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पंडीत जी

पंडित जी

यहां के प्रकाण्ड विद्वान पंडितों में अब उनकी गिनती होती है। अधिकांश निवासी क्या बडे, क्या बूढे सब उनके नाम से भली भांति परिचित है। साइकिल से मोटरसाइकिल और फिर कार तक का सफर उन्होंने बस एक दशक में पूरा कर लिया हे। पुरोहितों की परम्परागत (फटीचर) पहचान से परे वह शहर में इकलौते कार से चलने वाले पंडित है। निम्न तबकों में उनकी पुख्ता पहचान ही कार वाले पंडित जी की है। एक समय था जब मोबाइल नया-नया आया था और उसे रखना स्टेटस सिंबल बन गया था। यहां भी एक-आध पुरोहित मोबाइल वाले पंडित जी के नाम से मशहूर हो गये। परन्तु मोबाइल के अत्याधिक चलन के कारण अब वो बेचारे पहचान के संकट से जूझ रहे हैं। वही अपने पंडित निर्मलानन्द पाण्डेय का अन्दाज ही जुदा है-इन्हें ठसक भरे अन्दाज में क्रीम कलर की चमचमाती आइ-टेन से उतरते लोग कौतूहल मिश्रितआशचर्य से देखते है। चूंकि इनके पिता भी इसी पेशे से जुडे थे। बचपन से वह इस माहौल मे पले-बढे। सो, उन्हें धन्धे की अच्छी समझ है, उसकी हर बारीकियां मालूम है।

कन्धे पर बडा सा नारंगी झोला लादे यजमानी में पैदल भ्रमण करने वाले गंवारू पुरोहित पिता ने तन-पेट काट कर किसी तरह से उन्हें अयोध्या भेजा। वहां के एक प्रसिद्ध संस्कृत महाविघालय से उन्हें धर्म-शास्त्र की विधिवत् शिक्षा-दीक्षा मिली। वहीं से आचार्य की उपाधि ग्रहण कर वह वापस लौटे। सिर पर लम्बी चोटी और माथे पर धर्म-ज्ञान के चिन्ह अंकित कर वह पूरे जोशो-खरोश से पुश्तैनी पेशे में कूद पडे। पिता की बनाई पंडिताई की थेडी-बहुत जमीन उन्हें विरासत में मिली थी, जिसे अब विस्तार देने का जिम्मा उनका था-अपनी प्रखर युवा सोच से...… आखिर हर तरह युवाओं का बोल-बाला था..… देश की बागडोर एक युवा के हाथ में थी, तो फिर वह भला पीछे कैसे रहते.....। शुरू से ही उन्होंने एक नियम सा बना लिया था कि वह दान-दक्षिणा के लिए झिक-झिक बिल्कुल नहीं करेंगे।यजमान पूंछते तो वह मंद-मंद मुस्कराते हुए कहते, ’’....यथा सामथ्र्य दे दो भाई...… मैं कोई व्यापार करने थोडे निकला हूं.....’’

