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Mayamrug by Pranava Bharti | Read Hindi Best Novels and Download PDF

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मायामृग by Pranava Bharti in Hindi
Novels

मायामृग - Novels

by Pranava Bharti Matrubharti Verified in Hindi Love Stories

(67)
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  • 13

यूँ तो सब ज़िंदगी की असलियत से परिचित हैं, सब जानते हैं मनुष्य के जन्म के साथ ही उसके जाने का समय भी विधाता ने जन्म के साथ ही जाने का समय भी लिखकर भीतर कहीं पोटली में रख ...Read Moreगया है कैसी है न यह पोटली जो अंतिम क्षण तक खुलती ही तो नहीं कितनी मज़बूत गाँठें लगाई होंगी न रचनाकार ने और कितनी सारी भी जो ताउम्र उसे अपने भीतर समेटे एक नीम-बेहोश हालत में जीते हैं हम ! उसके साथ बहुत वर्षों से यह हो रहा है, एक अजीब सी गफ़लत उसे घेरे चलती रही है खूब-खूब प्रसन्न व आनंद में है किन्तु जब सड़क पर लोगों को चलते हुए देखती है यकायक शेक्सपियर याद आ जाते हैं

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मायामृग - Novels

मायामृग - 1
यूँ तो सब ज़िंदगी की असलियत से परिचित हैं, सब जानते हैं मनुष्य के जन्म के साथ ही उसके जाने का समय भी विधाता ने जन्म के साथ ही जाने का समय भी लिखकर भीतर कहीं पोटली में रख ...Read Moreगया है कैसी है न यह पोटली जो अंतिम क्षण तक खुलती ही तो नहीं कितनी मज़बूत गाँठें लगाई होंगी न रचनाकार ने और कितनी सारी भी जो ताउम्र उसे अपने भीतर समेटे एक नीम-बेहोश हालत में जीते हैं हम ! उसके साथ बहुत वर्षों से यह हो रहा है, एक अजीब सी गफ़लत उसे घेरे चलती रही है खूब-खूब प्रसन्न व आनंद में है किन्तु जब सड़क पर लोगों को चलते हुए देखती है यकायक शेक्सपियर याद आ जाते हैं
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मायामृग - 2
सुधरना इतना आसान होता तो बात ही क्या है ? ” यह फुसफुसाहट उसके मन की भीतरी दीवारों पर सदा से टकराती रही है और वह सोचती रही है आखिर ये है कौन और क्यों उसे टोकती रहती है? ...Read Moreशिक्षित शुभ्रा पूरी उम्र इस फुसफुसाहट का अर्थ समझ पाने में असमर्थ रही जबकि वह उसे सदा चेताती रही थी जो कुछ भी उसके जीवन में घटित हुआ संभवत: न होता यदि उसने इसके भीतर छिपे गूढ़ अर्थ को समझ लिया होता किन्तु कैसे होता ? जब हम यह जान लेते हैं कि प्रत्येक घटना का होना सुनिश्चित है तब परिस्थितियों से उपजे संत्रास को तथा स्वयं को कोसना बंद कर देने में ही समझदारी लगती है
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मायामृग - 3
उदय के बड़े भाई साहब जब विदेश गए थे तब ऐसा हंगामा उठा मानो विदेश में कहीं राष्ट्रपति बनकर गए हों इतना दिखावा कि बस खीज आने लगती शुभ्रा को, चाहे विदेश में जाकर मजदूरी ही करते ...Read Moreलोग लेकिन विदेश में जाकर बसना ---यानि गधे के सिर पर सींग उग आना वैसे बड़े भाई साहब तो ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ पर गए थे जबकि विदेश जाने के लिए उन दिनों लोग कितनी-कितनी परेशानियाँ झेलने के लिए तैयार होते थे और मेहनत–मज़दूरी करने के लिए तैयार रहते, कहीं न कहीं से पैसे का इंतजाम करते, चाहे ज़मीन-जायदाद क्यों न बेचनी पड़ जाए
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मायामृग - 4
