोझ से लदे-फदे धीरे-धीरे कदम बढ़ाते समधी हरिराम हॉस्पीटल से अंदर की ओर प्रवेश कर रहे थे । बोझ का दबाव महसूस करते ही झट से प्रेमावती ने तुरन्त अपने बेटे मनोज को झोला उठाने का आदेश दे दिया । मनोज एक हाथ से अपने श्वसूर हरिराम का पैर छूते हुए दूसरे हाथ से झोला पकड़ लिफ्ट की ओर बढ़ गया । हरिराम भी पीछे पीछे लिफ्ट की ओर बढ़ गयें ।

रूम नं. 205 में पहुँचते ही मनोहरी देवी ने बेड पर लेटी अपनी बेटी सरोज को झुक कर गले लगाया, उसके सर पर हाथ फेरा । बगल में झूले में झूलते लाला को उठाकर पुचकारा और उसकी गर्दन संभालते हुए हरिराम को थमाने का प्रयास करने लगीं । हरीराम लाला के माथे को प्यार से चूमने लगें, ‘युग-युग जियो लाला । हमेशा खुश रहो, सुख-समृद्धि आये’ ।

सुख-समृद्धि कहते-कहते उनकी आँखें नम हो गयीं, आवाज गले में अटक गई, चेहरा पीला पड़ गया । मनोहरी देवी हरिराम की स्थिति भाँपते हुए बात बदलने लगीं, ‘बहुत भाग्यशाली होगा लाला... सबका नाम रोशन करेगा’ ।

कहते हुए लाला को अपनी गोदी में थाम सरोज के पास जाकर बैठ गयी । हरिराम की रूलाई पकड़ी न जाय इसलिए वह अपने चेहरे को गमछे से पोछते हुए तेजी से कदम बढ़ाकर कमरे निकल गयें और अस्पताल के पीछे जाकर ही रूकें । अपने गमछे से मुँह दबाकर फफक-फफक कर रो उठे हरिराम । जी शांत होने पर वापस कमरा नं. 205 में पहुँच गए, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो ।

उन्होंने देखा कि समधिन प्रेमावती उन सभी झोलों में से सामान निकाल निकाल कर सामान के वजन का अंदाजा लगाते हुए आलमारी में रख रही थी, ‘छुहारे पाँच किलो से कम नहीं होंगे, है न ?... बादाम और काजू भी लगभग आठ किलो होगा ही... सात डिब्बे घी लाने की क्या जरूरत थी समधी जी ? वैसे... घर का बनाया हुआ शुद्ध देसी घी लग रहा है...’

‘क्या अम्मा... रखना है तो ऐसे ही रख दो... गिनती करने की क्या जरूरत है’ ! चिड़चिड़ाते हुए मनोज ने कहा ।

‘देखना पड़ता है न लाला... हम सबके लिए इतनी खुशिहाली की बात है । ऐसे ही थोड़े भाई साहब झोला भर भर कर सामान लाये हैं । कितने सारे ताजे फल, गोद के लड्डू और भी कितने खाने के सामान ले आये हैं अपनी लाली के लिए । गोद के लड्डू तो छः महिने से कम नहीं चलेगा’

‘ये तो हमारे लिए सौभाग्य की बात है बहन जी’ मनोहरी देवी ने अपने पति का चेहरा निहारते हुए ठंड़े स्वर में कहा ।

दोनों समधिन आपस में गाल बजाने लगीं (बातों में व्यस्त हो गयीं) और हरिराम धीरे धीरे सीढ़ियों से उतरते हुए अस्पताल के बाहर आ गयें । वहाँ मनोज अपने गाँव वालों के साथ खड़ा मिला । इतने सारे लोगों को सड़क के किनारे पेड़ की छाँह में बैठे-लेटे देख हरिराम के मुँह से निकल पड़ा, ‘ये तो लग रहा है पूरा दादरी उलट पड़ा है’ ?

