The initiative is to be done - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

पहल तो करनी होगी - 1

पहल तो करनी होगी

(पहला भाग)

कविता नन्दन

जिस घटना का जिक्र मैं आपसे करने जा रही हूं वह करीब-करीब दो दशक पुरानी है. यह आपको बताना इसलिए जरूरी समझती हूं कि अगर आप आार्थिक मामलों के जानकार हुए तो इस घटना को उस परिप्रेक्ष्य में समझेंगे जिसका लाभ हमारे बदलते सामाजिक परिवेश और राष्ट्रीय वित्तीय योजनाओं पर पड़ सकता है. अगर आप राजनीति के विश्लेषक हुए तो देश की राजनीति में हो रही उथल-पुथल को एक निश्चित दिशा दे सकें. अगर कहीं आप समाजशास्त्री हुए ता सामाजिक स्थितियों में हो रहे बदलाव की मांग को बेहतर ढंग से व्याख्यायित करने का दायित्वनिर्वहन कर सकें. अगर आप साहित्यिक अभिरुचि के हुए तो साहित्य में समाज के संघर्ष को अभिव्यक्ति दें. अगर आप व्यावहारिक ज्ञान रखने वाले हुए तो समाज की दिशा को समझें. और अगर आप इनमें से कुछ भी नहीं मात्र एक पाठक हैं तो इसे कहानी समझ कर पढ़ जाइए. जिंदगी में कई ऐसे मौके आए होंगे जब आपने अपना वक्त यूं ही बर्बाद किया होगा, सो आज मुझ पर अपनी कृपा करते जाइए. यह घटना हमारे समाज के बीच जन्मी एक लड़की की जिंदगी से जुड़ी है जिसे बदलाव की हवा ने ऐसा झिंझोड़ा कि उसने हवा को ही बदल देने की ठान ली.

