Mayamrug - 18 - Last part books and stories free download online pdf in Hindi

मायामृग - 18 - Last part

मायामृग - 18

सच तो है ‘ज़िंदगी जीने के योग्य नहीं रह गई है’ आपके रिश्ते, आपके संबंध, आपकी किसीके प्रति वफादारी तब तक ही है जब तक आप उसके लिए कुछ करने में समर्थ हैं अन्यथा आप एक ऐसे मूर्ख व्यक्ति हैं जिसे एक तथाकथित समझदार, होशियार व्यक्ति की दृष्टि में जीने का भी संभवत: कोई अधिकार नहीं है | अब यूँ तो समझदारी की अपनी-अपनी परिभाषाएं बना लेता है मनुष्य ! और अनेक भ्रमों में जीता रहता है | वह सामने वाले को मूर्ख समझ व बना सकता है और रिश्तों की उधड़न को एक सिरे से दूसरे सिरे तक खींच सकता है, वह ब्रह्मा बन जाता है, सृष्टि का पालक ! वह त्रिनेत्र बन सकता है, वह सामने वाले को फूँक सकता है, उसके भीतर से निकलने वाले धुंएँ से लिपटकर स्वयं को स्याह करने में उसे कोई हर्ज़ नहीं लगता, हाँ!सामने वाले का मुख अवश्य काला होना चाहिए |इसके लिए चाहे उसे कितना ही श्रम क्यों न करना पड़े, कितना ही कुछ खोना क्यों न पड़े ! वह स्वयं भी पीड़ा भोगता है किन्तु अपने अहं के कारण सहज रहना उसके लिए संभव नहीं हो पाता, संभवत: यह उसके वश में न हो .......पता नहीं.....सारा मायाजाल उसकी आँखों के समक्ष तैरने लगता है.....!! और उसके भीतर घुटन के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता ---एक धुंध भरा आकाश ओढ़कर वह साँसें लेता रहता है |

शानी दी ने उसकी बात सुनकर लंबी श्वाँस खींचकर बहुत सहज व गंभीर शब्दों में कहा था ;

“”कौनसा युग ऐसा रहा है जिसमें कोई अनहोनी घटना न घटित हुई हो ? यह तो जीवन है, वह भी कलियुग ....और यही इसके लिए बहुत है| वैसे कलियुग को ही क्यों दोष देना ? हर युग में संताप देने वाले घटना-चक्र हुए हैं और सबको अपने-अपने हिसाब-किताब संभालने पड़ते रहे हैं|किसीका किसीके साथ क्या संबंध, कैसा, क्यों ?.........कोई कुच्छ नहीं जानता | जब सामने घटनाएँ आती हैं तब हम सोचने के लिए बाध्य होते हैं | अरे ! क्या यह भी संभव हो सकता है? सत्य हो सकता है? संभव-असंभव, सत्य-असत्य की परिभाषा कुछ भी नहीं है .....बस जो सामने है, वही सत्य है और सामने है तो संभव भी है ...”!एक अंतहीन पीड़ा महसूस होती है, जगत से छूटने की छटपटाहट !किन्तु मनुष्य को तब तक साँस लेनी हैं जब तक उसके भाग्य में लिखी गईं हैं |

शानी दी इतनी प्यारी व समर्थ महिला जो बहुत कम समय में किन्तु काफ़ी बड़ी उम्र में उसके बहुत-बहुत करीब हो गईं थीं, कई ऎसी बीमारियों से घिर गईं थीं कि उनके सुन्दर व्यक्तित्व की कल्पना में भी उन्हें उन बीमारियों से जुड़ा हुआ सोचा भी नहीं जा सकता था किन्तु यह सत्य था, वे किसी से भी अपनी बीमारी की बातें सांझां नहीं करती थीं, उन्होंने शुभ्रा को बताया था और कहा था;

“कल्पना कर सकती हो ?”

वह उनका मुख देखती रह गई थी, आँखों में आँसू भरे उनकी मुस्काती मुखाकृति को देखती रह गई थी |संपन्न परिवार की महिला को कुछ ऎसी बीमारियों ने घेर रखा था जिनका कहीं कोई उपचार ही नहीं था, संसार भर में ये बीमारियाँ गिने-चुने लोगों को ही होती थीं |कितनी अमीर थीं शानी दी ! शुभ्र की आँखों में जलजला सिमट आया |कुछ न कुछ तो होना ही है जीवन में फिर ??

