Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 4



अध्याय 4

ज्ञानयोग

पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था कि कर्म मार्ग का अनुसरण करते हुए ज्ञान की ओर बढ़ो। इस अध्याय के आरंभ में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन मैं तुम्हें जो गीता का उपदेश दे रहा हूँ वह बहुत प्राचीन है। मैंने सर्वप्रथम गीता का यह उपदेश सूर्यदेव विवस्वान को दिया। तत्पश्चात गुरु शिष्य परंपरा में यह ज्ञान वैवस्वत मनु तक पहुँचा। उनसे यह ज्ञान इक्ष्वाकु को मिला। कलांतर में इस ज्ञान का क्षय हो गया। क्योंकि तुम मेरे मित्र व भक्त हो अतः मैं वही ज्ञान पुनः तुमको दे रहा हूँ।
यह जानकर कि गीता का ज्ञान अति प्राचीन है और श्रीकृष्ण स्वयं इसे पहले सूर्यदेव को दे चुके हैं, अर्जुन को बहुत आश्चर्य हुआ। अपना आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने कहा कि हे श्रीकृष्ण आप तो वर्तमान युग में प्रकट हुए हैं। फिर आपने प्राचीन काल में यह ज्ञान सूर्यदेव को कैसे दिया ?
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि हे अर्जुन तुम और मैं कई जन्म ले चुके हैं। मैं उनके विषय में जानता हूँ परंतु तुमको उनका स्मरण नहीं है। यद्यपि मैं अजन्मा हूँ। मेरा शरीर नश्वर नहीं है। सभी शक्तियां मेरे आधीन हैं। फिर भी मैं भौतिक संसार में अपनी योगमाया शक्ति से प्रकट होता हूँ। अतः हे पार्थ जब जब इस धरा पर धर्म का नाश होता है और अधर्म का विकास होता है। इस धरती को अधर्म से मुक्त करने और धर्म की रक्षा करने के लिए मैं हर युग में अवतरित होता हूँ। हर युग में दुष्टों का संहार कर मैं साघुजनों की रक्षा कर धर्म की स्थापना करने के लिए आता हूँ। जो मेरे दिव्य स्वरूप को जान लेता है वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मेरी शरण में आ जाता है।
सांसारिक आसक्ति से मुक्त होकर, भय और क्रोध को त्याग कर बहुत से लोगों ने इस ज्ञान का लाभ उठाया है और सदा के लिए मेरे प्रेम के पात्र बने हैं। हे पार्थ जो जिस भाव से मेरे समीप आता है मैं उसी भाव से उसे स्वीकार करता हूँ। मनुष्य जाने अनजाने मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। पर जो सांसारिक इच्छाओं के वश में होते हैं वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति के आधार पर मैंने समाज को चार वर्णों में बांटा है। सभी वर्ण अपने गुणों के आधार पर कर्म करते हैं। मैंने यह व्यवस्था बनाई है जबकि मैं कोई भी कर्म नहीं करता। मैं अविनाशी हूँ। न तो मेरे कर्म मुझे प्रभावित करते हैं और न ही मैं उनसे प्राप्त फलों की कामना करता हूँ। इस सत्य को समझने वाला ही मेरी शरण में आता है।
हे अर्जुन प्राचीन काल में कई प्रबुद्ध जनों ने कर्म फल की इच्छा किए बिना अपना कर्तव्य किया। अब तुम भी उन ज्ञानी व्यक्तियों का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य करो। अर्जुन को अपने कर्तव्य का पालन करने की शिक्षा देने के बाद श्रीकृष्ण उसे बताते हैं कि कर्म क्या है ?, विकर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ? इस बात का निर्धारण बुद्धिमान व्यक्ति भी सही प्रकार से नहीं कर पाते हैं। अतः मैं तुम्हें कर्म का सही ज्ञान प्रदान करूँगा। उसे प्राप्त करके तुम सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाओगे।
मैं तुम्हें बताऊँगा कि कौन से अनुकरणीय कर्म हैं। कौन से विकर्म अर्थात वर्जित कर्म हैं तथा कौन से अकर्म अर्थात ऐसे कर्म हैं जो फल की इच्छा रहित ईश्वर के लिए किए जाते हैं। जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखते हैं वह बुद्धिमान होते हैं। जो व्यक्ति सांसारिक इच्छाओं से रहित होकर कर्म करते हैं और अपने कर्म के फलों को दिव्य ज्ञान की अग्नि में जला देते हैं वह ज्ञानीजन संत होते हैं।
ज्ञानीजन कर्म फलों से अनासक्त रहकर सदैव संतुष्ट रहते हैं। वह बाहरी आश्रयों पर निर्भर नहीं करते हैं‌। ऐसे ज्ञानी कर्म में संलग्न होकर भी कर्म नहीं करते हैं। ऐसे व्यक्ति कर्म फलों से अनासक्त होते हैं। किसी भी वस्तु पर स्वामित्व की भावना नहीं रखते हैं। अपने दैनिक कार्यों को करते हुए समस्त पापों से मुक्त होते हैं। जो व्यक्ति जितना भी प्राप्त होता है उससे संतुष्ट रहते हैं। राग द्वेष से रहित होते हैं। सफलता और असफलता में समान रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कर्म करते हुए भी उसके बंधन से मुक्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति भगवद चेतना में तल्लीन होते हैं। उनके समस्त कर्म ईश्वर को समर्पित होते हैं। हे पार्थ अपनी इंद्रियों और उनके भोग विषयों का त्याग ही सही यज्ञ है।
आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर विनम्र भाव से उनके चरणों में नतमस्तक होकर दिव्यज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। गुरु से प्राप्त दिव्य ज्ञान व्यक्ति को इस सत्य से परिचित कराता है कि प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का वास है। सभी प्राणी मुझमें स्थिति हैं। महापापी भी यदि अपने गुरु की शरण में बैठकर इस दिव्यज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो वह संसार रूपी सागर को आराम से पार कर लेता है।
अर्जुन बिना किसी संदेह के दिव्यज्ञान को धारण करो। दिव्यज्ञान की अग्नि में कर्म के समस्त फलों को जलाकर अपना कर्तव्य करो। उठो और युद्ध करो।