‘नहीं पापा जी, ये तो सिर्फ हमारे गाँव के लोग हैं’ ? मनोज का उत्तर सुन कर सब लोग हँसने लगें । देश-दुनियाँ की बातें करते हुए लोगों ने घंटों गुजार दी लेकिन सबके बीच चुप्पी साधे हरीराम अफनाहट के मारे धरती में धंसे जा रहे थे ।

शाम के समय घर लौटते हुए भी हरिराम की खामोशी ने मनोहरी देवी को चिंतित कर रखा था । घर पहुँच कर लोटा में पानी थमाते हुए आखिर मनोहरी देवी ने पूछ ही लिया, ‘क्या बात है सरोज के पापा, आपको लाला होने की खुशी नहीं है’ ?

‘कैसी बात करती हो, खुशी क्यों नहीं होगी…’

‘आपका चेहरा तो कुछ और ही कह रहा है’ !

रात को भैंसों को सानी देकर हरिराम खाट पर लेटे लेटे आकाश में गुमसुम चाँद तारों को एकटक निहारे जा रहे थे । उन चाँद-तारों को रह रह कर अखबार की वे ख़बरें ढ़क लेतीं जिन्हें हरिराम ने कुछ समय पहले ही मोटे मोटे अक्षरों से लिखे हेडिंग में पढ़ा था ‘मनचाहा छोछक न मिलने पर विवाहिता को आत्महत्या के लिए ससुराल वालों ने उकसाया’, ‘छोछक में कार नहीं मिलने पर विवाहिता की हत्या’, ‘छोछक के लिए जलाकर मारा’... ।

अचानक से चाँद-तारे खून से लथपथ हो गए... सरोज हरिराम की बाँहों पर लुढ़क पड़ी, उसके कपड़े खून से तर-बतर है... चारों ओर खून ही खून पसरा पड़ा है । हरिराम मन में ही चिल्ला पड़ें ‘नहीं…नहीं... मैं तुझे कुछ नहीं होने दूँगा...’ वे इस भयानक स्वप्न से काँप उठे । उनकी आँखें फिर से चाँद पर आ टिकीं । उन्होंने खुद को झुठलाते हुए सोचा ‘ये तो सिर्फ मेरे मन का वहम है... । देखो कितनी सुन्दर चाँदनी छिटकी है... । चाँदनी जीवन में रोशनी और शांति दोनों फैलाती है । हमारी सरोज भी तो ऐसे ही चाँदनी के समान पवित्र है...’ अचानक से पवित्र चाँदनी की रोशनी आग के गोले में तबदील हो गयी । चाँद धू-धू करके जलने लगा उसमें से सरोज चिल्लाने लगी, ‘पापा जी...बचा लो... मुझे बचा लो’ पूरे आसमान में आग की लपटें फैल गयीं । हरिराम आग में कूदना चाह रहा है पर कूद नहीं पा रहा... उसके कदम भारी हो गये... हाथ हिल नहीं रहा... पूरा ज़ोर लगाने के बाद भी उसके शरीर में कंपन नहीं हो रही... वह तड़फड़ा रहा है, सरोज कहीं दिखायी नहीं दे रही सिर्फ उसकी आवाज़ सुनायी दे रही है... वह अपने आपको झटकने की पूरी कोशिश कर रहा है पर शरीर पथरा गयी है... । तब तक किसी ने उसे ज़ोर से हिलाया और वह अचकचा कर उठ बैठा ।

‘कुछ तो बताइये सरोज के पापा ? क्या बात है’ ? मनोहरी देवी की आवाज कानों में गूँजी ।

‘तुम कब आयी, सोई नहीं अभी’ ? हरिराम काँपती आवाज में बोल पायें ।

‘आप इतने चिंता में हैं, नींद कैसे आ सकती है’ ?

‘चिंता मत करो... मैं ठीक हूँ । तुम सो जाओ’ ।

बहुत देर तक बैठने के बाद भी जब हरिराम से कोई जवाब नहीं मिला तब वह उठकर घर में चली गयी । हरिराम सोने का बहाना बहुत देर तक नहीं कर सकें, करवटें बदलते हुए पूरी रात गुजर गयी ।