उनकी इस स्टाइल के चलते कुछ मुंहलगे लोग उन्हें संतोखी (संतोषी) पंडित के नाम से सम्बोधित करने लगे थे। ये सम्बोधन सुन उन्हें बडा अच्छा लगता था। वह मन ही मन में प्रसन्न हो जाते थे। उन्हें अपनी योजना सफल होती दिखती। दरअसल, दान-दक्षिणा का मोल-भाव न करने के पीछे उनकी व्यवसायिक सोच तो थी ही, पिता के झेले कटु अनुभव भी थे..... उनके पिता मन के बहुत सीधे सरल इंसान थे। पढाई के मामले में साक्षर भर। गांव की प्राइमरी पाठशाला से पांचवी पास। यजमान की पेइंग-कैपसिटी भांप पाना उनके वश की बात न थी। वह सीधी-सपाट सोच रखते थे कि मेहनत की है, तो मेहनताना मांगने में संकोच कैसा ? उनकी इस संकुचित सोच ने उनके कैरियर को भारी नुकसान पहुंचाया, वह बस ग्राम सभा स्तर तक के पुरोहित बनकर रह गये। एक बार की घटना ने उन्हें पुर्नविचार के लिए विवश जरूर किया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी...… वह एक अत्यन्त गरीब परिवार में कथा बांचने गये थे। यादव बिरादरी के उस किसान परिवार के मुखिया ने उनकी बहुत सेवा की। देर तक परात में पानी भरकर उनके दोनों पैरों को दबा-दबा कर धोता रहा और उनकी थकान मिटाता रहा। भोजन में देसी घी की पूडियां परोसी। चलते वक्त उसने पंडित जी से दक्षिणा के बारे में पूछा, तो वह पहली बार चुप रहे। कुछ तो उस गरीब की सेवा का असर था और कुछ वह सोच में थे कि ग्यारह कहे या इक्कीस। उनको सोच में पडा देखकर किसान ने एक पचास का तुडा-मुडा नोट और एक रूपये का सिक्का उनके चरणों में रखते हुए कहा,’’.....बस महराज, इतनै पयरूख (सामथ्र्य !) हय..… असिरवाद देव......’’ उन्हें तपाक से मुंह खोल देने की अपनी आदत पर उस क्षण बडी कोफ्त व झुंझलाहट हुई थी। वह बेहद उदास हो गये थे। वैसे उनकी यह उदासी नई नहीं थी, बरसों पुरानी थी। खासकर पिछले कुछ बरसों से यजमानों का निष्ठुर व्यवहार उन्हें कुंठा का शिकार बनाये दे रहा था। जिन यजमानो के आगे उन्होंने दक्षिणा के लिए मुंह खोल दिया था। वो लोग तभी से उसी लकीर को पकडे बैठे थे। उन्हे फिर से मुंह खोलने का मौका दिये बिना घाघ यजमान लोग अप्रत्याशित फुर्ती से दक्षिणा उनकी ओर बढा देते। अब सामने प्रकट हो चुकी लक्ष्मी जी का निरादर करना वह उचित न समझते और मन मसोस कर उसे रख लेते। एक ओर दक्षिणा के पुराने रेट को ही फिक्स रेट मान लेने की यजमानों की अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति और दूसरी ओर दिनो-दिन विकराल रूप धारण करती जा रही महंगाई ने उन्हे हलकान कर रखा था। ऐसी जटिल परिस्थितियों मे बस कुछ उंगली पर गिने जा सकने भर के सहृदय-उदार यजमानो की दरियादिली के दम पर वह किसी तरह जीवन की गाडी खींचे जा रहे थे। उदास, हताश।

खैर, पिता और गुरूजनों के सान्निध्य से प्राप्त अपार अनुभवों के आधार पर वह जान गये थे कि गरीब तबके में दक्षिणा के लिए मुंह फाडना निरी बेवकूफी है, उन बेचारों के पास जितना होता है ईश्वर के भयवश उतना तो वह दे ही देते है। और ऐसे जजमान जिनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ होती है। उनके आगे मुंह खोलना और भी घाटे का सौदा हो सकता हैं। इनकम टैक्स बचाने के लिए तरह-तरह की तिकडमबाजी करने वाले ये लोग दान दक्षिणा के समय असाधारण रूप से ईमानदार हो जाते है... दान-दक्षिणा का निर्धारण करते वक्त वह अपनी आमदनी में काली कमाई को जोडना कदापि नही भूलते। इस कृत्य के पीछे सम्भवतः उनकी ये सोच होती है कि ईश्वर से तो कुछ छुपा नही होता। कुल मिलाकर इस गूढ तत्व को पंडित जी भली-भांति समझ चुके थे कि ईश्वर का आतंक अमीर-गरीब सभी पर (उनकी पुरोहित बिरादरी को छोडकर) समान रूप से हावी होता है।

कुछ महीनो के अन्तराल में माता-पिता के देहावसान और प्रथम संतान के रूप में पुत्री की प्राप्ति जैसे जीवन के तमाम उतार-चढावों के बीच धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढने लगी थी। दूर-दराज गांव से लोग अनुष्ठान के लिए आमंत्रित करने पहुंचने लगे थे। काम से हाथ बढाने के लिए उन्होंने दो गंवई पंडित पाल लिए थे, जो सतनारायण कथा, हवन, पताका बदलाई जैसे छोटे-मोटे कर्मकाण्ड करा आते और प्राप्त धनराशि का निश्चित हिस्सा पंडित जी के चरणों में रख उन्हें संतुष्ट रखते। उनके कृपापात्रों में रामू नाम का एक नाई भी था। निपट देहाती, भोला, अत्यन्त धार्मिक पर बेहद कर्मठ। रामू उनके धार्मिक अनुष्ठानों में नाई की भूमिका तो निभाता ही था कभी-कभार मौका मिलते पंडिताई के घरेलू कामों में भी हाथ बढा देता। पंडित जी की सेवा तो वह बडे मनोयोग से करता। दिन भर उनके साथ साये की तरह लगा रहता। भोर में कुल्ला कर उनके घर पहुंच जाता। नीम के पेंड से तोडी नरम-नरम कल्ले की दातून हाजिर करता और फिर उनके साबुन-तौलिया रखता। उनके अंतवस्त्रों को धोकर सूखने के लिए डालता। तैयार हो पंडित जी निकलते तो वह बडा सा झोला लादे पीछे-पीछे रहता। रात में रामू देर तक उनके पैर दबाता रहता, जब तक कि उनके खर्राटे की कर्कश ध्वनि रात के सन्नाटे को बीधने न लगती।

