Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 17

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सबसे सुंदर दीए किस के?

राजा कृष्णदेव राय दीवाली का पर्व बड़े आनंद-उल्लास के साथ मनाते थे। इस अवसर पर विजयनगर की प्रजा का उत्साह भी देखते ही बनता था। घर-घर मंगल दीप जलते। नगर में जगह-जगह फूल-पत्तों और रंग-बिरंगी झंडियों से बंदनवार सजाए जाते। राजधानी के प्रमुख राजमार्गों और चौराहों को भी रंग-बिरंगी अल्पनाओं और दीपमालिकाओं से सुशोभित किया जाता। मृदंगम लिए गायकों की टोलियाँ हर तरफ घूमती हुई रामकथा के साथ-साथ विजयनगर के गौरवपूर्ण इतिहास को भी मोहक गीत-संगीत में ढालकर प्रस्तुत करतीं तो सुननेवालों की भीड़ लग जाती।

हर बार दीवाली पर विजयनगर की एक अलग छटा नजर आती। कभी आस-पड़ोस के गणमान्य राजाओं को आमंत्रित किया जाता तो कभी देश-विदेश के विद्वानों के सान्निध्य में राजा कृष्णदेव राय दीवाली का त्योहार मनाते। कभी नाटक और संगीत की प्रतियोगिताएँ होतीं तो कभी अस्त्र-शस्त्र और कुश्ती के रोमांचक मुकाबले। प्रजा इन आयोजनों में बढ़-चढ़कर भाग लेती थी। पूरी राजधानी लोगों से अँट जाती। राजा कृष्णदेव राय भी तरह-तरह के उपहार देकर सभी को प्रसन्न कर देते। इससे दीवाली का आनंद दुगना हो जाता था।

इस बार भी दीवाली को कुछ ही दिन बाकी थे, पर विजयनगर में खूब उत्साह और चहलपहल थी। हर कोई जानना चाहता था, देखें, इस बार राजा कृष्णदेव राय दीवाली को कैसी भव्यता और अनूठेपन के साथ मनाते हैं। सब अपने-अपने कयास भी लगा रहे थे। किसी का कहना था, “इस बार दीवाली पर राजा कृष्णदेव राय जरूर विजयनगर की सैन्यकला का ऐसा जबरदस्त प्रदर्शन करेंगे कि विजयनगर के शत्रुओं के शत्रुओं के दिल भी दहल जाएँ।” तो किसी और का मत था, “नहीं-नहीं, देखना, इस बार राजा कृष्णदेव राय विजयनगर की समृद्धि की अपूर्व झाँकी प्रस्तुत करेंगे, जिससे दुनिया समझ जाए कि विजयनगर जैसा संपन्न राज्य धरती पर कोई और नहीं है।”

कुछ लोगों का कहना था, “राजा कृष्णदेव राय कवियों और विद्वानों का बहुत सम्मान करते हैं। इस बार वे अवश्य देश-दुनिया के जाने-माने कवियों और विद्वानों को सम्मानित करेंगे, जिससे राज्य की कीर्ति सब और फैले।”

जहाँ भी चार लोग मिलते, यही चर्चा शुरू हो जाती और फिर इसका कोई ओर-छोर ही न रहता। लोग कहते, “देखना, ढंग चाहे भी हो, पर राजा कृष्णदेव राय कुछ न कुछ ऐसा आयोजन जरूर करेंगे कि इस बार भी दीवाली यादगार बन जाए।”

उधर राजा राजा कृष्णदेव राय भी विचारमग्न थे। उन्होंने दरबार में कहा, “मैं चाहता हूँ, इस बार दीवाली कुछ अलग ढंग से मनाई जाए। आप लोग सुझाव दें कि क्या किया जाए?”

इस पर मंत्री माधवन ने कहा, “महाराज, दीवाली समृद्धि का पर्व है। विजयनगर की समृद्धि की पताका भी इस समय सारी दुनिया में लहरा रही है। इसलिए इस दीवाली पर राजधानी के जाने-माने कलाकारों, विद्वानों तथा विशिष्ट और गणमान्य लोगों को बुलाकर उनका सम्मान किया जाए, तो हर कोई आपके गुण गाएगा। इससे विजयनगर राज्य पर लक्ष्मीजी भी अवश्य प्रसन्न होंगी।”