सिर्फ छः महिने ही तो बीते हैं रेशमा का विवाह हुए । छोटी बेटी थी इसलिए हरिराम ने सभी परेशानियों को दरकिनार कर दिल खोल कर खर्च किया था । दहेज देने के लिए उन्होंने अपने पूरे जीवन की बचत पी.पी.एफ. निकाल कर दे दिया । आखिर पोस्ट-मैन की कमाई ही कितनी होती है । दिन भर धूप में जल-जल कर जितना कमाया वह परिवार के गुजारे में लगा दिया, जो बचा था मात्र पी.पी.एफ. । इतना ही नहीं अपने पूरखों की जमीन गिरवी रख दी, ताकि दरवाजे पर बारात की ईज्ज़त हो सके । आखिर पूर्वजों ने जो ईज्ज़त कमाई है उसे दाँव पर यूँ ही तो नहीं लगा सकते । जिस लड़की की शादी है अगर सिर्फ उसके बारात और रिश्तेदारों को देखना हो तो अलग बात..., यहाँ तो हर शादी में सभी रिश्तेदारों को देखना पड़ता है ! हरिराम ने खुद की पाँच बहनों और बहनोईयों को करीब दस तोले के गहने दे दिए, हालांकि तीन बहनों का काम अँगूठी से चल सकता था लेकिन दो बहने बड़े घर में ब्याही गयी थीं । उन्हें तो सोने की चेन देने ही थे फिर तीन बहनों के साथ ना-इंसाफी कैसे किया जा सकता था ! अपनी लाली सरोज भी किसी ऐरे-गैरे घर में तो ब्याही नहीं गयी, उसके भी श्वसूर का पूरे गौतम बुद्ध नगर में नाम है । सो उसने भी अपनी अम्मा से कहलवा भेजा, ‘सोने के कड़े देना पापा जी, वरना ससुराल में मेरी नाक कट जायेगी’ । फिर क्या था उसे मोटे-मोटे दो कड़े बनवाने पड़े और दामाद को चेन । कपड़े लत्ते और हाथ पर धरने के लिए कम से कम दस-दस रूपये के छुट्टे अलग से, इनकी तो कोई गिनती ही नहीं होती ।

दो साल पहले राहुल के विवाह के लिए बैंक से लोन लिया था वह भी पूरा ही नहीं हुआ । अब तो बैंक वाले घर तक आने लगे हैं । उसकी दुल्हन सुनीता के कुआ पूजन के लिए मनोहरी देवी को अपने कुछ गहने भी बेचने पड़े । राहुल कमाता-धमाता तो है नहीं, घर में बैठे-बैठे उसकी और उसके पत्नी की जरूरतें पूरी करते रहो । उसकी लाली की पढ़ाई की चिंता भी नहीं है उन्हें ।

मनोहरी देवी हरिराम का मुँह देख कर बार बार उनसे पूछती, ‘खुश नहीं हो क्या’ ?

‘कौन-सा बाप होगा जो अपने लाला-लाली की खुशी में खुश नहीं होगा । मैं चाहता हूँ कि मेरे तीनों बच्चे खुश रहें, खूब बरक्कत हो’ । आधी बात मुँह से कहकर हरिराम आधी बातें मुँह में दबा ले गयें, ‘कैसे कहूँ कि रिटायर होने में सिर्फ दो साल बाकी है, बैंक का लोन चुकता नहीं हुआ, खेत गिरवी है । अब ये छोछक...’

करीब सप्ताह भर में हरिराम बुलन्दशहर के सभी बैंकों के चक्कर लगा आये पर कहीं से लोन नहीं मिला । फिर वे अपने नात-रिश्तेदारों के वहाँ मिठाई ले ले कर जाने लगें और सबको खुश हो-होकर लाला के जन्म की ख़बर सुनाने लगें । एक दिन बड़े घर में ब्याही बहन कुंकुंम के घर पहुँच गयें, ‘मेरी लाली सरोज को लाला हुआ है । बड़ा ही सुन्दर है । हम बड़े खुश हैं । आपको तो पता ही है कि सवा महिने में कुआ पूजन के दिन छोछक ले जाना होता है । अब बड़े घर में ब्याही है तो छोछक भी ऐसा ले जाना होगा कि दुनियाँ देखती रह जाये’ ।