बुखार भर से उनका इस प्रकार उठ जाना किसी के लिए भी पचा पाना कठिन था जीवन को बहुत नाप-तोलकर जीने वाले उदय की दूरदृष्टि बहुत पैनी थी इसी कारण जब उन्हें पता चला था कि उनका ...Read Moreउदित एक गुजराती लड़की के पीछे पगला गया है, वे बहुत असहज हो उठे थे उम्र का यह दौर बहुत नाज़ुक होता है, न किसीको मना किया जा सकता है, न कोई प्रतिबन्ध ही लगाया जा सकता है और तुरंत स्वीकारने में भी अड़चन ही आ जाती है वैसे उदय कोई बहुत संकुचित विचारों के भी नहीं थे पर जिस परिवार में उदित शादी करने की बात कर रहा था, वह परिवार कुछ विवादित था जिसके बारे में उदय अपने विवाह से पहले जानते थे और परिवार के बारे में कुछ अधिक अच्छे विचार नहीं बना पा रहे थे
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मायामृग - 5
गांधारी ने तो पति के कारण पट्टी बांधी थी यहाँ तो माँ ने अपनी आँखों पर बेटे के मोह में पट्टी बांधी थी और पिता की आँखों पर भी भ्रम के जाले लगवा दिए थे वैसे कोई ...Read Moreबात तो है नहीं यह पट्टी तो अधिकतर हरेक माँ-बाप की आँखों पर बंधी रहती है किया भी क्या जा सकता है ? मनुष्य को परिस्थिति के अनुसार ही निर्णय लेने पड़ते हैं, उसीमें ही समझदारी होती है आज के दौर में यह नाज़ुक स्थिति अधिकांशत: प्रत्येक माता-पिता के समक्ष आ ही जाती है जिसमें निर्णय ‘हाँ’ अथवा ‘न’ दोनों ही बहुत शीघ्र नहीं लिए जा सकते
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मायामृग - 6
इस बीच उदय के छोटे भाई के ह्रदय-रोग से पीड़ित हो जाने के कारण उदय व शुभ्रा को इलाज़ के लिए उसे लेकर मद्रास जाना पड़ा उदय का छोटा भाई भी सरकारी नौकरी में था और उसे ...Read Moreसभी सुविधाएँ प्राप्त थीं उन दिनों गुजरात में ह्रदय के ऑपरेशन की बहुत अधिक सुविधा नहीं थी ह्रदय-रोग का इलाज़ गुजरात की अपेक्षा मद्रास में अधिक सुचारू रूप से किया जाता था सरकारी सुविधा होने के कारण मद्रास ले जाने का निर्णय ही सबको उचित लगा उदय बहुत जल्दी घबराने वालों में से थे अत: उन्होंने उत्तर प्रदेश से अपनी छोटी बहन को व बड़ी बहन के बेटे को भी अपने साथ मद्रास चलने के लिए बुला लिया था उदय बहुत ढीली प्रकृति के थे, उन्हें अपने साथ अधिक लोग देखकर सांत्वना प्राप्त होती थी
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मायामृग - 7
आखिर शादी का समय आ ही गया, परिवार में एक ही बेटा था और परिवार बड़ा ! सभी लोग इस विवाह में सम्मिलित होने देश-विदेश से आए, खूब रौनक रही जब वधू ने घर में प्रवेश किया और ...Read Moreकार की डिक्की से एक अटैची निकली तब उदय की सबसे बड़ी बहन से न रहा गया मुख पर आश्चर्य के भाव लाते हुए वे बोल ही तो पड़ीं “”अरे! ऐसे भी कोई बहू आती है ? ? ” उन पर तो ठेठ उत्तर-प्रदेश का प्रभाव था ”
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मायामृग - 8
अपनी विषम परिस्थतियों में घिरे गर्वी के पिता बहुत अधिक ‘ड्रिंक’ करते थे वे अपने क्लिनिक में बैठकर खूब पीते और कई बार गिरते-पड़ते अपने घर आते शुभ्रा ने उनकी इस स्थिति के बारे में सुना ...Read Moreबहुतों के मुख से था किन्तु जब गर्वी का संबंध उसके अपने बेटे से होने की बात आई, उसका गर्वी के घर यदा-कदा जाना होने लगा तब उसे पता चला कि गर्वी के पिता कभी स्कूटर से गिर जाते, कभी कहीं और टक्कर खाकर गिर पड़ते और चोटें खाते रहते उसने कई बार उनके मुह व शरीर की बहुत बड़ी व गहरी चोटें देखी थीं
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मायामृग - 9