न जाने कितने-कितने प्रश्न बिखर जाते हैं मनुष्य के पास जो उसे घेरकर खड़े रहते हैं, जन्म से लेकर अंतिम प्रहर तक के चित्र उसके दिल में, आँखों में आते-जाते हैं |मैं कौन हूँ?क्या हूँ?मुझे इसका पता नहीं ....करते –करते मनुष्य अपनी आयु की अंतिम सीमा पर आ खड़ा होता है और सोचने लगता है.. क्या इसीलिए उसने जन्म लिया था, यह सब भोगने के लिए ?किन्तु जन्म लेना अथवा न लेना क्या उसके हाथ में है?देखा जाय तो जीवन कितना सुन्दर है, वो भी मनुष्य-जन्म, कहा जाता है कि मनुष्य का जन्म न जाने कितने-कितने जन्मों के बाद, न जाने कितनी-कितनी कृपाओं से, न जाने कितने-कितने सद्कर्मों से प्राप्त होता है ....वह शानी दीदी के सामने रो पड़ी थी;

””अगर मेरे हाथ में जन्म लेना या न लेना होता तो शायद मैं धरती पर पहला व्यक्ति होती जो जन्म लेती ही नहीं ...” यदि गलतियाँ की भी हैं तो उन्हें कैसे सुधारे ?क्या करे ऐसा जो वो दिन वापिस आ जाएँ !!

बीते हुए चित्र उसकी आँखों के सामने भरभराकर खुलने लगे और आँसुओं का अंबार कुछ ऐसे झरने के रूप में आवेग से फूट पड़ा मानो कहीं बाढ़ आ गई हो |अभी तक उसकी आँखें नम होकर रह जाती थीं, बस उनके न रहने पर फूटी थी वह फिर गुम हो गई थी |कुछ समय बाद महसूस होने लगा मानो ‘वे’ उसके साथ ही हैं और अपनी उन बातों के उत्तर उससे माँग रहे हैं जो उन्होंने उससे  कई-कई बार पूछी थीं, बताने की चेष्टा, समझाने का प्रयास किया था |भविष्यदर्शी थे वे लेकिन उसकी आँखों पर तो ऐसा स्याह पर्दा पड़ा हुआ था जो उसे सदा रंग-बिरंगा लगता |उनके न रहने पर वह उन पर्दों से कतराकर चलने लगी है किन्तु उजाले-अँधेरे उसके पीछे हाथ धोकर पड़े ही रहते हैं | सच ही है, कभी-कभी वास्तविकता को पहचानने में इतनी देरी हो जाती है कि बस ........फिर कुछ नहीं !!

ठूँठ सा मन भीतरी गलियारों में चक्कर काटता हर पल सोचता ही रहता है, उससे कहाँ, क्या गलत हुआ है? क्या मनुष्य इतने लंबे अन्तराल तक छद्म रिश्तों को रेशम की डोरी समझकर उनमें लिपटा रह सकता है?रिश्ते ...जैसे मकड़ी के जाले जिन्हें निकालना आवश्यक अन्यथा ........

जीवन भरा रहता है समस्याओं से, यह कोई नई बात नहीं किन्तु इन समस्याओं का समाधान इस पर निर्भर करता है कि हमारा सलाहकार कौन और कैसा है?क्या वह केवल स्वयं के बड़प्पन का ढोल पीटने के लिए सलाह दे रहा है?अथवा सामने वाले को सलाह देकर उसके होने वाले परिणाम पर ताली पीटना चाहता है.दांत  फाड़कर हँसना चाहता है ?अपना कोई उल्लू सीधा करना चाहता है या सच में ही वह शुभचिंतक होता है ?