अध्याय की विवेचना
तीसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि किसी भी व्यक्ति के लिए कर्म करना आवश्यक है। कर्म के मार्ग पर चलकर ही ज्ञान को सही प्रकार से समझा जा सकता है। अतः हर व्यक्ति को अपना निर्धारित कर्म करना चाहिए। हे अर्जुन तुम भी कर्म फल की इच्छा त्याग कर स्वधर्म का पालन करते हुए युद्ध करो।
श्रीकृष्ण ने कर्म फल की इच्छा का त्याग कर स्वधर्म के मार्ग पर चलने का उपदेश दिया था। चौथे अध्याय में वह अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं कि ऐसा किस प्रकार किया जा सकता है। कर्म के मार्ग पर चलते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर किस प्रकार ज्ञान की उच्च अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है जिससे ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो सके। अतः इस अध्याय को ज्ञानयोग कहा गया है।
कर्म फल की इच्छा से रहित होकर अपने कर्तव्य का पालन करना अत्यंत कठिन काम है। सामान्य तौर पर व्यक्ति अपने कर्म का फल पाने की इच्छा से ही अपना कर्तव्य करता है। कर्म का परिणाम ही उसे कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। अतः यदि उसे कर्म का फल नहीं मिलता है तो वह अकर्मण्य हो जाता है। जबकि श्रीकृष्ण कहते हैं कि न अकर्मण्य होना है और न ही स्वयं को कर्म फल पाने की इच्छा से लिप्त करना है। साधारण जन के लिए इस स्थिति को पाना बहुत मुश्किल है।
चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को वह ज्ञान देते हैं जो अति प्राचीन है। सबसे पहले यह ज्ञान उन्होंने सूर्यदेव को दिया था। उसके बाद गुरु परंपरा में यह आगे बढ़ा पर कलांतर में यह ज्ञान लुप्त हो गया। उसका कारण यही था कि मनुष्य ने कर्म के फल का उपभोग करने की इच्छा से कर्म करना आरंभ कर दिया। उचित लाभ न होने पर वह कर्म का त्याग कर अकर्मण्य बनने लगा। कई बार वह अधिक लाभ के लिए स्वधर्म को त्याग कर वह कर्म भी करने लगा जो उसके लिए नियत नहीं था।
अर्जुन मोह में पड़कर अपना स्वधर्म भूल रहा था। इसलिए श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में उसे वही पुराना ज्ञान फिर से दिया। जिससे अर्जुन समेत बाकी के लोग भी उसका लाभ उठा सकें।
हमको कर्म और स्वधर्म के अंतर को समझना होगा। कर्म का अर्थ कार्य करने से है। अपने जीवन में हम बहुत से काम करते हैं। जैसे कि शरीर का पालन करने के लिए आहार करना, सोना, संतति उत्पन्न करना। अपने जीवनयापन के लिए कोई काम करते हैं। कई बार हम किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए कोई काम करते हैं। परंतु जब हम अपना कोई कर्म लाभ हानि, यश अपयश की भावना से ऊपर उठकर अपना कर्तव्य समझ कर करते हैं तो वह स्वधर्म बन जाता है। स्वधर्म हर परिस्थिति में अनुकरणीय होता है।
एक सैनिक का कर्तव्य उसका स्वधर्म है। वह जब देश के किसी दुश्मन के सामने होता है तो अपने निजी लाभ को त्याग कर देश हित में अपने स्वधर्म का निर्वाह करता है। ऐसा करते हुए वह अपने प्राणों तक का मोह नहीं करता है।
स्वधर्म का पालन वही कर सकता है जो शुद्ध मन से बिना किसी लालच के कर्म करे। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। अभ्यास से अपने मन और इंद्रियों को काबू करके मन को शुद्ध किया जा सकता है। यह अभ्यास निरंतर बना रहे इसके लिए गुरु की आवश्यकता होती है। एक गुरु न सिर्फ संयम रखना सिखाता है बल्कि यह भी बताता है कि कौन से कर्म अनुकरणीय हैं और कौन से ऐसे हैं जिनका त्याग किया जाना चाहिए। गुरु के सानिध्य से प्राप्त ज्ञान व्यक्ति को कर्म करते हुए भी उसके फल से लिप्त नहीं होने देता है। वह कर्म करते हुए भी स्वयं को कर्ता नहीं मानता है। इस प्रकार कर्म करते हुए वह परम सत्य को जान लेता है।