रामू पंडित जी के शुरूआती संघर्ष के दिनों से साथ ही उनके साथ जुड गया था। यहां उसकी हैसियत नीव के पत्थर सरीखी थी। इसके बाबजूद उसे कोई निश्चित तनख्वाह नहीं मितली थी। दो जून का भोजन वह पंडित जी के साथ घर बाहर कहीं भी कर लेता था। और उसकी छिटपुट आय करा देने का एक रास्ता पंडित जी ने निकाल रखा था.. कथा-पूजा के पश्चात वह आरती की थाल रामू को बढा देते। उसे लेकर वह एक-एक भक्त के सम्मुख जाता। कुछ क्षण ठिठकता। सिर झुकाकर व हाथ जोडकर आरती लेने के उपरान्त लोग श्रद्धावश जो कुछ छोटे-मोटे सिक्के थाल में डाल देते। वही रामू की उस रोज की कमाई होती। एक मजदूर की दिन भर की औसत कमाई से काफी कम। पर आश्चर्य की बात तो ये थी कि रामू उस अल्प आय से भी संतुष्ट था।भविष्य की चिन्ता फिकिर से कोसो दूर। एकदम से मस्त-मौला। पंडित जी द्वारा दिन भर में कई बार बोले जाने वाले आदर्श वाक्य ’’ संतोषम परम सुखम् ’’ को स्वयं अपने जीवन में भले वह लागू न कर पाये हो, पर उनसे सुन-सुनकर रामू ने उसे जैसे आत्मसात कर लिया था। हां, उस वक्त वह जरूर परेशान हो उठता, जब उसके परिवार का कोई सदस्य बीमार पड जाता। वह पंडित जी की चिरौरी करता तब कहीं जाकर उसे दस-बीस का आकस्मिक सहायता मिल पाती, साथ ही अगले दिन की आरती में से उसे काट लेने की धमकी भी।

रामू के परिवार में पत्नी व दो लडके है। उसके पास पांच बीघा पुश्तैनी जमीन है, जिस पर खेती से परिवार की दाल रोटी आसानी से चल जाती है। उसका बडा लडका सोहन पढने में ठीक-ठाक था। इण्टर पास करने के बाद उसे ग्रामीण डाक सेवा में पोस्टमैन की नौकरी मिल गयी। मेरिट के आधार पर। उसका छोटा लडका मोहन अभी आठवी में पढता था। उसकी पत्नी अत्यन्त परिश्रमी महिला थी, जो घर-गृहस्थी का काम तो संभालती ही, खेतों में जाकर जी तोड मेहनत करती। दोनो बेटे खेती के कामों में मां का हाथ बटाते। एक दिन भोर में रामू की पत्नी उसका रास्ता रोक कर खडी हो गयी, ’’....अब नाही जायक है पंडित कै बेगारी करै..... आपन लरिका कमाय लाग है.. आपन गाय-गोरू देखयो और ठाठ से अपने दुआरे पर बैठयो....’’