राजपुरोहित ताताचार्य ने हँसते हुए कहा, “महाराज, बहुत समय से विजयनगर में अच्छी दावत नहीं हुई। दीवाली हँसी-खुशी का पर्व है। इसलिए इस दीवाली पर खूब मिठाइयाँ बनें और ऐसी शानदार दावत का इंतजाम किया जाए कि लोग हमेशा याद रखें।”

सेनापति गजेंद्रपति गंभीर थे। उन्होंने इस अवसर पर विजयनगर की युद्धकला का प्रदर्शन करने का सुझाव दिया। बोले, “महाराज, हमारे पड़ोसी राजाओं में कुछ ने उपद्रव करना शुरू कर दिया है। युद्धकला का प्रदर्शन करके हम उन्हें बता देंगे कि विजयनगर के योद्धाओं की तलवारों की चमक कैसी मारक है!” कुछ दरबारियों ने विजयनगर के पुरात्त्व और प्राचीन इतिहास की भव्य प्रदर्शनी लगाने का सुझाव दिया।

तेनालीराम चुपचाप एक ओर खड़ा था। राजा कृष्णदेव राय का ध्यान उसकी ओर गया तो हँसकर बोले, “क्यों तेनालीराम, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? तुम आज कुछ बोल नहीं रहे हो।”

मंत्री माधवन ने हँसकर कहा, “महाराज, तेनालीराम अब बूढ़ा हो गया है। मैंने सुना है, बूढ़े लोगों की बुद्धि बीच-बीच में कहीं बाहर टहलने चली जाती है। लगता है, हमारे तेनालीराम जी की बुद्धि भी आज इसीलिए काम नहीं कर रही।”

तेनालीराम मुसकराया। बोला, “महाराज, सब लोग बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। मैं तो उन सबकी बातें ध्यान से सुन रहा था। वैसे दीवाली तो दीयों का त्योहार है। अचरज है महाराज, सबने धरती से आसमान तक की दौड़ लगाई, पर किसी ने दीए की तो बात नहीं की।”

“हाँ-हाँ, दीवाली तो दीयों का त्योहार है।” राजा कृष्णदेव राय उत्साहित होकर बोले, “दीवाली पर दीयों की जगर-मगर तो होगी ही। पर इसके साथ ही तुम कोई ऐसा सुझाव दो कि इस बार दीवाली पर्व को हम कैसे यादगार बनाएँ?”

सुनकर तेनालीराम एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर बोला, “महाराज, सबने बड़ी-बड़ी बातें कहीं। पर मैं तो एक छोटी सी बात कहूँगा। इस बार राज्य में सभी लोग बड़े उत्साह से दीए जलाएँ। जिसके दीए सबसे सुंदर हों, अनोखे हों, उसे पुरस्कार दिया जाए तो त्योहार मनाने की खुशी और बढ़ जाएगी। लोग अपने घर और आसपास की जगह को स्वच्छ-सुंदर बनाकर, आनंद से दिए जलाएँगे, तो पूरा विजयनगर आलोकित हो उठेगा। सच में तो यही राज्य की समृद्धि है।”

बात राजा कृष्णदेव राय को जँच गई। उन्होंने मंत्री और दरबारियों से कहा, “मुझे लगता है, तेनालीराम ने जो बात कही है, उससे प्रजा में उत्साह की लहर पैदा होगी। दीवाली भी कुछ नई-नई होगी। आज भी यह घोषणा करवा दी जाए, कि इस बार जिसके दीए सबसे सुंदर होंगे, उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार दिया जाएगा। सौ लोगों को एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राओं के प्रोत्साहन पुरस्कार भी मिलेंगे।”

उसी समय विजयनगर में घोषणा कर दी गई, “विजयनगर की प्रजा ध्यान से सुने! इस बार राजा कृष्णदेव राय दीवाली अनूठे ढंग से मनाएँगे। हर बार प्रजा राजमहल की भव्य सजावट देखने आती थी। पर इस बार दीवाली की रात को राजा कृष्णदेव राय स्वयं प्रजा के बीच पहुँचेंगे। वे विजयनगर में जगह-जगह घूमेंगे। हर घर की सजावट देखेंगे। जिसके दीए सबसे सुंदर होंगे, उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार के रूप में दी जाएँगी। एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राओं के सौ प्रोसाहन पुरस्कार भी दिए जाएँगे।”