शुभ्रा ने कभी भी अकेली गर्वी की गलती मानी ही नहीं, वह सदा से यही कहती आई है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती फिर उसके इतने गहरे विश्वास की डोर कैसी टूटी कि पति के बाद वह जिंदगी के हिंडोले में अधमरी सी झूलती रह गई |उदय के न रहने का झटका वह सह रही थी, जानती थी कि यह जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है किन्तु उनके जाने के बाद की अपनी ऎसी स्थिति की तो उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी जिसमें से आज वह गुज़र रही थी|जिस गर्वी पर उसे स्वयं से, अपने बेटे-बेटी से भी अधिक विश्वास था वह उसके सामने एक पहेली बनकर खड़ी हो गई थी | सच है, हम इस दुनिया में अपने भोग भोगने आए हैं, जिन्हें कैसे भी हमें भोगकर ही अपने वास्तविक घर में लौटना है |कितना भी प्रयास क्यों न कर लें हम इस भोगने से पीछा नहीं छुड़ा सकते |शुभ्रा को लगने लगा था जीवन माया है, सच है, किन्तु इसका होना, न होना दोनों ही सच हैं | यह है भी और नहीं भी है, यह वास्तविकता भी है और स्वप्न भी है, यह हल्का भी है और भारी भी है |

“डरती हो बेटे से -----“याद नहीं आ रहा था उसे गर्वी ने किस बात पर कहा था |

“क्यों डरूंगी?” पर उसे लगता है डर उसके चेहरे पर पसर जाता है, चेहरा क्यों फक्क पड़ जाता है उसका अगर नहीं डरती है तो ?वह जानती है कि वह शोर तक से डरती है, किसी से ज़ोर से बोलना उसे नहीं आया, जवाब देना नहीं आया |अब इसे डर कह लें या शराफ़त !

“बुढ़ापा कैसे कटेगा ?इसीलिए डरती हो -------” शुभ्रा भौंचक्की होकर देखती ही तो रह गई थी गर्वी का मुख !उसे तो लगा था कि गर्वी उसके पास है तो उसे किसी भी बात की चिंता करने की कोई ज़रुरत ही नहीं है |

गर्वी की एक-एक बात टूटकर, चटखकर उसे आकाश के किसी झरोखे से रिसती हुई प्रतीत होती है|संबंधों की डोरी की गाँठों को इस तरह उलझाकर देखना उससे कभी कहाँ हो पाया था ?सीधा-सपाट जीवन, खुली हुई पुस्तक सी उसकी यात्रा उसे अब भावनाओं के जाल में फँसाकर तड़पा रही है |उसके मन में अब भी आशा-निराशाओं के ज्वार उठ-बैठ रहे हैं |ये तल्खियाँ जो उसे बाध्य करती हैं अपनी स्थिति सोचने के लिए धड़कती हैं उसके सीने में बवंडर बनकर |उसके सीने में वो आवाज़ मचल रही है जो बिन आवाज़ है | उसके मन के टूटने की सरहद पर पहुंचे तंबूरे आस की रोशनी के लिए टकटकी लगाए बैठे हैं |मन कहता है सब भ्रम है, किसीसे कोई मोह नहीं, कोई वास्ता नहीं, कोई शिकवा-शिकायत भी नहीं ----फिर भी एक कोने में सुबकता मन उसे कुरेदता रहता है ‘क्या अब इसका कोई समाधान नहीं है ?’

उदय के उस स्नेहिल परिवार की कल्पना आज  भी शुभ्रा अपनी सपनीली आँखों में कर रही है| वह किसीके बीच की कोई ज़ंजीर नहीं बनना चाहती, उसका कुछ नहीं है, वह कहीं भी रहकर अपने बचे-खुचे दिन निकाल लेगी |वैसे भी अब उसे इस मोहपाश से विरक्ति हो रही है |कैसा है यह दुनिया का महाजाल जो मायामृग की भांति अपनी ओर आकर्षित करके सबको मुड़ी-तुड़ी जिंदगी जीने के लिए विवश करता रहता है |परिवार ----? परिवार बनता है प्रेमल व्यवहार से, एक-दूसरे के सुख-दुःख में शरीक होने से, परवाह  से ----युवावस्था में नहीं, परिवार की व उसकी देखभाल की अधिक आवश्यकता होती है वृद्धावस्था में |युवावस्था में तो मनुष्य जूझकर भी जी लेता है, उम्र की वृद्धावस्था का पड़ाव बहुत कठिन होता है, उसमें भी अकेले पड़ने के बाद जैसे शरीर का सारा सत्व ही पिघलकर बह जाता है |

