Manto ki badnam kahaniya - Part -2 book and story is written by Saadat Hasan Manto in Hindi . This story is getting good reader response on Matrubharti app and web since it is published free to read for all readers online. Manto ki badnam kahaniya - Part -2 is also popular in Short Stories in Hindi and it is receiving from online readers very fast. Signup now to get access to this story.
मंटो की बदनाम कहानियाँ - पार्ट २ - Novels
by Saadat Hasan Manto
in
Hindi Short Stories
लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा ना घाट का। उन्हों ने आते ही हामिद से कहा। “लो भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंद-ओ-बस्त करो।” हामिद ने कहा। “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।” बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे। “नहीं भाई मुझे थकावट वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ...... सोडा मँगवाओ।”
गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए।
गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही ...Read Moreनज़र आते। लाल, पीले, सबज़, रंगा रंग के....... सब्ज़ी मंडी में खोल के हिसाब से हर क़िस्म के आम आते थे। और निहायत सस्ते दामों फ़रोख़त हो रहे थे। यूं समझिए कि पिछले बरस की कसर पूरी हो रही थी।
कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर ...Read Moreभौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उन को ज़हर दे दिया गया.......एक एक कर के सब मर गए थे। उन की माँ भी....... उन का बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उस की मौत भी यक़ीनी थी।
सख़्त सर्दी थी।
रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी।
गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी ...Read Moreथी। सड़क के दो रवैय्या पस्त-क़द मकान और दरख़्त धुँदली धुँदली रोशनी में सिकुड़े सिकुड़े दिखाई दे रहे थे। बिजली के खंबे एक दूसरे से दूर दूर हटे, रूठे और उकताए हुए से मालूम होते थे। सारी फ़ज़ा में बद-मज़्गी की कैफ़ियत थी। एक सिर्फ़ तेज़ हवा थी जो अपनी मौजूदगी मनवाने की बे-कार कोशिश में मसरूफ़ थी।
टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअल्लिक़ अपने तअस्सुरात बयान किए जिस से उस को अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ ...Read Moreथा। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सब के सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअल्लिक़ थे। महर फ़िरोज़ साहब सब से आख़िर में बोले। आप ने कि अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फ़ौजे हरामदे के नाम से ना-वाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर इस के पल्ले के नहीं थे।
हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।”
हनीफ़ को मालूम ...Read Moreकि वो मुआमला किया है। चुनांचे शाम को उस ने टैक्सी ली। शहाब को साथ लिया। ग्रांट रोड के नाके पर एक दलाल को बुलाया और उस से कहा। “मेरे दोस्त हैदराबाद से आए हैं। इन के लिए अच्छी छोकरी चावे।”
दलाल ने अपने कान से अड़सी हुई बीड़ी निकाली और उस को होंटों में दबा कर कहा। “दक्कनी चलेगी?”