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हमेशा-हमेशा - 2

शादी का दिन आया। शादी भी हुई और शमा रुख़सत भी हुई। अपनी मासूम आँखों में, रंगीन सपने सजाये, लाल जोड़े में गुड़िया सी सजी शमा "अपने घर" चली गयी। शादी की पहली रात को फ़राज़ के इंतज़ार में बैठी शमा को रह-रह कर अकरम याद आने लगा। अपने सर को झटक कर उसने तौबा की और अपने दिल में शर्मिंदा हो, दुआ मांगी कि वो एक नेक और अच्छी बीवी साबित हो। न चाहते हुए भी कुछ आंसू आँखों में झिलमिला गये। सजदे में बैठी, रोती शमा कब कालीन पर ही सो गयी, उसे खुद पता नहीं चला।

सुबह दरवाज़ा ख़टखटाने की आवाज़ से वो जागी तो पाया कि फ़राज़ बेख़बर पलंग पर सो रहे थे। शमा को याद आया कि कैसे वो पिछली रात को सो गयी और फ़राज़ के आने की उसे खबर ही न हुई। अपने दुपट्टे को संभालकर, सर पर सजाते हुए दरवाज़ा खोला तो ननद शहाना चाय के साथ हाज़िर थी। शमा को तैयार हो कर नीचे आने का कहा और इससे पहले कि कुछ दुआ सलाम हो, वो मुस्कुराकर चल दी। नाश्ते के बाद शमा ने अपनी सास से पूछा कि वलीमा कब है क्योंकि वो अपना सबसे भारी जोड़ा वहीँ पहनना चाहती थी। सास ने कुछ जवाब नहीं दिया।

घर में कोई उसे कुछ कहता नहीं था पर न जाने क्यों सब उस से खिंचे-खिंचे से रहते थे। शहाना हमउम्र होते हुए भी उस से ज़्यादा बात नहीं करती थी। अजीब लगता था पर माहौल का फ़र्क़ समझ कर शमा चुप रही।

कुछ दिन घर के दस्तूर, रवायतों और फिर मेहमानों के घर आने-जाने और रिश्तेदारों से मिलने मिलाने में गुज़र गए। बाहरवालों के सामने सब लोग खूब हँसते बोलते पर घर में अजीब ख़ामोशी पसरी रहती। फ़राज़ भी कुछ उखड़े-उखड़े से ही रहते।

नए घर और नए रिश्तों को समझने, सँभालने में लगी शमा कुछ दिन ध्यान न दे सकी पर राज़ ज़्यादा दिन तक उस से छुपा न रह सका और एक दिन उसकी आँखों में बसे सजीले ख़्वाब रेत के महल की तरह बिखर गये। फ़राज़ पांचवी फेल, अव्वल दर्जे का आवारा, शराबी और बदचलन था। रिश्तेदारों से घर खाली होते ही वो अपनी असलियत पर उतर आया। दिन रात शराब, जुआ और नशा करने में ही उसका वक़्त गुज़रने लगा। शमा को प्यार और इज़्ज़त उस घर में किसी से नहीं मिली। फ़राज़ के लिए वो सिर्फ़ ज़रूरत का सामान भर थी जिसे इस्तेमाल करने वो शाम ढले पहुँच जाता। शमा कुरैशी साहब की जायदाद की इकलौती वारिस थी और इसीलिए ये निकाह हुआ था क्योंकि फ़राज़ के जुए की लत से काफ़ी कर्ज़ा चढ़ चुका था। बेरुखी, सीधे पैसों की मांग तक पहुँची और फिर जली-कटी बातों, तानों से गुज़रती हुई, मारपीट तक पहुँच गई। दिन रात की बदसलूकी शमा को जैसे मुँह दिखाई में मिली थी।

दो साल इसी तरह बीत गए। शमा ने पूरी कोशिश की कि फ़राज़ और उसके घरवालों का दिल जीत सके पर ऐसा न हो सका। उन्हें कुरैशी साहब की दौलत चाहिए थी और शमा ने अपने अब्बू पर कभी अपने हालात को ज़ाहिर नहीं होने दिया। दो साल में बेटी एक बार भी मायके नहीं आयी तो कुरैशी साहब ख़ुद उसे सरप्राइज़ देने पहुँच गए। लेकिन वहाँ तो एक सरप्राइज़ उनका इंतज़ार कर रहा था।

पुरानी जर्जर हवेली के लकड़ी के दरवाज़े में बना, छोटा खिड़कीनुमा दरवाज़ा खुला था। बेटी से मिलने की उमंग में तोहफ़ों से लदे कुरैशी साहब जैसे ही अंदर दाखिल हुए, सब्र का इम्तेहान हो गया। यूपी में शीतलहर चल रही थी। जनवरी की सर्दी में दालान में अधलेटी भीगी हुयी शमा ठिठुर रही थी और कुरैशी साहब का चुना हुआ दामाद उस पर ठन्डे पानी की बाल्टियाँ उंडेल रहा था। पानी की ठंडक शमा की हड्डियों को गला रही थी तो फ़राज़ की गालियां और सास-ससुर की बातें उसका दिल जला रहीं थीं। शमा के लिए खरीदे तोहफों के पैकेट्स के साथ धम्म से कुरैशी साहब भी ज़मीन पर गिर पड़े।