ज़िन्दगी का उसूल है कभी-कभी वह इतनी रूठ जाती है कि समय ही नहीं देती कुछ ठीक करनेका | शुभ्रा ने न किसीका बुरा चाहा, न चाहेगी ---क्यों चाहे आखिर ? सभी किसी न किसी के बच्चे होते हैं | ऐसे लगता है मानो जीवन के दिन मुट्ठी में भरे हुए हैं कब पँख लगाकर उड़ जाएं कुछ पता नहीं |सबको ही जीवन एक बार मिलता है, इसलिए सबको ही अधिकार है प्रसन्नता से जीने का|उसे अब अविरल विश्राम की आवश्यकता महसूस होने लगी है |उम्र के पड़ाव की थकन ने उसकी यात्रा को कठिन बना दिया है |घर-घर मटियाले चूल्हे हैं, वह जानती है |कितने चूल्हों की आग दिखाई देती है तो कितनों की नहीं दिखती, इनकी आग भी कई तरह की होती है जो कहीं जलती है तो कहीं सुलगती है या कहीं ठंडी भी पड़ जाती है, राख बनकर उड़ जाती है |उसके मन का तंबूरा उसे बुलाता है पर उसकी एक आस उसे जिलाए रखे है, सबको साथ मिलकर रहते हुए देखने की आस ! एक-दूसरे पर फिर से उगता सूर्य सा देदीप्यमान विश्वास जो उर्जा देता है, जीवन में शक्ति का संचार करता है, जीने के लिए आँखों में स्वप्न भरता है |

जब तक रिश्तों के प्रति आदर-सम्मान न हो तब तक कोई रिश्ता टिकना संभव नहीं होता | किसी भी रिश्ते की बुनियाद सम्मान है, इसीसे परवाह का जन्म होता है, प्यार तो बहुत बाद की बात है| हाँ, शारीरिक ज़रूरतें ज़रूर पूरी हो जाती हैं जिसे हम प्यार का नाम देकर स्वयं ही को धोखे में रखते रहते हैं, निरा भ्रम, मायाजाल ! कितनी देर में समझ में आया था और अभी भी कहाँ छूट पा रही थी| जीवन साँझ-सवेरे के बीच लुढ़कती फुटबॉल की भांति लगने लगा था उसे, जिन बहारों में महकती साँस ली थीं उन्हीं बहारों में विष सा घुल गया था |एक-एक पत्ता उसे अपना मुह चिढ़ाता नज़र आता|

वो जो ऊपर बैठा है वह कैसा शिल्पकार है, कैसा चित्रकार है जो सभीको विभिन्न रंगों से रंगता रहता है और एक रंग-बिरंगी दुनिया का निर्माण करता है, कभी न समाप्त होने वाली दुनिया ! यह कभी हो ही नहीं सकता कि मनुष्य कीकर बोकर आम का स्वाद ले, उसे कीकर के काँटों की चुभन सहनी ही होती है |इसीलिए वह जो हमारे दिल में है हमें बार-बार टहोके मारता रहता है

