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Manto ki badnam kahaniya - Part -2 by Saadat Hasan Manto | Read Hindi Best Novels and Download PDF

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मंटो की बदनाम कहानियाँ - पार्ट २ by Saadat Hasan Manto in Hindi
Novels

मंटो की बदनाम कहानियाँ - पार्ट २ - Novels

by Saadat Hasan Manto Matrubharti Verified in Hindi Short Stories

(621)
  • 59k

  • 186.7k

  • 310

लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा ना घाट का। उन्हों ने आते ही हामिद से कहा। “लो भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंद-ओ-बस्त करो।” हामिद ने कहा। “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।” बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे। “नहीं भाई मुझे थकावट वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ...... सोडा मँगवाओ।”

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मंटो की बदनाम कहानियाँ - पार्ट २ - Novels

फाहा
गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही ...Read Moreनज़र आते। लाल, पीले, सबज़, रंगा रंग के....... सब्ज़ी मंडी में खोल के हिसाब से हर क़िस्म के आम आते थे। और निहायत सस्ते दामों फ़रोख़त हो रहे थे। यूं समझिए कि पिछले बरस की कसर पूरी हो रही थी।
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फुंदने
कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर ...Read Moreभौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उन को ज़हर दे दिया गया.......एक एक कर के सब मर गए थे। उन की माँ भी....... उन का बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उस की मौत भी यक़ीनी थी।
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फुसफुसी कहानी
सख़्त सर्दी थी। रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी। गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी ...Read Moreथी। सड़क के दो रवैय्या पस्त-क़द मकान और दरख़्त धुँदली धुँदली रोशनी में सिकुड़े सिकुड़े दिखाई दे रहे थे। बिजली के खंबे एक दूसरे से दूर दूर हटे, रूठे और उकताए हुए से मालूम होते थे। सारी फ़ज़ा में बद-मज़्गी की कैफ़ियत थी। एक सिर्फ़ तेज़ हवा थी जो अपनी मौजूदगी मनवाने की बे-कार कोशिश में मसरूफ़ थी।
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फूजा हराम दा
टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअल्लिक़ अपने तअस्सुरात बयान किए जिस से उस को अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ ...Read Moreथा। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सब के सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअल्लिक़ थे। महर फ़िरोज़ साहब सब से आख़िर में बोले। आप ने कि अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फ़ौजे हरामदे के नाम से ना-वाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर इस के पल्ले के नहीं थे।
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फ़ूभा बाई
हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम ...Read Moreकि वो मुआमला किया है। चुनांचे शाम को उस ने टैक्सी ली। शहाब को साथ लिया। ग्रांट रोड के नाके पर एक दलाल को बुलाया और उस से कहा। “मेरे दोस्त हैदराबाद से आए हैं। इन के लिए अच्छी छोकरी चावे।” दलाल ने अपने कान से अड़सी हुई बीड़ी निकाली और उस को होंटों में दबा कर कहा। “दक्कनी चलेगी?”
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फूलों की साज़िश
बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी ...Read Moreउठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़ रख कर अपने साथीयों से मुख़ातब हुआ:। “किसी को कोई हक़ हासिल नहीं कि हमारे पसीने से अपने ऐश का सामान मुहय्या करे...... हमारी ज़िंदगी की बहारें हमारे लिए हैं और हम इस में किसी की शिरकत गवारा नहीं कर सकते!”
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बग़ैर इजाज़त
नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज ...Read Moreमेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इतना कह कर वो मुस्कुराया नज़र हो तो चीज़ें नज़र भी नहीं आतीं आह कि नज़र की बे-नज़री! देर तक वो घास के इस तख़्ते पर लेटा और ठंडक महसूस करता रहा। लेकिन उस की ख़ुद-कलामी जारी थी।
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बचनी
भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के ...Read Moreवो कहाँ तितर बितर हो गई थीं।
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बदतमीज़ी
“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये ...Read Moreपूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना चाहती हूँ” “इस के पूछने की ज़रूरत ही क्या थी बस फ़क़त लड़ाई मोल लेना चाहती हो” “लड़ाई मैं मूल लेना चाहती हूँ कि आप सारे हमसाए अच्छी तरह जानते हैं कि आप आए दिन मुझ से लड़ते झगड़ते रहते हैं।”
