मृग मरीचिका - Novels
by श्रुत कीर्ति अग्रवाल
in
Hindi Moral Stories
शतरंज की बिछी हुई बिसात पर सबको मोहरा बना कर खेलती हुई प्रकृति कितनी निष्ठुर हो उठी होगी जब उसने मानव मन के अंदर 'प्यास' के अंकुर रोपे होंगे कि अपनी स्थिति से सदैव असंतुष्ट, थोड़ा सा और प्राप्त ...Read Moreलेने की आतुरता में, किसी न किसी मृग मरीचिका के पीछे भागते रहने को अभिशप्त हम, जिस चीज को प्राप्त कर चुके होते हैं, उसका आस्वादन करने तक का वक्त नहीं होता है हमारे पास!
बचपन की न जाने कौन सी नासमझ, अंजान राह पर मेरी भी इस जिजीविषा से मुलाकात हो गई थी। एक थे हमारे देवेन्द्र भइया, जिंदगी भर जिनकी तरफ पूरी आँख उठाकर देखने की हिम्मत तक नहीं जुटा सकी थी मैं! सचमुच उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा जरूर था कि लोग अक्सर उनके सामने पड़ने से कतराते थे। वो खूबसूरत और मँहगे कपड़ों में लिपटा उनका ऊँचा और गठीला शरीर, चौड़ी मूछें, घनी भँवों के बीच पड़े बल और आत्मविश्वास से दीप्त बेहद कठोर दृष्टि! हम लोग तो खैर उस समय बिल्कुल बच्चे थे, अच्छे-अच्छे लोग उनके रोब-दाब के सामने सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते थे।
खंड-1 शतरंज की बिछी हुई बिसात पर सबको मोहरा बना कर खेलती हुई प्रकृति कितनी निष्ठुर हो उठी होगी जब उसने मानव मन के अंदर 'प्यास' के अंकुर रोपे होंगे कि अपनी स्थिति से सदैव असंतुष्ट, थोड़ा सा और ...Read Moreकर लेने की आतुरता में, किसी न किसी मृग मरीचिका के पीछे भागते रहने को अभिशप्त हम, जिस चीज को प्राप्त कर चुके होते हैं, उसका आस्वादन करने तक का वक्त नहीं होता है हमारे पास! बचपन की न जाने कौन सी नासमझ, अंजान राह पर मेरी भी इस जिजीविषा से मुलाकात हो गई थी। एक थे हमारे देवेन्द्र भइया,
- खंड-2 - देवेन्द्र भइया मेरे ताऊ जी के बेटे थे। ताऊ जी ने अपने जीवन काल में पर्याप्त संपत्ति अर्जित कर के अपने इकलौते बेटे को विरासत में दी थी। इसके अतिरिक्त देवेन्द्र भइया स्वयं अँग्रेजी हुकूमत में ...Read Moreबड़े अफसर थे। हजारों लोगों को वहाँ भी उनसे काम पड़ता रहता था जिसके लिए वे लोग देवेन्द्र भइया को अपने सर पर उठाकर रखते थे। ऐसी-वैसी हैसियत का कोई आदमी उनके सामने पड़ने की हिम्मत तक नहीं करता था कि ज़रा-ज़रा-सी बात पर चाबुक उठा लेना उनके लिये मामूली बात थी। जाने कितने लोग उनकी ड्योढ़ी पर केवल सलाम
- खंड-3 - यह सब शायद यूँ ही चलता रहता यदि उन दिनों मैं अपनी चचेरी नन्द के घर एक शादी के उत्सव में न जाती, जहाँ एकाएक अनुसुइया भाभी से भेंट हो गई। वैसे उन्हें पहचानना थोड़ा मुश्किल ...Read Moreथा... कहाँ वो उनकी रूप-यौवन और प्रसाधनों से जगमगाती-महमहाती खूबसूरत काया और कहाँ ये मोटी पुरानी साड़ी में लिपटा जीर्ण और आभूषण रहित शरीर... न हाथों में कड़े, न पैरों में पायल, न माथे पर बिंदिया! एक बार तो जी धक् से रह गया... कहीं देवेन्द्र भइया को तो कुछ नहीं हो गया? पर तभी उनकी माँग पर नजर पड़ी