शरीर पर लगा घाव  भर जाता है परन्तु आत्मा पर लगा घाव आसानी से नहीं भरता, वह सबकी ही बात कर रही है |इस जीवन में सबके सुख, दुःख, सबके लेन-देन ही होने हैं और हम इसीलिए इस माया–नगरी में जन्मते हैं, एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, एक-दूसरे में प्यार, स्नेह, करुणा, ईर्ष्या, घृणा बाँटते हैं और स्वयं भी पाते हैं किन्तु इस मृगमयी दुनिया का आकर्षण हमें नहीं छोड़ता |कुछ बनाया ही है इसे ऐसा विधाता ने !सबके मन घावों से भरे थे जिनसे निकलने की छटपटाहट सबके मन में ज्वर-भाटा के समान उथल-पुथल हो रही थी | दवाईयों के प्रभाव ने उदित में जो असहजता भर दी थी, उससे उबरने का कोई उपाय उसे दिखाई नहीं दे रहा था |वह जिम जाने लगा, बहन के घर उसका जाना बढ़ गया |जो उदित बहन –बहनोई के घर पर आने के समय भी अपने कमरे में पड़ा रहता था, वह अब इतना बहन के घर जाने लगा कि शुभ्रा को लगा कि इस प्रकार बेटी के परिवार में कोई अडचन न हो जाए ! वह भयभीत थी और बेटी के परिवार में अपनी अथवा उदित की अधिक उपस्थिति के पक्ष में नहीं थी | दीति का अपना परिवार है, परिवार की अपनी मन:स्थितियां हैं, उसके पति का स्वभाव बिलकुल अलग है |इस प्रकार उसके परिवार पर कुछ लादा जाना ठीक नहीं था, दीति के पति बिलकुल अलग प्रकार के व्यक्ति थे, सब कुछ बिलकुल साफ़ रखने में विश्वास करने वाले, उन्होंने इन भाई-बहनों की बातों में रूचि लेनी भी छोड़ दी थी | गर्वी का व दीति का मनमुटाव तो पहले हो ही चुका था|उसने तो शुभ्रा को भी कह दिया था ;

“पड़ जाओ जाकर अपनी बेटी यहाँ, पड़ी तो रहती हो -------“इस बात ने शुभ्रा के मन को कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया था |वही मन का तंबूरा ----खड़कने लगा भीतर ! जितनी सहायता दीति भाई की कर सकती है, करेगी किन्तु वह अपने परिवार से अलग होकर तो कुछ नहीं कर सकती थी, ठीक भी नहीं था |वह अपने परिवार में अपने परिवार की आवश्यकताओं, परिवार के लोगों के अनुसार अपना जीवन ढाल चुकी थी |एक ही बात को बारंबार सुनने में दीति के पति असहज हो उठते थे और उस समय दोनों भाई-बहनों के बीच बहुत स्वाभाविक था कि पापा अथवा उदित के परिवार के अतिरिक्त कोई अन्य चर्चा हो ही नहीं पाती थी |

तरह तरह से समझाने की कोशिश की शुभ्रा ने उदित को !पहले तो वह समझने की कोशिश ही नहीं करता था, दुनियादारी से कोसों दूर उदित जैसे किसी और ही लोक का वासी था |किन्तु जब उसने देखा कि उसकी माँ ने भी अपना वहाँ जाना कम कर दिया है तब उसकी मोटी बुद्दि में शायद कुछ आने लगा था | मनुष्य जब कभी किसी दुविधा में होता है तब अधिक खाना शुरू कर देता है, यह शुभ्रा के साथ भी था |जब वह संस्थान में काम करती थी तब उसके एक मित्र थे डॉ.बैनर्जी ! बहुत प्यारे व्यक्तित्व के मालिक बैनर्जी उसे सदा ‘डॉ.श्रीमती शुभ्रा उदय प्रकाश ‘कहकर पुकारते और उससे  हँसकर पूछते ;

“मैं ऐसा सोचता हूँ, आपको इससे बड़ा नाम नहीं मिला ?”

शुभ्रा हँस पड़ती थी, जानती थी कि बैनर्जी साहब उसे केवल शुभ्रा कहकर तो बुलाएँगे नहीं फिर क्या फायदा था ? दोनों साथ ही ‘लंच’ लेते, दोनों के पी.ए भी साथ ही बैठते थे |

“डॉ.श्रीमती शुभ्रा उदय प्रकाश ! आज आप मिष्ठान में क्या लाई हैं ?”मिठाई खाने के खूब शौकीन बैनर्जी नए-नए स्वादिष्ट बंगाली मिष्ठान लेकर आते और उससे उत्तर-प्रदेश के पकवान खिलाने की फ़रमाइश करते रहते थे जिसे वह संभव होने पर पूरा भी करती थी |संस्थान में जितना समय भी शुभ्रा ने व्यतीत किया, बहुत सुखद था |

“डॉ.श्रीमती शुभ्रा उदय प्रकाश ! हमको भूख बहुत लगता है, आपको भी क्या ?पत्नी कहती हैं ‘जल खाबो’, बोलिए जल से कहीं इतना बड़ा मटका भरता है ?” वे अपने गोल पेट पर हाथ फिराते और सबको ज़ोर से हँसी छूट पड़ती |