‘हाँ हाँ क्यों नहीं... ससुराल वालों के मान-मर्यादा का खयाल तो रखना ही पड़ता है । आपके भी पुरखों को देश-जवार जानता ही था, आखिर उनकी भी ईज़्ज़त का सवाल है’ । कुंकुम के पति शेखर ने जवाब दिया ।

‘इसीलिए तो हमने राहुल और रेशमा के विवाह में कोई कसर नहीं छोड़ी, हमने आप लोगों को भी आप सबके हैसियत के हिसाब से ही जेवरात बनवाये थे... सुना था आप सबके घर वाले चेन देख कर बड़े खुश हो गये थे’

‘हाँ हाँ... मेरा भी चेन देखकर लोग कहते कि क्या चेन मिला है और कुंकुंम के गले में हथेली भर का लटकता लॉकेट देख कर कुछ लोग तो हहा ही गयें कि इतना बड़ा लॉकेट का माला...’ !

‘तो आपको क्या लगता है कि छोछक में क्या-क्या ले जाना चाहिए ताकि हमारा भी नाम हो और हमारी लाली का भी मान-सम्मान बढ़ जाये । आखिर दादरी से दनकौर है ही कितनी दूर... दोनों जगह के रीति-रिवाज लगभग एक जैसे ही होते हैं... सो आपको यहाँ की सारी स्थिति पता ही है’ ।

‘देखिए हरिराम जी... यहाँ किसी के पास पैसों की कमी तो है नहीं । ग्रेटर नोएडा का जब नगरीकरण हो रहा था तब अथॉरिटी से गाँव वालों को उनके जमीन के बजले सरकारी मुआवजा मिला है । उसी से अधिकतर लोगों ने आलीशान बँगला बनवा लिया और दो-दो चार-चार गाड़ियाँ खरीद लीं । गाड़ियाँ किराये पर चलती हैं तो आमदनी भी अच्छी हो जाती है । अब खाये-पीये-अघाये लोगों को कम क़ीमत की सामान देंगे तो ईज़्ज़त तो करेंगे नहीं । इसीलिए जो भी देना है उन्हें उनकी हैसियत से थोड़ा बढ़कर ही देना होगा’ ।

‘मैं भी यही चाहता हूँ । लेकिन एक मजबूरी है’

‘जन्मजात रईस हैं आप लोग तो, फिर आपको क्या मजबूरी हो सकती है’ ? शेखर ने अपने दायीं पैर के ऊपर बायीं पैर चढ़ाते हुए कहा ।

‘समय एक जैसा नहीं रहता । इधर कुछ परेशानियों ने घेर लिया है’

‘ऐसी क्या बात हो गयी ? हम रिश्तेदार हैं आप बेझिझक कह सकते हैं’

‘सोच रहा हूँ कैसे कहूँ’

‘हम लोगों से नहीं कहेंगे तो किससे कहने जायेंगे, यदि हमसे कुछ हो पायेगा तो हम जरूर करेंगे’

‘आप तो जानते ही हैं कि हम लोग एन.सी.आर. में रहते हैं । जितनी तेजी से इसकी प्रगति हो रही है उतनी ही तेजी से यहाँ की मँहगाई बढ़ रही है । दो साल पहले राहुल का विवाह किया था, इस साल रेशमा का । कर्ज से लद गया हूँ । अब छोछक के लिए कहाँ से पैसे ले आऊँ समझ में नहीं आ रहा’

‘……………..’

‘मैं समझता हूँ कि आप बड़े लोग हैं और जो जितना बड़ा होता है उनका खर्चा भी उतना ही बड़ा होता है । लेकिन रिश्तेदारी के नाते कह रहा हूँ कि अगर कुछ...’

‘……………’

‘…………..’