’’....हमरे कुल खानदान मा.....सात पुश्त मा कोई सरकारी नौकरी करे है का, नाही न....… सोहन का नौकरी मिली है, तो जानत हव काहे.....बाढय पुत्र पिता के धरमे, खेती उपजे अपने करमे....हमने महराज जी की मन लगाय कै सेवा करी, दिन रात कछु न देखा... उसी सेवा का फल है अपने सोहनवा की गौरमिन्टी नौकरी....’’ रामू पत्नी को जैसे तैसे समझा वहां से निकल लेता।

समय बीतने के साथ पंडित जी के व्यवसाय का दायरा बहुत बढ गया था। उनकी उम्मीद से अधिक। अब तो श्रीमदभागवत कथा के लिए भी उनकी अग्रिम बुकिंग होने लगी थी। कथा कहने की उनकी कला रोचक व प्रभावशाली थी। उन्हें सुनने काफी खासी संख्या में लोग पहुंचते। रामू प्रसन्न था। बेटे सोहन के बाद महराज की सेवा का फल उसे भी मिलने लगा था।अब आरती में सौ-पचास रूपये तक गिरने लगे थे। एक दिन स्थानीय विधायक व राज्य सरकार के कद्दावर मंत्री समर प्रताप के यहां भागवत कथा का आमंत्रण आया, तो तबियत ढीली होने के बावजूद पंडित जी झटपट तैयार हो गये। डाॅक्टर की मियादी बुखार की आशंका और आराम करने की सलाह को दरकिनार करते हुए उन्होंने सोचा कि किसी तरह सात-आठ दिन काट लेगे। यदि शरीर ने साथ न दिया, तो नहाने की जगह जल छिडक कर काम चला लेगे, पर ये मौका हाथ से जाने नहीं देगे। जिनके दर्शन अखबारों में ही सर्वसुलभ होते है। ऐसे महानुभाव, माटे आसामी भला रोज-रोज कहां हाथ लगते है। वहा कथा के नाम पर वह अति उत्साहित थे।दो दिन पहले से ही उसकी व्यापक तैयारियां भी उन्होने शुरू कर दी थी।अधेडावस्था को प्राप्त कर चुके धोती, कुरते, अगौछे के साथ ही साथ बनियान व अण्डरवियर को भी कुछ दिनों का विश्राम देने का अप्रत्याशित फैसला ले लिया उन्होंने। दो जोडे नये वस्त्रों की व्यवस्था की। एक सेट उन्होंने शरीर पर धारण किया और दूसरा ’वी0आई0पी0’ के सूटकेस मे रखा। दैनिक उपयोग की वस्तुओं की सूची मे भी खासा बदलाव हो गया था-दातून की जगह टूथ ब्रश ने और दन्त मंजन की जगह ’क्लोज अप’ टूथपेस्ट ने ले ली थी। साबुनदानी मे ’लक्स’ की जगह ’पियर्स’ की बट्टी सुशोभित हो रही है। गांव के कल्लू मोची से रामू उनके जूते पालिश करवा लाया था। एकदम से चमाचम। बडे ठाट-बाट से पंडित जी मंत्री महोदय के आवास की ओर रवाना हुए। आशा के अनुरूप भागवत कथा का भव्य आरम्भ हुआ। सत्ता की हनक में। बडे तामझाम से। श्रद्धालुओं के बैठने के लिए दो बीघे में बडा सा श्वेत कनातो से बना पंडाल था। कथा सुनने वालों की अच्छी भीड पहले दिन से ही जुटने लगी थी, जिसमें हर दिन गुणोत्तर वृद्धि जारी थी। इस बीच रामू को महसूस हुआ कि पंडित जी का व्यवहार उसके प्रति रूखा हो गया है। वह बात-बात पर उस पर खीझने लगे है। वह समझ नहीं पा रहा कि भला उससे चूक कहां हो रही है। दिन भर तो वह उनके इशारे पर दौडता रहता है। किसी-किसी दिन तो दम मारने की फुर्सत भी नही मिलती उसे। पर इस बारे में पंडित जी से कुछ पूछ पाने की उसकी हिम्मत नही पड रही थी।