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बद-सूरती
साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी। उन के माँ बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश ...Read Moreथी मगर उस के साथ उसे बनना सँवरना भी आता था। उस के मुक़ाबले में हामिदा बहुत सीधी साधी थी। उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल भी पुर-कशिश न थे। साजिदा बड़ी चंचल थी। दोनों जब कॉलेज में पढ़ती थीं तो साजिदा ड्रामों में हिस्सा लेती। उस की आवाज़ भी अच्छी थी, सुर में गा सकती थी। हामिदा को कोई पूछता भी नहीं था।
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बदहशहत का ख़ात्मा
टेलीफ़ोन की घंटी बिजी। मनमोहन पास ही बैठा था। उस ने रीसीवर उठाया और कहा “हेलो....... फ़ौर फ़ौर फ़ौर फाईव सेवन” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई। “सोरी....... रोंग नंबर” मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और किताब ...Read Moreमें मशग़ूल होगया। ये किताब वो तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था। इस लिए नहीं कि इस में कोई ख़ास बात थी। दफ़्तर में जो वीरान पड़ा था। एक सिर्फ़ यही किताब थी जिस के आख़िरी औराक़ करम ख़ूर्दा थे।
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बर्फ़ का पानी
“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी ...Read Moreआज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई इस लिए कि अगर आप अब खुले बंदों अय्याशी नहीं कर सकते शादी से पहले आप को कौन पूछने वाला था जिधरो मुँह उठाया चल दिए झक मारते रहे”
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बलवंत सिंह मजेठिया
शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते ...Read Moreइस के मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता। वो सय्यद थे और मैं एक महज़ कश्मीरी। बहर-हाल, उन से मेरी बे-तकल्लुफ़ी बहुत बढ़ गई। उन को अदब से कोई शग़फ़ नहीं था। लेकिन जब उन को मालूम हुआ कि मैं अफ़्साना निगार हूँ तो उन्हों ने मुझ से मेरी चंद किताबें मुस्तआर लीं और पढ़ीं।
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बस स्टैंड
वो बस स्टैंड के पास खड़ी ए रूट वाली बस का इंतिज़ार कर रही थी उस के पास कई मर्द खड़े थे उन में एक उसे बहुत बुरी तरह घूर रहा था उस को ऐसा महसूस हुआ कि ये ...Read Moreबर्मे से इस के दिल-ओ-दिमाग़ में छेद बना रहा है। उस की उम्र यही बीस बाईस बरस की होगी लेकिन इस पुख़्ता साली के बावजूद वो बहुत घबरा रही थी जाड़ों के दिन थे पर इस के बावजूद इस ने कई मर्तबा अपनी पेशानी से पसीना पोंछा उस की समझ में नहीं आता था क्या करे बस स्टैंड से चली जाये कोई ताँगा ले ले या वापस अपनी सहेली के पास चली जाये।
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बाँझ
मेरी और उस की मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलो बंदर पर हुई शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरणें समुंद्र की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी। जो साहिल के बंच पर ...Read Moreकर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के इस तरफ़ पहला बंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था। दूसरे बंच पर बैठा था। और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंद्र को देख रहा था। दूर बहुत दूर जहां समुंद्र और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं। और ऐसा मालूम होता था। कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है। जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।
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बाई बाई
नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी ...Read Moreपहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थी जिस में ये पन चक्की लगाई गई थी। फातो के बाप को दो तीन रुपय रोज़ाना मिल जाते जो उस के लिए काफ़ी थे। फातो अलबत्ता उन को नाकाफ़ी समझती थी इस लिए कि उस को बनाओ सिंघार का शौक़ था। वो चाहती थी कि अमीरों की तरह ज़िंदगी बसर करे।
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हुस्न कि तख़लीक़
कॉलिज में शाहिदा हसीन-तरीन लड़की थी। उस को अपने हुस्न का एहसास था। इसी लिए वो किसी से सीधे मुँह बात न करती और ख़ुद को मुग़्लिया ख़ानदान की कोई शहज़ादी समझती। Gस के ख़द्द-ओ-ख़ाल वाक़ई मुग़लई थे। ऐसा ...Read Moreथा कि नूर जहां की तस्वीर जो उस ज़माने के मुसव्विरों ने बनाई थी, उस में जान पड़ गई है। कॉलिज के लड़के उसे शहज़ादी कहते थे, लेकिन उस के सामने नहीं, पर उस को मालूम हो गया था कि उसे ये लक़ब दिया गया है। वो और भी मग़रूर हो गई।
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