‘आज कल हमारी भी हालत थोड़ी खस्ता है । मैं देखूँगा अगर कुछ कर सका तो । आखिर रिश्तेदार सहायता नहीं करेंगे तो कौन करेगा । चिंता मत कीजिए... मैं समझ गया... अभी आप निश्चिंत होकर घर जाइये । मैं बताऊँगा’ ।

हाथ जोड़ हरिराम चल तो दिए पर शेखर के बातों पर भरोसा नहीं हो पा रहा था और अगर शेखर ने इंतजाम किया भी तो कितना करेगा कुछ निश्चित नहीं था ।

हफ्ते भर तक कुछ जवाब न मिलने पर हरिराम अपने दोस्तों के घर जाना शुरू कर दिए । बुलन्दशहर में जिनको-जिनको वे जानते सबके घर मिठाई पहुँचा आयें । जो भी पैसे थे मिठाई में उड़ गए । कहीं से कोई बात न बन पायी । अब हरिराम थक-हार कर घर बैठ गए ।

कुआ पूजन में बस दस दिन बचा था । हरिराम को चिंता से बुखार आ गया । उन्होंने पचास-पचास हजार में अपनी दो गाभीन भैंसों को बेच दिया । आज के समय में एक लाख न तो हरिराम की ईज़्ज़त बचा सकते थे न ही सरोज के परिवार वालों के लिए काफी था । मनोहरी देवी ने हरीराम की स्थिति भाँप ली । उन्होंने पीहर से मिले अपने गहने बेचकर एक लाख जुटाया ।

दो लाख की रकम लेकर पति-पत्नी अपने परिवार के सामने बैठें । हरिराम ने मंत्रणा करते हुए कहा, ‘हमारे पास अब दो लाख हैं । इस दो लाख में कितने गहने और कितने कपड़े हो पायेंगे, ये सोच समझ कर बताओ । हम चाहते हैं सस्ते में सब निपट जाये’ ।

‘बहुत बड़ा परिवार है सरोज के पापा । सस्ता सस्ता सामान भी अगर खरीदेंगे तब भी नहीं हो पायेगा । और अगर सस्ता सामान देंगे तो सरोज की उसके घर में क्या ईज़्ज़त रह जायेगी’ !

‘उसके घर में आदमी कितने हैं और औरत कितनी ? सबसे पहले यह देखना होगा’

‘सरोज के पति खुद तीन भाई और तीन बहन हैं, उसके श्वसूर तीन भाई और उनकी दो बहने हैं । बड़े श्वसूर के तीन लड़के और एक लड़की और छोटे श्वसूर के दो लड़के ही हैं । उनकी आजी अभी जिन्दा ही हैं । उस तरह मिलाकर ग्यारह मर्द और उनकी पत्नियाँ ग्यारह हुईं, छः बहनें, एक आजी और घर में सबके मिलाकर पच्चीस बच्चे हैं, जिनमें से बारह लड़के और तेरह लड़कियाँ हैं’।

‘इस तरह अगर हम सबके लिए अच्छे कपड़े खरीदना चाहें तब भी नहीं हो पायेगा । सस्ते में खरीद लें तो हो जायेगा । लेकिन मिठाई और गहनें’ ?

‘…………’ कुछ देर तक खामोशी छायी रही ।

कुछ देर के बाद राहुल की पत्नी सुनीता ने कहा, ‘पापा जी, आप चाहो तो मेरे गहने बेच दो’

‘नहीं बेटा... तुम्हारे गहनों पर सिर्फ तुम्हारा हक़ है । हम कुछ न कुछ इंतजाम कर लेंगे’ । कहते हुए हरिराम उठ कर वहाँ से चले गयें । पीछे पीछे मनोहरी देवी भी पहुँची, ‘अब क्या करेंगे हम ? हमारी लाली की ईज़्ज़त क्या रह जायेगी उसके ससुराल में । पहला बच्चा है उसका’ ?

हरिराम चुपचाप आँख बंद किए दिवार से सर सटा लिये ।

जमींदार, साहूकार कबके मर चुके हैं पर उनकी आत्माएँ अभी भी कुछ लोगों में जीवित हैं । जो जरूरत के समय हरिराम जैसे लोगों को थाम लेते हैं । हरिराम को उन्हीं आत्माओं ने याद किया और हरीराम पहुँच गयें धनाढ़य राम नारायण जी के पास । खेत से लेकर बिजनेस तक सब की पायी पायी जानकारी रहती है उन्हें । जैसे पैसा देते हैं वैसे ही वसूलना भी जानते हैं । उनकी निगाहों से कोई भी जरूरतमंद बच नहीं पाता, एक न एक दिन उनका शरणार्थी हो ही जाता है । सच तो यही है कि चाहे क़ीमत कोई भी चुकानी पड़े लेकिन ऐसे समय में राम नारायण जैसे लोग ही भगवान बनकर खड़े होते हैं । समय पर खड़े होकर बहुतों की नाक कटने से बचा ली है राम नारायण ने । जैसा नाम वैसा ही काम… सृजन और संहारक ।

