Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 16

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आप कहें तो पूरी नाँद पी जाऊँ!

फिर ऐसा ही एक मौका और भी आ गया। असल में, विजयनगर साम्राज्य का स्थापना दिवस पास ही था। इसलिए बहुत दिनों से बड़े जोर-शोर से तैयारियाँ चल रही थीं। राजा कृष्णदेव राय का मन था कि इस बार स्थापना दिवस पर मित्र देशों के राजाओं को भी आमंत्रित किया जाए। साथ ही देश-विदेश के विद्वानों और कलावंतों को बलाकर उनका सम्मान किया जाए, जिससे दूर-दूर तक विजयनगर साम्राज्य की कीर्ति की गूँज पहुँच जाए। लोग यहाँ आकर विजयनगर की सुंदरता, कला और स्थापत्य देखें और अपने-अपने राज्यों में जाकर दूसरों को बताएँ। इस तरह पूरी दुनिया विजयनगर की महान संस्कृति, कला और वैभव को जान लेगी।

विजयनगर के मंत्री, दरबारी और सारी प्रजा उत्साहित थी। आमंत्रित अतिथियों के स्वागत के लिए राजधानी में जगह-जगह सुंदर तोरण-द्वार और बंदनवार सजाए गए। हजारों लोग रात-दिन तैयारियों में लगे हुए थे, जिससे दूर देशों से आए राजा, विद्वान और कलावंत भी यहाँ की अनुपम सुंदरता को निहारकर मुग्ध हों। विजयनगर की प्रजा के व्यवहार, प्रेमपूर्ण आतिथ्य और यहाँ की कला-संस्कृति की मुक्त कंठ से सराहना करें।

आखिर स्थापना दिवस से एक दिन पहले ही राजधानी में दूर-दूर के राजा, विद्वान और कलावंत पधार गए। उन सभी के रहने, भोजन और मनोरंजन की सुंदर व्यवस्था की गई। खूब भव्य आयोजन हुआ, जिसमें विजयनगर की कला और संस्कृति की झाँकियों के साथ-साथ सैनिकों के युद्ध-कौशल और अस्त्र-शस्त्रों की भी बड़ी अद्भुत प्रदर्शनी लगाई गई। देखकर सभी हैरान थे और वाह-वाह कर रहे थे। इससे सचमुच विजयनगर की कीर्ति दूर-दूर तक फैली। लोग राजा कृष्णदेव राय का गुणगान करते थकते नहीं थे।

विजयनगर के दरबारी और प्रजा इस बात से गद्गद थी कि दूर-दूर से आए इतने प्रतापी सम्राट भी हमारे राजा कृष्णदेव राय के प्रति कितना सम्मान भाव रखते हैं। इस भव्य कार्यक्रम की सफलता से पूरे विजयनगर में मानो हर्ष और उल्लास की लहर दौड़ गई। कुछ दिनों बाद विजयनगर के विद्वानों और पंडितों ने एक भव्य समारोह में राजा कृष्णदेव राय को ‘राजशिरोमणि’ की उपाधि दी तो प्रजा भाव-विभोर हो उठी। धरती से आकाश तक ‘राजा कृष्णदेव राय की जय!’ का तुमुल नाद गूँज उठा।

राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न थे। एक दिन इसी खुशी में उन्होंने अपने महल में प्रमुख दरबारियों को दावत दी। सभी सभासद मौजूद थे। सभी सुंदर पोशाक पहनकर सज-धजकर आए थे, ताकि उनका प्रभाव पड़े। किसी-किसी ने तो बढ़िया इत्र भी लगा रखा था। मंत्री और राजपुरोहित के साथ तेनालीराम भी वहाँ था। हँसी-मजाक और एक से एक रोचक किस्से चल रहे थे।