मंत्री जी के यहां भागवत कथा का अन्तिम दिन था। कथा कहने पंडित जी फूल मालाओं से सजी ऊंची व्यास गद्दी पर विराजमान हुए तो अवाक् रह गये......इतनी भीड, इतना हुजूम तो उनकी कल्पना से परे था। स्मरण हो आया कि ऐसा जन सैलाब अयोध्या में मानस मर्मज्ञ पंडित राम किंकर उपाध्याय के प्रवचन में एक बार देखा था उन्होने। भारी भरकम चढावे व दक्षिणा की कल्पना कर वह गदगद हो उठे। सामने जमीन पर बिछी महंगी कालीन पर मंत्री जी सपत्नीक हाथ जोडे बैठे थे। भक्ति भाव से सराबोर। एकबारगी उन्हे लगा जैसे चांद आसमान से उतरकर सामने जमीन पर आ बैठा हो। कुछ पल को वह आत्ममुग्धता के शिकार हो उठे और फिर संयत हो कथा-पाठ आरम्भ किया..… कृष्ण-सुदामा प्रसंग था। पंडित जी अपनी रौ में आने की पूरी कोशिश कर रहे थे, पर उनके मन का कोई कोना अशान्त था..… आज जब वह सुदामा की दीन हीन दशा का वर्णन करते, तो रह-रहकर उन्हें उस चरित्र में दशकों पहले वाला बिन बाप का बदहाल रामू दिख जाता..… यदि उस वक्त उसे अपनी शरण में न रख लेता, तो जमीन जायजाद पट्टीदारों ने हडप ली होती और आज रिक्शा खींच रहा होता चण्डीगढ की सडकों पर। तब शादी-ब्याह, परिवार, बाल-बच्चे तो बडी दूर की कौडी होते इसके लिए। और इस भद्रलोक में जहां आज जमा बैठा है, उसके दरवाजे पर ठिठकने तक की औकात न होती इसकी.… रामू के लेकर उठ रहे ऐसे नकारात्मक चिन्तन, जो पंडित जी को बुरी तरह मथे डाल रहे थे, उनकी पृष्ठभूमि में थी- आज गिरने वाली आरती की धनराशि! जो हफ्ते भर का रिकार्ड तोड देने के लिए आमादा दिख रही थी। रामू को मिलने वाली आरती की धनराशि उन्हे आज बहुत अखरने लगी थी। प्रत्यक्ष रूप से वह कुछ कह नही सकते क्यों कि व्यवस्था उनकी ही बनायी हुई थी।वह मन ही मन घुट रहे थे। और अब बात बर्दाशत से बाहर होती जा रही थी।

आरती की थाल आज पंडित जी ने रामू की ओर नही बढाई। वह आश्चर्य विस्फारित नेत्रो से उन्हे देखता रहा और फिर कुछ सोचकर खुद ही थाल की ओर बढा। इससे पहले कि उसके हाथ थाल को छू पाते, पंडित जी की तेज आवाज उसके कानो मे पडी, ’’......रामू ......आरती की थाल तुम नही छू सकते....

’’ काहे महराज...’’ रामू एकबारगी सकते में आ गया था।

’’ तूने स्नान किया है आज.....’’ पंडित जी के इस अप्रत्याशित वार से वह सकपका गया। बिना कुछ कहे सिर झुकाये उसने न नहाने की बात स्वीकार कर ली। ईश्वर की बेदी पर उससे झूठ न बोला गया।

’’...... देखो इस मूरख को .....सारी पूजा भंग करने पर तुला बैठा है...… लालची....’’ पंडित जी ने आस-पास बैठे लोगो को सुनाकर कहा और आरती की थाली अपने कमीशन वाले पंडित की ओर बढा दी।

’’ इस मलेच्छ को देखो.... जरा भी शरम नही है..… घुसा बैठा है यहां.....’’

’’ चल भाग यहां से, नही तो.....’’लोगो ने बढ-चढ कर प्रतिक्रिया देनी शुरू की। पर रामू को जैसे कुछ सुनाई नही पड रहा था। तिरस्कार की आग में धूं-धू कर जलता वह जडवत खडा पंडित जी के चेहरे को घूरे जा रहा था।उसे अपनी आखो पर विश्वास नही हो रहा था.… जिसकी सेवा को वह भगवान की सेवा मानता था.. जिस चेहरे में वह ईश्वर का अक्स देखता था, वही चेहरा अब उसे निरा पत्थर का दिख रहा थ। विश्वासघात, स्वार्थ, लालच, शोषण, ढोंग जैसे कई स्याह धब्बा से भरा। नितान्त संवेदनहीन। तेज कदमो से पंडाल के बाहर निकलकर उसने घर की राह पकड ली। पंडित जी का पावन सानिध्य पाने के पश्चात् जिसको उसने कभी अहमियत न दी। वही घर, पत्नी, बेटे, आंगन में तुलसी का बिरवा, दरवाजे पर नीव की छांव तले बंधी झबरी गाय.... सभी कुछ उसे एक-एक कर बडी शिद्दत से याद आ रहे थे। आज वह बहुत जल्द अपने घर की दहलीज पर पहुंच जाना चाहता था।

प्रदीप मिश्र

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