Beti ki Adalat - Part 6 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

बेटी की अदालत - भाग 6 (अंतिम भाग)

अपने परिवार में होती कड़वी लेकिन सच्ची नसीहत ने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया।

स्वीटी की मामी सोच रही थीं, “स्वीटी सच कह रही है। माँ-बाप तो माँ-बाप ही होते हैं, चाहे वह ख़ुद के हों या पति के। उनमें भेद भाव कैसा?”

ऐसा सोचते हुए स्वीटी की मामी ने वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए अपने सास-ससुर से कहा, “मम्मी जी और पापा जी चलिए; अब हम भी अपने घर जाते हैं।”

स्वीटी की मामी ने गलती करने से पहले ही इस हादसे से सीख ले ली।

घर से बाहर निकलते समय स्वीटी की दादी ने कहा, “स्वीटी तुम्हें नहीं लगता कुछ ग़लत हो गया है। सबके सामने इस तरह तुम्हें अपने पापा-मम्मी का अपमान नहीं करना चाहिए था। वे कितने शर्मिंदा हो रहे थे।”

“दादी आपके अंदर एक माँ का दिल है जो यह कह रहा है। दादी यदि आज उनका यह अपमान नहीं होता तो अगले कुछ महीनों में उनका तलाक पक्का हो जाता।”

स्वीटी के यह शब्द सुनते ही उसके दादा-दादी के क़दम वहीं रुक गए।

उसके दादा ने चौंकते हुए पूछा, “यह क्या कह रही हो स्वीटी बेटा तुम?”

“हाँ दादा जी की बात तलाक तक पहुँच चुकी है इसीलिए तो वह मुझे अमेरिका भेजना चाहते हैं। लेकिन मैं ऐसा कभी होने नहीं दूँगी। देखना वे दोनों दो-चार दिनों में ही माफ़ी मांगते हुए हमें लेने आ जाएंगे। उन दोनों को उनकी गलती का एहसास करवाना बहुत ज़रूरी हो गया था। दादी हर स्त्री के पास केवल माँ और बेटी का ही दिल होना चाहिए, सास बहू का नहीं, है ना?”

“हाँ बेटा काश यह हो पता।”

स्वीटी अपने दादा-दादी के साथ उनके घर चली गई।

इधर अलका और गौरव अपने घर में अकेले रह गए। उनके घर के दरवाजे अब हमेशा बंद रहते थे। उसमें कभी डोर बेल नहीं बजती थी। अब उन्हें डिस्टर्ब करने भी घर में कोई नहीं आता था। उन दोनों ने जब अपने-अपने गिरेबान में झांका तो दोनों को ही वह मैला दिखाई देने लगा। अब उन्होंने उसकी सफ़ाई करने का पक्का मन बना। उनके बीच के झगड़े भी लगभग ख़त्म हो गए। अब तो उन्हें पछतावा हो रहा था कि यह क्या हो गया? यह कैसा दाग लग गया उनके चरित्र पर? कैसे इस दाग को मिटाएँ, प्रश्न बड़ा था। उनके पश्चाताप के आँसू भी उस दाग को धोने के लिए काफ़ी नहीं थे।

15 दिन के अंदर ही अलका और गौरव उनकी गलती को सुधारने के लिए अपनी मम्मी पापा के घर पहुँच गए। उन्हें देखते ही स्वीटी का चेहरा खिल उठा। अंदर आते ही अलका ने अपनी सासू माँ के पाँव हुए। आज पहली बार यह उसने साफ़ मन से, प्यार और सम्मान के साथ किया था।

दादी ने उसे अपने सीने से लगाते हुए कहा, “अलका कोई बात नहीं, गलतियाँ तो सभी से होती हैं। लेकिन जो उन्हें सुधार ले वही एक अच्छा इंसान कहलाता है।”

गौरव की तरफ़ देखते हुए उन्होंने कहा, “गौरव चलो अब अलका के पापा-मम्मी से भी …!”

वह इतना कह ही रही थीं कि फ़ोन की घंटी बजी। फ़ोन स्वीटी की नानी का ही था।

उन्होंने कहा, “समधिन जी अलका और गौरव का फ़ोन आया था। दोनों माफ़ी मांग रहे थे। हम बड़े हैं, हमें उन्हें माफ़ कर देना चाहिए ना?”

“हाँ कनक तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो। वह दोनों यही हैं हमारे पास। हमारे परिवार को टूटने से पहले ही हमारी पोती ने बचा लिया। अब आप भी यहाँ आ जाइए, साथ मिलकर खुशियाँ मनाएंगे।”

बीच में ही अलका ने कहा, “नहीं माँ उस घर में हम सब साथ में खुशियाँ मनाएंगे, जहाँ उस दिन के बाद से कोई मुस्कुराया तक नहीं। हर तरफ़ सूना पन था, उदासी थी, पछतावा था और गलतियों का एहसास था। हमें वहीं खुशियाँ मनाना चाहिए।”

अगले दिन वह सब गौरव और अलका के घर इकट्ठे हुए। आज वहाँ सचमुच की ख़ुशी अपनी हाज़िरी दिख रही थी; जिसमें कोई छल कपट, कोई आडंबर नहीं था। सब कुछ एकदम सच्चा था, पवित्र और कंचन।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
समाप्त