यूं तो जवानी में हर कोई ही खूबसूरत होता है. ठीक वैसे ही जैसे किसी भी प्राणी के बच्चे अपने शैशव काल में होते हैं चाहे वह इंसान के बच्चे हों या फिर सूअर या सांप के, दिखते बड़े प्यारे हैं. इसी तरह जब कोई खूबसूरत लड़की जवान होती है तो फिर कयामत ही ढाती है. सबसे पहले तो घर वालों के लिए सिरदर्द होती है बाद को मुहल्ले, कस्बे या शहर वालों को बीमार करती है. अमीर की बेटी हुई तो कोई बात नहीं लेकिन गरीब के घर पैदा हुई तो झमेले और बदनामियों का एक सिलसिला उसके पीछे पड़ जाता है जिससे बच पाना लगभग नामुमकिन ही समझिए. रोशनी एक ऐसी ही लड़की है. उसके पिता मैकेनिकल इंजिनियर थे लेकिन डाइरेक्टर ने जब गलत काम कराने की मांग की तो नौकरी से इस्तीफा देकर एक मिल में मजदूर बन गए. मां स्कूल टीचर थी. दोनों ही पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से इतने समर्थ तो थे ही कि एक छोटा मध्यवर्गीय परिवार अपनी जरूरतों को जिस हद तक पूरा कर सकता है, वह भी कर सकते थे. यही कारण था कि किसी चीज के लिए रोशनी को कभी तरसना नहीं पड़ा. शादी के बहुत समय बाद रोशनी पैदा हुई थी. इसलिए उसे भरपूर प्यार मिला. उसे कोई कमी न हो इसीलिए मां-बाप ने दूसरी संतान पैदा करने के बारे में भी नहीं सोचा. पिता ने बहुत सोच समझ कर उसका नाम रोशनी रखा था. वह जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी मां जिद् करती इसका नाम निशा रख दो वर्ना अगर इसकी चमक ऐसे ही बढ़ती गई तो एक दिन आप इसके नाम को लेकर बहुत पछताएंगे. पिता तो अपने ही धुन के पक्के थे. एक बार जो ठान लिया तो वही करना है चाहे उसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े. मां रोशनी को बेहद प्यार करती लेकिन उसके दिमाग पर पिता के विचारों का प्रभाव गहरा था. एक बार जब उससे स्कूल में पूछा गया कि 'तुम किस जाति की हो’तो वह नहीं बता पाई. टीचर ने कहा अपने पापा से पूछ कर आना. पापा ने जिस तरह समझाया उसने वैसे ही स्कूल में जाकर कहा 'मैम हम प्राणियों में मनुष्य जाति के हैं. सभी प्राणियों में श्रेष्ठ. कालेज में पढ़ते हुए उसने पिता से पूछा 'हम अमीर हैं या गरीब' पिता ने कहा 'बेटे हम गरीब हैं'. उसने फिर पूछा 'गरीब होना अच्छी बात है या अमीर'. पिता ने समझाया 'गरीब आदमी हर चीज की कीमत जानता है. उसके पास जो कुछ भी होता है सब कुछ कीमती ही होता है. अमीर आदमी सिर्फ रुपये के बारे में जानता है इसलिए उसके पास फालतू चीजें बहुत सारी होती हैं, कीमती चीजें बहुत कम. उसके लिए रुपया बड़ा होता है और आदमी छोटा.’ इन्हीं विचारों के साथ बढ़ रही रोशनी अपने नैन-नक्श से जितनी खूबसूरत थी उससे कही ज्यादा अपनी अक्लमंदी और ख्यालों से थी. यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय लड़के तो लड़के-लड़कियां तक उससे दोस्ती करने को तरसते. प्रोफेसरों को भी उससे बात करके अच्छा लगता. एक बार उसने पिता से पूछा 'हमारा देश गरीब क्यों है' पिता ने समझाया कि कोई देश अपने संसाधनों के अभाव में गरीब होता है और कोई-कोई देश ऐसा होता है जो संसाधनों से तो संपन्न होता है लेकिन उस देश की बहुसंख्यक जनता गरीब होती है. इसका मुख्य कारण यह होता है कि वहां के संसाधनों पर कुछ सीमित लोगों का कब्जा होता है जिसके कारण जनता अभाव का सामना करती है. जैसे कि हमारा देश है. पिता से बात कर वह इस निष्कर्ष तक पहुंच गई कि मेहनतकश जनता ही इस दुनिया में निर्माण का काम करती है. अगर मेहनतकश न हों तो यह अमीर भूखे-प्यासे मर जाएंगे. यह सच है कि मिस्र के पिरामिड हों या राजाओं, बादशाहों के किले, धन से बनाये गए लेकिन बनाने का काम तो मजदूरों ने ही किया. कोई भी राजा तो अपने लिए अनाज पैदा नहीं करता और न ही अपने लिए हथियार गढ़ता है लेकिन होता सबसे संपन्न है. लड़ाई भी सेनाओं के भरोसे ही लड़ी जाती जो खाली समय में या तो किसान होते या फिर मजदूर, होते मेहनतकश ही थे. पिता ने समझाया था कि मजदूर जिंदगी भर मेहनत करता है उसकी मेहनत इस समाज की जरूरतों को पूरा करने के काम आती है जबकि अमीर जो कुछ करता है वह उसके स्वार्थों को पूरा करने के काम आता है. हर ईमानदार मजदूर अपने समाज और देश की रीढ़ होता है और हर अमीर अपने देश और समाज को किसी-न-किसी रूप में लूटने वाला लुटेरा होता है. एम.ए. करते वक्त एक डिबेट में उसने हिस्सा लिया और यह प्रमाणित कर दिया कि उसकी तर्क शक्ति अच्छे-अच्छों को धूल चटा सकती है. जब उसने यह कहा कि समाज में दो तरह के मानदण्ड हैं, अमीरों के लिए अलग और गरीबों के लिए अलग. अमीर बगैर मेहनतकश एक दिन भी जिंदा नहीं रह सकता जबकि मजदूर जिंदगी भर मेहनत करके भी कंगाल बना रहता है. अमीर अपने हर अच्छे-घिनौने कामों के लिए मेहनतकश की सेवाओं से सुख भोगता है लेकिन उसी मेहनतकश गरीब से उसे घिन भी आती है और उसको नीच कहता है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी मेहनतकश और अमीर अपने संस्कारों को नहीं छोड़ते और यही परंपरा अतीत से वर्तमान तक चली आई है जो हमारे समाज को वर्गों और जातियों में बांटे हुए है. जब तक मेहनतकश के सुफल को अमीर चुराता रहेगा मजदूर वर्ग गरीब और उनकी नजर में नीच और घृणित रहेगा. और अमीर समाज में उच्च-पदों पर आसीन होता रहेगा....’’ प्रोफेसर त्रिपाठी ने कहा था ‘यह लड़की बहुत आगे जाएगी. उन्होने प्रोफेसर असीम से कहा ‘सर ! आपकी स्टूडेंट तो कमाल की है, अगर पीएच.डी. करना चाहे तो मेरे पास भेज दीजिएगा. प्रोफेसर असीम रोशनी के पिता के परिचितों में थे. यहां समाजशास्त्र विभाग में विभागाध्यक्ष थे. वह मुस्कुराए बोले ‘अभी तो फुदकना शुरू किया है देखिए इसकी उड़ान कैसी होती है ?