‘क्या भाई हरिराम ! अब ऐसे समय में भी बताने में संकोच करोगे’ गद्दीदार सोफे पर बैठते हुए राम नारायण ने कहा ।

‘सोचा था इंतजाम हो जायेगा, लेकिन...’ कहते कहते चुप हो गये हरिराम

‘बैठो बैठो भाई । इतने दिनों से हमें चिट्टी पहुँचाते हो और जरूरत के समय याद भी ना किया’

‘............’

‘मैं जानता नहीं हूँ क्या कि कितनी कमाई होती है इस पोस्ट-मैनी से…। (कुछ सोचते हुए) पूरखों में एक पीढ़ी निकम्मी निकल गयी तुम्हारी । धन-दौलत शराब में गेर (डाल) दिया । वरना कौन नहीं जानता था तुम्हारे खानदान को’

‘………..’

‘बिटिया को लाला हुआ और मिठाई भी नहीं लाये’ हँसते हुए चिढाया राम नारायण ने

शर्मा के रह गए हरिराम । घर से निकलते समय मिठाई के विषय में उनको खयाल तक नहीं आया था ।

‘अच्छा कोई बात नहीं… मैं समझता हूँ समय को... समय बहुत बलवान होता है । तुम पर भी लक्ष्मी जी की कृपा होगी’ ।

‘मेहरबानी होगी आपकी, जो इस समय...’

‘अरे भाई... मेहरबानी की क्या बात है । तुम्हारे परेशानियों का पता चलते ही तुम्हें तुरन्त बुलवा भेजा, वरना तुम तो इधर लाला की खुशखबरी भी सुनाने नहीं आते ।... अच्छा बताओ कितने दिन बचा है कुआ पूजन में’ ?

‘सिर्फ दो दिन’ ?

‘ओ हो ! अब तक तो सारा इंतजाम हो जाना चाहिए था । जाकर खरीदारी करो । कितने पैसों की जरूरत है’ ?

‘मेरे पास सिर्फ दो लाख हैं...’

‘अरे भाई... आज के समय में दो लाख में क्या होता है ! अपने खानदान की और लाली के खानदान की ईज़्ज़त भी तो बचानी है । अच्छा बताओ कितने लोग हैं घर में’ ?

‘ग्यारह मर्द, अट्ठारह औरतें, सरोज के लाला को छोड़ कर घर में बारह लाला हैं और तेरह लाली’ ।

‘यह तो बड़ी समस्या है, बहुत पैसे लग जायेंगे । सबको कपड़े लत्ते और छोटे-मोटे जेवर दोगे ही । लाली और उसका लाला... और उसकी सास को भारी जेवर ले जाना ही पड़ेगा । साथ में कुछ तो कैश देना ही पड़ता है’ ।

‘इतना तो रिवाज है ही’

‘इतनाही रिवाज नहीं है बल्कि बहुत लोग तो इलेक्ट्रॉनिक सामान भी देते हैं और इन सबमें फल और मिठाई की कहीं गिनती ही नहीं । हम तो कहते हैं भाई कि अब ये रीति-रिवाज टूटना चाहिए, आदमी कंगाल हो जाता है ।... पता नहीं किसने बनाई ऐसी रीतियाँ ।... पर क्या करें नहीं निबाहेंगे तो समाज जीने नहीं देगा... कहने के लिए एन.सी.आर में हैं पर सोच तो अभी भी पुरानी ही है... हमें तुम्हारे लिए दुःख है हरिराम... वैसे ये दहेज में तो गिना नहीं जाता खुशी में जितना चाहो लुटा दो’ ।

‘खुशी तो बहुत है, लेकिन परिस्थिति खुश नहीं होने दे रही...’ मायूस से हो गये हरीराम

‘अच्छा बताओ कितने पैसों में हो जायेगा तुम्हारा काम’ ?