शुभ्रा को अचानक ही बैनर्जी याद हो आए थे, अब तो बेचारे वे भी नहीं रहे थे | वह उदित को अधिक न खाने के लिए कहती, वह बाहर भटकता और बहुत खाता !अपने को थकाने व मोटापा कम करने के लिए उसने जिम में प्रवेश ले लिया | जिम में उसे कई मित्र भी मिले जो उसकी मानसिक अवस्था से कुछ ही दिनों में परिचित हो गए थे |कभी कोई उसके साथ पिक्चर देखने चला जाता, कभी कोई खाना खाने !इनमें से एक मित्र उसके साथ जुड़ने लगी|कुछेक माह में उसकी मित्रता अधिक होती गई और क्रमश: शुभ्रा को लगा कि वह उसके जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग बनने लगी चुकी | अपने परिवार, बच्चों के स्नेह को प्राप्त करने के प्रयास में भटकता हुआ उदित अब कुछ सामान्य दिखाई देने लगा था |उदित ने माँ से पूछा  भी था कि क्या वह अपनी मित्र के साथ कॉफ़ी पीने चला जाए ?बेटे का सामान्य होना शुभ्रा के लिए बहुत महत्वपूर्ण था, उसने कुछ झिझकते हुए उसे स्वीकृति दी थी | सामान्य होने के साथ ही अब उदित आध्यात्म की ओर मुड़ने का प्रयास करने लगा था |वह माँ को समझाता ;

“आप शरीर हैं क्या ?आप आत्मा हैं और आत्मा की न किसीसे दुश्मनी है, न ही दोस्ती ---“

शुभ्रा ने स्वयं भी बेटियों को अपने पास लाने की चेष्टा की किन्तु वह हो ही नहीं पाया और शुभ्रा सोचने के लिए बाध्य थी कि भाग्य से अधिक चाहने की इच्छा व्यर्थ है, हमें वही कार्य पूरा करके लौटना है जिसके लिए हमें यहाँ भेजा गया है, उसीके परिणाम स्वरूप हमें जो भी मिलता है हमारे अनुकूल ही मिलता है | यह प्रकृति का नियम है कि अगर हम धरती में बीज नहीं उपजाते तो उसमें अनचाही घास उत्पन्न हो जाती है जिसे उखाड़ने में हमारा श्रम व समय दोनों नष्ट होते हैं अत: यदि सोच समझकर बीज बोएं तो वे हमारे मन में सकारात्मकता पैदा करते हैं |लेकिन ऐसा होता कहाँ है ?होता तो वही है जो ललाट पर लिखा होता है |ये ज़िंदगी ही तो हमारी गुरु है जो हर पल हमें नए अनुभवों के माध्यम से सिखाती रहती है और हमें अधिक परिपक्व करती रहती है फिर भी हम वही पाते हैं जो हमारे लिए लिख दिया गया है---और शनै:शनै: यह जीवन के कगार पर आकर खड़ी हो जाती है |

परिवार की बातें, प्रश्नों के उत्तर, उलझाव सोचते हुए वह थक चुकी थी |उसके पास अब शारीरिक व मानसिक साहस नहीं रह गया था |कितनी बार वह जीवन की इस तलछट में अपनेको समेटेगी ? उसका मन शान्ति चाहता था और उदित कह रहा था कि शांति पचड़ों में पड़ने से कैसे मिलेगी? प्रश्न का उत्तर तो ठीक ही था |शुभ्रा को मन से महसूस होता, वह किसीको भी दोष देने की अधिकारिणी नहीं है |घर सबकी सहमति से, सबकी कुर्बानी से, सबकी परवाह से बनता है|परिवार टूट चुका था, एक सराय रह गई थी जिसमें जब तक साँसें थीं सबको अपने शरीर को आराम देने के लिए आश्रय मिल रहा था |गर्वी को अपने बच्चों को बड़ा करना था, उदित के बच्चे होकर भी नहीं थे |सबने अपनी-अपनी राह खोज ली थी जीने की !!