दूर देशों से आए विद्वानों, लेखकों और कलाकारों की भी चर्चा चली। सबकी अलग-अलग आदतों के बारे में लोग बड़ी कौतुक भरी और रुचिपूर्ण बातें कर रहे थे। साथ ही सभी अपनी-अपनी खासियत भी बता रहे थे, जो दूसरों में न हो। किसी ने अपनी पान खाने की विचित्र आदत के बारे में बताया तो किसी का कहना था कि उसे केसर मिली हुई ठंडाई बहुत पसंद है। न मिले तो जी छटपटाने लगता है! मंत्री जी रबड़ी के शौकीन निकले। बोले, “भाई, मुझे तो बढ़िया रबड़ी का ऐसा शौक है कि रात सोने से पहले रबड़ी खाने को न मिले, तो पूरी रात नींद ही नहीं आती।”

सेनापति ने मुसकराते हुए कहा, “अरे भई, मुझे तो चाँदनी रात में घूमना पसंद है। बिल्कुल चाँदी जैसी धवल चाँदनी खिली हो, तो आधी रात में उठकर जब तक पूरी राजधानी का चक्कार न लगा लूँ, मुझे चैन नहीं पड़ता।”

तभी एक सेवक पानी लेकर आया। सभी ने थोड़ा-थोड़ा पानी पिया, लेकिन राजपुरोहित को जाने क्या सूझी, वे एक के बाद एक पूरे चार लोटे पानी पी गए। फिर आँख बंद करके मजे में सिर हिलाकर बोले, “अहा-अहा…!” सेवक ने मुसकराकर पूछा, “क्या और पानी लाऊँ पुरोहित जी?”

राजपुरोहित जोर से हँसकर बोले, “लाओ भाई, थक गए क्या? अभी तो चार लोटे मैं और पिऊँगा।”

“ऐं, सच्ची?” सेवक ने आँखें फाड़कर पूछा।

“अरे भई, इतने हैरान क्यों हो रहे हो? जरा चार लोटे पानी के और लेकर तो आओ।” राजपुरोहित ने मजे से तोंद पर हाथ फेरते हुए कहा। सिर पर उनकी शिखा अलग नर्तन कर रही थी। देख-देखकर सब आनंद ले रहे थे।

थोड़ी देर में सेवक पानी लाया तो वाकई राजपुरोहित एक के बाद एक चार लोटे पानी और पी गए। फिर उसी तरह मजे में सिर हिलाकर बोले, “अहा-अहा...!”

देखकर राजा, दरबारी सभी हैरान। राजपुरोहित ताताचार्य ने सोचा, राजा कृष्णदेव राय की निगाह में चढ़ने का यह बढ़िया मौका है। उन्होंने बड़े गर्व के साथ अपनी गर्दन चारों ओर घुमाई। फिर डींग हाँकते हुए बोले, “महाराज, देखा अपने? राजदरबारियों में कोई भी मेरे बराबर पानी नहीं पी सकता।”

महाराज कृष्णदेव राय ने सब दरबारियों की ओर निगाह दौड़ाई। मुसकराते हुए पूछा, “क्या राजपुरोहित जी ठीक कह रहे हैं? आपमें से कोई इनका मुकाबला नहीं कर सकता!’

सब ओर चुप्पी! किसी ने राजा कृष्णदेव राय की बात का जवाब नहीं दिया। अब तो राजपुरोहित की अकड़ और बढ़ गई। उन्होंने घमंड से भरकर कहा, “महाराज, अगर कोई इतना पानी पीकर दिखा दे, तो मैं सौ मुद्राएँ हार जाऊँगा। नहीं पी सके, तो वह सौ मुद्राएँ दे।”

यह अटपटी सी शर्त सुनकर सभी झिझक रहे थे। पर तेनालीराम के चेहरे पर बड़ी भेद भरी हँसी दिखाई दी। बोला, “महाराज, चार लोटे की तो बात ही क्या, आप कहें तो मैं पूरी नाँद पी जाऊँ!”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय बुरी तरह चौंक पड़े। बोले, “अरे, ऐसा!” दरबारियों को भी तेनालीराम की बात पर यकीन नहीं आया। सब उसके दुबले-पतले शरीर को बड़े अचरज से नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे देख रहे थे।