इसे संयोग ही कहें कि शास्त्री जी रिटायर हुए और रोशनी को डिग्री अवार्ड हुई. ऐसा संयोग तो बिरले ही होता है कि आपने जो सपना देखा हो वह हकीकत बन कर सामने आ जाए. कभी अपनी सहेलियों से कहा करती थी कि ‘मैं अपनी पहली क्लास इसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाना चाहती हूं.’ उसे यह मौका बिना किसी सिफारिश के मिल गया. यूं तो राज बताते फिरने वालों का कहना है कि उसके एप्वाइंटमेंट में प्रोफेसर असीम का बड़ा हाथ था. वह उनकी चहेती जो थी. जो भी सच हो लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह काबिल स्कालर रही. ‘भारतीय समाज में अंतर्जातीय संबंध’ पर शोध कर रही थी. शोध के निष्कर्ष तक पहुंचते-पहुंचते वह इस तथ्य को लेकर कन्फर्म हो गई थी कि भारतीय समाज में महिलाओं की दुर्दशा का कारण उनकी शारीरिक रचना नहीं और न ही कोई दूसरा प्राकृतिक कारण है बल्कि वे उस व्यवस्था की शिकार हुई हैं जो पुरूष को सर्वोच्च और श्रेष्ठ प्रमाणित करने की तमाम साजिशें रचती है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे गुलाम बनाए रखने के लिए ही उसे शारीरिक और बौद्धिक रूप से हीन प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है. यह परंपरा किसी ग्रंथि की तरह स्त्री अन्तस् को विकृत कर रही है, जिससे उबर पाना उसके लिए बहुत मुश्किल हो गया. इसीलिए वह पुरूष पर अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी अपने हीनता के भाव से वंचित नहीं हो पाती है. लेकिन जिस दिन स्त्री-समाज के सामने इस व्यवस्था का नंगा सच होगा उसकी प्रतिशोध की ज्वाला इस पुरूषवादी सोच के कबाड़ को फूंक देगी. विदेशों में हो रहे नारी-आंदोलनों से उसे भारतीय नारी की दशा में किसी बड़े बदलाव के होने का कोई अंदेशा नहीं था. उसके सामने भारतीय समाज का हजारों साल पुराना काला इतिहास खुला पड़ा था. उसकी मेहनत से प्रोफेसर असीम बहुत हद तक इत्तफाक रखते थे. शायद यही वजह थी कि दोनों के बीच वैचारिक एकता के सूत्र इतने मजबूत हो गए थे कि वह किसी भी वक्त एक-दूसरे के दिमाग को पढ़ सकते थे. एक-दूसरे को समझने में उनकी उम्र का अंतर कोई मायने नहीं रखता था.