‘यही कोई पाँच-सात लाख का इंतजाम हो जाये तो हम किसी तरह निपटा लेंगे’ ।

‘अरे भाई... इतने बड़े घर में छोछक ले जा रहे हो, भला पाँच-सात लाख में क्या होगा ? सस्ते के चक्कर में मत पड़ना पूरे जात-बिरादरी में थू-थू हो जायेगी । ऐसा न हो कि पैसे भी खर्च करो और लोग तुम पर हँसे भी... ऐसा ही था तो बड़े घर में लाली को ब्याहना ही नहीं चाहिए’ ।

‘इससे अधिक कर्ज ले लिया तो चुकायेंगे कैसे’ ?

‘उसकी चिंता क्यों करते हो । जमीन जायदाद तो है ही तुम्हारे पास’

‘कहाँ... सब गिरवी पड़ा है । बैंक से लोन ले रखा है’

‘और घर’

‘एक घर ही तो बचा । अब इसे भी...’

‘कैसी बात करते हो भाई । किसने कहा कि घर को दाँव पर लगाओ । अब दस लाख से कम कर्ज हम दे नहीं पायेंगे, यह तो हमारा नियम है... । पैसों के बदले कुछ तो हमारे पास होना चाहिए... अब तुम कह रहे हो कि सिर्फ घर ही बचा है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ।... सोच-विचार कर लो... ये पेपर रखा है, इस पर साइन करो और पैसे ले जाओ । लेकिन सोच लेना चौदह परसेंट ब्याज भी है । बाद में यह मत कहना कि मैंने बताया नहीं’ ।

‘चौदह परसेंट’ !

‘हाँ भाई... आखिर बैंक तो लोन दे नहीं रहा । हम दे रहे हैं तो बैंक से थोड़ा अधिक ही परसेंट ब्याज रखेंगे । और हम तुम्हारे ऊपर कोई दबाव तो डाल नहीं रहे । तुम्हारी मर्जी है । तुम्हारी ईज़्ज़त बचाने के लिए ये कदम उठाया है’ ।

‘पर हम चुकायेंगे कैसे’ ?

‘अरे भाई ! अभी नौकरी के दो साल बचे हैं तब तक तो चुका ही दोगे’ ।

‘लेकिन हम बैंक का लोन कैसे चुकायेंगे’

‘ओह हो... जब सर पर पड़ता है तो सब हो जाता है । और एक नालायक बेटे को बैठा कर खिला रहे हो, भेज दो उसे काम पर । कहीं काम न मिल रहा हो तो बताओ मैं देता हूँ उसे काम’ ।

‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ’ सर पर हाथ रख कर बैठ गए हरिराम ।

‘समझना क्या है... इन रीति-रिवाजों में ही हम सबकी औकात पता चलती है वरना कौन झाँकने आता है घर में... नमक रोटी खा रहे हो या दाल-भात’

‘सही तो कह रहे हैं राम नारायण । एक बार यह छोछक दे आयें उसके बाद कोई न कोई इंतजाम करेंगे । ईज़्ज़त का सवाल है, बेटी के मान-सम्मान की बात है । इसके अलावा आखिर कोई उपाय भी तो नहीं । सबके आगे हाथ पसारे, पर किसी को तरस नहीं आया । मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी भी ईज़्ज़त के लिए तरसे या अख़बारों में उसकी भी कोई बुरी ख़बर छपे ...’। मन में सोच-विचार करने के बाद हरिराम ने पेपर पर साइन कर दिया और पैसे लेकर कुछ भारी मन से तो कुछ उत्साह के साथ घर लौट आये । दूसरे दिन गहने कपड़े, फल-मूल, मिठाई खरीद कर परिवार वालों के साथ गाड़ी में बैठ कुआ पूजन के लिए चल पड़ें ।

कुआ पूजन के बाद छोछक का सामान थालियों में सजाई गयीं । घर आये मेहमानों, गाँव वालों के सामने प्रेमावती थाल घुमा घुमा कर दिखाने लगी, ‘देखो छोछक आया बहू के मायके से… घर भर के लिए कपड़े-गहने आया है’ ।

‘आपके लिए बहुत मोटी चेन है...’ … ‘बहुरिया के लिए क्या हथेली भर का लॉकेट है, बड़ा पैसा खर्च किए हैं आपके समधी जी ने…’ ‘लाला के लिए तो सात तरह के जेवर है... और इतनी मोटी चेन... यह जवान होने पर ही पहन पायेगा । बधाई हो... बधाई हो...’