राजपुरोहित मन ही मन खुश थे। सोचा, ‘अच्छा मौका है। अब तेनालीराम फँस गया।’ राजा की ओर देखकर बोले, “महाराज, तेनालीराम का दावा सही नहीं है। मुझे तो लगता है, वे जरूर अपनी बात से फिर जाएँगे। नहीं तो वे नाँद भर पानी पीकर दिखाएँ!...शर्त पूरी करें।”

तेनालीराम ने चुनौती स्वीकार कर ली। कहा, “लेकिन महाराज, मेरी भी एक शर्त है। जब तक मैं सारा पानी न पी लूँ, पुरोहित जी तब तक वहीं खड़े रहें। न खाना खाएँगे, न पानी पिएँगे। और न अपनी जगह से जरा भी हिलेंगे-डुलेंगे।”

राजपुरोहित खुशी-खुशी इस बात के लिए राजी हो गए। बोले, “मुझे मंजूर है। जब तक तेनालीराम पूरी नाँद का पानी नहीं पी लेता, मैं यों ही खड़ा रहूँगा।”

अब तो सबकी उत्सुकता और बढ़ गई। मामला हर क्षण रोचक होता जा रहा था। राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से कहा, “चलो तेनालीराम, अब तुम नाँद भर पानी पीकर दिखाओ!”

तेनालीराम धीरे से उठा और चलकर नाँद के पास गया। उसने नाँद में से एक लोटा पिया, फिर एक और। और फिर आराम से अपनी जगह आकर बैठ गया।

“और बाकी पानी...?” राजा ने कौतूहल से पूछा। समझ गए, इसमें भी तेनालीराम की कोई चाल है।

“महाराज, वह भी पी ही लूँगा।” तेनालीराम निश्चिंतता से बोला, “दो लोटे कल पिऊँगा, दो परसों, दो अगले दिन! इस तरह छह महीने में पूरी नाँद पी जाऊँगा। आप सिर्फ इतना करें, यह नाँद आज ही मेरे घर भिजवा दें। साथ ही पुरोहित जी को आदेश दें कि नाँद खाली होने तक वह न कुछ खाएँ, न पिएँ। बस, अपनी जगह अडोल खड़े रहें...!”

“नहीं, नहीं, अभी यहीं पूरी नाँद पीकर दिखाओ! शर्त याद है न?” राजपुरोहित ने अकड़कर कहा।

“लेकिन शर्त में यह कहाँ कहा गया था कि मैं अभी पूरी नाँद पानी पीकर दिखाऊँ?” तेनालीराम ने मुसकराते हुए कहा। सुनकर राजा कृष्णदेव राय जोर से हँस पड़े। दूसरे दरबारी भी हँस रहे थे।

तेनालीराम बोला, “महाराज, अब या तो राजपुरोहित सौ मुद्राएँ दें, या फिर छह महीने तक भूखे-प्यासे इसी जगह अडोल खड़े रहें। क्योंकि छह महीने से पहले तो मैं यह नाँद का पूरा पानी पीने से रहा!”

अब राजपुरोहित बेचारे क्या कहते! वे एकदम हक्के-बक्के थे। तेनालीराम को हराने निकले थे, पर तेनालीराम ने तो उलटा उन्हें ही छका दिया। आखिर राजपुरोहित ताताचार्य को सौ मुद्राएँ देनी पड़ीं। उस समय उनकी शक्ल देखने लायक थी।

मंत्री जी और उनके मुँहलगे दरबारी लोग जो सोच रहे थे कि आज तेनालीराम की खूब किरकिरी होगी, अब बेचारे एक-दूसरे से नजरें चुराते हुए दाएँ-बाएँ देख रहे थे। और तेनालीराम...! वह एक ओर खड़ा बड़े मजे में मुसकरा रहा था।