Bhooto ki Kahaaniya - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

भुतोंकी कहानिया - 5

म विच फॉरेस्ट जंगल भाग ५ लास्ट


"तो फिर अपर्णा को कहानी कैसी लगी?"
यह कहते हुए विजय ने अपर्णा की ओर देखा, लेकिन उस सीट पर कोई नहीं था!
"अपर्णा?"
विजय ने एक दो बार सामने वाले शीशे में पीछे मुड़कर देखने के बाद आवाज दी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, आखिरकार विजय ने अपनी चार पहिया कार सड़क के किनारे रोकी और कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकला। पूरे जंगल में अंधेरा था। विजय चेटकाया के जंगल में उस सड़क पर अकेला खड़ा अपर्णा को आवाज़ दे रहा था,
"अपर्णा? यार, अब मत रुको, देखो, मुझे डर लग रहा है! तुम. प्लीज.. बाहर आओ...! इनमें से कितने जोकर घर का इंतजार कर रहे होंगे?"
अब विजय राडकुंडी के पास आया, पूरी सड़क पर उसके अलावा कोई नहीं था, कब्रिस्तान का सन्नाटा दूर-दूर तक फैला हुआ था, जिसमें यह जंगल एक अजीब कारण से बदनाम हो रहा था, अब वही विचार आने-जाने लगे। विजय का मन, जिसमें वह एक बच्चे की तरह रोने लगा।
"अपर्णा? मुझे डर लग रहा है! चलो...!

आह, आह, आह, अपर्णा...,? आओ...अपर्णा?”
पैसे देते समय विजय चिल्लाकर अपर्णा को बुला रहा था। सड़क के पार एक पेड़ पर बैठा उल्लू शुरू से ही इस दृश्य को ऐसे देख रहा था जैसे कोई दर्शक फिल्म देख रहा हो।
उसी विजय को आवाज आती है,
"व...ज...य...।"
आवाज़ बहुत छोटी और धीमी थी, लेकिन विजय ने अपने कान चुभाए और आवाज़ फिर से सुनी।
"बनाम ...... ..........
इस आवाज़ के साथ मुस्कुराहट भी बोनस बनकर आती है, मौत तो बोनस ही है।
विजय को कौन नहीं सुन सका!
"अपर्णा....! तुम कहाँ हो? देखो, बहुत हो गया। अब देखो तुम्हारी मौज-मस्ती। ऐसा लग रहा है जैसे तुम घर आने का इंतज़ार कर रही हो?"
विजय को लगा कि यह आवाज उसकी प्यारी पत्नी, उसके पोते की है, लेकिन विजय एक बात भूल गया कि वह आवाज बिल्कुल भी सामान्य इंसान की आवाज नहीं थी, वह एक झूठी, नकली आवाज थी।
जिसका अंतर वह प्यार से समझ सकता था...नहीं!
"वी...ज...वाई...! ? मैं यहाँ हूँ? पेड़ के पीछे! आओ इधर देखो!"
हेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहेहे.


बहुत डरावनी आवाज थी, पर विजय तो सम्मोहित हो गया था ना...उसे उस आवाज में फर्क कैसे पता चलेगा दोस्तों....जिस तरफ से आवाज आ रही थी उस दिशा में हल्का सा कदम बढ़ाकर विजय बाएं। हम क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं, उसे इस बदलाव की कोई परवाह नहीं थी! कभी-कभी वह जंगल में घूमते हुए एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे आ जाता था! बरगद के पेड़ के नीचे उसे अपर्णा
पिछला हिस्सा ऊंचा हो गया था. उसके चारों ओर एक अप्राकृतिक धुंध फैल रही थी,
"अपर्णा? अरे, तुम यहाँ क्या कर रही हो, चलो देखते हैं...ऐसा लगता है कि तुम्हारे साथ ऐसा हो रहा है!"
विजय ने अपने पीछे खड़ी अपर्णा से कहा, लेकिन उसने कुछ नहीं किया! तो सरसावाला और विजय ने अपने हाथ बढ़ाये और अपर्णा के कंधों पर रख दिये! और तुरंत उसे एक झटके में उठा लिया, क्योंकि वही शरीर मुर्दे की तरह ठंडा हो गया था।
"अपर्णा" तुम...तुम्हारा शरीर इतना ठंडा क्यों है?
विजय का कुबड़ा डर के मारे कुबड़े आदमी की तरह हो गया था

उन्होंने कहा और कहा। उनके वाक्य के बाद, अपर्णा ने हल्के से अपना एक हाथ बरगद के पेड़ पर छुआ। मानो वो ऊपर देखने का इशारा कर रही हो.! धीरे से विजय ने एक बार अपर्णा की ओर देखा और वह वडा की ओर देखने लगा.!
जैसे ही विजय ऊपर देखता है, उसे एक घातक झटका लगता है। भय से शरीर टेढ़ा हो जाता है, हाथ-पैर जगह-जगह जम जाते हैं, मस्तिष्क बहरा हो जाता है, आँखें इतनी बड़ी हो जाती हैं कि वे अपनी जेबों से बाहर आ जाती हैं, मृत शव पेड़ की शाखा पर लटक जाता है, आँखें चौड़ी हो जाती हैं। जीभ बाहर निकली हुई है, बेजान लाश विजय को घूर रही है। कि विजय के मन में अचानक डर भर जाता है। जैसे ही विजय उस आकृति को देखता है, उसी क्षण वह अशोभनीय आकृति विजय की ओर देखती है और उसे कुछ देर के लिए पकड़ लेती है। .......... .... वह बची है... .केवल...... .विजय की......आखिरी..रहस्यमय .चीख......
आह आह आह आह......!

:अंत: