Mahavir Lachit Badfalun - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

महावीर लचित बड़फूकन - पार्ट - 3


औरंगजेब जब मुगल साम्राज्य की गद्दी पर बैठा, तो उसने अपने सेनापति मीर जुमला को विशाल सेना के साथ असम पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मीर जुमला वहाँ के सेनापति को घूस देकर सीधे असम की राजधानी गड़गाँव पहुँच गया। 1662 में मीर जुमला ने असम को जीत लिया, पर वह वहाँ अधिक समय नहीं रुका क्योंकि असम की जलवायु उसकी सेना के लिए उपयुक्त नहीं थी । मुगल वहाँ की मूसलाधार वर्षा एवं मच्छरों के अभ्यस्त नहीं थे ।

1663 में पश्चिमी असम के अहोम राजाओं एवं मुगलों के मध्य हुई संधि के अनुसार युद्ध की क्षतिपूर्ति कर युद्ध बंद कर दिया गया। अहोम राजा की राजकुमारी का विवाह औरंगजेब के पुत्र के साथ हुआ और उसका नाम रहमत बानो रखा गया। मुगलों के साथ हुई संधि की शर्तों के अनुसार तय हुआ कि अहोम राजा मुगलों को हर वर्ष कुछ लाख रुपये हरजाना देंगे और साठ हाथी भी भेजेंगे।

अब मीर जुमला ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया परन्तु रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई।

लचित अब एक युवा बन गया था। उसकी वीरोचित शिक्षा-दीक्षा के फलस्वरूप वह शास्त्र व शस्त्र- दोनों में निपुण हो गया था। उसे अहोम स्वर्गदेव के ध्वजवाहक का पद सौंपा गया जो किसी कूटनीतिज्ञ व राजनेता के लिये प्रथम महत्वपूर्ण पद होता है।

राजा जयध्वज मुगलों के साथ हुई इस संधि से नाखुश था। वह चाहता था कि यह संधि तोड़ कर मुगलों पर शीघ्रातिशीघ्र आक्रमण किया जाये। परन्तु उसके प्रधानमंत्री अतन बडगोहाँई ने उसे यह कह कर रोका कि- 'एक बुद्धिमान व्यक्ति को घबराकर ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिये। पहले हमें अपनी फौज को संगठित करना होगा जब तक हम फौज को पूर्ण रूप से संगठित कर पर्याप्त गोला बारूद इकट्ठा नहीं कर लेते, तब तक मुगलों को हराना संभव नहीं हो सकेगा।'

इसके पश्चात् सेना के गठन की तैयारियाँ होने लगीं। एक विशाल सेना का निर्माण किया गया। असम में नदियों की बहुतायत है इसलिए एक सुदृढ़ जलसेना भी बनायी गई । पड़ोसी राजाओं के साथ मैत्री करने व युद्ध में मदद देने के लिए राजदूत भेजे गये। उन्हें संदेश भिजवाया गया कि 'हम मुगल आक्रमणकारियों से अपनी भूमि स्वतंत्र कराना चाहते हैं। इसलिए आप कृपया इस धर्मयुद्ध में हमारी सहायता करें ।' शीघ्र ही खासियों, जयन्ति और कछार के राजाओं ने सहायता का वचन दिया । अहोम राजा ने व्यक्तिगत तौर पर सेना की तैयारी का निरीक्षण किया।

युद्ध की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। राजा जयध्वज सिंह बीमार पड़ गये। अपनी मृत्युशैय्या पर पड़े पड़े उन्होंने चक्रध्वज सिंह से कहा – 'मुझे केवल यही पछतावा रहेगा कि मैं स्वयं अपने जीवन में पश्चिमी क्षेत्र से मुगलों को नहीं निकाल पाया। मेरी आत्मा को तब तक शांति नहीं मिलेगी, जब तक यह कार्य संपन्न नहीं होगा।'

इस पर उनके उत्तराधिकारी चक्रध्वज सिंह ने संकल्प लिया- 'मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मातृभूमि पर लगे इस कलंक को मिटाकर ही रहूँगा।' यह आश्वासन सुनकर राजा को अपार संतोष हुआ और उन्होंने शांति से अपने प्राण त्याग दिये ।

राजा की मृत्यु के पश्चात् चक्रध्वज सिंह गद्दी पर आसीन हुए। एक दिन राजदरबार में मुगल राजदूत कुछ वस्त्र लेकर आया जो मुगल बादशाह ने भेजे थे। राजदूत ने आते ही कहा- 'कृपया आप यह वस्त्र धारण करें। इससे यह प्रकट होगा कि आपको मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार है। '

यह सुनकर अहोम राजा क्रोधित हो उठा और उसने कहा - 'इंद्र के वंशज के समक्ष तुम्हें यह सब बोलने की हिम्मत कैसे हुई ? हम तुम्हारे अत्याचारी बादशाह के गुलाम नहीं हैं। हम चाहें तो इसके लिये तुम्हें कठोर दण्ड दे सकते हैं पर चूँकि तुम राजदूत हो, इसलिए तुम्हें जीवनदान देते हैं। जाओ और अपने बादशाह से कहो कि हम उसके साथ युद्ध लिए तैयार हैं।'