सुनकर लोगों का जोश और उत्साह बढ़ गया। उसी समय सबने जोर-शोर से घरों की सफाई शुरू कर दी। दीवारों पर सफेदी के साथ-साथ घरों को फूलों, पत्तों और हाथ की बनी तरह-तरह की कलाकृतियों और चित्रों से सजाया जाने लगा। अंदर कमरों के साथ-साथ बाहर द्वार पर भी सजावट हुई। घरों के आगे सुंदर अल्पनाएँ बनाने की होड़ लग गई। एक से एक सुंदर रंग-बिरंगे कंदील बनाए जा रहे थे। सभी यह सोच रहे थे कि उन्हें घर में सबसे ऊपर टाँगा जाए तो उनमें जलने वाले दीए के झिलमिल प्रकाश को देख, जरूर राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न हो जाएँगे।

दीवाली वाले दिन सुबह-सुबह लोगों ने घरों के सामने सुंदर और आकर्षक रँगोली बनाई। द्वार को फूल-पत्तों और रंग-बिरंगी झंडियों से सजाया। आसमान को छूने वाले ऊँचे-ऊँचे कंदील टाँगे। घर-आँगन की खूब अच्छी तरह सफाई की और फिर दीवाली की धूमधाम शुरू हो गई।

शाम को राजा कृष्णदेव राय दरबारियों के साथ घूमने निकले, तो सभी घरों में दीयों की अपूर्व जगमग देखकर प्रसन्न हो उठे। घरों की छत पर ध्रुव तारे की तरह चमकते ऊँचे कंदील दूर से ध्यान खींचते थे। उनमें दीए भी झिलमिल कर रहे थे। घरों और गलियों के आगे केले के पत्तों से बने द्वार और बंदनवार मन मोह रहे थे। राजा कृष्णदेव राय मुग्ध होकर देखते जा रहे थे।

राजमार्ग पर एक बड़े सेठ लखमीमल की सतखंडी हवेली थी। बड़ी ही आलीशान। दूर से अपनी भव्यता का बखान करती हुई। वहाँ सोने के दीपों की जगर-मगर देख, मंत्री ने कहा, “महाराज, लगता है, यह पूरी हवेली ही दीपों के उज्ज्वल प्रकाश से नहा रही हो। इससे सुंदर दीप भला और कौन जलाएगा? मुझे तो लगता है महाराज, सुंदर दीयों का पहला पुरस्कार इसी को मिलना चाहिए।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुसकराए। कुछ बोले नहीं।

कुछ आगे चलकर एक और धनी व्यापारी सोनामल का ऊँचा भवन नजर आया, जिसमें जहाँ तक नजर जाए, दीए ही दीए नजर आते थे। कुछ सीधी कतारों में, कुछ ऊपर से नीचे। हवा चलती तो लगता था, जैसे प्रकाश की लहरें तेजी से ऊपर-नीचे दाएँ-बाएँ दौड़ रही हों। कुछ लोगों ने अपने घरों के द्वार पर दीए ऐसे सजाए थे कि दूर से देखने पर वह घर किसी सुंदर कलाकृति जैसा लगता था। राजा कृष्णदेव राय पसोपेश में थे। सोच रहे थे, पहला इनाम किसे दिया जाए? फिर सौ प्रोत्साहन पुरस्कार भी तो दिए जाने थे। भला उनका निर्णय कैसे हो?

उन्होंने तेनालीराम की ओर देखा। तेनालाराम मुसकराया। बोला, “महाराज, वाकई दीवाली की ऐसी जगर-मगर तो पहले कभी देखी नहीं थी। हर बार ही विजयनगर की प्रजा दीवाली पर सुंदर सजावट करती है। पर इस बार पुरस्कारों की घोषणा से सबका उत्साह बढ़ गया। चलिए, थोड़ा और आगे चलें, शायद कुछ और भी सुंदर दीए नजर आ जाएँ।”

राजा कृष्णदेव राय आगे चल पड़े। राजधानी की सीमा से बाहर निकले तो दीवाली वाले दिन भी अँधेरा नजर आया। वहाँ रास्ते भी ठीक नहीं थे। ऊबड़-खाबड़, गड्ढों भरे। ऊपर से घुप अँधेरा। बस, कहीं-कहीं टूटे-फूटे घरों में इक्का-दुक्का दीए चल रहे थे। कुछ जगहों पर तो बिल्कुल सन्नाटा था। राजा कृष्णदेव राय को हैरानी हुई, “अरे, दीवाली पर भी इतना अँधेरा? फिर यहाँ रास्ते भी कितने खराब हैं। किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।...क्यों मंत्री जी, यह सब क्या है?”