अब्बू को देख शमा सब कुछ छुपाकर उनके गले लग जाना चाहती थी पर मारपीट से ज़ख्मी और खाने की कमी से कमज़ोर हुआ, बुखार में तपता शरीर, उसकी तकलीफ़ पर पर्दा नहीं डाल सका। अब्बू के पास पहुँचते-पहुँचते वो बेहोश हो कर गिर पड़ी। कुरैशी साहब ने तुरंत टैक्सी बुलाई और शमा को नज़दीकी अस्पताल ले गये। बेटी की हालत से कुरैशी साहब सदमे में थे और बुरा लगा ये देखकर कि शौहर और ससुरालवालों में से कोई भी उसका हालचाल पूछने नहीं आया।

दो दिन बाद शमा को डिस्चार्ज करवा के कुरैशी साहब अपने साले के घर पहुँचे। रास्ते भर सोचते गये थे कि जी भर कर सवाल-जवाब करेंगे, अपनी बेटी की हालत को लेकर और ज़रूरत पड़ी तो कचहरी का दरवाज़ा भी खटखटाएंगे। दरवाज़ा शहाना ने खोला। उसी से पता चला कि उसके अम्मी अब्बू किसी दूर के रिश्तेदार की शादी में शरीक होने आगरा चले गए। मुँह में कुछ कड़वा ज़ायक़ा घुल गया ये सोचकर कि शमा बुखार में तपती रही और ये लोग मुँह उठाकर दावत उड़ाने चल दिये!

फ़राज़ अपने लफंगे दोस्तों के साथ बाहर गया था। शहाना ने कुरैशी साहब को शमा के साथ घर में हुई हर ज़्यादती के बारे में बताया और ये भी कि फ़राज़ की पैसे की डिमांड पूरी न होने की सूरत में वो शमा की जान भी ले सकता है। शराब के नशे में वो दरिंदा बन जाता है। कुरैशी साहब का दिल तो किया कि इंतज़ार करें और फ़राज़ के आने पर उसका मुँह नोच लें पर बैठक से नज़र आते उसके कमरे में, तिपाई पर रखा देसी कट्टा देख कर वो ताड़ चुके थे कि अपनी बेटी को यहां से दूर ले जाने में ही उसकी भलाई है।

फ़ौरन कुरैशी साहब ने अपने कुछ लोकल रिश्तेदारों को फोन किया और शहाना ने उनकी मौजूदगी में फ़राज़ को फ़ोन किया। कुरैशी साहब ने रिश्तेदारों को अपना इरादा पहले ही बता दिया था और कोई भी शमा को उस जहन्नुम में रखे जाने के हक़ में नहीं था। उन्होंने कोशिश की कि बातचीत से मसला सुलझा लिया जाए पर फ़राज़ के लड़खड़ाते कदमों और मुँह से आती शराब की बदबू ने मौका ही नहीं दिया। यहाँ सब रिश्तेदार होने वाले हंगामे से घबरा रहे थे पर उम्मीद के उलट फ़राज़ मिट्टी का शेर निकला। शमा से पैसे उसे मिलने नहीं थे इसलिए वो उसके किसी काम की थी नहीं। नशे में उसने सबके सामने शमा को तलाक दे डाला। कुरैशी साहब ने शमा को संभाला और अपने घर के लिए चल दिये। शमा का सिर्फ़, फिर से, घर बदल रहा था। दिल का रिश्ता तो बना ही नहीं था, टूटने का दुःख कैसे होता? हाँ, अपने वजूद को हिला देने वाले हादसों से कुछ खोई-खोई और उदास वो ज़रूर थी। पर आँखों से लगता था जैसे वो अपना फ़ैसला कर चुकी है।

कुरैशी साहब की पूरे रास्ते उस से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई। डिस्पोज़ेबल कप में उसे चाय थमाकर इतना ज़रूर बोले, "शमा, हर बाप अपनी बेटी के लिए अच्छा सोचता है और बेहतरीन करने की कोशिश करता है पर कभी-कभी बड़ों के फ़ैसले भी ग़लत हो जाते हैं। हो सके, तो अपने अब्बू को माफ़ कर देना मेरी बेटी।"

जवाब में शमा एक फीकी मुस्कान बिखेरकर चुपचाप चाय पीती रही। कुरैशी साहब जानते थे कि उनकी बेटी दुःख और गुस्से में भी कभी अपने अब्बू को ग़लत नहीं कहेगी।

........ To be continued