ज्ञानयोग योग का अर्थ हुआ अपना कर्म करते हुए ईश्वर को जानना। जब व्यक्ति का कर्म उसको ईश्वर के निकट ले जाता है। वह कर्म करते हुए यह सोचता है कि उसने ईश्वर के समीप जाने के लिए एक और कदम बढ़ा लिया है तो वह ज्ञानयोग की तरफ बढ़ता है। एक समय ऐसा आता है जब वह स्वयं को ईश्वर के निकट महसूस करता है।
यदि हम वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में इस स्थिति की कल्पना करें तो बहुत से लोगों को ऐसा लगेगा कि यह अव्यवहारिक है। यदि हम कोई कर्म करते हैं तो उसका फल मिलने की इच्छा तो मन में उत्पन्न होगी ही। हम यदि कुछ करने में सफल होंगे तो खुद को इसका श्रेय भी देंगे। क्योंकि अधिकांशतः हम अपने इर्द गिर्द ऐसा ही होते देखते हैं। हम इसमें कुछ भी ग़लत नहीं पाते हैं।
हम बचपन से ही सुनते हैं कि परिश्रम का फल मीठा होता है। अर्थात यदि परिश्रम करेंगे तो फल भी मिलेगा। परिणाम हमारे मन के मुताबिक होगा तो हमें सुख भी प्रदान करेगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस स्थिति में हम ज्ञानयोग की स्थिति कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? वर्तमान में तो सही मायनों में गुरु का मिलना भी कठिन है। उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि हमें उस स्थिति तक पहुँचने की आवश्यकता क्यों है ?
पहले हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि ज्ञानयोग की स्थिति प्राप्त करना हमारे लिए क्यों आवश्यक है ? इस प्रश्न का जवाब मिल गया तो इस अवस्था को पाने की चेष्ठा करने की तरफ कदम बढ़ाया जा सकता है।
इसके लिए हम ज्ञानयोग अर्थात वह अवस्था जब हम कर्म करते हुए भी स्वयं को कर्ता नहीं मानते हैं, को सरल शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं। एक उदाहरण लेकर उस स्थिति में मैं स्वयं को रखकर समझाने का प्रयास करता हूँ।
मान लेते हैं कि मैं एक समाजसेवक हूँ। समाजसेवक होने के नाते मेरा धर्म क्या है ? समाजसेवक का धर्म है कि वह अपना निजी लाभ सोचे बिना समाज के उन लोगों के लिए काम करे जिन्हें उसकी आवश्यकता है। यहाँ मेैं समाजसेवक के रूप में जो करूँ उसका लाभ समाज के वंचित लोगों तक पहुँचना चाहिए। पर यदि मैं समाजसेवा सिर्फ दिखावे के लिए कर रहा हूँ। जिससे मेरी अच्छी छवि बने और मैं उसका लाभ उठा सकूँ तो फिर मेरे मन में लालच है। मैं सिर्फ वही काम करूँगा जिससे मेरा लाभ हो। यदि ज़रूरतमंद की सेवा करने से मुझे कोई लाभ नहीं है तो मैं उसकी सेवा नहीं करूँगा।
यहाँ मेरे कर्म का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं है बल्कि अपना निजी स्वार्थ है। मेरे कर्म का उद्देश्य निजी लाभ था‌। इसके लिए मैंने समाजसेवक का छद्म रूप धारण किया था। इस स्थिति में ऐसा हो सकता है कि मुझे वह मिल जाए जिसकी मुझे तलाश है। परंतु मैं अपने कर्म से ईश्वर के समीप नहीं पहुँच सकता हूँ। दुनिया की नज़र में मैं सफल हो सकता हूँ पर सही नहीं हो सकता।
अब बात करते हैं कि इससे मेरा नुकसान क्या है ? सबसे पहले तो जिन लोगों का नाम लेकर मैंने यह सब किया उनका भरोसा हमेशा के लिए टूट जाएगा। यह सांसारिक नुकसान है जिसे किसी तरह से भरा भी जा सकता है। लेकिन वास्तविक हानि आध्यात्मिक रूप से होगी। हमारा लालच हमें मृगतृष्णा में उलझा देगा जिससे निकलना कठिन है।
यह हमें तय करना है कि अपने अस्तित्व को भौतिक मानकर हम सही गलत न सोचकर जीवन को सिर्फ भोग के लिए जिएं या अपने अस्तित्व को सही मायनों में समझ कर ईश्वर के निकट जाने की कोशिश करें।
यही निर्णय निष्काम कर्म करते हुए ज्ञानयोग में स्थित होने का रास्ता दिखाएगा।

हरि ॐ तत् सत्

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