उदय प्रकाश के विदेश में रहने वाले भाई के कोई सन्तान नहीं थी वे प्रत्येक वर्ष अथवा दो वर्षों में एक बार भारत आते थे उनकी पत्नी बंगाली से इसाई धर्म में परिवर्तित परिवार से ...Read More कुल मिलाकर उदय प्रकाश पाँच भाई थे जिनमें बड़े भाई साहब वर्षों से विदेश में रह रहे थे वे सभी भाईयों के परिवारों में जाकर अपना स्नेह दिखाने व अपनी संपत्ति के बारे में बघारने का प्रयास करते पिछले कई वर्षों से वे भारत आ रहे थे जबकि उनकी पत्नी भारत आना कम पसंद करती थीं हाँ, विवाह-शादियों में वे कई बार अवश्य आई थीं किन्तु शादी के घर में एक-दो दिन रहकर अधिकतर सभी लोग उदय के घर आकर पन्द्रह-बीस दिन, कभी-कभी महीने भर भी ठहरते थे, जिसमें उदय तथा शुभ्रा को बहुत प्रसन्नता प्राप्त होती थी
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मायामृग - 10
उदित पहले किसी गैर-सरकारी कार्यालय में काम कर रहा था, उसके अन्दर बड़ा बनकर जीने की एक तृष्णा थी बड़े बनने की एक भूख! जिसने उसे कई बार असफ़लताओं के मार्ग दिखाए थे उदय की ...Read Moreथी उनका बेटा जिस नौकरी में लगा है, वहीं जमा रहे कंपनियाँ उसे सहर्ष काम करने के लिए आमंत्रित करतीं और उसके काम को खूब सराहा जाता, कुछ दिनों में वह ‘प्रोजेक्ट-हैड’ बना दिया जाता किन्तु उदित को स्वयं को बड़ा बनने, देखने-दिखाने की भूख कुछ अधिक ही थी पता नहीं यह उसके मित्रों के वातावरण के कारण था अथवा उसके प्रारब्ध में ही यह सब था
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मायामृग - 11
उदित अपने स्वभावानुसार नौकरियाँ बदलता रहा था, विवाह के लगभग दो वर्षों के बाद शहर से बाहर भी दो-तीन वर्ष दोनों पति-पत्नी रह आए थे पास ही थे अत: या तो वे दोनों आ जाते अथवा उदय ...Read Moreगर्वी उनके पास एक-दो दिन के लिए चले जाते ठीक ही कट रहा था समय ! समय आवाज़ नहीं करता, बेआवाज़ ही सबका मोल-भाव चुका लेता है उदित जिस कंपनी में जाता, अपना स्थान बहुत जल्दी बना लेता और वहाँ एक ऊँची ‘पोज़ीशन’बना लेता शनै: शनै: यहीं से ही उसे अपना स्वयं का काम करने की धुन सवार हो चुकी थी, कितना समझाया गया किन्तु उसकी समझ में आया ही नहीं तब तक उदय भी नौकरी कर रहे थे और शुभ्रा भी
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मायामृग - 12
व्यवसाय में असफलता के फलस्वरूप उदित का पीना बढ़ गया था दोनों पति-पत्नी में पहले भी झगड़े होते थे अब अधिक होने लगे थे सभी पहचान वालों व मित्रों को लगता कितना सामंजस्य है दोनों ...Read Moreदूसरी जाति व राज्य के होने के उपरांत भी परिवार को कैसे बांध रखा है ! उस समय ईंट की दीवारों में जान लगती थी, एक मुस्कान व सकारात्मक उर्जा पसरी रहती कितने ही लोग तो कहते
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मायामृग - 13
जब कई वर्षों के बाद बेटी वापिस वहीं आ गई थी उदय को मानो किसीका कंधा मिल गया था सिर रखने के लिए अब, जबकि वे रहे ही नहीं हैं शुभ्रा कई बार सोचती है कि उदय ...Read Moreकंधे पर सिर रखकर चैन की साँस क्यों नहीं ले सके? इसका उत्तर भी शुभ्रा को स्वयं में ही मिल जाता है ‘इस लायक होती शुभ्रा तब रख पाते न उदय उसके कंधे पर अपना सिर, कोई सहारा तो दिखाई देता उन्हें पत्नी में, वह तो उन्हें सदा कमज़ोर ही दिखाई दी थी, स्वयं को किसी आवरण से छिपाती हुई सी, खोखली दलीलों में साँसें लेती हुई ज़बरदस्ती की हँसी मुख पर चिपकाए’ !!
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मायामृग - 14