शुभ्रा ने एक लंबी श्वाँस ली, अपने दोनों हाथों को आकाश की ओर लंबा कर दिया, उसकी आँखें मुंद गईं थीं, किसी भी प्रकार का परिताप उसके मुख पर चिन्हित नहीं था, जो कुछ होना था हो चुका था और जो होना होगा हो जाएगा |मन से केवल यही भाव निकल रहे थे किसीका भी बुरा न हो, गलत न हो, सब सुखी रहें, यह जीवन कर्मक्षेत्र है जो केवल स्नेह, प्रेम व मर्यादा से ही जीता सकता है |और जीत भी क्या ?अपने अपने हिस्से का पात्र पूरी ईमानदारी से खेला जाना ही  महत्वपूर्ण है अन्यथा किसी और को तो बाद में, सबसे पहले स्वयं किरदार निबाहने वाले को ही ऎसी कष्टदायक अजस्त्र धारा में बहना पड़ता है जिसमें केवल आहों और आँसुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता|मायाजाल की देहरी से शुभ्रा ने अपने पाँव निकाल लिए, मन में सबके प्रति कृतज्ञ होते हुए उसने आकाश के सभी तत्वों को झुककर प्रणाम किया और न जाने कौनसे अनभिज्ञ रास्ते पर निकल गई, सोचते हुए ‘संभवत:अब जितनी भी शेष है, उसमें वह किसी मायामृग के आकर्षण में न फँसे, ईश्वर उसे इतना बल दे !’

ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानी परिता बभूव |यत्कामास्ते जुहुमस्तन्यो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम !!

उस प्रभू से कोई भी तो भिन्न नहीं है, जड़ और चेतन सब उसकी ही तो रचना हैं |इस विश्वका ये सुन्दर साज उसने ही तो सजाकर रखा है |बिना स्वार्थ का यदि अनुराग हो तो संभवत; मनुष्य का जीवन सफल हो सके !!

अंतिम सत्य शून्य है, उसके अतिरिक्त क्या ?उसके मन ने सोचा और वह एक ओर चल दी, उसे किसी दिशा का कोई बोध नहीं था !

शुभ्रा के मन में निम्न भाव उथल-पुथल हो रहे थे  ;

कोई किसी का न कुछ चुरा सकता है, न किसीको परेशान कर सकता है, न किसीको पीड़ा पहुंचा सकता है, यह मनुष्य है जो स्वयं ही अपनेको परेशान करता है | मनुष्य को ईश्वर अथवा प्रकृति ने किसी विशेष काम  के लिए भेजा है, वह उसको पूरा करना ही है |प्रकृति के नियम के विरूद्ध चलने से कभी किसी का भला नहीं हुआ है | योग ही जुड़ना है जो जीव के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, टूटने में तो क्षण नहीं लगता|उसे नहीं पता था, वह अब क्या जोड़ पाएगी ?किसका जोड़ पाएगी? एक ही स्थान पर चित्त टिका था ---बस, ईश्वर उसे मार्ग दिखाए |कुछ देर वह एक पुलिया पर बैठ गई, शरीर थकान से चूर हो रहा था |

वह अपनी डायरी में लिख रही थी;

कितने पृष्ठ पलटकर देखे
जीवन की इस पुस्तक के
सब ही मटमैले पाये हैं।
भरे हुए सब दंशों से 
चिंदी-चिंदी उड़ जाते हैं

क्योंकर ये तूफ़ानों में
रह जाती हैं बस आवाज़ें 
रहें गूंजती कानों में। 
ऊब हो गई सुनते-सुनते 
ये तेरा, ये मेरा है 
तू भी जाने, मैं भी जानूँ 
जोगी वाला फेरा है।
हम सब जोगी इस दुनिया के 
किस पल क्या घट जाना है 
प्रेम-पियाला मिलकर पी लें 
ये ही एक खज़ाना है। 
जो आया है, जाना उसको 
शाश्वत सत्य मुखर होता 
प्रेम-सुधा का करें आचमन 
जीवन तभी अमर होगा।

अब उसके कदम अनजान रास्तों पर बढ़ते जा रहे था, वह स्वयं भी नहीं जानती थी, जाने कहाँ ??

डॉ.प्रणव भारती