सब राज़ी हैं। अम्मी के अल्फ़ाज़ शमा के कानों में गूँज रहे थे। यही तो उसका डर था कि राज़ी न हुए तो? पर ऐसा नहीं है। शमा ने अपनी कलाई घड़ी पर नज़र डाली, 6:45 बज रहे थे। अँधेरा होने को था। उसे याद आया सुबह जल्दी में वो बॉलकनी का दरवाज़ा खुला छोड़कर चली गयी थी। बॉलकनी का दरवाज़ा बंद करके वो सीधी किचन में गई और अपने लिए गर्म चाय बनायी। चाय के हर घूँट के साथ पिछली ज़िन्दगी उसके सामने तस्वीरों सी चलती रही।
अचानक उसे पता नहीं क्या हुआ कि दौड़कर बॉलकनी में गयी और बहार सड़क पर नज़र डाली। मानव की लाल सेल्टोस अभी भी वहीं खड़ी थी जहाँ वो उसे छोड़ कर आयी थी। मानव अकेला होता तो इतनी देर इंतज़ार करता ही नहीं। पूजा को लेकर आता और सीधे उसे मनाने में लग जाता। तो क्या अकरम अभी भी....?!
शमा ने मानव को फ़ोन लगाया। मानव ने फ़ोन उठाते ही कहा कि अकरम उसके साथ ही है, क्या वो मिलना चाहेगी? ज़ाहिर सी बात थी कि उन्होंने उसे बॉलकनी में खड़े देख लिया था।
शमा के जवाब का इंतज़ार किए बिना अकरम गाड़ी से उतरा। मानव से फ्लैट नंबर पूछा और चल दिया। शमा ने फ़ोन पर सुन लिया पर रिएक्ट नहीं किया। बस मानव को बाय कहकर फोन रख दिया। उसकी धड़कने उसके बस में नहीं थीं। क्या कहेगी वो अकरम से? आज इतने सालों बाद दोनों रूबरू मिलने वाले थे और वो भी एकदम अकेले!
तभी डोरबैल बजी। काँपते हाथों और लड़खड़ाते क़दमों से शमा ने दरवाज़ा खोला। अकरम अंदर आया, दरवाज़ा बंद किया और सोफ़े पर बैठ गया। शमा कुछ देर सोचती रही फिर उसके सामने जाकर बैठ गयी।
अकरम एकटक उसे देख रहा था और शमा अपने पैरों पर नज़र गड़ाये चुपचाप बुत बनी बैठी थी।
"तुम्हें मेरा यहां इस वक़्त आना अजीब लगा होगा न? बिना इजाज़त नहीं आता कभी! पर आज आना ही पड़ा शमा! कोई चॉइस नहीं थी मेरे पास।" अकरम ने चॉइस पर कुछ ज़्यादा ज़ोर देते हुए कहा।
शमा ने तड़पकर अकरम को देखा और बोल पड़ी, "चॉइस मेरे पास भी नहीं थी अकरम। बेटी और माशूका की लड़ाई में अक्सर बेटियाँ ही जीतती हैं।"
"जानता हूँ। और तुम्हारे उस फ़ैसले से मुझे कोई शिकायत नहीं है।" अकरम ने नज़रें नीचे कीं और दोबारा शमा के चेहरे तक नहीं लाया।
"तो फिर तंज़ क्यों कस रहे हो?"
"क्योंकि तकलीफ़ में हूँ। एक ज़ख्म है मेरे अंदर जिस से रोज़ कतरा-कतरा मवाद रिस कर मुझे अंदर से खोखला कर रहा है। आज तुम्हारे पास चॉइस है शमा। बहुत बर्दाश्त किया है मैंने, और तुमने, मुझसे बहुत ज़्यादा। तुम्हारी तकलीफ के आगे मेरी तकलीफ़ कम हो सकती है पर अब ये दर्द या तो मेरी जान ले लेगा या तुम मेरी दवा बन जाओ शमा।"
"दवा तो बीमारी की होती है। यानि जब इश्क़ का बुखार उतरेगा तो दवा की ज़रूरत नहीं रह जाएगी न?"
"देखो, लिटरेचर के स्टूडेंट्स जैसी बातें हम इंजिनीयर्स को करनी नहीं आती। तुम जानती हो कि तुम क्या हो। और मैं जानता हूँ कि तुमको कोई सबूत नहीं चाहिए मेरे प्यार का। एक प्रॉब्लम थी, वो सॉल्व हो चुकी है, सब बड़ों की रज़ामंदी है अब। तो क्या प्रॉब्लम है?"
"तो नज़रें मिलाकर ये बात क्यों नहीं कहते हो?"
"तुम्हारी तरफ़ फिर से देखा तो कोई गुस्ताख़ी कर बैठूंगा शमा जो शायद तुम्हें बुरी लग जाए। मेरे जज़्बात मेरे काबू में नहीं हैं। अपनी बात समझाने को लफ़्ज़ कम पड़ रहे हैं।" अकरम ने रुंधे गले से कहा।
"लफ़्ज़ ज़रूरी होते हैं अकरम, पर, वक़्त का साथ लाज़मी होता है।"
"मैं कुछ समझा नहीं?"
"कभी-कभी कुछ बातों को लफ़्ज़ों की दरकार होती ही नहीं है।"
अकरम ने नज़रें उठाकर शमा को देखा। आँखों में आँसू भरकर वो आज एक अलग ही अंदाज़ से उसे देख रही थी। अकरम उठा और उसके साथ-साथ शमा भी अपनी जगह से उठ खड़ी हुयी। अगले कुछ पलों में दोनों नहीं समझ पाए कि किसने कितना फ़ासला तय किया पर दोनों एक दूसरे की बाहों में थे। लफ़्ज़ों की जगह आँसुओं ने ले ली थी।
कुछ देर बाद अकरम ने शमा के चेहरे पर बिखर आये उसके बालों को आहिस्ता से उसके कान के पीछे, करीने से संवारा। उसके गालों पर बह रहे आँसुओं को अपनी उंगली से पूरी नज़ाक़त के साथ पौंछा और उसके माथे पर प्यार से अपने होंठ टिका दिए।
शमा कुछ देर उसके सीने से लगी रही फिर चेहरा उठाकर अकरम से बोली, "अब कोई और आंधी हमारे सपनो को नहीं उजाड़ेगी न? तुम मेरे साथ हो न अकरम? बोलो, तुम मेरे हो?"
जवाब में अकरम ने मोहब्बत से उसकी आँखों में देखकर कहा "हाँ, सिर्फ़ तुम्हारा। और तुम्हारे साथ, हमेशा हमेशा।"
शमा ने अपनी एड़ियां ऊँची उठाईं और अगले ही पल दोनों के होंठ आपस में मिल गये। कुछ देर बाद शमा के कुछ अस्पष्ट से लफ़्ज़ हवा में फिर से उछले जिनके जवाब में दो होठों के जोड़े सारे सवाल-जवाब, गिले-शिकवों के बहीखाते खोल कर, एक दूसरे का बरसों का उधार चुकाने में मशगूल हो गये। सिर्फ अकरम के दो लफ्ज़ बीच में सुनाई दिए, "हमेशा हमेशा।"
- समाप्त
(- अदिति )