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खेल ----आखिर कब तक ? - Novels
by Vandana Gupta
in
Hindi Women Focused
खेल ----आखिर कब तक ? (1) मन की उद्वेलना हमेशा शब्दों की मोहताज नहीं होती । होती है कोई कोई ऐसी उद्वेलना जिसके बीज मिट्टी में डले तो होते हैं मगर अंकुरित होने के मौसम शायद बने ही नहीं और गुजर जाते हैं जाने कितने सावन और बसन्त, चिता की राख तक पहुँचने तक नही खुलती जुबाँ । कहरों के शहर में बलवा न हो जाए का डर छीन लेता है दिल दिमाग की सुकूनियत और जुबाँ लगाकर खामोशी का ताला छीजती रहती है उम्र भर । रोज रोज होते अनाचार व्याभिचार जगा ही गए मेरी सुप्त ग्रंथि को और
खेल ----आखिर कब तक ? (1) मन की उद्वेलना हमेशा शब्दों की मोहताज नहीं होती । होती है कोई कोई ऐसी उद्वेलना जिसके बीज मिट्टी में डले तो होते हैं मगर अंकुरित होने के मौसम शायद बने ही नहीं ...Read Moreगुजर जाते हैं जाने कितने सावन और बसन्त, चिता की राख तक पहुँचने तक नही खुलती जुबाँ । कहरों के शहर में बलवा न हो जाए का डर छीन लेता है दिल दिमाग की सुकूनियत और जुबाँ लगाकर खामोशी का ताला छीजती रहती है उम्र भर । रोज रोज होते अनाचार व्याभिचार जगा ही गए मेरी सुप्त ग्रंथि को और
खेल ----आखिर कब तक ? (2) सुनते ही आरती की छठी इंद्रिय सचेत हो उठी, एक तिलमिलाहट ने उसके अन्तस को झकझोर दिया, एक साया सा उसकी आँखों के आगे से आकर गुजर गया, अपनी बनायी हद की बेडियाँ ...Read Moreको वो मजबूर हो उठी आखिर उसकी सगी भांजी की ज़िन्दगी का सवाल था । आज हर ताला टूटने को व्यग्र हो उठा, खुद को दी कसम से खुद को मुक्त करने का वक्त था । “ बडी दी, आप से अब जो मैं कहने वाली हूँ, ध्यान से सुनना पूरी बात । शायद ये बात मैं कभी न बताती और