मन को संभालने का उदय का एक कारगर उपाय यह था कि वो किसी भी नर्सरी में जा पहुँचते और पेड़-पौधों से बातें करने लगते उनसे पूछने लगते कि क्या वे उनके साथ उनके घर चलेंगे? वहां ...Read Moreमालियों से खूब देर तक झक मारते रहते हरेक पौधे के पास जाकर उसका नाम, पता, ठिकाना पूछते और जितना संभव होता अपने स्कूटर पर उन्हें सजा-संवारकर बड़ी कोमलता से घर ले आते फिर शुरू होती शुभ्रा की और उनकी चूं–चूं जिसमें शायद उन्हें बहुत आनन्द भी मिलता था इसीलिए वे पौधों को ऎसी जगह छिपाकर रखते जहाँ शुभ्रा का ध्यान कम ही जा पाता जब शुभ्रा की दृष्टि नव-पल्लवित पौधों पर पड़ती तब पति के सामने मुह बनाकर भी वह मन से भीग जाती
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मायामृग - 15
झंझावत पल रहे थे ह्रदय में, हूक उठ रही थी हृदयों में, पूरे परिवार में एक भी ह्रदय ऐसा नहीं था जो सामान्य साँसें ले रहा हो सबकी अपनी-अपनी व्यथा-कथा थी जो भीतर ही भीतर सबको सुलगा ...Read Moreथी, अपने-अपने कर्मों के अनुसार परिणाम की राह सभी देख रहे थे उदित दवाईयों के नशे में रहता था और कभी-कभी इतनी अजीब व घबरा देने वाली क्रियाएँ करता कि शुभ्रा के होश उड़ने लगते, बीमार उदय का चेहरा उदित की स्थिति देखकर और उतर जाता वे बार-बार एक ही बात की रट लगाए रखते
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मायामृग - 16
उदय प्रकाश के बाद दिन–रात दोनों ही सूखे बादलों से आच्छादित रहने लगे, व्यर्थ हो गए थे शुभ्रा के लिए काफ़ी कमज़ोर भी हो गई थी, बीमारी का प्रभाव जाने में अभी समय लगने वाला था ...Read Moreबहुत दिनों तक हर रोज़ आवाजावी करती रही, बाद में शुभ्रा ने ही मना कर दिया कि बहुत हो गया था, अब उसे अपना घर भी तो देखना था आखिर कब तक वह बेटी को परेशान करती? अब यह अलग बात है कि वह अपने घर भी रहकर माँ के बारे में परेशान ही होती रहती बिखर गया था घर बिलकुल, जीवन के कोई चिन्ह ही नज़र नहीं आते थे
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मायामृग - 17
उदय के जाने के बाद शुभ्रा की बड़ी सी मित्र-मंडली उसे इस पीड़ा से दूर रखने के सौ-सौ उपाय करती कभी उसे अपने घर बुला लेना, कभी उसके पास ही आ जाना, कभी किसी होटल में तो ...Read Moreकिसी न किसी कार्यक्रम में वे सब उसे ज़बरदस्ती ले जाते शुभ्रा के मुख पर उदासी पसरी देखकर उसके मित्र भी उदास हो उठते “जीवन में सबके साथ यही होना है, कोई पहले तो कोई बाद में, सबको जाना है ---” काफ़ी दिनों तक तो वह मन ही मन घुटती रही फिर ऐसे क्षण भी आए जब वह स्वयं को रोक न सकी
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मायामृग - 18 - Last part
सच तो है ‘ज़िंदगी जीने के योग्य नहीं रह गई है’ आपके रिश्ते, आपके संबंध, आपकी किसीके प्रति वफादारी तब तक ही है जब तक आप उसके लिए कुछ करने में समर्थ हैं अन्यथा आप एक ऐसे मूर्ख व्यक्ति ...Read Moreजिसे एक तथाकथित समझदार, होशियार व्यक्ति की दृष्टि में जीने का भी संभवत: कोई अधिकार नहीं है अब यूँ तो समझदारी की अपनी-अपनी परिभाषाएं बना लेता है मनुष्य ! और अनेक भ्रमों में जीता रहता है वह सामने वाले को मूर्ख समझ व बना सकता है और रिश्तों की उधड़न को एक सिरे से दूसरे सिरे तक खींच सकता है, वह ब्रह्मा बन जाता है, सृष्टि का पालक ! वह त्रिनेत्र बन सकता है, वह सामने वाले को फूँक सकता है, उसके भीतर से निकलने वाले धुंएँ से लिपटकर स्वयं को स्याह करने में उसे कोई हर्ज़ नहीं लगता, हाँ!
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