वह जब भी पढाने के लिए जाने को तैयार होती तो आइने के सामने वैसे ही सजती-धजती जैसे स्टूडेंट लाइफ में सजती थी. मां कभी-कभी टोकती कि अब तुम पढ़ाने लगी हो जरा इसका भी ख्याल किया करो तो कहती ‘मां ! मैं एक पढ़ी-लिखी आधुनिक महिला का प्रतिनिधित्व करती हूं. मां व्यंग्य में कहती तूं माडल्स की तरह क्यों सजती है ? वह बताती कि अपने स्टूडेंट्स के सामने वह एक माडल ही पेश करना चाहती है. आधुनिकता का उसे संजीदा रूप ही पसंद आता, फूहड़ नहीं. टीचर की हाथ में बेंत लिए या फिर रोबीला चेहरा बनाए क्लासिकल इमेज उसे बिल्कुल पसंद नहीं थी. वह चाहती कि स्टूडेंट और टीचर के बीच सहजता का ऐसा वातावरण हो जहां विचारों को घुट-घुट कर छटपटाना न पड़े बल्कि इतने स्वछंद हों जितना कि उन्हें होना चाहिए. अपने को आधुनिक कहने में उसे कभी उस गर्व की अनुभूति नहीं होती जो यह बताने में कि वह एक मजदूर बाप की बेटी है. क्योंकि वह जानती थी कि इस देश में उसके अनगिनत भाई-बंधु सभ्यता के विकास में अभी इतने पीछे छूटे हुए हैं कि अति आधुनिकता का लबादा ओढ़ने वालों की नजर में असभ्य हैं. फिर भी वह साबित करना चाहती थी कि उन्हें अगर मौका मिलेगा तो किसी से कमतर नहीं होंगे. इसीलिए अपनी चाल-ढाल और पहनावे से वह किसी भी कुल कुलीन कही जाने महिलाओं से कम नहीं लगती थी. उसे देखकर प्रोफेसर मधूलिका वार्ष्णेय को कोफ्त होती, कोई आस-पास न भी हो तब भी वह ‘मजदूर की बेटी के नक़्शे देख लो’ कहना नहीं भूलतीं. क्लास में घुसने के साथ ही उसकी मादक मुस्कान का जादू ऐसा होता कि जब तक वह क्लास में होती क्या मजाल कि किसी का ध्यान कहीं और जाए. वह एक-एक लफ्ज को इतनी मोहब्बत भरे अंदाज में पेश करती कि सुनने वाले को उम्र भर याद रहे.

चैंबर में बैठे ही हुए उसने कालबेल बजाया तो रामधनी दौड़ा हुआ आया. वह तब भी इसी विभाग में प्यून था जब रोशनी यहां स्टूडेंट होती थी. रामधनी की आदत है कि वह किसी भी स्टूडेंट खासकर लड़कियों को खाली पीरियड में क्लास से बाहर घूमता देखता है तो इतनी जोर से डांटता है जैसे प्राइमरी के बच्चों को हेडमास्टर. दरअसल वह प्राइमरी तक पढ़ा और सबसे रोबीला व्यक्तित्व उसे हेडमास्टर का ही लगता था. वह हेडमास्टर ही बनना चाहता था, परिस्थितिवश बन नहीं सका. वह जब कभी वी.सी. को देखता तो कहता इससे असरदार तो मेरा प्राइमरी का हेडमास्टर था. रोशनी को भी उसने स्टूडेंट लाइफ में खूब डांटा था. उसे दौड़ कर आता देख उसने कहा काका ! इतनी तेज दौड़ सकते हो तो इंडियन टीम में क्यों नहीं शामिल हो गए. पी.टी.उषा के बाद तुम्हारा ही नंबर होता. उसने दांत दिखाते हुए कहा मैडम आपने जब बेल बजाया तो मैं थोड़ा घबरा गया. आप मुझे काका मत कहा कीजिए, अब आप मैडम हो गई हैं. ‘ठीक है तुम मुझे मैडम मत कहना मैं तुम्हें काका नहीं कहूंगी, शर्त मंजूर हो तो मिलाओ हाथ’, कहते हुए रोशनी ने हाथ उसकी ओर बढ़ाया. रामधनी की झेंप को रोशनी भांप चुकी थी. उसने कहा ‘काका! तुम मजदूर आदमी हो, मेहनत करते हो. मैं भी मेहनत करती हूं और मैं भी मजदूर हूं. हम दोनों मजदूर हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि तुम अपने शरीर को थकाते हो और मैं अपना दिमाग. हम दोनो की मजदूरी सरकार देती है. जब हमारा मालिक एक तो फिर कौन मैडम और कौन रामधनी! इसलिए मिलाओ हाथ और मेरे साथ बोलो ‘मजदूर एकता! जिंदाबाद!! अनजाने ही उसकी बातों में बहता हुआ रामधनी ‘हूं’ बोल गया फिर तो रोशनी से उसे हाथ मिलाकर ही छुट्टी मिली. रोशनी की यह जिंदादिली नामचीन प्रोफेसरों को तनिक भी पसंद नहीं थी. इसीलिए कई बार अफवाहों को फैलाने का भी कारोबार करते. लेकिन रोशनी इसे उन लोगों का पिछड़ापन कह कर टाल जाती.