यह सब सुन कर फुले नहीं समा रही प्रेमावती । अचानक से उनकी नज़र हरिराम पर पड़ी । उन्हें सुनाते हुए गाँव की औरतों से कहने लगीं, ‘बहुत कुछ ले आये हैं हमारे समधी जी... हमारी ईज़्ज़त रख ली । लेकिन बाकी बहुरियों की पाजेब थोड़ी पतली हो गयी है और कपड़ों की क्वालिटी में वो दम नहीं जो होना चाहिए । ... पहनेंगी तो क्या ईज़्ज़त रह जायेगी... लेकिन चलो कोई बात नहीं अब वे हमारी बराबरी तो नहीं कर सकतें...’

हरिराम जैसे कुर्सी पर बैठे बैठे ही बेहोश हो जायेंगे । उनके हाथ से कोल्ड्रिंक का ग्लास छूटते छूटते बचा । टूट गए हरिराम... बिखर गए... । बिना खाना खाये ही घर लौट आयें ।

रात भर उनके कानों में समधन की आवाज गूँजती रही । ईज़्ज़त, बराबरी, गहने, कपड़े...। घर की ओर देखा तो घर पराया-सा लगने लगा । घर कहीं दूर छिटक चुका था । खुद को रिफ्युज़ी सा महसूस करने लगें । इन सबसे उनका दम घुटने लगा । बहुत टहलने के बाद भी साँस कहीं फेफड़े में ही फड़फड़ाती-सी महसूस होती ।

सुबह-सुबह चाय की चुस्कियाँ लेते समय राहुल की लाली हरिराम का गर्दन पकड़ झूल गयी, ‘दादा... जब मेरी शादी हो जायेगी तब क्या मेरे लिए भी छोछक ले आओगे’

‘हाँ...हाँ... क्यों नहीं । जरूर ले आयेंगे’

‘क्या क्या लाओगे ? मेरे लिए ना एक लाल रंग की लहँगा पहने गुड़िया ले आना और उसके लिए भी हार और मेरे लिए हार ले आना…’

‘अच्छा... (हँसते हुए) और क्या चाहिए मेरी लाली को..’?

‘ऊँ... एक हारमोनियम और एक गाड़ी जो चाबी लगाने से दूर तक चले और...’

उन्हीं बातों के बीच मनोहरी देवी फोन पर बात करते हुए खुशी से बधाई देते हुए कहती आ रही थीं, ‘बड़े भाग्य हमारे... जो रेशमा के जीवन में भी खुशियाँ आ गयीं । हम तो धन्य हो गयें सुनकर’ ।

लाली झट से हरिराम का गर्दन छोड़ मनोहरी देवी का हाथ पकड़ ली, ‘क्या बात है दादी, रेशमा बुआ को क्या हुआ’ ?

‘रेशमा बुआ को भी सरोज के लाला की तरह लाला आने वाला है या फिर... तुम्हारी तरह मेरी प्यारी सी लाली’ ... प्यार से माथे पर पुचकारते हुए मनोहरी देवी ने कहा ।

‘क्या...? (खुशी से उछल पड़ी लाली)... ये..ये...ये... अब तो रेशमा बुआ के घर भी छोछक जायेगा... मम्मी सुनो... रेशमा बुआ के घर भी छोछक जायेगा...’

प्रफुल्लित होकर मनोहरी देवी हरिराम की ओर मुड़ते हुए कहने लगीं, ‘सुनते हैं सरोज के पापा... रेशमा भी अब माँ बनने वाली है…बड़े भाग्य हमारे, हमारी दोनों लालियों.... (मुड़कर देखा तो चौंक गयी) अरे... क्या हुआ आपको...’

हरिराम के हाथों से चाय का प्याला छुटकर नीचे गिर चुका था, उनका सिर कुर्सी से लुढ़क चुका था ।

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