Kurukshetra ki Pahli Subah - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 25

25.अभ्यास का आनंद

श्री कृष्ण: हे महाबाहु अर्जुन यह सच है कि मन बड़ा चंचल है और कठिनाई से ही वश में होने वाला है परंतु इसे नियंत्रण में करने का उपाय भी है। 

अर्जुन: वह क्या है प्रभु?

श्री कृष्ण: यह मन अभ्यास और वैराग्यभाव से वश में होता है अर्जुन! मन को साधने का अभ्यास आवश्यक है जिस तरह तुमने धनुर्विद्या सीखी है। याद करो जब तुम ने पहली बार धनुष उठाया था तो एक बालक ही थे। 

अर्जुन:जी भगवान!

श्री कृष्ण: क्या पहली बार में ही तुमने धनुष से अचूक बाण छोड़े थे अर्जुन?

अर्जुन: नहीं प्रभु वास्तविकता तो यह है कि मैंने पहले धनुष सही तरह से पकड़ने का ही कई दिनों तक अभ्यास किया। उसके बाद धीरे से गुरुदेव ने मुझे धनुष की प्रत्यंचा के संबंध में जानकारी दी और फिर बाण रखने की जगह और हाथों की सही स्थिति की जानकारी दी। यह सच है कि महीनों अभ्यास के बाद मैंने थोड़ी सफलता प्राप्त की थी। 

श्री कृष्ण: मन पर नियंत्रण के लिए भी यही अभ्यास चाहिए अर्जुन। इस अभ्यास के साथ-साथ सांसारिक चीजों के प्रति विकर्षण और वैराग्य भाव का होना भी आवश्यक है। अन्यथा मनुष्य एक काम करता रहता है पर उसका ध्यान कहीं और अटका होता है, इसलिए दृढ़ता से अपने मन को खींचकर वर्तमान कर्तव्य पथ पर संकेंद्रित रखना अनिवार्य हो जाता है। 

अर्जुन:जी प्रभु!

अभ्यास से व वैराग्य से चित्त के विक्षोभ या चंचलता को रोका जा सकता है। 

इसका लाभ बताते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि जिस व्यक्ति ने अपने मन को वश में कर लिया है ऐसे साधक द्वारा योग को प्राप्त होना सरल है। अगर जिसका मन अपने वश में नहीं है उसके लिए योग मार्ग कठिनाई से प्राप्त होने वाला है। 

अर्जुन सोचने लगे, तो प्राणायाम और योग के अभ्यास के लिए मन पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा यह केवल शारीरिक अभ्यास बनकर रह जाएगा। अर्जुन के मन में एक और प्रश्न उठा। वे सोचने लगे कि क्या योग साधना तभी सफल मानी जाएगी जब साधक इसके अंतिम लक्ष्य अर्थात समाधि और फिर उस परमात्मा तत्व की अनुभूति के आनंद को प्राप्त कर ले। अगर मनुष्य वहां तक नहीं पहुंचा तब तो सारी साधना व्यर्थ हो गई। उन्होंने श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए कहा। 

अर्जुन: प्रभु ऐसी स्थिति में क्या होगा अगर कोई योग मार्ग में श्रद्धा रखता है लेकिन संयम का पालन नहीं कर पाया और योग मार्ग में थोड़ा आगे बढ़ने के बाद वह विचलित हो गया। क्या ऐसे में वह अपना सब कुछ खो देगा?अगर ऐसा हुआ तब तो कोई इस मार्ग पर कदम रखने में संकोच करेगा। 

श्री कृष्ण: ऐसी स्थिति में भी मार्ग है अर्जुन!

अर्जुन: जी भगवन! अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह साधक जो ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में चलने के दौरान मोहग्रस्त हो गया है। उसे अपना कोई आश्रय दिखाई नहीं दे रहा है। क्या ऐसा साधक छिन्न-भिन्न बादल की भांति नष्ट - भ्रष्ट हो जाता है? कृपया इस संशय की स्थिति में आप मार्गदर्शन करें क्योंकि आप ही इस संशय को दूर करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। 

भगवान कृष्ण यह समझ रहे थे कि अर्जुन ने ऐसा प्रश्न क्यों किया है। जिस आत्म दृढ़ता के मार्ग पर अर्जुन चल रहे थे उसमें महाभारत युद्ध शुरू होने के ठीक पूर्व डांवाडोल की स्थिति बन गई। यहां अर्जुन के मन में निर्णायक स्थिति में मार्ग परिवर्तन और पहले के सारे कर्मों के लेखे- जोखे को लेकर अनेक प्रश्न उमड़ - घुमड़ रहे थे। 

श्री कृष्ण ने अर्जुन के सिर पर स्नेह से हाथ रखते हुए कहा। 

श्री कृष्ण: अर्जुन योग और कर्म के पथ पर आगे बढ़ चुके साधक के संबंध में तुमने अच्छा प्रश्न किया है। अगर वह आत्मउद्धार के अपने साधना पथ और कर्तव्य मार्ग में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया तो भी लोक में उसके सद्कर्म नष्ट नहीं होते। इस जन्म के पार आगे की यात्रा में भी वह दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। उसके कर्म के फल सुरक्षित और संचित रहते हैं। अच्छे कर्मों का कभी न कभी फल मिलता ही है। तत्काल नहीं तो कभी और।