उसने अपने पीरियड को दो हिस्सों में बांट रखा था. पहला तीस मिनट लेक्चर और बाकी के पंद्रह मिनट प्रश्न काल. प्रश्न या तो स्टूडेंट करें या फिर वह. दोनों ही स्थितियों में स्टूडेंट इंज्वाय करते. एक बार का वाकया याद आता है अपने एम.ए. के विद्यार्थियों को भारतीय समाज के बारे में पढ़ा रही थी. जैसा कि पहले ही बता चुकी हूं कि उसका एक-एक लफ्ज मोती के दाने की तरह कीमती होता और उसका पूरा लेक्चर मोतियों की माला. फिर भी उसके ठीक सामने बैठी सुमन को लगा कि समाज आज भी उसी वैदिक समाज और व्यवस्था को जिये जा रहा है. बदलाव सिर्फ विज्ञान की दुनिया तक ही सीमित रह गया है और खासकर औरतों की जिंदगी तो आज भी वैसी-की-वैसी ही बनी हुई है. उसकी गहन मुद्रा को देखकर रोशनी ने मुस्कुराते हुए पूछा ‘क्या सोच रही हो?’ सुमन ने अचकचा कर कहा ‘-‘मैडम ! आपकी मुस्कुराहट में एक जादू है, इसका राज क्या है?’ रोशनी समझ रही थी कि सवाल को उसने बदल दिया है. उसने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया ‘आधुनिकता! उसने उन्हें बड़े प्यार से समझाया कि हम आज जिस समाज में जी रहे हैं, यह आधुनिक समाज है. फ्रांस की क्रांति के बाद दुनिया भर में एक नई विचारधारा ने जन्म लिया. यह विचारधारा मनुष्य और उसके जीवन को मूल्यवान समझती थी. धीरे-धीरे दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आकर्षण बढ़ता गया. आज कुछेक देशों को अपवाद समझ कर छोड़ दें तो दुनिया के तमाम देश लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार कर चुके हैं. होने को तो यह एक राजनीतिक व्यवस्था है लेकिन हर एक समाज पर इसका गहरा प्रभाव है. लोकतंत्र अपने प्रत्येक नागरिक को इतनी स्वतंत्रता देने की सिफारिश करता है कि उसे अपने मनुष्य होने पर गर्व हो और धरती के सभी प्राणियों में अपने को श्रेष्ठ समझ सके. वह जब अपने को श्रेष्ठ समझेगा तभी वह अपनी श्रेष्ठतम भूमिका का निर्वाह कर सकता है. वैदिक समाज से आधुनिक समाज तक पहुंचने में हमने हजारों पीढ़ियों की लंबी यात्रा की है. आज वह स्त्री होते हुए भी उनकी शिक्षिका है. उससे शिक्षित होने में किसी को अपमान की अनुभूति नहीं होती. वह उनके साथ मुस्कुरा सकती है और वह उसकी मुस्कुराहट पर प्रश्न कर सकते हैं. यह स्वतंत्रता वैदिक समाज में नहीं थी आधुनिक समाज में है. हम अपने उन लाखों-करोड़ों पूर्वजों से भाग्यशाली है जिन्हें शिक्षा पाने या मुस्कुराने के जुर्म में जिंदगी से ही हाथ धोना पड़ा.