मंत्री अचकचाकर बोला, “महाराज, चलिए, अब लौट चलें। मैं तो आपको पहले ही कहने वाला था। यहाँ अँधेरे के सिवाय कुछ नहीं है। यहाँ शायद लोग रहते ही नहीं।...पता नहीं, तेनालीराम आपको यहाँ क्यों ले आया?”

तेनालीराम मुसकराया। बोला, “महाराज, लोग तो यहाँ भी हैं और बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं से कहीं ज्यादा हैं। पर वे मेहनतकश लोग हैं। किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके गुजारा करते हैं। सोने के दीए तो क्या, मिट्टी के दीए जलाना भी जिनके लिए मुश्किल है। शायद मंत्री जी इन्हें इनसान नहीं मानते, पर लोग तो ये भी हैं जो विजयनगर की समृद्धि के लिए रात-दिन पसीना बहा रहे हैं।”

तभी अचानक राजा का ध्यान एक झोंपड़ी की ओर गया। उसमें सिर्फ एक मिट्टी का दीया जल रहा था। झोंपड़ी के आगे लाल-पीले फूलों वाली जंगली झाड़ियों से घिरा एक कच्चा तालाब था। तालाब के किनारे बरगद, आम और जामुन के कुछ पेड़। एक छोटा सा बच्चा तालाब और पेड़ों के पास मिट्टी के दीए जला-जलाकर रखता जा रहा था। इससे घुप अँधेरे में भी वह तालाब और पेड़ झलमल कर रहे थे।

देखकर राजा कृष्णदेव राय को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने उस बच्चे को बुलाकर पूछा तो उसने कहा, “महाराज, मेरा नाम सुंदरम है। मैं अकेला ही रहता हूँ। पिछले साल माता-पिता दोनों ही गुजर गए। मेरे पिता कुम्हार थे। उन्होंने मुझे दीए बनाना सिखा दिया था। मिट्टी के दीए बेचकर कुछ पैसे मिले, उनसे मैं तेल और रुई ले आया। थोड़े से दीए अपने लिए बचा लिए थे। वही यहाँ जला रहा हूँ। एक झोंपड़ी के आगे जलाया, बाकी यहाँ। देखिए, महाराज, दीयों की रोशनी में तालाब का पानी कैसा झिलमिल कर रहा है!”

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की आँखें भीग गईं। ममता से भरकर बोले, “सुंदरम, मैंने तुम जैसा कोई बच्चा नहीं देखा, जिसे अपनी झोंपड़ी से ज्यादा पास के तालाब और पेड़ों की चिंता है। तुम्हारे दीए तो सुंदर हैं ही, तुम खुद भी किसी जगमग दीए से कम नहीं हो। विजयनगर में तुम्हारे जैसे बच्चे हैं, मुझे इस पर गर्व है।”

कुछ रुककर उन्होंने कहा, “तुम्हें इतनी छोटी सी उम्र में काम करने की जरूरत नहीं है। तुम पढ़ने जाओगे।”

सुंदरम के मुँह से निकला, “पर महाराज, मेरी फीस...?”

राजा मुसकराकर बोले, “उसका भी इंतजाम हो जाएगा।”

उसी समय राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा करवा दी, “पूरे विजयनगर में सबसे सुंदर दीए सुंदरम के हैं और उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का इनाम दिया जाएगा।” साथ ही उन्होंने घोषणा की कि राज्य में गरीब और अनाथ बच्चों की शिक्षा और भोजन का प्रबंध राज्य की ओर से होगा।

अगले दिन हाथी पर बैठाकर सुंदरम को पूरे विजयनगर में घुमाया गया। बाकी के सौ प्रोत्साहन पुरस्कार भी उन लोगों को मिले, जिन्होंने अपने घरों के साथ-साथ आसपास की जगहों को भी साफ-सुथरा करके दीए जलाए थे। इसका निर्णय करने का जिम्मा तेनालीराम को मिला। इससे विजयनगर की प्रजा इतनी खुश थी कि जगह-जगह राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम की प्रशंसा में भी गीत गाए जा रहे थी।

यह देखकर बेचारे मंत्री जी और उनके चापलूस दरबारी दुखी थे, पर तेनालीराम के चेहरे पर बाँकी मुसकान थी।