रोशनी अपने चैंबर में बैठी हुई टी.बी.बाटमोर की किताब के पन्ने उलट-पुलट रही थी. उसके दिमाग में मां की झल्लाहट बार-बार घूम-फिर कर आ रही थी. सुबह ही मां ने उसे याद दिलाया कि वह रिटायर हो गई हैं. यह भी बताया कि रिटायर होने वाले लोग दुनिया से जल्दी अलविदा कह देते हैं. मां ने यह भी शिकायत की कि उसकी बदनामियों को उनके घर का पता ढूंढने में ज्यादा देर नहीं लगती. यह भी बता दिया कि जब से मधूलिका वार्ष्णेय की बेटी ने अपने से छोटी बिरादरी में शादी कर ली है वह पडोसी होने के नाते जब-तब अपनी भड़ास यहां निकालने चली आती हैं और यह याद दिलाना नहीं भूलतीं कि मधू और मधुसूदन की दोस्ती रोशनी से ही थी. तुम्हारी शादी में अच्छा खासा बवाल करने का पूरा प्लान उन्होंने तैयार कर रखा है. जब भी लड़के वाले उसे देखने आते हैं वह अपने गेट से ही अपना भोंपू चालू कर देती. चीख-चीख कर उनको सुनाती है कि लड़की देखने से पहले उस प्रोफेसर से तो जाकर पूछ लो कि तुम लोगों को शादी करने देगा भी कि नहीं. दरअसल रोशनी की शादी बी.ए. पास करते ही होनी थी. कार्ड भी बंट गए. रोशनी प्रोफेसर असीम को कार्ड देने उनके घर चली गई. उनका घर भी दो फलांग की दूरी पर है. प्रोफेसर असीम ने जैसे ही पढ़ा कि रोशनी का ब्याह होने जा रहा है, बौखला उठे. उन्होंने इसे गोद में घुमाया था. मां-बाप के बाद उसके कैरियर को लेकर अगर सचमुच कोई गंभीर था तो वह थे प्रोफेसर असीम. वह चाहते थे कि पढ़ाई पूरी करके पीएच.डी. करे और प्रोफेसर बने. सीधा पहुंचे रोशनी के पिताजी की मिल में और उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई. उसी शाम आकर मां-बाप दोनों को कहा कि बेटी बोझ लग रही है और उसका खर्च नहीं उठा पा रहे हैं तो आप लोग साफ-साफ कह दीजिए, मेरे आगे-पीछे कोई नहीं है मैं अपने जीवन की सारी पूंजी इसपर लगा दूंगा. यह शादी अगर हुई तो उसी मण्डप की आग से मेरी चिता जलेगी. अंततः पिताजी को वह रिश्ता तोड़ना पड़ा था. पिता जी प्रोफेसर असीम से उम्र में थे तो बहुत बड़े लेकिन उनका बहुत सम्मान करते थे. एक बार मां बीमार पड़ गई और पिता जी शहर से बाहर गए हुए थे, रोशनी भी बहुत छोटी थी. घर में कोई नहीं है जान कर कुछ गुंडे लूट-पाट करने लगे. प्रोफसर यूं ही हाल-चाल लेने के लिए उसी समय आ गए थे और मां-बेटी को जान पर खेल कर बचा लिया था. उन्होने शादी नहीं की लेकिन क्यों नहीं की यह किसी को नहीं पता. पिताजी ने कई बार पूछा तो यह कहकर टाल दिया कि मैं पढ़ने-लिखने वाला प्राणी हूं किसी को समय नहीं दे पाऊंगा. रोशनी ख्यालों में खोई हुई थी कि रामधनी ने नॉक किया. उसकी विचार श्रृंखला टूट गई. नोटिस आगे बढ़ाते हुए उसने कहा ‘साइन’. सेमिनार हाल में दो बजे पहुंचना था. स्त्रियों के प्रति बढ़ती आपराधिक समस्याओं को लेकर एक सेमिनार था जिसकी पहले से जानकारी तो थी लेकिन सभी को फिर से याद दिलाया जा रहा था.